Book Title: Shravakvrat Darpan
Author(s): Kundakundacharya
Publisher: Swadhyaya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक व्रत दर्पण प.पू.मा.श्रीकुन्दकुन्द सूरिजीम. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकवत दर्पण लेखक : ___ शान्तमूर्ति पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय कुन्दकुन्द सूरीश्वरजी म. सा. अनुवादक : चांदमल सोपारणी प्रकाशन - प्रेरक : विद्वद्वर्य पूज्य पंन्यासप्रवर श्री वज्रसेन विजयजी म. सा. सम्पादक : पूज्य मुनिश्री रत्नसेन विजयजी प्रकाशक स्वाध्याय संघ C/o Indian Drawing Equipment Industries Shed No. 2, Sidco Industrial Estate Ambattur-Madras-600 098 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४४, पुस्तक का नाम : श्रावकवत दर्पण | लेखक-परिचय आशीर्वाददाता : सौजन्यमूर्ति पू. प्राचार्यदेव श्रीमद | परमपूज्य शासन-प्रभावक विजय प्रद्योतन | गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् सूरीश्वरजी म.सा./ विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. प्रावृत्ति : प्रथम के शिष्य रत्न अध्यात्मयोगी पूज्यप्रकाशन-तिथि : प्राषाढ़ सुव १४, | पाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रं कर विजय जी गणिवर्य के शिष्य रत्न शान्तमूर्ति दि. २८-७-८८ (चातुर्मास प्रारम्भ पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय दिवस) | कुन्दकुन्द सूरीश्वरजी म. सा. । * प्राप्ति-स्थान * 1. Shantilal D. Jain C/o Indian Drawing Equipment Industries Shed No. 2. Sidco Industrial Estate Ambattur—Madras-600 098 दुर्लभ डी. जैन Ph. 227851 C/o Indian Drawing Equipment Industries 214. Shri Venkateshwara Market Avenue Road, Banglore-560 002 A.V. Shah & Co. (C.A.) Ph. 344798 408, Arihant, 4th Floor; Ahmedabad Street Iron Market-Bombay-400 009 छगनराजजी गेनमलजी चोपड़ा खाड़ियों का बास, बाली (राज.) 306 701 कांतिलाल मुणत १०६. रामगढ़, आयुर्वेदिक अस्पताल के पास रतलाम (M.P.)457 001 अाराधना-धाम मु.पो. वडालिया सिंहण, ता. जामखंभालिया, जिला-जामनगर (सौराष्ट्र) कनकराज पालरेचा C/o गंगाराम मुल्तानमल, कपड़े के व्यापारी रानी, जिला- पाली (राज.) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक की कलम से... परमपूज्य जिनशासनप्रभावक गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. के शिष्यरत्न अजातशत्रु अणगार वात्सल्यवारिधि पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकर विजयजी गरिणवयंश्री के असीम कृपापात्र शिष्यरत्न शान्तमूर्ति पूज्य प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय कुन्दकुन्द सूरीश्वरजी म. सा. ने गुरुकृपा के बल से बाल-जीवों के लिए गुजराती भाषा में एक सौ से भी अधिक उपयोगी पुस्तकों का आलेखन कर महान् उपकार किया है । हिन्दी भाषी प्रजा भी उनके गुर्जर - साहित्य का रसास्वादन कर सके, इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर वर्षों पूर्व उनके गुर्जर - साहित्य में से कुछ पुस्तकों के हिन्दी अनुवाद का कार्य हुआ था और उसमें से 'नमस्कार - चिन्तामरिण' पुस्तक का प्रकाशन भी हुआ था । नमस्कारमहामंत्र की आराधना / साधना में विशेष उपयोगी मार्गदर्शन का उस पुस्तक में सुन्दर सकलन था और इसी कारण वह प्रकाशन हिन्दी - क्षेत्र में अत्यन्त ही लोकप्रिय बना था । 60000 पूज्य आचार्य भगवन्त हिन्दीभाषी प्रजा के हितार्थं हिन्दी साहित्य को प्रकाशित कराने के लिए समुत्सुक थे परन्तु काल को कुछ और ही मंजूर था "बहुत ही अल्पकालीन बीमारी में वे सम्यक् समाधिपूर्वक स्वर्ग सिधार गए । ****** ( ३ ) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यपादश्री के स्वर्ग-गमन के बाद उनके अधूरे मनोरथ को पूर्ण करने के लिए और जनकल्याण की मंगलमय भावना से प्रेरित होकर स्वर्गस्थ पूज्यपाद प्राचार्य भगवन्तश्री के लघु गुरु-भ्राता पूज्य मुनिराज श्री महासेन विजयजी म. की सत्प्रेरणा से उन्हीं के सांसारिक सुपुत्र और स्वर्गस्थ पूज्यपाद प्राचार्य भगवन्तश्री के शिष्यरत्न विद्वद्वयं पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री वज्रसेन विजयजी म सा. अपना कर्त्तव्य अदा कर रहे हैं । पूज्य पंन्यास श्री वज्रसेन विजयजी म. अपने गुरुदेव और प्रगुरुदेवश्री के गुर्जर-साहित्य के सम्पादन/प्रकाशन कार्य में अविरत संलग्न हैं। प्रस्तुत पुस्तक का हिन्दी अनुवाद अजमेरनिवासी चांदमलजी सीपाणी ने किया है। वे धन्यवाद के पात्र हैं । पूज्य पंन्यास श्री वज्रसेन विजयजी म. की सत्प्रेरणा से प्रस्तुत पुस्तक का सुव्यवस्थित सम्पादन-कार्य पू. मुनि श्री रत्नसेन विजयजी म सा. ने किया है। हमें प्राशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि प्रस्तुत प्रकाशन भी, हमारे पूर्व प्रकाशनों की भांति अत्यन्त ही लोकप्रिय बनेगा और इस प्रकाशन में से जीवनोपयोगी/ साधनोपयोगी मार्गदर्शन प्राप्त कर व्यक्ति सन्मार्ग के पथ पर आगे बढ़ेंगे। प्रस्तुत प्रकाशन में अर्थसहयोगी श्रीमती मणिबेन पूजालाल कचराभाई, थोका-केन्यानिवासी धन्यवाद के पात्र हैं। . व्यवस्थापक स्वाध्याय संघ, मद्रास Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे लोकप्रिय हिन्दी प्रकाशन लेखक : अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यासप्रवर श्री भद्रंकर विजयजी गरिणवर्य १ महामंत्र की अनुप्रेक्षा (MLBD प्रकाशित ) २ प्रतिमा पूजन ३ ४ ५ ६ ८ ε ७ परमात्म दशन १० ११ M नमस्कार मीमांसा जैनमार्ग परिचय चिन्तन की चिनगारी चिन्तन के फूल ह चिन्तन की चांदनी चिन्तन का अमृत आपके सवाल हमारे जवाब जिनभक्ति (MLBD प्रकाशित ) १२ समत्वयोग की साधना लेखक : मुनिश्री रत्नसेन विजयजी म. वात्सल्य के महामागर १ ३ चत्यवन्दन सूत्र विवेचना ४ आलोचना सूत्र विवेचना ५ वंदित्तु सूत्र विवेचना ६ आनन्दघन चौबीसी विवेचना ७ कर्मन् की गति न्यारी τ मानवता तब महक उठेगी मानवता के दीप जलाएँ जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है ११ चेतन ! मोह नींद अब त्यागो १० १२ शान्त सुधारस हिन्दी - विवेचन सामायिक सूत्र विवेचना (द्वितीय श्रा . ) २०.०० ८०० अप्राप्य अप्राप्य ४.५० ५.०० ५.०० ६.०० ७.०० ७.०० प्रेस में "" 31 अप्राप्य ५.०० अप्राप्य ७.०० ५. " ० २०.०० ८.०० ७.०० ८.०० ८.०० ε.00 प्रेस में * मुख्य प्राप्ति स्थान 5 १. स्वाध्याय संघ, C/o I.D. Equip Industries, Ambattur Madras. २. कांतिलाल मुरणत, १०६ रामगढ़, आयुर्वेदिक अस्पताल के पास, रतलाम (म. प्र. ) ४५७००१ 3. A.V. Shah & Co., 408 Arihant, Ahmedabad Street, Iron Market, Bombay 400009 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक की अन्तर्यात्रा जीवात्मा की अनन्त-यात्रा में मानव-जीवन एक छोटा-सा पड़ाव है। पड़ाव कोई लक्ष्य-बिन्दु नहीं है। ""वह तो विश्राम-स्थल है। थकान से चकवूर पथिक मार्ग में वृक्ष के नीचे विश्राम करता है । क्यों ? शक्ति पाने के लिए (To gain energy) हां! उस विश्राम में भी शक्ति-संचय का कार्य जारी ही रहता है। 'विश्राम' का उद्देश्य तो प्रागे बढ़ने का, लक्ष्य तक पहुँचने का होता है । अनन्त की इस यात्रा में महान् पुण्योदय से हमें दुर्लभ मानव-जीवन मिला है। इस अल्पकालीन जीवन में हम साधना के उन शिखरों को सर कर सकते हैं कि जिसके फलस्वरूप प्रल्प भवों में शाश्वत-पद के भोक्ता बन सकते हैं। मात्मा की तिजोरी में अक्षय-रत्न पड़े हुए हैं । परन्तु हाँ ! रत्नों का उपयोग तो वही कर सकता है Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसके पास चाबी है। चाबी के अभाव में, उस तिजोरी की भी कितनी कीमत ? परम-गुरु परमात्मा/सद्गुरु हमें वह चाबी दिखाते हैं | बतलाते हैं, इतना ही नहीं, प्रदान भी करते हैं। चाबी हाथ लगने के बाद उन रत्नों का हम सदुपयोग कर सकते हैं । प्रस्तुत प्रकाशन में, स्वर्गस्थ पूज्यपाद आचार्य देव श्रीमद् विजय कुन्दकुन्द सूरीश्वरजी म. सा. ने जीवनोपयोगी/माधनोपयोगी सफल /सुन्दर मार्गदर्शन प्रदान किया है। अणुव्रत का पालक साधक साधना के पथ पर आगे बढ़ता हुआ सर्व-विरति के पय को पार कर मुक्ति मजिल तक पहुंचता है । व्रत-पालन से पाप-मल का आगमन बन्द होता है । जप-साधना से चित्त का शोधन होता है । विरति-धर्म से प्रास्रव द्वार बन्द होते हैं । जप-साधना में पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होती है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं । किसी की भी उपेक्षा उचित नहीं है । • व्रतपालन द्वारा जीवन को साधनामय बनाकर, सभी आत्माएँ मुक्तिमार्ग में मागे बढ़ें, इसी शुभेच्छा के साथ -मुनि रत्नसेन विजय Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. सं. १ ४ ५ ८ १० ११ १२ १३ १४ १५ श्रावकव्रत दर्पण अनुक्रम क विषय श्रावक के बारह व्रतों का स्वरूप हिमाणुव्रत सत्याणुत्रत चर्याणुव्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत परिग्रहपरिमाणव्रत दिग्विरति गुरणव्रत भोगोपभोगमान गुणव्रत अनर्थदण्डविरमण गुणव्रत सामायिकव्रत देशावका शिकव्रत पौषधव्रत अतिथि संविभागव्रत बारह व्रतों के प्रतिचारों का त्याग व्रतों में प्रतिचारों से बचने का उपाय महाश्रावक 000 पृ.