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________________ जैसा आहार वैसी बुद्धि-विशुद्ध जीवन जीने के लिए विशुद्ध मन चाहिये, विशुद्ध मन के लिए विशुद्ध अन्न चाहिये । अपने यहाँ कहावत है कि 'पाहार जैसी बुद्धि' वैसे ही जर्मन आदि देशों में भी ऐसी ही कहावत है कि मनुष्य जैसा खाता है वैसा होता है' आदि। इस अनुभव को कोई इन्कार नहीं कर सका। मनुष्य को नीरोग रहना हो तो जैसे अभक्ष्य का त्याग जरूरी है वैसे मनुष्य को दयालु बनना हो तो भी इसी की जरूरत होती है । इस अभक्ष्य का त्याग आज एक बालक से लेकर वृद्ध तक भी संस्कारी जैन कूल में किसी भी प्रकार के दबाव, अभिमान या आडम्बर बिना नैसगिक रीति से देखने को मिलता है। इस सत्य को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता और ऐरो मनुष्य ही जीवरक्षादि प्रात्मा के उच्च अध्यवसायों को हमेशा के लिए टिका सकते हैं और अपनी सात्त्विक, दयालु और कोमल अहिंसक प्रवृत्तियों को घोर हिंसक जमाने में भी जीवन के अन्त समय तक आँच नहीं आने देते हैं। इससे अपना यह भव और आने वाला भव भी सुधारने वाले बनते हैं। इससे विपरीत जोजो वस्तुएँ अभक्ष्य बताई गई हैं, उनका भक्षण करने मात्र से इस लोक में ही रोगादि का भय है इतना ही नहीं, परन्तु उनका परभव भी बिगड़े बिना नहीं रहता। अनेक प्रकार की असह्य यातनाएँ नरक आदि दुर्गति में भोगनी ही पड़ती हैं, उस समय अभक्ष्य-भक्षण से जो सुख प्राप्त किया है उससे अनन्त गुणी अधिक पीड़ा भोगनी पड़ती है, उसके सिवाय छुटकारा नहीं होता है। अभक्ष्यभक्षण आदि से प्रत्यक्ष और परोक्ष क्या-क्या नुकसान होता है, वह अब यहाँ योगशास्त्रादि महाग्रन्थों के अनुसार बतलाया जाता है। मदिरा पीने से होने वाले दोष-मदिरापान से बुद्धि नष्ट श्रावकव्रत दर्पण-२१
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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