Book Title: Shravak Dharma Anuvrata
Author(s): Chandanmal Nagori
Publisher: Chandanmal Nagori
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक पुष्पाक ३८ အ ज्ञान वल्लभ पुष्पाक श्रावक धर्म-अणुव्रत Gererelanse CHANG ពីសសស लेखक-संपादक:चंदनमल नागोरी छोटी सादडी (मेवाड ) S Education International or Private & Personal Use Only www.janelibrary.org. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक पुष्पाङ्क ३८ ज्ञान वल्लभ पुष्पाक 39 श्रावक धर्म - अणुवत ( इस में बारह व्रत का वर्णन है ) लेखक: चंदनमल नागोरी alo प्रकाशक: चंदनमल नागोरी जैन पुस्तकालय पोस्ट-छोटी सादडी (मेवाड ) आ. श्रीकलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर श्रीमहावीर जैवाराधना केन्द्र कोवा (गांधीनगर) पि ३८२०० अमूल्य Jain Education Internationa Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0000 0001000 अर्पण पत्रिका श्रीमती शासन वल्लभा शासन हितकरा सद्गुण सम्पन्ना परम विदुषी प्रवर्तिनीजी श्री वल्लभ श्रीजी साहिबा की सेवा में अमलनेर श्रीमते ! पूज्या ! आप श्रावक के अणुव्रत - बारह व्रत के विवेचन का इस प्रकार वर्णन करते हैं कि श्रोताओं पर असर होता है । आपके उपदेश से अनेकों ने व्रत ग्रहण किये हैं । व्रत लेने से आत्मा को अनुपम लाभ होता है और व्रतधारी संयम में आ जाता है, इस तरह की आपकी देशना से मुग्ध होकर यह श्रावक धर्म अणुव्रत पुस्तक आप की सेवामें समर्पित करते हैं सो स्वीकार कर अनुग्रहित करियेगा । शुभम् ॥ आज्ञाधीन संस्था चन्दनमल नागौरी जैन पुस्तकालय छोटी सादड़ी (मेवाड़) COC• COⱭOⱭOCOCCO Jain Education Internationa Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आबाल ब्रह्मचारिणी, विदुषी पूज्या प्रवर्तिनीजी श्री वल्लभश्रीजी महाराज साहिबा जन्म वि० सं० १६५१ पौष वदि = (राजस्थान) लोहावट Serving Jinshasan 089905 gyanmandir@kobatirth.org दीक्षा वि० सं० १६६१ मंगसर सुदी ५ लोहावट (राजस्थान) प्रवर्तिनी पद सं० २०१० आश्विन शु० १५ छोटी सादडी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धन्यवाद * -- - श्रीयुत सेठ मंगल भाई-उर्फ छगनलाल भाई लक्ष्मीचन्द . गांव बडु निवासी ने श्रीमती श्री कुसुमश्रीजी साहिबा के उपदेश से , इस पुस्तक के प्रकाशन में श्रीयुत् रतीलाल भाई, वम्बई निवासी -: की मारफत :सहायता भेजी जिसके लिए धन्यवाद २ ॥ अस्तु॥ -प्रकाशक Jain Education Internationa Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 08888888888888888888888888888 28.28.788888888886N श्रीमती पूज्या शासन हितैषिनी श्री कुसुमश्रीजी साहिबा की सेवा में मु० - बम्बई श्रीमती ! सद्गुण सम्पन्ना ! आप श्रीमती विदुषी प्रवर्तिनीजी महोदया की विद्वान शिष्याओं में से हैं, आपने बम्बई के चातुर्मास में ज्ञान प्रचार और नियम संयम में रहने के उपदेश से अच्छा प्रभाव डाला और इसी कारण संघ ने विनती कर दूसरा चातुर्मास करने की आज्ञा मांगली है । आप संघ उन्नति - ज्ञानदान और व्रत नियम संयम प्रति विशेष ध्यान देती हैं। अतः इन्हीं गुणों से आकर्षित हो इस वर्ष भी बम्बई में लाभ लिया जायगा । जिसकी विशेष प्रसन्नता है । 38698888888 98888888888 - प्रकाशक संस्था के कार्यवाहक Reecco.......88888NË Jain Education Internationa Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुवत श्रावक धर्म अणुव्रत का वर्णन करते शास्त्रकारों ने कई तरह से समझाया है, और जिसके वर्णन में अंगसूत्र की रचना भी करदी। साधु धर्म बताते पांच महाव्रत और आचारांग सूत्र पृष्ठ ३८२ पर कहे अनुसार पच्चीस भावना से जिनका पालन और चरण सत्तरी करण सत्तरी के भेद बता कर महाव्रत पालन में सुविधा करदी। भगवन्त परमात्मा ने पांच महाव्रत अंगीकार किये थे, और स्वीकृति पाठ जो निज के लिए था, वही साधु पद लेते समय स्वीकार करना बताया और कहा कि यह मोक्ष पाने की कुञ्जी है । लिया हुआ महाव्रत त्रिकरणयोग से पालने वाले मुक्तिगामी होते हैं। साधु महाराज महाव्रत को सम्पूर्ण पालते रहें, इस लिए महाव्रत नाम दिया गया और यही ब्रत श्रावक अमुक अंश में पालते हैं, इसलिए अणुब्रत नाम दिया गया। यहां पर श्रावक के अणुव्रत से सम्बन्ध है, जिनके नामः-(१) प्राणातिपात विरमण व्रत Jain Education Internationa Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत (२) मृषावाद विरमण व्रत (३) अदत्तादान विरमण व्रत (४) ब्रह्मचर्य व्रत और (५) परिग्रह परिमाण व्रत इन पांचव्रतों के पालने में तीन गुणब्रत, और चार शिक्षाबत बताकर बारह ब्रत नाम प्रसिद्धि में आया । प्रत्येक ब्रत के पालने में गुणब्रत की आवश्यकता होती है (१) दिकपरिमाण (२) भोगोपभोग परिमाण (३) और अनर्थदण्ड विरमण, यह गुणब्रत बताये और शिक्षाबत में (१) सामायिक (२) देशावगासिक (३) पौषध और (४) अतिथि संविभाग बताकर समझाया कि जो ऐसे व्रत ग्रहण करता है वह श्रावक कहलाता है । इस प्रकार के व्रत लेने वाले भगवन्त परमात्मा के समय में एक लाख उनसठ हजार श्रावक, और तीन लाख छत्तीस हजार श्राविकाएँ थी, जो जिन भगवान के श्रावक कहलाते थे। श्रावकों के लिए कई ग्रन्थ रचनाएं हुईं, टीकाएं, भाषानुवाद आदि से समझने के लिए सुगमता करदी और यह भी बताया कि भगवन्त के दश श्रावक आनन्द आदि जो उत्कृष्ट पालन करने वाले धनपति थे और गोकुल के प्रमाण से गायों को पालते थे। जिनके एक गोकुल में दस हजार गायें रहती थीं । इस प्रकार की सम्पत्ति वाले Jain Education Internationa Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत ३ होने पर भी बारह व्रत पालते थे और परिग्रह परिमाण वाले भी थे। जिनका वर्णन उपासक दशासूत्र में है और कहा है कि यह सारे ही मोक्षगामी आत्मा हुए हैं । परिग्रह का विषय सूक्ष्म दृष्टि से और स्थूल दृष्टि से समझाया और यह बता दिया कि व्रत लेने वाला सद्गति पाता है। वर्तमान काल के धनपति ऐसे व्रतों को कम लेते हैं। उन्हें तृष्णा इतनी सताती है कि वह मामूली त्याग करने को भी तैयार नहीं होते । जबकि मध्यम वर्ग के लोग व्रत लेते हैं और सुख पूर्वक उसका पालन करते हैं । पहिला स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत-श्रावक संसारी होने से दया के प्रकार बीस विश्वा बताये जिनमें से सवा विश्वा पाल सकते हैं। हिंसा करना नहीं, दूसरे से कराना नहीं और जो करता हो उसकी प्रशंसा करना नहीं। दूसरा स्थूल मृषावादविरमण व्रत-पालते चार प्रकार के असत्य कथन करने का सर्वथा त्याग करना बताया। तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत-चोरी नहीं करना, जेब नहीं काटना, ताले तोड़ धन हरण नहीं करना, खात नहीं देना आदि आदि का त्याग करना बताया। चौथा ब्रह्मचर्यव्रत जिसमें स्वदारा सन्तोषी,परदारा Jain Education Internationa Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत त्यागी, और स्वदारा में भी प्रमाण आदि उपभोग से रहने को समझाया। पांचवां परिग्रह परिमाण व्रत में भी धन सम्पत्ति अमुक प्रमाण में रख कर विशेष को शुभ कामों में व्यय करने का नियम लेकर पालन करना बताया । इन सब