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अनुसन्धान- ५९
१०. समय से जैनदर्शन मुजब कालनो अन्तिम सूक्ष्मतम निर्विभाज्य अवयव छे. ११. वास्तवमां आ आखी प्ररूपणा मत्यादि ४ ज्ञान अने चक्षुः व. ३ दर्शनोने अनुलक्षीने समजवानी छे. पण सरळता खातर फक्त मतिज्ञान - श्रुतज्ञानने अनुलक्षीने ज समजावी छे..
१२. असङ्ख्य समयोनुं अन्तर्मुहूर्त थाय छे.
१३. सागरोपम अ कालना ओक बृहत् खण्डनुं नाम छे.
१४-१५. टिप्पण नं. २मां जणाव्युं तेम "जुगवं दो नत्थि उवओगा' 'मां उपयोगनो
अर्थ सभानता छे. केवलज्ञान अने केवलदर्शननां आवरणोनो साथे क्षय थाय अटले केवलज्ञान अने केवलदर्शन साथे ज जन्मे ओवी युगपद्वादीनी वात चोक्कस साची छे. किन्तु अत्रे ध्यानमा राखवानी बाबत से छे के आ ज्ञानदर्शन क्रियात्मक छे, उपयोगात्मक नहीं. क्रियात्मक केवलज्ञान - दर्शनना साहचर्यनो इन्कार तो खुद क्रमवादी पण न करी शके. केमके पूर्वे जणाव्यं तेम क्रियात्मक ज्ञानदर्शन आत्माना मूळभूत गुणो छे अने मूळभूत गुणोनी पर्यायधारा अखण्ड वर्ते छे. परन्तु क्रमवादीनी केवलज्ञानोपयोग अने केवलदर्शनोपयोग साथे न होवानी वात पण यथार्थ छे. कारण के एकसाथे केवलज्ञान - दर्शनरूप उभयक्रियामांथी कोई ओक ज क्रियामां आत्मा सभानपणे वर्ती शके तद्रूप परिणति पामी शके ओवी आत्मानी तथास्वभावता छे. आ रीते विचारीओ तो क्रमवादयुगपद्वाद परस्परना विरोधी नथी, पण प्रमाणव्यवस्थानुं साचुं चित्र स्पष्ट करवामां परस्परना पूरक बने छे.
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१६. वि.भाष्य-टीकामां अभेदवादना मन्तव्यमां स्तुतिकारना नामे मलधारीजीओ प्रस्तुत पद्य उद्धृत कर्तुं छे. हवे स्तुतिकार तरीके श्वेताम्बर परम्परामां सिद्धसेनसूरिजीनी प्रसिद्धि छे. तेथी आ परथी बे तारण काढी शकाय : १. प्रस्तुत पद्य दिवाकरजीनुं छे. २. मलधारीजी दिवाकरजीने अभेदवादी गणता हता. १७. मलयगिरिजीओ तो नन्दीसूत्रनी टीकामां युगपवादनी तमाम दलीलो ज वादी, सिद्धसेन व.ना मुखे बोलावी छे. तो तेओने फक्त अभ्युपगमवादथी ज युगपवाद सम्मत छे अवुं कई रीते गणी शकाय ?
१८. “ मतिज्ञानादिषु चतुर्षु पर्यायेणोपयोगो भवति, न युगपत् । सम्भिन्नज्ञानदर्शनस्य भगवतः केवलिनो युगपत् सर्वभावग्राहके निरपेक्षे केवलज्ञाने केवलदर्शने चाऽनुसमयमुपयोगो भवति ।” तत्त्वार्थभाष्य १.३१
१९. “तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् ।
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क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृतम् ॥" -आप्तमीमांसा
“तत्र सकलज्ञानावरणपरिक्षयविजृम्भितं केवलज्ञानं युगपत्सर्वार्थविषयं करणक्रमव्य