सं. १ १० १४ १५ १८ १६ २० ३५ ३६ ३६ ३७ ३७ ३८ ३६ ४१ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम् ॥ श्रावकवत दर्पण (श्रावक के बारह व्रतों का स्वरूप) 'श्राद्ध-दिन-कृत्य' में श्रावक शब्द का अर्थ बतलाते हुए पू. देवेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज फरमाते हैं कि श्रद्धालुतां श्राति जिनेन्द्रशासने , धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् । करोति पुण्यानि सुसाधु-सेवना दत्तोपि तं श्रावकमाहुरुत्तमाः॥१॥ 'श्रा' शब्द से भगवान के शासन में श्रद्धा को परिपक्व बनावें। ____'व' शब्द से पात्र में निरन्तर अपने धन को लगाव । 'क' शब्द से साधु-महात्माओं की सेवा द्वारा पुण्य का उपार्जन करें। धावक-१ . श्रावकव्रत दर्पण-१ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपर्युक्त तीन गुण जिसमें हों उसे उत्तम पुरुष श्रावक कहते हैं । श्रावक गुणनिष्पन्न शब्द है । उपर्युक्त तीनों गुरणों को धारण करने वाला चाहे कोई भी हो, फिर उसे भाव से श्रावक कहा जा सकता है; जबकि सिर्फ श्रावक कुल में उत्पन्न हुआ हो परन्तु उपर्युक्त गुण उसमें न हों तो वह नाम मात्र के लिए ही श्रावक कहा जाएगा । अब 'शृणोति इति श्रावक : ' अर्थात् जो सुने उसका नाम 'श्रावक', इस प्रकार श्रावक शब्द की व्युत्पत्ति होती है । प्रश्न यह होता है कि क्या सुनना ? जगत् में सुनने को तो बहुत कुछ है और सुनाने वाले भी सैकड़ों हैं । इसलिये इसका भी स्पष्टीकरण देते हुए पू. देवेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज बतलाते हैं कि संपत्त दंसराइ, पइदियहं जइजरगा सुणेय । समायारि परमं, जो खलु तं सावगं बिति ॥ १ ॥ अर्थ - जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है, ऐसा कोई मनुष्य प्रतिदिन साधु-जन के पास साधु-समाचारी ( मुनियों के पवित्र जीवन सम्बन्धी चर्या) और श्रावक - समाचारी ( श्रावकों के कर्त्तव्य ) श्रवण करता है वह मनुष्य निश्चय से श्रावक कहा जाता है । श्रावक-धर्म का पालन करने की इच्छा वाले को बारह व्रत स्वीकार करने चाहिये । उन बारह व्रतों के तीन विभाग किये गये हैं । पाँच अणुव्रत, तीन गुरणव्रत और चार शिक्षाव्रत । मुनियों के पाँच महाव्रतों की अपेक्षा छोटे होने से इनको अणुव्रत श्रावकत्रत दर्पण - २ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं। छठा, सातवाँ और पाठवाँ ये तीनों व्रत, अणुव्रत क गुण करने वाले होने से इन्हें गुणव्रत कहा गया है। अन्तिम चार व्रत मुनिधर्म-पालन के लिए शिक्षा रूप होने से इन्हें शिक्षाव्रत कहा गया है। यहाँ वे क्रमशः प्रस्तुत किये जा रहे हैं पाँच अणुव्रत (१) अहिंसा (पहला अणुव्रत) इस व्रत में निरपराध, हिलते-चलते (त्रस) जीवों को जानबूझ कर (मारने की बुद्धि से) नहीं मारने की प्रतिज्ञा की जाती है। इसके लिए कहा है कि पगुकुष्टिकुरिणत्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां, हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ॥१॥ विवेकी मनुष्य को हिंसा का त्याग करना चाहिये। क्योंकि हिंसा में प्रत्यक्ष रूप से दूसरे को पीड़ा होती है और जहाँ दूसरे को पीड़ा है वहाँ अवश्य पापबंध होता है। इस पाप का विपाक बहुत ही दारुण होता है। इस पाप के उदय से आत्मा पंगु, कुष्टरोगग्रस्त बनती है और लूले-लंगड़ेपन को प्राप्त करती है। शरीर के नाना प्रकार के रोग, अंगोपांग आदि का अधिक व कम होना, यह सब हिंसा का ही फल है। प्राणी-वध में निमित्त बनने वाला मनुष्य, जन्म-मरण के अनन्त और असह्य दुःख पाता है। उस समय उसकी कोई सहायता नहीं करता और ऐसे पुण्यहीन प्राणी को माता-पिता और सम्बन्धियों का वियोग अनेक भवों तक होता है। दुःख, दरिद्रता, दौर्भाग्य तो श्रावकवत दर्पण-३ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके पीछे लगे हो रहते हैं और मन-इच्छित सगे सम्बन्धियों का मिलाप नहीं हो पाता। कर्म का ऐसा नियम है कि दूसरे को जो अल्प भी पीड़ा देते हैं, उससे कम से कम दसगुणी पीड़ा जन्मान्तर में हमको भोगनी पड़ती है। कर्म के नियम का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। जो मनुष्य निरपराध त्रस जोवों की हिंसा का त्याग नहीं करता, उसमें न्याय-बुद्धि नहीं टिकतो। धर्म का सार थोड़े में इतना ही है कि जो आचरण अपनी आत्मा के लिए अनिष्ट हो, ऐसा आचरण दूसरों के प्रति नहीं करना चाहिये। जैसे सुख अपने को प्रिय है और दुःख अप्रिय है, वैसे ही सर्वजीवों को दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है। ऐसा समझ कर दूसरी आत्माओं को भी अपने समान समझ कर अपने को अनिष्ट ऐसी हिंसा नहीं करनी चाहिये, यह न्याय-बुद्धि का लक्षण है। अन्यथा प्रात्मौपम्य भाव का हनन होता है और प्रात्मौपम्य भाव के हनन होने के पश्चात् मानव में मानवता नहीं टिक सकती। पशु और मानव में सिर्फ इतना ही अन्तर है कि मनुष्य अपने मन में अपने समान दूसरों को देख सकता है, जान सकता है और यथायोग्य आचरण भी कर सकता है। पशु में इस बुद्धि का अभाव है। परन्तु मनुष्य भी जो दूसरे की पीड़ा को अपने समान नहीं जानता और शक्य पीड़ा का निवारण नहीं करता है तो उसमें और पशु में अधिक अन्तर नहीं रहता। एक, जन्म से पशु है और दूसरा, विचार से पशु है। जन्म से पशु के बजाय विचार से पशु अधिक भयंकर है। क्योंकि जिस मनुष्य में मुख्यतः मात्र अपने ही सुख का विचार है और दूसरों के सुख-दुःख का बिल्कुल विचार ही नहीं है, वह मनुष्य मौका मिलने पर पशु से भी अधिक क्रूर बनने में नहीं हिचकिचाता। इसलिए आत्म श्रावकवत दर्पग-४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकास के मार्ग में स्वार्थ-परायणता सबसे अधिक बड़ा दोष माना जाता है और इसे हिंसादि सब पापों का मूल माना गया है। इसके विपरीत सदैव परोपकार करना, दूसरों की पीड़ा दूर करना, दूसरों को सुख देना, इसे ही परम धर्म माना गया है। गृहस्थों के अहिंसा व्रत की मर्यादा निरपराध त्रस जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग करना, ऐसी मर्यादा गृहस्थ के अहिंसा व्रत में रखी गई है, वह सहेतुक है, खूब विचारपूर्वक की है। निरपराध जीवों को न मारना-ऐसा कहने का अभिप्राय यह है कि अपराधी जीवों को यदि गृहस्थ दण्ड न दे तो गहस्थाश्रम नहीं चल सकता। चोर, लूटेरे, गूडे आदि दृष्ट उसका घर लट जाय, स्त्री को ले जाय, पूत्रादि को मार डाले। यदि वह गृहस्थ राजा हो तो उसका राज्य लूट ले जाय । बदमाश, निर्दोष प्रजा को दु:ख दें, इसलिये ऐसे अवसरों पर जो अपराधी को अपराध करने दें और शक्ति होते हए भी दण्ड न दें तो निरपराध विश्वस्त ऐसे अपने पोष्य वर्ग की हिंसा और पीड़ा में वह निमित्तभूत बनता है। अपराधी को भी दण्ड न देना, यह धर्म तो अत्यन्त उच्च भूमिका को प्राप्त हुए महासमतावंत विशिष्ट व्यक्तियों का है परन्तु सामान्य गृहस्थों की यह भूमिका नहीं होती इसलिये अपराधी को दण्ड देना गृहस्थों के लिये अन्याय नहीं है। अर्थात् ऐसा करने से उसके स्थूल अहिंसा व्रत में दोष नहीं लगता। यहाँ पर यह याद रखना चाहिये कि धर्म विवेक में है। दण्ड देने में विवेकी और अविवेकी के आशय में बहुत बड़ा अन्तर होता है। विवेकी श्रावक, अपराधी को भी श्रावकवत दर्पण-५ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब शिक्षा (दण्ड) देता है तब अन्दर से तो वह कोमल ही होता है। मात्र बाहर से हो वह शिक्षा देता है। अपराधी आत्मा के प्रति उसके अन्तःकरण में जरा भी अशुभ विचार नहीं होते, परन्तु उसके लिए भी वह शुभ भावना रखता है। दण्ड देकर पापी को पाप करने से रोकना मात्र ही, उसका आशय होता है और यह पापी जीव के प्रति एक प्रकार की दया ही है क्योंकि इससे पापी, पाप नहीं कर सकने के कारण दुर्गति की महान् पीड़ा से बच जाता है। इस प्रकार दयालु श्रावक की शिक्षा में भी अपराधी के प्रति प्रधानतया करुणा ही होती है। इसके सिवाय अपराधी को दण्ड देने से, निरपराध, शान्त और शिष्ट वर्ग का रक्षण भी होता है। अपराधी जीवों को शिक्षा करते समय ये दोनों हेतु आत्मार्थी जीवों के ख्याल-बाहर नहीं होते, इसलिए उसके अध्यवसाय में निर्वसता नहीं आती है। . 