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जून - २०१२
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१. टीकाकार भगवन्ते युगपद्वाद प्रत्ये दर्शावेली आपत्ति, जो अ ज रीते
विचारीओ तो, भेदाभेदवादमां पण लागु पडे तेम छे. केम के तेमां पण जोवू अने जाणवू स्वरूपतः क्रियारूपे तो भिन्न ज छे, बन्नेना विषयो पण परस्पर पृथग् ज छे. अने जो त्यां कथञ्चिद्अभिन्नता स्वीकारी आ आपत्तिनुं निराकरण शक्य होय, तो ओ रीते कथञ्चिअभिन्नता युगपद्वादमां पण शक्य छे ज. 'हंदी'नो अर्थ ज नथी को. आ अव्यय कोइक वातनो प्रतिवाद थई रह्यो छे ओ वातनो सूचक छे. टीकाकार भगवन्ते स्वयं २.९ना अर्थमां ओने ओ रीते दर्शाव्यो छे. माटे ओ रीते जोईओ तो अत्रे उत्तरार्धमां पूर्वार्धनो जवाब छे. पण टीकाकर भगवन्ते अत्रे अने ध्यान पर ज नथी
लीधो. उपरथी उत्तरार्धना विधानना हेतुरूपे पूर्वार्धना विधानने देखाड्युं छे. ३. ‘एगसमयम्मि वयणवियप्पो न संभवइ'नो अर्थ 'अकसमयमां जोयेलुं अने
जाणेलं केवली बोले छे अq वचनविशेष नथी घटतुं.' अवो करवो
क्लिष्ट लागे छे. ४. 'अकसमयमां जोयेलुं अने जाणेलं केवली बोले छे' अर्बु शास्त्रवचन पण
मळवू मुश्केल छे, जेनी अनुपपत्तिनो दोष आपी शकाय.
तेथी समग्रपणे विचारतां चाली रहेली युगपद्वाद (-भेदाभेदवाद)क्रमवादनी चर्चा मुजब आ गाथानो आवो अर्थ करवो युक्तिसङ्गत लागे छे :
पूर्वार्ध - (युगपद्वादी क्रमवादीने) तमारा मते जोवू अने जाणवू ओकसाथे होतुं नथी. तेथी तमारा मते केवली भगवन्त कायम माटे जे पण बोलशे ते कां तो जाणेलं नहीं होय कां तो जोयेलुं नहीं होय. माटे केवली जोया अने जाण्या वगर ज बोले छे ओवी आपत्ति तमारा मतमां आवशे.
उत्तरार्ध - (क्रमवादी युगपद्वादीने) तमे दर्शावेली आपत्ति तो साची ठरत के जो वचनविकल्प अक समयमा सम्भवतो होत. कारण के अक समयमां ओक ज उपयोग अमने मान्य होवाथी ते समयमां बोलाता वचननी विषयभूत वस्तु जोया के जाण्या वगरनी होई शकत. परन्तु वचननो उद्भव अन्तर्मुहूर्तमां थाय छे. अने अन्तमुहूर्तमां तो केवलज्ञान अने केवलदर्शन बन्ने