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उपर्युक्त तीन गुण जिसमें हों उसे उत्तम पुरुष श्रावक कहते हैं ।
श्रावक गुणनिष्पन्न शब्द है । उपर्युक्त तीनों गुरणों को धारण करने वाला चाहे कोई भी हो, फिर उसे भाव से श्रावक कहा जा सकता है; जबकि सिर्फ श्रावक कुल में उत्पन्न हुआ हो परन्तु उपर्युक्त गुण उसमें न हों तो वह नाम मात्र के लिए ही श्रावक कहा जाएगा ।
अब
'शृणोति इति श्रावक : ' अर्थात् जो सुने उसका नाम 'श्रावक', इस प्रकार श्रावक शब्द की व्युत्पत्ति होती है । प्रश्न यह होता है कि क्या सुनना ? जगत् में सुनने को तो बहुत कुछ है और सुनाने वाले भी सैकड़ों हैं । इसलिये इसका भी स्पष्टीकरण देते हुए पू. देवेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज बतलाते हैं कि
संपत्त दंसराइ, पइदियहं जइजरगा सुणेय । समायारि परमं, जो खलु तं सावगं बिति ॥ १ ॥
अर्थ - जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है, ऐसा कोई मनुष्य प्रतिदिन साधु-जन के पास साधु-समाचारी ( मुनियों के पवित्र जीवन सम्बन्धी चर्या) और श्रावक - समाचारी ( श्रावकों के कर्त्तव्य ) श्रवण करता है वह मनुष्य निश्चय से श्रावक कहा जाता है ।
श्रावक-धर्म का पालन करने की इच्छा वाले को बारह व्रत स्वीकार करने चाहिये । उन बारह व्रतों के तीन विभाग किये गये हैं । पाँच अणुव्रत, तीन गुरणव्रत और चार शिक्षाव्रत । मुनियों के पाँच महाव्रतों की अपेक्षा छोटे होने से इनको अणुव्रत
श्रावकत्रत दर्पण - २