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________________ मृत्यु को प्राप्त हुए और स्वयं ने भी दुर्गति प्राप्त की । तात्पर्य यह कि दूसरे को पीड़ा करने वाला वचन बोलने से पहले खूब सोच-विचार कर लेना चाहिये । थोड़ा भी झूठ बोलने से रौरवादि नरक में जाना पड़ता है तो फिर जिनेश्वर भगवान् वचन को अन्यथा कहने वालों की तो क्या गति होगी ? हिसा व्रत रूपी पानी के रक्षण के लिए दूसरे व्रत दीवाल समान है । सत्य का भंग होने से सारी दीवाल टूट जाती है, जिससे सर्वनाश हो जाता है । सर्वजीवों को उपकारक हो, ऐसा सत्य बोलना चाहिये अथवा सर्व पुरुषार्थ की सिद्धि करने में समर्थ हो, ऐसे मौन का पालन करना चाहिये, परन्तु असत्य बोलकर स्व-पर को दुःखकर्ता तो नहीं बनाना चाहिये। किसी के पूछने पर भी बैर के कारणभूत दूसरे के मर्म को भेदनेवाला, कर्कश, शंकास्पद, हिंसक या प्रसूयायुक्त वचन नहीं बोलना चाहिये परन्तु दया आदि धर्म का नाश होता हो, सन्मार्ग का लोप होता हो, परमात्मा के सिद्धान्त का विनाश होता हो तो बिना पूछे भो, शक्ति हो तो उसका निवारण करने के लिए लोगों को सत्य बात समझाने का प्रयत्न करना चाहिये । दावानल में जले वृक्ष वर्षा ऋतु में पुनः नवपल्लवित हो जाते हैं, परन्तु दुर्वचन रूपी अग्नि से दग्ध हुए मनुष्य सुखी नहीं होते । बरछी का घाव भर जाता है, परन्तु कुवचन के घाव को भरने में बहुत समय लगता है । इसलिए बहुत सोच-समझकर बोलना चाहिये । सत्य वचन मनुष्य को जितना प्रह्लाद देता है, उतना प्रह्लाद चंदन, चंद्रिका, चंद्रकान्तमरिण और मोतीप्रमुख की मालाएँ भी नहीं देतीं । एक ओर पलड़े में असत्य से होने वाला पाप रखा जाय और दूसरी तरफ दूसरे सब पाप रखे जांय तो असत्य वाला श्रावकव्रत दर्पण - १३
SR No.002324
Book TitleShravakvrat Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherSwadhyaya Sangh
Publication Year1988
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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