'त्रस जीवों की हिंसा न करना'-ऐसा कहने का तात्पर्य यह है कि गहस्थाश्रम में सम्पूर्ण अहिंसा का पालन शक्य नहीं और इसी कारण से जिसे सम्पूर्ण अहिंसा का पालन करना हो उसे गृहस्थाश्रम का त्याग कर श्रमण-जीवन का स्वीकार करना चाहिये। गृहस्थों को पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों के साथ रात-दिन काम करना पड़ता है। इसलिये उनकी हिंसा से बचना मुश्किल है। फिर भी दयालू श्रावक उन जीवों पर निरपेक्ष भी नहीं होता अर्थात् बिना प्रयोजन उनकी भी हिंसा नहीं करता। जिसके बिना काम नहीं चल सकता, उसमें भी त्रस जीवों की यतना तो गहस्थों से बन ही सकती है। इसलिये त्रस जीवों की हिंसा की विरति बताई गई है। श्रावकवत दर्पण-६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'संकल्पपूर्वक की हिंसा का त्याग करना' - इसका तात्पर्य यह है कि श्रावक रास्ते में यतनापूर्वक चलता है, अपनी प्रवृत्ति सावधानी से करता है, फिर भी काया की अस्थिरता के कारण तथा व्यापार-धंधा, खेती प्रारम्भादि के कारण किसी जीव की विराधना उससे हो जाती है तो ऐसे प्रसंगों में जीवों को जानबूझ कर मारने का उसका इरादा नहीं होता, इसलिये इस व्रत का भंग नहीं होता । इरादापूर्वक मारने के अध्यवसाय से मार डालना, उसे सकल्पपूर्वक की हिंसा कहते हैं । इस प्रकार "निरपराध त्रस जीवों को संकल्पपूर्वक मारने की बुद्धि से नहीं मारना' यह गृहस्थों की प्रथम व्रत ( अहिंसा व्रत ) की मर्यादा है | हिंसा सब प्रकार से त्याज्य है किसी को यह शंका हो कि जीवहिंसा करके पैसा प्राप्त कर, पीछे दान देकर पाप से छूट जाऊँगा, उसे 'शास्त्रकार' उत्तर देते हैं कि प्राणी अपने जीवन को बचाने के लिए राज्य भी दे देता है । इस प्रकार प्रारणी का वध करने से होने वाला पाप, सारी पृथ्वी के दान से भी नहीं धोया जा सकता । वन में रहने वाले, वायु-जल और तृरण खाकर जीने वाले, निरपराध पशुनों को मांस के लिए मारने वाले वास्तव में बहुत बड़ा अन्याय करते हैं । जो मनुष्य अपने शरीर में तिनके के चुभने से दुःखी हो जाता है, ऐसा मनुष्य निरपराध प्राणियों को तीक्ष्ण हथियार से कैसे मारता होगा ? अपने क्षणिक सुख के लिए स्वार्थपरायण क्रूर लोग दूसरे प्रारणी का सारे जन्म भर का नाश कर देता है । किसी मनुष्य को 'तू मर जा' इतना कहने मात्र से भी दुःख होता है तो फिर दारुण शस्त्रों से मारने से श्रावकव्रत दर्पण - ७ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितना दुःख होता होगा? मारने वाले जीव को यह स्वयं ही सोचना चाहिये। शास्त्र में कहा है कि प्राणियों को मारने वाले, रौद्र ध्यान में तत्पर सुभूम और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सातवीं नरक में गये हैं। मनुष्य को हाथरहित होना अच्छा है, अपंग होना ठीक है और बिना शरीर के होना ठीक है, परन्तु सम्पूर्ण शरीर वाला होकर हिंसा करने में तत्पर होना ठीक नहीं है। विघ्न की शान्ति के लिये की गई हिंसा भी विघ्न के लिए ही होती है। कुलाचार मानकर की गई हिंसा भी कुल का नाश करने वाली होती है। वंश-परंपरा से चली आने वाली हिंसा का भी जो त्याग कर देता है वह कालसौकरिक के पुत्र सुलस की तरह प्रशंसा का पात्र बनता है। जब तक मनुष्य हिंसा का त्याग नहीं करता तब तक उसका इन्द्रिय-निग्रह, देव-गुरु की उपासना तथा दान, अध्ययन और तप आदि शुभ कर्म भी निष्फल हो जाते हैं। बड़े खेद की बात है कि शास्त्रों द्वारा हिंसा-प्रधान उपदेश देने वाले लोभ से अन्धे हुए निर्दय लोग, मन्द बुद्ध वाले भोले-भाले लोगों को नरक में भेजते हैं। देवों को बलिदान देने के बहाने अथवा यज्ञ के बहाने जो निर्दय होकर प्राणियों को मारता है, वह घोर दुर्गति में जाता है। सब जीवों पर समभाव, शोल, दयारूप मूल वाले जगत् कल्याणकारी धर्म का त्याग कर, मंद-बुद्धि लोगों ने हिंसा में भी धर्म कह दिया यह कितने आश्चर्य की बात है ! सच बात तो यह है कि जो मनुष्य अन्य प्राणियों को अभयदान देता है, उसे अन्य प्राणियों की तरफ से भय नहीं रहता है क्योंकि जैसा देते हैं वैसा ही फल मिलता है। हिंसा-अहिंसा के विषय में कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि हिंसक प्राणियों का नाश करने में पाप नहीं है। इसके समर्थन श्रावकवत दर्पण-८ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में वे कहते हैं कि एक हिंसक प्राणी को मारने से, उसके द्वारा मरने वाले अनेक प्राणियों की रक्षा होती है, परन्तु यह मान्यता गलत है क्योंकि जगत् में सम्पूर्ण अहिंसक कौन है ? उपरान्त, धर्म का मूल अहिंसा है। हिंसा करने से धर्म कैसे हो सकता है ? क्योंकि हिंसा स्वयं ही पाप का कारण है इसलिए हिंसा पाप को कैसे दूर कर सकती है? अर्थात नहीं कर सकती है। कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं कि दुःखियों को मारने में दोष नहीं, क्योंकि ऐसा करने से दुःखी जीव, दुःख से मुक्त हो जाते हैं। परन्तु यह मान्यता भी भूल भरी है, क्योंकि इस प्रकार मरा हुया प्राणी इस दुःख से छूटकर नरक आदि अन्य गतियों में अधिक दुःख नहीं पाएगा, इसमें क्या प्रमाण है ? इसलिए अहिंसा-प्रेमियों को इन सब मिथ्या वचनों का त्याग कर अहिंसा के पालन में दत्त-चित्त होना चाहिए । अहिंसा का माहात्म्य मातेव सर्वभूताना-महिंसा हितकारिणी। 'अहिंसैव संसार-मरावमृतसारणिः ॥१॥ अर्थ-माता की तरह अहिंसा सब प्राणियों को हितकारी है। अहिसा हो संसाररूपी मरु भूमि में अमृत की नदी के समान है ॥ १ ॥ अहिंसा दुःखदावाग्नि प्रावृषेण्यघनावली। भवभ्रमिरुगाना-हिंसा परमौषधी ॥२॥ अर्थ-दुःख रूप दावानल को शान्त करने के लिए अहिंसा वर्षा ऋतु के मेघ की श्रेणो के समान है और संसार में परिभ्रमण श्रावकवत दर्पण-९ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप रोग से पीड़ित जीवों के लिए परम प्रौषधि तुल्य अहिंसा ही है ।। २ ॥ हेमाद्रिःपर्वतानां हरिरमृतभुजां, चक्रवर्ती नराणां , शीतांशुर्योतिषां स्वस्तरुरवनिरुहां चंडरोचिर्गहाणाम् । सिन्धुस्तोयाशयानां, जिनपतिरसुरामर्त्यमाधिपानां , यद्यद्वताना-मधिपतिपदवीं यायहिंसा किमन्यत् ॥ ३ ॥ अर्थ-पर्वतों में जैसे मेरु, देवों में जैसे इन्द्र, मनुष्यों में जैसे चक्रवर्ती, ज्योतिषगण में जैसे चंद्र, वृक्षों में जैसे कल्पवृक्ष, ग्रहों में जैसे सूर्य, जलाशयों में जैसे समुद्र, नरेन्द्र, देवेन्द्र और असुरेन्द्रों में जैसे जिनेश्वरदेव महान् हैं उसी तरह सर्व व्रतों में अहिंसा व्रत शिरोमणि भूत है। दीर्घमायुः परं-रूप-मारोग्यं श्लाघनीयता। अहिंसायाः फलं सर्वे किमन्यत्कामदेव सा ॥४॥ अर्थ--सुखदायी दीर्घ आयुष्य, उत्तम रूप, नीरोगता और प्रशंसनीयता ये सब अहिंसा के फल हैं, ज्यादा कहने से क्या ? सब प्रकार के मनोवांछित फल देने के लिए अहिंसा कामधेनु के समान है। (२) सत्य (दूसरा अणुव्रत) गृहस्थों का दूसरा अणुव्रत असत्य न बोलने सम्बन्धी है । स्थूल असत्य पाँच प्रकार का है। विवेकी मनुष्यों को किसी भी तरह का असत्य नहीं बोलना चाहिये और उसमें भी कन्या सम्बन्धी, गाय सम्बन्धी, भूमि सम्बन्धी, न्यास सौंपने सम्बन्धी श्रावकवत दर्पण-१० Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और झूठी साक्षी देने सम्बन्धी ये पाँच बड़े असत्य तो अवश्य ही छोड़ने चाहिये। ___ कन्या सम्बन्धी--कन्या छोटी हो तो बड़ा कहना, बड़ी हो तो छोटी कहना, शरीर में किसी प्रकार की कमी होने पर भी बिना कमी वाली कहना। इस प्रकार असत्य कह कर विवाह करने से उसकी सारी जिन्दगी क्लेश में व्यतीत होती है, कन्या के उपलक्षण से किसी भी मनुष्य सम्बन्धी झूठ नहीं बोलना । गाय सम्बन्धी--गाय के सम्बन्ध में झूठ न बोलना और उपलक्षण से सभी जानवरों के बारे में समझ लेना चाहिये। जमीन सम्बन्धी-जमीन दूसरे की हो और उसे अपनी कहना आदि, जमीन सम्बन्धी असत्य न बोलना। न्यास सौंपना-प्रामाणिक मनुष्य समझकर किसी ने बिना लिखा-पढ़ी के अथवा साक्षी के कोई वस्तु अपने यहाँ रखी हो और यदि रखने वाले की मृत्यु हो जाय और उसके सगे सम्बन्धी को उसका पता न हो, तब भी उसे छिपाना या सौंपना नहीं वरन् वह रकम उसके मालिक के पास पहँचाना अथवा मरने वाले के नाम पर उसे अच्छे कार्य में खर्च कर देना चाहिये । झूठी गवाही न देना--प्रामाणिक मनुष्य जानकर किसी ने अपने को गवाह बनाया हो तब, अपने सम्बन्ध में हो या दूसरे के सम्बन्ध में हो, किसी तरह लालच में फंसे बिना सत्य कहना चाहिये अर्थात् झूठी गवाही नहीं देनी चाहिये। ये पाँच बड़े असत्य हैं। इनका त्याग करना यह गृहस्थों का दूसरा व्रत कहलाता है। श्रावकवत दर्पण-११ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असत्य बोलने से होने वाली हानियाँ असत्य के फलस्वरूप गूगापन, तोतलापन तथा मुंह के विविध रोग होते हैं। ऐसा समझकर विवेकी मनुष्यों को असत्य का त्याग करना जरूरी है। असत्य बोलने से संसार में अपमान होता है। यह मनुष्य झूठा है' ऐसी निंदा होती है और परलोक में अधोगति हातो है। जिस वस्तु को स्वयं न जानते हो या जिसमें अपने को शंका हो, ऐसी स्थिति में बुद्धिमान् को प्रमाद से भी असत्य न बोलना चाहिये। जो बात हो उसको छिपाना, न हो उसे बताना, वास्तविक बात से अलग कहना, किसी को सदोष प्रवृत्ति में प्रेरित करना, किसी को अप्रिय वचन कहना, किसी को गाली देना आदि, असत्य वचनों से कल्याण का नाश होता है। कुपथ्य करने से जैसे व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं वैसे असत्य बोलने से वैर, विरोध, विषाद, पश्चाताप, अविश्वास, अपमान आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। असत्य बोलने से जीवों को निगोद, तिर्यंच और नरकगति प्राप्त होती है। भय से या स्नेही मनुष्य के आग्रह से भी कालिकाचार्य ने असत्य नहीं कहा। अतः असत्य नहीं बोलना चाहिये। जो मनुष्य भय से या आग्रह से असत्य बोलता है, वह वसुराज की तरह नरक का अधिकारी होता है। बल्कि कटु सत्य