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________________ जिस दिशा में जाने का जितना प्रमारण रखा हो उसका उल्लंघन नहीं करना । अभक्ष्य, अनन्तकाय का त्याग करना । पन्द्रह कर्मादानों तथा कषाय, शिकार आदि का पोषण करने वाला धन्धा नहीं करना । हल, हलवारणी, अग्नि वगैरह पाप के साधन बने वहाँ तक दूसरों को नहीं देना । प्रमाण से अधिक उपभोग की वस्तु नहीं रखना | अधिक वाचालता नहीं रखना । मर्म-भेदी वचन नहीं बोलना, दूसरे हंसे और अपनी हंसी हो ऐसी भांड जैसी चेष्टाएँ नहीं करना । मन, वचन और काया को निष्पाप बनाने का प्रयत्न करना । इसके लिये प्रतिदिन कम से कम दो घड़ी ( ४८ मिनट) का सामायिक अनुष्ठान करना । कम से कम आवश्यकता से रहना सीखना । सांसारिक प्रवृत्तियों की मर्यादा रखना । पर्व दिनों में सावद्य व्यापार का त्याग करना, पवित्र स्थान पर धर्म ध्यान करने के लिए पौषध करना । साधु-साध्वी को अतिथि समझ कर उनको शुद्ध आहार- पानी देना और दूसरी भी धर्म साधक जरूरी वस्तुओं का दान देना तथा उनकी यथा-शक्ति शुद्ध हृदय से सेवा भक्ति करना । इस प्रकार जीवन का निर्माण करने से मनुष्य अपना व्यक्तिगत विकास कर सकता है । इसके सिवाय इससे सामाजिक स्तर भी ऊँचा होता है, इससे राष्ट्रीय नैतिक स्तर भी ऊँचा उठ सकता है। वास्तव में, देखा जाय तो एक का असर सम्पूर्ण संसार पर होता है जीवन को निष्पाप बनाने की कला है । आदमी के शुभ कार्य अणुव्रत का आचरण अभ्यास से आगे बढ़ते बढ़ते व्यक्ति महाव्रती भी बन सकता है । जो आदमी सर्वथा श्रावकव्रत दर्पण - ४०
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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