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कहते हैं। छठा, सातवाँ और पाठवाँ ये तीनों व्रत, अणुव्रत क गुण करने वाले होने से इन्हें गुणव्रत कहा गया है। अन्तिम चार व्रत मुनिधर्म-पालन के लिए शिक्षा रूप होने से इन्हें शिक्षाव्रत कहा गया है। यहाँ वे क्रमशः प्रस्तुत किये जा रहे हैं
पाँच अणुव्रत
(१) अहिंसा (पहला अणुव्रत) इस व्रत में निरपराध, हिलते-चलते (त्रस) जीवों को जानबूझ कर (मारने की बुद्धि से) नहीं मारने की प्रतिज्ञा की जाती है। इसके लिए कहा है कि
पगुकुष्टिकुरिणत्वादि, दृष्ट्वा हिंसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां, हिंसा संकल्पतस्त्यजेत् ॥१॥
विवेकी मनुष्य को हिंसा का त्याग करना चाहिये। क्योंकि हिंसा में प्रत्यक्ष रूप से दूसरे को पीड़ा होती है और जहाँ दूसरे को पीड़ा है वहाँ अवश्य पापबंध होता है। इस पाप का विपाक बहुत ही दारुण होता है। इस पाप के उदय से आत्मा पंगु, कुष्टरोगग्रस्त बनती है और लूले-लंगड़ेपन को प्राप्त करती है। शरीर के नाना प्रकार के रोग, अंगोपांग आदि का अधिक व कम होना, यह सब हिंसा का ही फल है। प्राणी-वध में निमित्त बनने वाला मनुष्य, जन्म-मरण के अनन्त और असह्य दुःख पाता है। उस समय उसकी कोई सहायता नहीं करता और ऐसे पुण्यहीन प्राणी को माता-पिता और सम्बन्धियों का वियोग अनेक भवों तक होता है। दुःख, दरिद्रता, दौर्भाग्य तो
श्रावकवत दर्पण-३