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है, वहाँ जीवों की पीड़ा में निमित्तभूत बनता है इसलिए वह अपनी प्रवृत्ति को दिशापरिमारण से मर्यादित करे तो उतने भाग से बाहर के जीवहिंसादि होने के पाप से अटकता है। जो मनुष्य दिविरति व्रत लेता है, वह सम्पूर्ण संसार पर आक्रमण करने वाले लोभसमुद्र को आगे बढ़ने से रोक लेता है ।
(७) भोगोपभोगमान (दूसरा गुणवत)
शक्ति के अनुसार जिस व्रत में भोगोपभोग की संख्या निश्चित करने में आती है वह भोगोपभोगमान नामका सातवाँ व्रत (दूसरा गुणवत) कहलाता है। एक ही बार भोगा जा सके ऐसे अन्न, पुष्पमाला, तांबुल, विलेपन आदि को भोग कहते हैं और बारम्बार भोगे जा सकें ऐसे वस्त्र, अलंकार, घर, शय्या, प्रासन, वाहन आदि को उपभोग कहते हैं। इस व्रत में भोगने योग्य पदार्थों का परिमारण निश्चित करना होता है, परन्तु भोगने के अयोग्य पदार्थों का तो सर्वथा त्याग ही करना चाहिये।
सर्वथा त्याग करने योग्य पदार्थ-हर प्रकार की शराब, मांस, मक्खन, शहद, बड़, पीपल आदि पाँच जाति के फल, अनंतकाय (कंद मूलादि), अज्ञात फल, रात्रि-भोजन, कच्चा दूध, दही तथा छाछ के साथ द्विदल, बासी अन्न, दो दिन बाद का दही और चलित रस वाला अन्न । ये सब जैनशासन में अभक्ष्य गिने जाते हैं। ऊपर बताये अभक्ष्य व अनन्तकाय ऐसी किस्म के पदार्थ हैं कि उनका भोजन करने वाला प्राणी पूर्व का तीव्र पुण्योदय न हो तो भाग्य से ही आने वाले रोगों के भोग से बच सकता है।
श्रावकवत दर्पण-२०