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________________ कितना दुःख होता होगा? मारने वाले जीव को यह स्वयं ही सोचना चाहिये। शास्त्र में कहा है कि प्राणियों को मारने वाले, रौद्र ध्यान में तत्पर सुभूम और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सातवीं नरक में गये हैं। मनुष्य को हाथरहित होना अच्छा है, अपंग होना ठीक है और बिना शरीर के होना ठीक है, परन्तु सम्पूर्ण शरीर वाला होकर हिंसा करने में तत्पर होना ठीक नहीं है। विघ्न की शान्ति के लिये की गई हिंसा भी विघ्न के लिए ही होती है। कुलाचार मानकर की गई हिंसा भी कुल का नाश करने वाली होती है। वंश-परंपरा से चली आने वाली हिंसा का भी जो त्याग कर देता है वह कालसौकरिक के पुत्र सुलस की तरह प्रशंसा का पात्र बनता है। जब तक मनुष्य हिंसा का त्याग नहीं करता तब तक उसका इन्द्रिय-निग्रह, देव-गुरु की उपासना तथा दान, अध्ययन और तप आदि शुभ कर्म भी निष्फल हो जाते हैं। बड़े खेद की बात है कि शास्त्रों द्वारा हिंसा-प्रधान उपदेश देने वाले लोभ से अन्धे हुए निर्दय लोग, मन्द बुद्ध वाले भोले-भाले लोगों को नरक में भेजते हैं। देवों को बलिदान देने के बहाने अथवा यज्ञ के बहाने जो निर्दय होकर प्राणियों को मारता है, वह घोर दुर्गति में जाता है। सब जीवों पर समभाव, शोल, दयारूप मूल वाले जगत् कल्याणकारी धर्म का त्याग कर, मंद-बुद्धि लोगों ने हिंसा में भी धर्म कह दिया यह कितने आश्चर्य की बात है ! सच बात तो यह है कि जो मनुष्य अन्य प्राणियों को अभयदान देता है, उसे अन्य प्राणियों की तरफ से भय नहीं रहता है क्योंकि जैसा देते हैं वैसा ही फल मिलता है। हिंसा-अहिंसा के विषय में कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि हिंसक प्राणियों का नाश करने में पाप नहीं है। इसके समर्थन श्रावकवत दर्पण-८
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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