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________________ उसके पीछे लगे हो रहते हैं और मन-इच्छित सगे सम्बन्धियों का मिलाप नहीं हो पाता। कर्म का ऐसा नियम है कि दूसरे को जो अल्प भी पीड़ा देते हैं, उससे कम से कम दसगुणी पीड़ा जन्मान्तर में हमको भोगनी पड़ती है। कर्म के नियम का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता। जो मनुष्य निरपराध त्रस जोवों की हिंसा का त्याग नहीं करता, उसमें न्याय-बुद्धि नहीं टिकतो। धर्म का सार थोड़े में इतना ही है कि जो आचरण अपनी आत्मा के लिए अनिष्ट हो, ऐसा आचरण दूसरों के प्रति नहीं करना चाहिये। जैसे सुख अपने को प्रिय है और दुःख अप्रिय है, वैसे ही सर्वजीवों को दुःख अप्रिय और सुख प्रिय है। ऐसा समझ कर दूसरी आत्माओं को भी अपने समान समझ कर अपने को अनिष्ट ऐसी हिंसा नहीं करनी चाहिये, यह न्याय-बुद्धि का लक्षण है। अन्यथा प्रात्मौपम्य भाव का हनन होता है और प्रात्मौपम्य भाव के हनन होने के पश्चात् मानव में मानवता नहीं टिक सकती। पशु और मानव में सिर्फ इतना ही अन्तर है कि मनुष्य अपने मन में अपने समान दूसरों को देख सकता है, जान सकता है और यथायोग्य आचरण भी कर सकता है। पशु में इस बुद्धि का अभाव है। परन्तु मनुष्य भी जो दूसरे की पीड़ा को अपने समान नहीं जानता और शक्य पीड़ा का निवारण नहीं करता है तो उसमें और पशु में अधिक अन्तर नहीं रहता। एक, जन्म से पशु है और दूसरा, विचार से पशु है। जन्म से पशु के बजाय विचार से पशु अधिक भयंकर है। क्योंकि जिस मनुष्य में मुख्यतः मात्र अपने ही सुख का विचार है और दूसरों के सुख-दुःख का बिल्कुल विचार ही नहीं है, वह मनुष्य मौका मिलने पर पशु से भी अधिक क्रूर बनने में नहीं हिचकिचाता। इसलिए आत्म श्रावकवत दर्पग-४
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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