जिससे दूसरों को पीड़ा पहुँचे ऐसा वचन भी नहीं बोलना चाहिये। दूसरे का प्राण जाय ऐसा सत्य बोलकर कौशिक तापस ने नरकगति का बंध कर लिया। मतलब यह है कि कौशिक तापस को शिकारियों ने पूछा कि मृग का झुण्ड किधर गया है ? तापस ने जिस तरफ मृग का झुण्ड गया था, वह मार्ग बता दिया। इससे शिकारियों ने मृगों का नाश किया। इस तरह बिना सोचे-समझे वचन बोलने से वे जीव श्रावकवत दर्पण-१२ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृत्यु को प्राप्त हुए और स्वयं ने भी दुर्गति प्राप्त की । तात्पर्य यह कि दूसरे को पीड़ा करने वाला वचन बोलने से पहले खूब सोच-विचार कर लेना चाहिये । थोड़ा भी झूठ बोलने से रौरवादि नरक में जाना पड़ता है तो फिर जिनेश्वर भगवान् वचन को अन्यथा कहने वालों की तो क्या गति होगी ? हिसा व्रत रूपी पानी के रक्षण के लिए दूसरे व्रत दीवाल समान है । सत्य का भंग होने से सारी दीवाल टूट जाती है, जिससे सर्वनाश हो जाता है । सर्वजीवों को उपकारक हो, ऐसा सत्य बोलना चाहिये अथवा सर्व पुरुषार्थ की सिद्धि करने में समर्थ हो, ऐसे मौन का पालन करना चाहिये, परन्तु असत्य बोलकर स्व-पर को दुःखकर्ता तो नहीं बनाना चाहिये। किसी के पूछने पर भी बैर के कारणभूत दूसरे के मर्म को भेदनेवाला, कर्कश, शंकास्पद, हिंसक या प्रसूयायुक्त वचन नहीं बोलना चाहिये परन्तु दया आदि धर्म का नाश होता हो, सन्मार्ग का लोप होता हो, परमात्मा के सिद्धान्त का विनाश होता हो तो बिना पूछे भो, शक्ति हो तो उसका निवारण करने के लिए लोगों को सत्य बात समझाने का प्रयत्न करना चाहिये । दावानल में जले वृक्ष वर्षा ऋतु में पुनः नवपल्लवित हो जाते हैं, परन्तु दुर्वचन रूपी अग्नि से दग्ध हुए मनुष्य सुखी नहीं होते । बरछी का घाव भर जाता है, परन्तु कुवचन के घाव को भरने में बहुत समय लगता है । इसलिए बहुत सोच-समझकर बोलना चाहिये । सत्य वचन मनुष्य को जितना प्रह्लाद देता है, उतना प्रह्लाद चंदन, चंद्रिका, चंद्रकान्तमरिण और मोतीप्रमुख की मालाएँ भी नहीं देतीं । एक ओर पलड़े में असत्य से होने वाला पाप रखा जाय और दूसरी तरफ दूसरे सब पाप रखे जांय तो असत्य वाला श्रावकव्रत दर्पण - १३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलड़ा ही भारी रहेगा। महान् पापियों के भी उद्धार का उपाय है, परन्तु जब तक मनुष्य असत्य नहीं छोड़ता, तब तक उसके उद्धार का कोई उपाय नहीं है। सत्यवादी की श्रेष्ठता सत्य, ज्ञान और चारित्र का मूल है। जो सत्य बोलते हैं, उनके चरण-रज से पृथ्वी पवित्र होती है तथा सत्य व्रत रूप महाधन वाले जो जीव असत्य नहीं बोलते , उनको दुःख देने के लिये भूत-प्रेत या सर्प वगैरह भी समर्थ नहीं हो सकते । देव भी उनका पक्षपात करते हैं। राजा उनकी आज्ञा मानते हैं और अग्नि आदि भी उनके सत्य वचन के प्रभाव से शांत हो जाती है । यह सब सत्य का ही प्रभाव है । (३) अचौर्य (तीसरा अणुव्रत) ___ मालिक की आज्ञा के सिवाय दूसरे की वस्तु लेने रूप चोरी का त्याग करना यह गृहस्थ का अस्तेय व्रत नाम का तीसरा अणुव्रत है। चोरी के फलस्वरूप दुर्भाग्य, गुलामी, दासत्व, अंगच्छेद और दरिद्रता प्रादि प्राप्त होती है। ऐसा समझकर किसी का पड़ा हुआ, खोया हुआ, न्यास रखा हुआ, भूला हा और गाड़ा हया दूसरे का धन मालिक के दिये बिना कभी भी नहीं लेना चाहिये। जो मनुष्य दूसरे के धन की चोरी करता है, उसने उसका धन ही नहीं लटा बल्कि उसके साथ उसका यह लोक, परलोक, धर्म, धैर्य, धृति और मति भी चुराई है। तात्पर्य यह है कि धन लुट जाने की पीड़ा से यह भव बिगड़ता है, धीरता नहीं रहती है, शान्ति में बाधा पड़ती है और बुद्धि गुम हो जाती है। इसलिए धन चुराने वाले ने उसकी इन सब वस्तुओं श्रावकवत दर्पण-१४ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का भी नाश किया है, ऐसा समझना चाहिये । चोरी का फल इस लोक में वध, बंधादि रूप में मिलता है और परलोक में नरक की वेदना भोगनी पड़ती है । चोरी करने वाले मनुष्य को दिन-रात, जागते-सोते पीड़ा होती है और वह येन केन प्रकारेण कदापि स्वस्थ नहीं रह सकता। चोर के सगे-सम्बन्धी, मित्र, पुत्र, पत्नी, भाई, पिता ग्रादि भी राजदण्ड के भय से या पाप के भय से चोर का जरा भी साथ नहीं देते हैं । क्योंकि ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी आदि बड़े पाप की तरह, उस पापी का संसर्ग भी महापाप माना जाता है । उपरान्त, राजनीति में भी चोर की तरह, चोरी कराने वाला, उसका सलाहकार, उसका भेद जानने वाला, उसका माल खरीदने वाला तथा उसको जगह और सहायता देने वाला भो चोर ही गिना जाता है । चोर भी चोरी का त्याग कर दे तो रोहिणेय की तरह स्वर्ग को भोगने वाला देव बनता है । चौर्यव्रत का फल जिन शुद्धचित्त वाले मनुष्यों को, दूसरे की चोरी नहीं करने का नियम है, उनको स्वयंवरा को तरह लक्ष्मी सन्मुख आकर मिलती है, उनके अनर्थ दूर हो जाते हैं और जगत् में उनका यश अधिकाधिक फैलता है । दूसरे का स्वर्ण आदि अपने सन्मुख पड़ा हो फिर भी उसे दूसरे का होने से परधन में जिसकी पत्थर बुद्धि है और प्रारब्ध योग से अपने को प्राप्त हुई वस्तु में ही जो मग्न है, ऐसे सन्तोष रूपी अमृत से तृप्त हुए गृहस्थ भी स्वर्गादि उच्च गति को प्राप्त होते हैं । ( ४ ) ब्रह्मचर्य ( चौथा अणुव्रत ) विषय वासना का परिणाम दारुरण है। स्व- स्त्री में सन्तोष रखना और परस्त्री का त्याग करना यह श्रावकव्रत दर्पण - १५ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थों का चौथा अणुव्रत है । नपुंसकता और इन्द्रियछेद आदि अब्रह्मचर्य का फल हैं । ब्रह्म आरम्भ में तो मनोहर है परन्तु अन्त में किम्पाक वृक्ष के फल की तरह प्रति दारुरण है । प्रब्रह्म से कंप, स्वेद, श्रम, मूर्छा, भ्रमि, रोग, बलनाश, क्षयरोग, वगैरह अनेक रोग शरीर में उत्पन्न होते हैं । चाहे जैसा सत्पुरुष हो, परन्तु यदि उसके हृदय में स्त्रो भोग की विषय वासना जागृत हो जाय तो उसके सब उत्तम गुरण पलायन कर जाते हैं । माया. शीलता, क्रूरता, चंचलता, कुशीलता आदि दोष स्वाभाविक रूप से स्त्री या पुरुष की कामवासना के साथ रहने वाले हैं । अपार महासागर को पार करना सम्भव है, परन्तु प्रकृति से जो वक्र ऐसी स्त्री के दुश्चरित्रों का पार पाना सहज नहीं है । काम. वासना पति, पुत्र, भाई, आदि के भी प्रारण संशय में पड़ जांय ऐसे कार्य के लिये प्रेरित करती है । काम वासना संसार का बीज है, नरकमार्ग की सड़क है, शोक का मूल है, क्लेश की जड़ है और दुःख की खान है । वेश्या स्त्री के दोष कामवासना के वश होकर जो वेश्या-गमन करते हैं, उनके दुःख का पार नहीं है । क्योंकि वेश्याओं के मन में अलग बात होती है, वचन में अलग होती है और क्रिया में अलग बात होती है । किसी ने उसको सर्वस्व सौंप दिया हो फिर भी अन्त में उसके पास से सब धन समाप्त हो जाने पर वह (वेश्या) उसके पास से पहनने के कपड़े भी लेने की इच्छा कर देती है । ऐसी निःस्नेह गरिका का सदैव त्याग ही करना चाहिये । परस्त्री गमन के दोष उपासक को तो अपनी स्त्री का भी आसक्तिपूर्वक सेवन श्रावकव्रत दर्पण - १६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करना चाहिये, तो फिर सर्व पापों के मूल रूप परस्त्रियों के सेवन को तो बात ही क्या ? जो निर्लज्ज स्त्री अपने प्यारे पति को छोड़कर दूसरे पति को भजती है, उस चंचल चरित्र वाली परस्त्री का क्या विश्वास ? अर्थात् उसका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये । परस्त्रीगमन में मृत्यु का भय है, वह परम वैर का कारण है तथा दोनों लोकों के विरुद्ध है, इसलिये इसका त्याग करना चाहिये। राजा की अोर से परस्त्रीगमन करने वाले का धनहरण और शरीर के अवयवों का छेदन होता है तथा मरने के बाद उसे घोर नरक की प्राप्ति होती है। जिसने अपने पराक्रम से सम्पूर्ण विश्व को जीत लिया था, ऐसे रावण ने, परस्त्री के साथ रमण करने की इच्छा मात्र से अपने कुल का क्षय कर दिया तथा मर कर वह नरक गति को प्राप्त हुना। परस्त्री चाहे कितनी लावण्यवती हो, बहुत सौन्दर्यवाली हो तथा विविध कलाओं में कुशल हो, फिर भी उसका त्याग करना चाहिये। परस्त्री के सान्निध्य में अपनी मनोवृत्ति को जरा भी मलिन न होने देने वाले सुदर्शन सेठ के गुणों की कितनी स्तुति की जाय ? अर्थात् उसके सम्बन्ध में जितनो प्रशंसा की जाय उतनी कम है। ऐश्वर्य में बड़ा राजराजेश्वर हो, रूप में कामदेव के समान हो, फिर भी जगदम्बा सती शिरोमणि महासती सीता ने जैसे रावण को छोड़ा वैसे हो स्त्री को परपुरुष का त्याग करना चाहिये । परस्त्री-पुरुष में आसक्त ऐसे स्त्री-पुरुष को अनेक भवों तक नपुसकता, तिर्यंचगति और दुर्भाग्यता प्राप्त होती है । ब्रह्मचर्य की महिमा चारित्र के प्राण समान और मोक्ष के एक असाधारण श्रावक-२ । श्रावकव्रत दर्पण-१७ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण समान ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले मनुष्य, बड़े पूज्यों की तरह पूजे जाते हैं। ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले मनुष्य, दीर्घ आयुष्य वाले, सुन्दर प्राकृति वाले, बलवान, तेजस्वी, उत्तम चारित्र वाले तथा महान् पराक्रमी होते हैं। एतदर्थ मनुष्य को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। (५) परिग्रहपरिमाण व्रत (पाँचवाँ अणुव्रत) परिग्रह की इच्छा-नियंत्रण रूप गृहस्थों का पाँचवाँ अणुव्रत है -धन-धान्यादि नव प्रकार के परिग्रह का परिमाण करना। परिमाण से अधिक हो जाने पर उसका शुभ-मार्ग में सदुपयोग कर देना चाहिये। परिग्रह के दोष परिग्रह अर्थात् प्रासंग, आसक्ति अथवा मूर्छा। मूर्छा के कारण असंतोष, अविश्वास और दुःख के कारण रूप प्रारम्भ में प्रवृत्ति होती है। जैसे अतिशय वजन भरने से जहाज समुद्र में डूब जाता है, वैसे अतिपरिग्रह से प्राणी भवसागर में डूब जाता है। परिग्रह में अणु जितना भी गुण नहीं है, परन्तु पर्वत के समान बड़े-बड़े दोष उत्पन्न होते हैं। परिग्रह से राग-द्वेष आदि शत्रु प्रकट होते हैं। परिग्रह से आन्दोलित आत्मा वाले त्यागियों का भी चित्त चंचल हो जाता है, तो गृहस्थों की तो बात ही क्या? संसार का मूल कारण हिंसादि प्रवृत्तियाँ हैं और उन प्रवृत्तियों का कारण परिग्रह है। इसलिये उपासक को जितना बन सके उतना अल्प परिग्रह रखना चाहिये। संग अथवा आसक्ति के वश हुए मनुष्य का संयम रूपी धन विषय रूपी चोर लूट लेते हैं, उसे काम रूपी अग्नि निरन्तर जलाती है और स्त्रियाँ रूपी श्रावकवत दर्पण.-१८ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिकारिनियाँ उसे संसार में रोक रखती हैं । तृष्णा ऐसी बीमारी है कि सगर राजा को ६० हजार पुत्रों से भी तृप्ति नहीं हुई, कुचीक को विपुल गोधन से, तिलक सेठ को पुष्कल धान्य से और नंद राजा को सोने के ढेर से भी सन्तोष नहीं हुआ । धन, धान्य, स्वर्ण, चांदी, अन्य धातुएँ, खेत, घर, नौकर, चाकर और पशु ये नौ बाह्य परिग्रह हैं और राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, शोक, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, कामवासना और मिथ्यात्व ये चौदह आन्तरिक परिग्रह हैं । बाह्य परिग्रह से अान्तरिक परिग्रह पुष्ट होते हैं । वैराग्य आदि की चाहे जितनी गहरी जड़ें जमा ली हों परन्तु परिग्रह उसे निर्मूल कर डालता है । परिग्रह को छोड़े बिना जो मोक्ष की कामना करता है वह दो भुजात्रों द्वारा समुद्र को तैरने की इच्छा करता है । जो बाह्य परिग्रह पर नियन्त्रण नहीं कर सकता वह प्रान्तरिक परिग्रह पर भी नियन्त्रण करने में समर्थ नहीं हो सकता। इसलिये सुख चाहने वाले को परिग्रह पर नियन्त्रण करना जरूरी है । (६) दिग्विरति ( पहला गुरणव्रत ) गृह्स्थ के पाँच अणुव्रतों का वर्णन ऊपर हो चुका है । अब तोन गुणव्रतों का वर्णन आता है । गुणव्रत अणुव्रतों को गुण उत्पन्न कराने वाले हैं । यह छट्ठा व्रत ( पहला गुणव्रत ) पहले अहिंसावत को विशेष लाभदायक है । दिग् विरति अर्थात् दशों दिशाओं में अमुक क्षेत्र में ही प्रवृत्ति करने की मर्यादा निश्चित करना । गृहस्थ तपे लोहे के गोले के समान है वह हमेशा प्रारम्भ और परिग्रह युक्त रहने वाला होने से जहाँ जाता श्रावकत्रत दर्पण - १९ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, वहाँ जीवों की पीड़ा में निमित्तभूत बनता है इसलिए वह अपनी प्रवृत्ति को दिशापरिमारण से मर्यादित करे तो उतने भाग से बाहर के जीवहिंसादि होने के पाप से अटकता है। जो मनुष्य दिविरति व्रत लेता है, वह सम्पूर्ण संसार पर आक्रमण करने वाले लोभसमुद्र को आगे बढ़ने से रोक लेता है । (७) भोगोपभोगमान (दूसरा गुणवत) शक्ति के अनुसार जिस व्रत में भोगोपभोग की संख्या निश्चित करने में आती है वह भोगोपभोगमान नामका सातवाँ व्रत (दूसरा गुणवत) कहलाता है। एक ही बार भोगा जा सके ऐसे अन्न, पुष्पमाला, तांबुल, विलेपन आदि को भोग कहते हैं और बारम्बार भोगे जा सकें ऐसे वस्त्र, अलंकार, घर, शय्या, प्रासन, वाहन आदि को उपभोग कहते हैं। इस व्रत में भोगने योग्य पदार्थों का परिमारण निश्चित करना होता है, परन्तु भोगने के अयोग्य पदार्थों का तो सर्वथा त्याग ही करना चाहिये। सर्वथा त्याग करने योग्य पदार्थ-हर प्रकार की शराब, मांस, मक्खन, शहद, बड़, पीपल आदि पाँच जाति के फल, अनंतकाय (कंद मूलादि), अज्ञात फल, रात्रि-भोजन, कच्चा दूध, दही तथा छाछ के साथ द्विदल, बासी अन्न, दो दिन बाद का दही और चलित रस वाला अन्न । ये सब जैनशासन में अभक्ष्य गिने जाते हैं। ऊपर बताये अभक्ष्य व अनन्तकाय ऐसी किस्म के पदार्थ हैं कि उनका भोजन करने वाला प्राणी पूर्व का तीव्र पुण्योदय न हो तो भाग्य से ही आने वाले रोगों के भोग से बच सकता है। श्रावकवत दर्पण-२० Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसा आहार वैसी बुद्धि-विशुद्ध जीवन जीने के लिए विशुद्ध मन चाहिये, विशुद्ध मन के लिए विशुद्ध अन्न चाहिये । अपने यहाँ कहावत है कि 'पाहार जैसी बुद्धि' वैसे ही जर्मन आदि देशों में भी ऐसी ही कहावत है कि मनुष्य जैसा खाता है वैसा होता है' आदि। इस अनुभव को कोई इन्कार नहीं कर सका। मनुष्य को नीरोग रहना हो तो जैसे अभक्ष्य का त्याग जरूरी है वैसे मनुष्य को दयालु बनना हो तो भी इसी की जरूरत होती है । इस अभक्ष्य का त्याग आज एक बालक से लेकर वृद्ध तक भी संस्कारी जैन कूल में किसी भी प्रकार के दबाव, अभिमान या आडम्बर बिना नैसगिक रीति से देखने को मिलता है। इस सत्य को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता और ऐरो मनुष्य ही जीवरक्षादि प्रात्मा के उच्च अध्यवसायों को हमेशा के लिए टिका सकते हैं और अपनी सात्त्विक, दयालु और कोमल अहिंसक प्रवृत्तियों को घोर हिंसक जमाने में भी जीवन के अन्त समय तक आँच नहीं आने देते हैं। इससे अपना यह भव और आने वाला भव भी सुधारने वाले बनते हैं। इससे विपरीत जोजो वस्तुएँ अभक्ष्य बताई गई हैं, उनका भक्षण करने मात्र से इस लोक में ही रोगादि का भय है इतना ही नहीं, परन्तु उनका परभव भी बिगड़े बिना नहीं रहता। अनेक प्रकार की असह्य यातनाएँ नरक आदि दुर्गति में भोगनी ही पड़ती हैं, उस समय अभक्ष्य-भक्षण से जो सुख प्राप्त किया है उससे अनन्त गुणी अधिक पीड़ा भोगनी पड़ती है, उसके सिवाय छुटकारा नहीं होता है। अभक्ष्यभक्षण आदि से प्रत्यक्ष और परोक्ष क्या-क्या नुकसान होता है, वह अब यहाँ योगशास्त्रादि महाग्रन्थों के अनुसार बतलाया जाता है। मदिरा पीने से होने वाले दोष-मदिरापान से बुद्धि नष्ट श्रावकव्रत दर्पण-२१ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है। शराब पीकर बेभान लोगों को माँ-बहिन का, अपने-पराये का या सेठ-नौकर का खयाल नहीं रहता। मुर्दे के माफिक मैदान में पड़े मदिरा पीने वाले के मुह में कुत्ते पेशाब कर देते हैं। आम रास्ते में भी वह भान भूलकर नंगा होकर लेटता है और सहज ही अपने गूढ़ अभिप्राय-छिपे विचार बतला देता है। चाहे जैसा सुन्दर चित्र हो, फिर भी उस पर काजल डालने से उसकी शोभा नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार शराब पीने वाले की कीति, बुद्धि और लक्ष्मी चली जाती है। जैसे दिमाग में भूत घुस गया हो वैसे वह धुनता है। शोकमग्न हो गया हो, इस प्रकार रुदन करता है तथा दाहज्वर हो गया हो उस तरह वह जमीन पर लेटता है। मदिरा हलाहल विष जैसी है। वह शरीर के अवयवों को शिथिल कर देती है। अग्नि के एक तिनके से घास का विशाल ढेर जल जाता है, उसी तरह मदिरापान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, दया और क्षमा इन सबका नाश हो जाता है। सब दोषों का कारण मदिरा है और सब प्रकार की आपत्ति का कारण भी मदिरा है, इसलिए रोगातुर मनुष्य जैसे अपथ्य का त्याग करता है वैसे आत्म हितचिन्तकों को मदिरापान का त्याग करना चाहिये । मांसत्याग करने के बारे में प्राणियों का नाश कर जो मांस खाने की इच्छा करता है वह दया नाम के धर्मवृक्ष के मूल को उखाड़ डालता है। जो निरन्तर मांस खाता है और दया पालने की इच्छा करता है वह आग में बेल उगाने की इच्छा करता है। अर्थात् मांस खाने वाले में दया नहीं टिकती। प्राणियों को मारने वाला, मांस बेचने वाला, मांस पकाने वाला, खाने वाला, खरीदने वाला, अनुमोदन करने वाला और देने वाला ये सब हिंसा करने वाले ही हैं। अपने मांस की श्रावकवत दर्पण -२२ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्टि के लिए जो मनुष्य अन्य जानवरों के मांस का भक्षण करता है, वह भी उन जीवों का घातक है । दूसरी अन्य खाने की वस्तु होने पर भी जो आदमी मांस का भक्षण करता है, वह अमृत रस को छोड़कर हलाहल विष को पीता है। निर्दयी मनुष्य में धर्म नहीं होता। मांस खाने वाले में दया कहाँ से होगी ? मांस में लुब्ध होने वाला मनुष्य दया और धर्म को नहीं जानता अथवा कदाचित् जान भी ले तब भी स्वयं मांसभक्षक होने से उसकी निवृत्ति के लिए दूसरे को उपदेश नहीं दे सकता। शुक्र और खून से उत्पन्न हुए, विष्टा के रस से वृद्धि को प्राप्त हुए, खून से युक्त, जमे मल रूप मांस को कौन बुद्धिमान् मनुष्य खायेगा ? अर्थात् समझदार मनुष्य तो उसका स्पर्श भी नहीं करेगा। मांस के उत्पन्न होने के साथ ही उसमें अनन्त जन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। इससे मांसाहार करने वाला