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________________ निष्पाप होता है वह सम्पूर्ण विश्व के जीवों को अभय देने वाला महान् दाता बनता है। महाश्रावक अतिचार रहित बारह व्रतों का आचरण करने वाला और भक्तिपूर्वक श्री जिनमूर्ति, जिनमन्दिर, जिनागम, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका रूपी इन सात क्षेत्रों में अपना धन काम में लेने वाला तथा दोन-दुःखी, रोगो आदि को करुणापूर्वक दान देने वाला गृहस्थ महाश्रावक कहलाता है। जिस मनुष्य के पास धन विद्यमान होते हुए भी जो उत्तम क्षेत्रों में खर्च नहीं करता, वह मनुष्य उत्तम चारित्र धर्म का आचरण करने में समर्थ नहीं हो सकता। इसमें हेतु यह है कि धन तो बाह्य पदार्थ है तथा वह अनित्य और अनेक अनर्थों की जड़ है, ऐसो तुच्छ वस्तु का भी जो त्याग नहीं कर सकता, वह मनुष्य अत्यन्त कायर गिना जाता है और ऐसा निःसत्त्व मनुष्य दुष्कर चारित्र धर्म का पालन करने में कैसे समर्थ हो सकता है ? अर्थात् चारित्रपालन में समर्थ नहीं हो सकता। क्योंकि चारित्र में तो अपना सर्वस्व बाह्य और प्राभ्यन्तर जो कुछ है, उस तमाम का त्याग करना होता है; स्वप्न तथा अपनी मान्यताओं को भी छोड़कर केवल अपने गुरु को समर्पित रहना होता है। जिसमें स्थूल त्याग करने की उदारता नहीं, वह अन्तरंग सूक्ष्म त्याग कैसे कर सकता है ? . तात्पर्य यह है कि शक्ति अनुसार जो बाह्य उचित दान करता है, वही उत्तम योग का सच्चा अधिकारी है। कृपण मनुष्यों को कहीं भी अधिकार नहीं मिलता और कदाचित् श्रावकव्रत दर्पग-४१
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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