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________________ नहीं करना चाहिये, तो फिर सर्व पापों के मूल रूप परस्त्रियों के सेवन को तो बात ही क्या ? जो निर्लज्ज स्त्री अपने प्यारे पति को छोड़कर दूसरे पति को भजती है, उस चंचल चरित्र वाली परस्त्री का क्या विश्वास ? अर्थात् उसका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये । परस्त्रीगमन में मृत्यु का भय है, वह परम वैर का कारण है तथा दोनों लोकों के विरुद्ध है, इसलिये इसका त्याग करना चाहिये। राजा की अोर से परस्त्रीगमन करने वाले का धनहरण और शरीर के अवयवों का छेदन होता है तथा मरने के बाद उसे घोर नरक की प्राप्ति होती है। जिसने अपने पराक्रम से सम्पूर्ण विश्व को जीत लिया था, ऐसे रावण ने, परस्त्री के साथ रमण करने की इच्छा मात्र से अपने कुल का क्षय कर दिया तथा मर कर वह नरक गति को प्राप्त हुना। परस्त्री चाहे कितनी लावण्यवती हो, बहुत सौन्दर्यवाली हो तथा विविध कलाओं में कुशल हो, फिर भी उसका त्याग करना चाहिये। परस्त्री के सान्निध्य में अपनी मनोवृत्ति को जरा भी मलिन न होने देने वाले सुदर्शन सेठ के गुणों की कितनी स्तुति की जाय ? अर्थात् उसके सम्बन्ध में जितनो प्रशंसा की जाय उतनी कम है। ऐश्वर्य में बड़ा राजराजेश्वर हो, रूप में कामदेव के समान हो, फिर भी जगदम्बा सती शिरोमणि महासती सीता ने जैसे रावण को छोड़ा वैसे हो स्त्री को परपुरुष का त्याग करना चाहिये । परस्त्री-पुरुष में आसक्त ऐसे स्त्री-पुरुष को अनेक भवों तक नपुसकता, तिर्यंचगति और दुर्भाग्यता प्राप्त होती है । ब्रह्मचर्य की महिमा चारित्र के प्राण समान और मोक्ष के एक असाधारण श्रावक-२ । श्रावकव्रत दर्पण-१७
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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