अनन्त जन्तुओं का घातक होता है। पंचेन्द्रिय प्राणी का वध करने से, वध में निमित्तभूत बनने से, उसका मांस खाने से प्राणी नरक में जाता है और वहाँ उसे दुःसह पीड़ा भोगनी पड़ती है। परलोक में अनन्त दु:ख के लिए और इस लोक में किंचित् मात्र सुख के लिए मांस भोजन की प्रवृत्ति कौनसा विवेकी पुरुष क्षुधातुर हो तब भी करे ? अर्थात् नहीं करेगा। जीवहिंसा के पाप से प्राप्त हुई नरक की वेदना किसी भी प्रकार से शान्त नहीं होती जिसमें प्राणी का वध होता है, ऐसा मांसभोजन छोड़ देने वाला और दया धर्म का पालन करने वाला जीव भवोभव सुखी होता है । मक्खन खाने के दोष-छाछ में से बाहर निकालने के बाद अंतर्मुहूर्त में मक्खन में बहुत सूक्ष्म जन्तुओं का समूह पैदा हो जाता श्रावकत्रत दर्पण-२३ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। इसलिये विवेकी पुरुषों को मक्खन नहीं खाना चाहिये । एक भी जोव को मारने में पाप है तो जन्तुओं के समुदाय से भरपूर इस मक्खन का कौन बुद्धिमान् मनुष्य भक्षण करेगा ? अर्थात् दयालु मनुष्य तो कदापि भक्षण नहीं करेगा। शहद खाने के दोष-अनेक जन्तुओं के समूह का नाश होने से पैदा हुअा और जुगुप्सनीय लार वाले ऐसे शहद का भक्षण कौन करे? एक-एक पुष्प में से रस पीकर मक्खियाँ दूसरे स्थान पर रस वमन करतो हैं, उससे पैदा हुआ वह रस शहद कहलाता है। ऐसा उच्छिष्ट (जठा) शहद धर्मात्मा आदमी नहीं खाते हैं। कालकूट जहर का कण भी खाया हो तो वह प्राण के नाश के लिये होता है। कितने ही अज्ञानी जीव कहते हैं कि शहद में भी मिठास है। परन्तु उसके रसास्वादन करने से बहत समय तक नरक की वेदना भोगनी पड़े, उसे तात्त्विक मिठास कैसे कह सकते हैं ? जिसका परिणाम दुःखदायी हो, उसमें मिठास हो तो भी उसे मिठास नहीं कहा जाता, इसलिये विवेकी पुरुषों को शहद का त्याग करना चाहिये । ऊपर बताये गये मदिरा, मांस, मक्खन और शहद ये चार अभक्ष्य महा विगई गिने जाते हैं। इनमें घोर हिसा रही हुई है। इसलिये धर्मप्रेमी, दयालु और अपने कल्याण के इच्छुक मनुष्यों को इनका शीघ्र त्याग कर देना चाहिये। ___ पाँच प्रकार के बड़, पोपल आदि प्रमुख फल-बड़, पीपल, पिलं खरण, कठुम्बर और गूलर के फल में बहुत से त्रस जन्तु भरे होते हैं, इसलिये इन पाँच वृक्षों के फलों को कदापि नहीं खाना । दूसरा भोजन न मिला हो और शरीर क्षुधा से दुर्बल हो गया हो तब भो पुण्यवंत प्राणी बड़ आदि वृक्षों के फल नहीं खाते हैं। श्रावकव्रत दर्पण-२४ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीस अनन्तकाय-(१) सूरण, (२) लहसन, (३) हल्दो, (४) आलू, (५) कच्चा नरक चर, (६) सतावरी, (७) अदरख, (८) गुवार पाठा, (९) थोर, (१०) गिलोय, (११) गठा प्याज, (१२) गाजर, (१३) मूली, (१४) कोमल फलफूल, (१५) गिरिकणिका, (१६) कचालू, (१७) पद वहेड़ा, (१८) थेकनी भाजी, (१६) कच्ची इमली, (२०) भेगी, (२१) हरा मेथा, (२२) अमृत बेल, (२३) मुलानाकन्द, (२४) भूमि फोड़ा, (२५) नए अंकुर, (२६) बथुए की भाजी, (२७) सूकर जाति के बाल, (२८) पालक की भाजी, (२६) पत्र, (३०) रतालु, (३१) पीडालु, (३२) वंश कारेला । ___ऊपर बताये गये बत्तीस अनन्तकाय का सर्व पाप-भीरु श्रावक-श्राविकाओं को त्याग करना जरूरी है। बल्कि ये सभी वस्तुएँ नित्य उपयोग में नहीं आती तथा उनका दर्शन होना भी दुर्लभ है, कितनी ही तो ऐसी है कि सारी जिन्दगी तक खाने में भी नहीं आतीं। फिर भी इन वस्तुओं का प्रतिज्ञापूर्वक और इरादापूर्वक त्याग नहीं किया जाता तब तक उन वस्तुसम्बन्धी नाहक का पापबंध हुआ करता है। अज्ञात फल --अज्ञात फल या जिसका नाम या स्वरूप स्वयं या दूसरे नहीं जानते हों उसे नहीं खाना चाहिये। क्योंकि ऐसा करने से कदाचित् निषेध किये अथवा विषवृक्ष के फल खाने में प्रवृत्ति हो जाय, इसलिए विद्वानों को अज्ञात फल नहीं खाना चाहिये। रात्रि-भोजन से होने वाले दोष-अनेक पापस्थानों में रात्रिभोजन भी एक पाप का ही स्थानक है। सूर्यास्त बाद अनेक श्रावकवत दर्पण-२५ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति होती है। जो जीव तेज प्रकाश में नहीं दिखाई देते वे जीव रात को खाने वाले की थाली में उड़-उड़कर गिरते हैं और वे मरण के शरण होते हैं। रात्रि-भोजन के दोष को जानने वाले जो व्यक्ति दिन प्रारम्भ से और सूर्यास्त पूर्व दो घड़ी का त्याग कर शेष दिन में में ही भोजन करते हैं, वे पुण्य के भागी होते हैं। जो मनुष्य दिन का त्याग कर रात्रि को भोजन करते हैं, वे रत्न का त्याग कर कांच को स्वीकार करते हैं। जो भाग्यशाली पुरुष सर्वदा रात्रि-भोजन का त्याग करते हैं, वे अपने प्राधे आयूष्य के उपवासी होते हैं। रात्रि-भोजन से होने वाले पाप के प्रभाव से परभव में उल्लू, कौना, बिल्ली, गिद्ध, कबूतर, सूअर, सर्प, बिच्छू और गिलहरी आदि की नीच योनि में जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार की योनि में जन्म लेने वाले पशु-पक्षी अधिकतर मांस का ही आहार करने वाले होते हैं, इसलिये वहाँ से मरकर वे दुर्गति में जाते हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि रात्रि-भोजन करने वाला तिर्यंचगति में जाकर परम्परा से नरक आदि दुगति का मेहमान बनता है। रात्रि-भोजन का त्याग धर्मदृष्टि से हितकर है, इतना ही नहीं अपितु आरोग्य की दृष्टि से भी वह सबका अत्यन्त हित करने वाला ही है। रात्रि-भोजन करने वाले को शारीरिक क्या हानि होती है ? उस विषय में शास्त्रकार फरमाते हैं कि मेधां पिपीलिका हन्ति, यूका कुर्याज्जलोदरम् । कुरुते मक्षिका वान्ति, कुष्टरोगं च कोलिकः ॥१॥ अर्थ--चींटी बुद्धि का नाश करती है, जू खाने से जलोदर श्रावकवत दर्पण-२६ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रोग होता है, मक्खो के कराती है और करोलिया से कोढ़ रोग उत्पन्न होता है। कण्टको दारुखण्डं च वितनोति गलव्यथाम् । व्यंजनांतनिपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः ॥२॥ अर्थ--कांटा या लकड़ी का टुकड़ा खाने में आ जाय तो गले में तकलीफ होती है, सब्जी में पड़ा बिच्छू तालू को छेद देता है। विलग्नश्च गले वालः, स्वरभंगाय जायते । इत्यादयो दृष्टदोषाः, सर्वेषां निशिभोजने ॥ ३ ॥ अर्थ--गले में बाल आ जाय तो स्वर भंग हो जाता है । ये सब रात्रि-भोजन के स्पष्ट दोष हैं । ऊपर बतलाये अनुसार रात्रि-भोजन का त्याग नहीं करने वाले की इस लोक तथा परलोक दोनों में हानि होती है। रात को होटल आदि में खाने वाले को शारीरिक हानि के अलावा मृत्यु पर्यन्त महान् हानि भी हुई है, जो आज-कल के अखबारों में पढ़ने से मालूम होता है। अन्य स्थान पर भी कहा है कि चत्वारि नरकद्वारारिण, प्रथमं रात्रिभोजनं । परस्त्रीगमनं चैव, सन्धानाऽनन्तकायिके ॥४॥ अर्थ--चार नरकों के द्वार में प्रथम रात्रि-भोजन है, दूसरा परस्त्री गमन है, तोसरा बिना सूखा प्राचार कहते हैं और चौथा अनन्तकाय अर्थात् सम्पूर्ण जाति के कन्द-मूल आदि हैं। मद्य-मांसाशनं रात्रौ, भोजनं कंदभक्षणम् । ये कुर्वन्ति वृथा, तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः ॥५॥ श्रावकत्रत दर्पण-२७ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-मदिरा (शराब), मांस, रात्रि-भोजन और कन्दमूल का भक्षण जो लोग करते हैं, उनकी तीर्थ-यात्रा, तप-जप सब व्यर्थ हैं। मद्यमांसाशनं रात्रौ, भोजनं कंदभक्षणं । भक्षरणान्नरकं याति, वर्जनात् स्वर्गमाप्नुयात् ॥ ६॥ अर्थ-मदिरा, मांस-भक्षण, रात्रि-भोजन और जमीकन्द खाने से मनुष्य नरक में जाता है और इन्हें छोड़ देने से स्वर्ग प्राप्त होता है। चातुर्मास्ये तु संप्राप्ते रात्रिभोज्यं करोति यः। तस्य शुद्धिर्न विद्यत, चांद्रायणशतैरपि ॥ ७॥ अर्थ-चातुर्मास आने पर भी जो रात्रि-भोजन करता है, उसकी सैकड़ों चांद्रायण तप से भी शुद्धि नहीं होती। मार्कण्डेय-पुराण में भी कहा है किअस्तं गते दिवानाथे, पापो रुधिरमुच्यते । अन्न मांसरूपं प्रोक्त, मार्कण्डेरण महषिरणा ॥८॥ अर्थ--सूर्य अस्त होने पर पानी पीना खून पीने के बराबर है और अन्न खाना तो मांस खाने के तुल्य है, ऐसा मार्कण्ड ऋषि ने भी कहा है। पद्म-पुराण में भी कहा है किमते स्वजनमात्रेपि, सूतकं जायते किल । अस्तं गते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ॥६॥ उदकमपि न पातव्यं, रात्रावत युधिष्ठिर। तपस्विना विशेषेण, गृहिणा तु विवेकिना ॥१०॥ श्रावकवत दर्पण-२८ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-किसी स्वजन की मृत्यु होती है तो सूतक आता है तो फिर सूर्य अस्त होने पर भोजन कैसे किया जा सकता है। हे युधिष्ठिर! विवेकी गृहस्थों तथा तपस्वियों को तो रात्रि के समय खास कर पानी भी नहीं पीना चाहिये। __इस प्रकार हर शास्त्र में निषेध किये गये रात्रि-भोजन को तो जरूर त्याग देना चाहिये, स्व और पर आत्मा का रक्षण करना यह समझदार और बुद्धिमानों का मुख्य कर्त्तव्य होना चाहिये। यदि हमेशा के लिये रात्रि-भोजन का त्याग सम्भव न हो तो कम से कम चातुर्मास में तो कदापि नहीं करना चाहिये । यदि इतना भी न बन सके तो अशक्त और प्रमादी मनुष्यों को पर्व तिथियों पर तो छोड़ ही देना चाहिये। रात्रि-भोजन का त्याग करने में जो गुण हैं, उन्हें सर्वज्ञ के सिवाय और कोई कहने में समर्थ नहीं है। द्विदल का स्वरूप-कच्चा दूध, कच्चा दही और कच्ची छाछ में द्विदल मिलने से उस में उत्पन्न हुए सूक्ष्म जन्तुओं को केवलज्ञानी भगवन्तों ने ही देखा है। इसलिये विवेकी पुरुषों को इसका त्याग करना चाहिये। द्विदल अर्थात् दो टुकड़ों में हों ऐसे मूग, उड़द, अरहर आदि सब प्रकार की दालें गिनी जाती हैं। जिनसे तेल निकलता हो ओर दो टुकड़े होते हों, उनकी गिनती दालों में नहीं होती। जिसके दो टुकड़े हों ऐसी सभी दालों के हरे, सूखे साग के साथ अथवा जिस वस्तु में दाल का आटा, दाल की सीग, भाजी आदि के साथ कच्चा दूध, कच्चा दही और कच्चो छाछ (कच्ची अर्थात् जहाँ तक अंगुली न जले श्रावकव्रत दर्पण-२९ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसी गरम न हों तब तक) नहीं खाई जा सकती है। कई स्थानों पर छाछ के सामान्य गरम होने पर उसमें चने का प्राटा डालते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं है। दाल खाने के बाद, मुंह बराबर साफ कर दही, दूध और छाछ ली जा सकती है। दोनों साथ-साथ खाने में ही दोष गिना जाता है। द्विदल के स्वरूप को समझ कर सभी को इस पाप से बचने का प्रयत्न करने की आवश्यकता है। इसके अलावा बासो अन्न, भात, रोटी आदि तथा दो रात्रि के बाद का दही और बासी अन्न अर्थात् जिसमें रस चलित हो गया हो, समय व्यतीत हुई मिठाई आदि। इसके अलावा बर्फ, अोला, सब प्रकार का विष, कच्ची मिट्टी आदि, तुच्छ फल (जिसमें खाने का थोड़ा और फेंकने का ज्यादा हो वे), अचार आदि, बहु बोज और बैंगन आदि को अभक्ष्य समझना चाहिये। अभक्ष्य के स्वरूप को समझ कर हर एक को इस पाप से बचने की आवश्यकता है। क्योंकि धर्म में दया-धर्म ही मुख्य है। निरर्थक पाप से बचने के लिए श्रावकों को भोग और उपभोग को वस्तुनों का परिमाण भी करना चाहिये और उसके लिये नोचे बताये चौदह नियमों का प्रात:-सायं संकल्प करना जरूरी है। (१) सचित्त-दिन में जितनी सचित्त वस्तु मुंह में डालना हो उसकी संख्या निश्चित करना। (२) द्रव्य-अलग-अलग नाम वाली और स्वाद वाली जितनी वस्तुएँ खाना हों उनकी संख्या निश्चित करना । (३) विगई-घी, गुड़, दूध, दही, तेल और कड़ा इन छह श्रावकवत दर्पण-३० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विगई में से निरन्तर एक विगई (मूल से अथवा कच्ची) का त्याग करना। (४) उपानह-जूता, चप्पल, मोजे आदि की संख्या निश्चित करना। (५) तम्बोल-सुपारी, इलायची आदि मुखवास खाने का निश्चित करना। (६) वस्त्र-दिन में अमुक कपड़े पहनने की संख्या निश्चित करना। (७) कुसुम-सूघने की वस्तु का वजन निश्चित करना। (८) वाहन-गाड़ी, घोड़ा, ऊँट, मोटर, ट्रेन, ट्राम, बस आदि वाहनों में बैठने की संख्या निश्चित करना। . (६) शयन-शय्या, प्रासन, गादी पर बैठने की संख्या निश्चित करना। (१०) विलेपन--शरीर पर विलेपन करने की वस्तु का माप निश्चित करना। (११) ब्रह्मचर्य-यथाशक्ति इसका नियम लेना। (१२) दिशि—दसों दिशाओं में जाने की मर्यादा निश्चित करना। (१३) स्नान- स्नान की गिनती निश्चित करना। श्रावकवत दर्पग-३१ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) भात-पानी--भोजन-पानी का वजन निश्चित करना। पृथ्वीकाय-मिट्टी, नमक, चॉक आदि काम में लेने का परिमारण करना। अपकाय-पानी पीने तथा काम में लेने के वजन का परिमारण करना। तेउकाय-चूल्हा, दीपक आदि का परिमारण करना। वाउकाय-पंखा, झूले वगैरह का परिमाण करना । वनस्पति–उपयोग में आने वाली सब्जी का नाम से अथवा तौल से परिमारण करना। असि-सुई, कैंची, सरोता आदि को काम में लेने की संख्या का परिमाण करना। मसी-खड़िया, कलम आदि को काम में लेने की संख्या निश्चित करना। कृषि-हल, कुल्हाड़ी, फावड़ा, हलवाणी आदि को काम में लेने की संख्या का परिमारण करना । जगत् में खाने की, पीने की, प्रोढ़ने की और काम में आने को अनेक चोजें हैं। इन समस्त वस्तुओं का उपयोग हम एक साथ नहीं करते और कर भी नहीं सकते, फिर भी पच्चक्खाण (प्रतिज्ञा) के अभाव में उन वस्तुओं पर अपनी इच्छा लगी रहती है। इसलिये उन इच्छाओं द्वारा हमारी आत्मा उन श्रावकवत दर्पण-३२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुओं का उपयोग नहीं करने पर भी पाप उपार्जन किया करती है। अर्थात् व्यर्थ में उन पापों से आत्मा लिप्त रहती है इसलिये उन समस्त पापों से मुक्त होने के लिए प्रत्येक श्रावकश्राविका को ऊपर बताये नियमों का हमेशा पालन करना चाहिये। इसी प्रकार पन्द्रह कर्मादानों के व्यापार का भी त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है। एक मनुष्य पन्द्रह प्रकार का व्यापार नहीं करता, फिर भी उनका त्याग न होने से उन पापों की गठड़ी व्यर्थ में ही अपनी आत्मा पर चढ़ती है। इसलिये भयंकर पापवाले व्यापारों का बुद्धिमान् श्रावक को त्याग करना चाहिये। त्याग करने लायक पंद्रह कर्मादान (१) अंगार-कर्म-चूना, ईंट आदि पकाने का व्यापार नहीं करना। (२) वन-कर्म-जंगल काटने का, फूल, सब्जी, लकड़ी वगैरह वनस्पति का व्यापार नहीं करना । (३) शकट-कर्म-गाड़ी, हल, प्रमुख तैयार नहीं बेचना । (४) भाटक-कर्म-गाड़ी, घोड़ा आदि किराये पर नहीं चलाना। (५) स्फोटक-कर्म--सुरंग नहीं खुदवाना, खान नहीं खुदवाना, खेत, कुप्रा, बावड़ी खुदवाने का धन्धा नहीं करना । (६) दंत-वाणिज्य--हाथी-दांत आदि का व्यापार नहीं करना । श्रावक-३ . श्रावकव्रत दर्पण-३३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) लाक्ष-वारिणज्य-लाख आदि का व्यापार नहीं करना। (८) रस-वारिणज्य-मद, शहद, मदिरा, मांस, मक्खन आदि का व्यापार नहीं करना । (९) विष-वाणिज्य-अफीम, सोमल या वच्छनाग आदि जहरीली वस्तुओं का व्यापार नहीं करना । (१०) केश-वाणिज्य-पशु-पक्षी के बाल, पीछी आदि का व्यापार नहीं करना। (११) निलांछन-कर्म--बैल, घोड़ा आदि को नपुंसक नहीं करना तथा उनके नाक, कान आदि अंगोपांगों को छेदने का व्यापार नहीं करना। (१२) दवदान-कर्म--वन में, सीमा में अन्य स्थान में किसी भी जगह अग्निदाह नही करवाना । (१३) यन्त्रपोलन-मील (कारखाना), जीन, संचा, घण्टी, घानी आदि का व्यापार नहीं करना। (१४) जलशोषण कर्म-सरोवर, तालाब, नदी आदि के पानी को नहीं सुखाना। (१५) असती पोषण-मनोरंजन के लिए कुत्ता, बिल्ली, मैना, कबूतर आदि नहीं पालना तथा व्यापार के निमित्त असती स्त्री, वेश्यादि का पोषण नहीं करना। श्रावकवत दर्पण-३४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) अनर्थदण्ड विरमरण जिसमें कोई लाभ नहीं होता हो ऐसी क्रिया कर प्रात्मा को दण्डित करना, उसका नाम अनर्थदण्ड कहलाता है। शास्त्रकारों ने अनर्थदण्ड चार प्रकार के बताये हैं-अपध्यान, पापोपदेश, हिंस्रप्रदान और प्रमादाचरण । (१) अपध्यान ---दुश्मन का घात करू, राजा होऊँ, गाँवनगर आदि में आग लगा दूं आदि बुरा ध्यान करना, वह अपध्यान कहलाता है। ऐसा अपध्यान नहीं करना । (२) पापोपदेश-जिस सूचना, सलाह या शिक्षा के देने से दूसरे को प्रारम्भ-समारम्भ करने की प्रेरणा मिले, उसे पापोपदेश कहते हैं। जैसे बैलों का दमन करो, घोड़ों को नपुसक करो, दुश्मनों को निकाल दो, अस्त्र-शस्त्र को तेज करो, आदि अनर्थदण्ड हैं। जिसकी जवाबदारी अपने पर नहीं, उनको ऐसे शब्द कहना, वह पापोपदेश है। (३) हिस्रप्रदान-गाड़ी, हल, शस्त्र, अग्नि, शंबल आदि हिंसा में कारणभूत वस्तुएँ बिना प्रयोजन दूसरों को देना, हिंस्रप्रदान है। इसका त्याग करना चाहिये। (४) प्रमादाचरण-कुतूहल से गीत, नृत्य और नाटक वगैरह नहीं देखना, विकारपोषक कामशास्त्र में आसक्ति नहीं रखना, जुआ और मदिरा आदि का सेवन नहीं करना, जल-क्रीड़ा, झूला आदि की क्रीड़ा और आपस में जानवरों का युद्ध नहीं कराना। खान-पान सम्बन्धी, स्त्री सम्बन्धी, देश श्रावकवत दर्पण-३५ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बन्धो तथा राज्य सम्बन्धी निरर्थक चर्चा नहीं करना। रोग और रास्ते के परिश्रम सिवाय सारी रात नहीं सोते रहना तथा श्री जिनेश्वर भगवान् के मन्दिर के अन्दर विलास, हास्य, थूकना, निद्रा नहीं लेना तथा परस्त्रो आदि की दुष्कथा और चार प्रकार के आहार का भी त्याग करना । ऊपर बताये गये ये सब प्रमादाचरण त्याग करने योग्य हैं। (६) सामायिक व्रत आर्त और रौद्र ध्यान का त्याग कर एवं मानसिक, वाचिक तथा कायिक पापकर्मों का त्याग कर, मुहर्त पर्यन्त समता धारण करने का नाम सामायिक है। सामायिक में सम और प्राय ये दो शब्द हैं। इनमें सम अर्थात् राग-द्वेष का अभाव और प्राय अर्थात् ज्ञानादि का लाभ, उसके लिये व्रत सामायिक व्रत है। जब तक प्राणी सामायिक में रहता है, तब तक तथा जितनी बार सामायिक करे उतनी बार वह अशुभ कर्म का नाश करता है। श्रावक सामायिक करता है तब साधु जैसा होता है इसलिये बहुत बार सामायिक करना चाहिये। स्थिर चित्त वाले व्रत-धारी गृहस्थ श्री चन्द्रावतंसक राजा की तरह संचित कर्मों का क्षय करते हैं। (१०) देशावकाशिक व्रत दिशा परिमाण रूप प्रथम गुणवत में दशों दिशाओं में प्रवृत्ति की जो मर्यादा बाँधी जाती है, वह जीवन पर्यन्त होती है। वह मर्यादा दिन-रात या प्रहर पूर्ति तक की