SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वस्तुओं का उपयोग नहीं करने पर भी पाप उपार्जन किया करती है। अर्थात् व्यर्थ में उन पापों से आत्मा लिप्त रहती है इसलिये उन समस्त पापों से मुक्त होने के लिए प्रत्येक श्रावकश्राविका को ऊपर बताये नियमों का हमेशा पालन करना चाहिये। इसी प्रकार पन्द्रह कर्मादानों के व्यापार का भी त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है। एक मनुष्य पन्द्रह प्रकार का व्यापार नहीं करता, फिर भी उनका त्याग न होने से उन पापों की गठड़ी व्यर्थ में ही अपनी आत्मा पर चढ़ती है। इसलिये भयंकर पापवाले व्यापारों का बुद्धिमान् श्रावक को त्याग करना चाहिये। त्याग करने लायक पंद्रह कर्मादान (१) अंगार-कर्म-चूना, ईंट आदि पकाने का व्यापार नहीं करना। (२) वन-कर्म-जंगल काटने का, फूल, सब्जी, लकड़ी वगैरह वनस्पति का व्यापार नहीं करना । (३) शकट-कर्म-गाड़ी, हल, प्रमुख तैयार नहीं बेचना । (४) भाटक-कर्म-गाड़ी, घोड़ा आदि किराये पर नहीं चलाना। (५) स्फोटक-कर्म--सुरंग नहीं खुदवाना, खान नहीं खुदवाना, खेत, कुप्रा, बावड़ी खुदवाने का धन्धा नहीं करना । (६) दंत-वाणिज्य--हाथी-दांत आदि का व्यापार नहीं करना । श्रावक-३ . श्रावकव्रत दर्पण-३३
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy