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________________ गृहस्थों का चौथा अणुव्रत है । नपुंसकता और इन्द्रियछेद आदि अब्रह्मचर्य का फल हैं । ब्रह्म आरम्भ में तो मनोहर है परन्तु अन्त में किम्पाक वृक्ष के फल की तरह प्रति दारुरण है । प्रब्रह्म से कंप, स्वेद, श्रम, मूर्छा, भ्रमि, रोग, बलनाश, क्षयरोग, वगैरह अनेक रोग शरीर में उत्पन्न होते हैं । चाहे जैसा सत्पुरुष हो, परन्तु यदि उसके हृदय में स्त्रो भोग की विषय वासना जागृत हो जाय तो उसके सब उत्तम गुरण पलायन कर जाते हैं । माया. शीलता, क्रूरता, चंचलता, कुशीलता आदि दोष स्वाभाविक रूप से स्त्री या पुरुष की कामवासना के साथ रहने वाले हैं । अपार महासागर को पार करना सम्भव है, परन्तु प्रकृति से जो वक्र ऐसी स्त्री के दुश्चरित्रों का पार पाना सहज नहीं है । काम. वासना पति, पुत्र, भाई, आदि के भी प्रारण संशय में पड़ जांय ऐसे कार्य के लिये प्रेरित करती है । काम वासना संसार का बीज है, नरकमार्ग की सड़क है, शोक का मूल है, क्लेश की जड़ है और दुःख की खान है । वेश्या स्त्री के दोष कामवासना के वश होकर जो वेश्या-गमन करते हैं, उनके दुःख का पार नहीं है । क्योंकि वेश्याओं के मन में अलग बात होती है, वचन में अलग होती है और क्रिया में अलग बात होती है । किसी ने उसको सर्वस्व सौंप दिया हो फिर भी अन्त में उसके पास से सब धन समाप्त हो जाने पर वह (वेश्या) उसके पास से पहनने के कपड़े भी लेने की इच्छा कर देती है । ऐसी निःस्नेह गरिका का सदैव त्याग ही करना चाहिये । परस्त्री गमन के दोष उपासक को तो अपनी स्त्री का भी आसक्तिपूर्वक सेवन श्रावकव्रत दर्पण - १६
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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