करना, उसका नाम देशावकाशिक व्रत है। इस देशावकाशिक व्रत में मात्र दिशा का श्रावकवत दर्पण-३६ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही परिमाण है ऐसा नहीं, किंतु उपलक्षण से भोगोपभोग व्रतों का भी संक्षप इस व्रत में किया जाता है। उन सबको देशावकाशिक कहते हैं। (११) पौषध व्रत अष्टमी, चतुर्दशी आदि चारों पर्यों में उपवासादि तप करना, पापवाली सदोष प्रवृत्ति का त्याग करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना और शरीर के संस्कारों का त्याग करना, इस तरह पौषध व्रत चार प्रकार का है। धर्म का पोषण करे वह पौषध । ये चार प्रकार के पौषध सर्व से और देश से दो प्रकार के हैं। इनमें पूर्वाचार्यों की परम्परा से वर्तमान में आहार पौषध सर्व से और देश से तथा बाकी का पौषध सर्व से ही होता है। आहार पौषध में चोविहार उपवास वह सर्व पौषध है और तिविहार उपवास, आयंबिल, निवि, एकासना आदि देश पौषध हैं; अन्य व्रतों की अपेक्षा इस व्रत में त्याग की शिक्षा विशेष मिलती है, साधु-जीवन को पवित्रता का अांशिक परिचय होता है, क्योंकि इसमें जीवन पर्यन्त नहीं, फिर भी चार प्रहर या आठ प्रहर की मर्यादा वाली सामायिक का आचरण होता है। गृहस्थ-जीवन में रहकर भी कठिनाई से पालन किया जा सके ऐसे पवित्र पौषध व्रत का जो पालन करता है, वह चुलनी पिता की तरह धन्यवाद का पात्र है। (१२) अतिथिसंविभाग व्रत अन्न, पानी आदि चार प्रकार का आहार, पात्र, वस्त्र और रहने के लिए स्थान अतिथियों-साधुओं को देना, यह अतिथिसंविभाग नाम का व्रत है। श्रावकवत दर्पण-३७ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • हमेशा जो सत् प्रवृत्ति में ही लयलीन रहते हैं, वे अतिथि कहलाते हैं और संविभाग अर्थात् अपने लिए तैयार किया शुद्ध, निर्दोष, अन्न, पानी, वस्त्र, औषधि आदि देश, काल, श्रद्धा, सत्कार, क्रम, पात्र आदि का ध्यान रख कर उच्च प्रकार की भक्तिपूर्वक केवल आत्मकल्याण की बुद्धि से पंच महाव्रतधारी मुनिराज को दान देना, उसे अतिथि संविभाग कहते हैं । संयम तथा शरीर की रक्षा करने के लिए तथा शीत, ताप, मच्छरादि के उपद्रव को दूर करने के लिए साधुनों को वस्त्र की श्रावश्यकता रहती है । इसके बिना धर्मध्यान में स्थिरता नहीं रह सकती । इसी प्रकार रहने के स्थान की भी आवश्यकता है । चार पात्र के बिना अन्न पानी लेने में और आहार करने में कठिनाई होती है इसलिये पात्र दान की जरूरत रहती है । प्रकार में से किसी भी तरह का दान देना, वह भवसमुद्र से पार उतारने वाला होता है । उत्तम मुनि को दान देने के प्रभाव से संगमक- गोपाल- पुत्र को अत्यंत ही आश्चर्य करने वाली समृद्धि की प्राप्ति हुई थी । बारह व्रतों में लगने वाले प्रतिचारों का त्याग करना प्रतिचारयुक्त व्रत कल्याणकारी नहीं बनते, इसलिये हर एक व्रत में लगने वाले अतिचारों को त्यागना चाहिये । अतिचारों की विस्तृत जानकारी दूसरे ग्रन्थों अथवा गुरुगम से जानना । यहाँ तो व्रतों में लगने वाले अतिचारों से बचने के लिए कहाँ-कहाँ सावधानी रखने की जरूरत है, उसे संक्षेप में बताते हैं । श्रावकव्रत दर्पण - ३८ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रतों में अतिचारों से बचने के उपाय क्रोध से मनुष्य अथवा पशु को कठोर बंधन से नहीं बांधना। किसी प्राणी के अंगोपांग को नहीं छेदना। प्राणियों से शक्ति उपरान्त काम नहीं लेना। मतलब यह है कि दया-धर्म का पशु, मजदूर, नौकर, चाकर आदि से ह्रास न हो, इस प्रकार काम लेना। प्राणियों के मर्म-स्थान आदि में प्रहार नहीं करना । जीवों को भूखा-प्यासा नहीं रखना, दूसरों को दुःख हो ऐसा पापकारी उपदेश नहीं देना। विचार किये बिना या अभिप्राय जाने बिना अचानक किसी को 'तू चोर है', 'व्यभिचारी है', ऐसे गलत आरोप नहीं लगाना। दूसरे की गुप्त बात अनुमान से जानकर प्रकट नहीं करना । भोतर ही भीतर प्रीति ट जाय ऐसा काम नहीं करना अथवा मित्र की गुप्त बात नहीं बताना। झूठा नाम नहीं लिखना। खराब सलाह नहीं देना। लोग गलत रास्ते पर जावें ऐसा भाषण नहीं देना। किसी को चोरी करने की प्रेरणा नहीं करना। चोरी का माल नहीं खरीदना। राज्य के हित में बने नियमों का उल्लंघन नहीं करना। कर (टैक्स) की चोरी नहीं करना। माल में किसी प्रकार की मिलावट नहीं करना। गलत तौल या गलत माप नहीं रखना। कामभोग सम्बन्धी तीव्र अभिलाषा नहीं रखना। शर्म, मर्यादा-भंग होने वाला आचरण नहीं करना। लिये हुए परिग्रह परिमारण का प्राशय कम हो, इस प्रकार संख्या, तौल या भाव प्रांकने में गड़बड़ नहीं करना। श्रावकव्रत दर्पण-३९ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस दिशा में जाने का जितना प्रमारण रखा हो उसका उल्लंघन नहीं करना । अभक्ष्य, अनन्तकाय का त्याग करना । पन्द्रह कर्मादानों तथा कषाय, शिकार आदि का पोषण करने वाला धन्धा नहीं करना । हल, हलवारणी, अग्नि वगैरह पाप के साधन बने वहाँ तक दूसरों को नहीं देना । प्रमाण से अधिक उपभोग की वस्तु नहीं रखना | अधिक वाचालता नहीं रखना । मर्म-भेदी वचन नहीं बोलना, दूसरे हंसे और अपनी हंसी हो ऐसी भांड जैसी चेष्टाएँ नहीं करना । मन, वचन और काया को निष्पाप बनाने का प्रयत्न करना । इसके लिये प्रतिदिन कम से कम दो घड़ी ( ४८ मिनट) का सामायिक अनुष्ठान करना । कम से कम आवश्यकता से रहना सीखना । सांसारिक प्रवृत्तियों की मर्यादा रखना । पर्व दिनों में सावद्य व्यापार का त्याग करना, पवित्र स्थान पर धर्म ध्यान करने के लिए पौषध करना । साधु-साध्वी को अतिथि समझ कर उनको शुद्ध आहार- पानी देना और दूसरी भी धर्म साधक जरूरी वस्तुओं का दान देना तथा उनकी यथा-शक्ति शुद्ध हृदय से सेवा भक्ति करना । इस प्रकार जीवन का निर्माण करने से मनुष्य अपना व्यक्तिगत विकास कर सकता है । इसके सिवाय इससे सामाजिक स्तर भी ऊँचा होता है, इससे राष्ट्रीय नैतिक स्तर भी ऊँचा उठ सकता है। वास्तव में, देखा जाय तो एक का असर सम्पूर्ण संसार पर होता है जीवन को निष्पाप बनाने की कला है । आदमी के शुभ कार्य अणुव्रत का आचरण अभ्यास से आगे बढ़ते बढ़ते व्यक्ति महाव्रती भी बन सकता है । जो आदमी सर्वथा श्रावकव्रत दर्पण - ४० Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निष्पाप होता है वह सम्पूर्ण विश्व के जीवों को अभय देने वाला महान् दाता बनता है। महाश्रावक अतिचार रहित बारह व्रतों का आचरण करने वाला और भक्तिपूर्वक श्री जिनमूर्ति, जिनमन्दिर, जिनागम, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूपी इन सात क्षेत्रों में अपना धन काम में लेने वाला तथा दोन-दुःखी, रोगो आदि को करुणापूर्वक दान देने वाला गृहस्थ महाश्रावक कहलाता है। जिस मनुष्य के पास धन विद्यमान होते हुए भी जो उत्तम क्षेत्रों में खर्च नहीं करता, वह मनुष्य उत्तम चारित्र धर्म का आचरण करने में समर्थ नहीं हो सकता। इसमें हेतु यह है कि धन तो बाह्य पदार्थ है तथा वह अनित्य और अनेक अनर्थों की जड़ है, ऐसो तुच्छ वस्तु का भी जो त्याग नहीं कर सकता, वह मनुष्य अत्यन्त कायर गिना जाता है और ऐसा निःसत्त्व मनुष्य दुष्कर चारित्र धर्म का पालन करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात् चारित्रपालन में समर्थ नहीं हो सकता। क्योंकि चारित्र में तो अपना सर्वस्व बाह्य और प्राभ्यन्तर जो कुछ है, उस तमाम का त्याग करना होता है; स्वप्न तथा अपनी मान्यताओं को भी छोड़कर केवल अपने गुरु को समर्पित रहना होता है। जिसमें स्थूल त्याग करने की उदारता नहीं, वह अन्तरंग सूक्ष्म त्याग कैसे कर सकता है ? . तात्पर्य यह है कि शक्ति अनुसार जो बाह्य उचित दान करता है, वही उत्तम योग का सच्चा अधिकारी है। कृपण मनुष्यों को कहीं भी अधिकार नहीं मिलता और कदाचित् श्रावकव्रत दर्पग-४१ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिल भी जाय तब भी उसमें सफलता नहीं मिलती। इसीनिये जीवन में उदारता लाने के लिये हमेशा कुछ-न-कुछ दान धर्म का आचरण करना जरूरी है। __ औदार्य गुण अनेक गुणों की खान है। उदार पुरुष जलती अगरबत्ती के समान है। वे स्वयम् जलकर भी दूसरों को सुगन्ध देते हैं और आसपास के वातावरण को भी मघमघायमान करते हैं। ऐसे उदार श्रावक ही अपने जीवन की पवित्रता और उदारता से विश्व में जनशासन के प्रभाव का विस्तार करते हैं। श्रावकवत दर्पण-४२ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनमें सन्मार्ग की प्राप्ति और आत्माकी उत्क्रान्ति के लिए परम पूज्य अध्यात्मयोगी निःस्पृह शिरोमणि पूज्यपाद पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकर विजयजी गणिवर्य श्री का हिन्दी साहित्य अवश्य पढे 1. जैन मार्ग परिचय 2. महामंप्रकी अनुप्रेक्षा 3. परमेष्ठि - नमस्कार 4. प्रतिमा पूजन 5. नमस्कार-मीमांसा 6. चिंतन की चिनगारी 9. परमात्म-दर्शन 8. चिंतन के फूल 9. चिंतन की चांदनी 10. चिंतन का अम्रत 11. समत्व योग की साधना संपर्क सूज १.कांतिलाल मुणत,१०६,रामगढ-रतलाम (M.P.) R.INDIAN DRAWING EQUIP. INDUSTRIES SHED NO. 2 SIDCO INDUSTRIAL ESTATE AMBATTAR-MADHA5-98. 3.A.V.SHAH & CO.408 ARIHANT. AHMEDABAD STREET, IRON MARKET,BOMBAY-9.