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________________ • हमेशा जो सत् प्रवृत्ति में ही लयलीन रहते हैं, वे अतिथि कहलाते हैं और संविभाग अर्थात् अपने लिए तैयार किया शुद्ध, निर्दोष, अन्न, पानी, वस्त्र, औषधि आदि देश, काल, श्रद्धा, सत्कार, क्रम, पात्र आदि का ध्यान रख कर उच्च प्रकार की भक्तिपूर्वक केवल आत्मकल्याण की बुद्धि से पंच महाव्रतधारी मुनिराज को दान देना, उसे अतिथि संविभाग कहते हैं । संयम तथा शरीर की रक्षा करने के लिए तथा शीत, ताप, मच्छरादि के उपद्रव को दूर करने के लिए साधुनों को वस्त्र की श्रावश्यकता रहती है । इसके बिना धर्मध्यान में स्थिरता नहीं रह सकती । इसी प्रकार रहने के स्थान की भी आवश्यकता है । चार पात्र के बिना अन्न पानी लेने में और आहार करने में कठिनाई होती है इसलिये पात्र दान की जरूरत रहती है । प्रकार में से किसी भी तरह का दान देना, वह भवसमुद्र से पार उतारने वाला होता है । उत्तम मुनि को दान देने के प्रभाव से संगमक- गोपाल- पुत्र को अत्यंत ही आश्चर्य करने वाली समृद्धि की प्राप्ति हुई थी । बारह व्रतों में लगने वाले प्रतिचारों का त्याग करना प्रतिचारयुक्त व्रत कल्याणकारी नहीं बनते, इसलिये हर एक व्रत में लगने वाले अतिचारों को त्यागना चाहिये । अतिचारों की विस्तृत जानकारी दूसरे ग्रन्थों अथवा गुरुगम से जानना । यहाँ तो व्रतों में लगने वाले अतिचारों से बचने के लिए कहाँ-कहाँ सावधानी रखने की जरूरत है, उसे संक्षेप में बताते हैं । श्रावकव्रत दर्पण - ३८
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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