प्रकार के व्रतों में आगार अर्थात् छूट रखकर नियम लेना बताया है। यहां शङ्का होती है कि आगार रख नियम कराने वाले को छूट रखी हुई बातों की क्रिया लगती है या नहीं, क्योंकि नियम में छूट रखने से नियमदाता की सम्मति स्पष्ट रूप से होजाती है । शङ्का उचित भी है । इस विषय को समझाने के लिए एक उदाहरण है कि एक धनपति सेठ किसी कारण से कायदे की चुङ्गल में गये । विषय गंभीर था इसलिए बचाव के लिए धारा शास्त्री खड़े किये गये । धारा शास्त्री ने कायदे की सूक्ष्म बातें बताकर सेठ को बचाने का प्रयत्न किया । ऐसा करते हुए भी न्यायाधीश के ध्यान में बात नहीं बैठी । और दीर्घकालीन कारावास देने के उद्गार निकाले । वकील ने समय सूचकता काम में लेकर कहा कि मेरा मुवक्किल निर्दोष होने के सिवाय आबरूवाला है और जीवन में पहिली बार अदालत का मुख देखा है, इनका व्यव ४ Jain Education Internationa Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत हार देखते हुए सरकार को क्षमा करना चाहिए और कायदे के अनुसार जितनी सजा कम होसके उतनी कम करना उचित है । सज़ा नाम मात्र की हो मेरा मुवक्किल सरकार से भिक्षा मांगता है, देने योग्य है सो दीजियेगा। न्यायाधीश ने निवेदन सुना और सातवर्ष का कारावास न देकर छः महीने का कारावास दिया। यहां पर सोचना यह है कि वकील ने मुवकिल को बचाते बचाते अल्प सजा देने का निवेदन कर दिया और छः महीने का कारावास दिला दिया। कहिये ? वकील दोषी समझा जाय या नहीं ? वकील ने देखा कि मेरे मुवक्किल को सात वर्ष का कारावास होने वाला है तो जितना बचाव हो सकता हो उतना करूं। वकील ने मुवक्किल को बचाया, धनपति सेठ संतुष्ट हुए और परिश्रम भेट भी पूरी दी । इस उदाहरण से समझ लीजिये कि नियम दिलाने वाला तो सर्व प्रकार के पाप कार्यों से सर्वथा बचाना चाहता है, तो सागारिक नियम करा देने से भविष्य में विशेष प्रकार से पाप करने से बचाता है । तो भविष्य में नियमदाता को क्रिया आने का कोई सम्बन्ध नहीं रहता और श्रागारिक नियम लेकर विशेष रूप से पाप कृत्यों के दोष टाल जाने Jain Education Internationa Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत का लाभ होगा और नियम ग्रहण करने वाले की भी यही भावना होती है कि बचे जितना बचा लूं । यहां शङ्का समाप्त हुई । ६ केवलज्ञान पान तक के मार्ग बताये और कहा कि बारह व्रतधारी हो और उसमें इक्कीस गुणों का निवास हो वह (१) तुच्छ स्वभावी न हो, (२) स्वरूपवान, (३) शान्त स्वभावी. (४) लोकप्रिय, (५) क्रूरतारहित, (६) शठतारहित, (७) दाक्षिण्यवान, (८) लज्जावान, (६) दयावान. (१०) सौम्यदृष्टि, (११) गुणानुरागी, (१२) सुवार्ता करनेवाला, (१३) सत्यपक्षी, (१४) दीर्घदृष्टि, (१५) विशेषज्ञ, (१६) अपक्षपाती, (१७) ज्ञानवृद्ध, (१८) विनयवान, (१६) कृतज्ञ, (२०) परोपकारी और (२१) लब्धलक्ष गुण धारण करनेवाला हो, जिसको धर्मरत्न प्रकरण ग्रन्थ में और वृत्ति में वर्णन किया गया है । विशेष रूप से कहा है कि भाव श्रावक के क्रिया आश्रयी छह लक्षण होते हैं, जिनमें से प्रथम लक्षण में बारह व्रत का वर्णन किया है । दूसरे लक्षण में छह प्रकार के आचार का वर्णन है । तीसरे लक्षण में पांच प्रकार का गुणवान होने का बयान Jain Education Internationa Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत है। चौथे लक्षण में चार प्रकार से सरल व्यवहार वाला होने का वर्णन है । पांचवें लक्षण में चार प्रकार की गुरुभक्ति का वर्णन है और छटे लक्षण में छह प्रकार से शास्त्र का ज्ञाता हो; इस प्रकार की गुणमाला जिस श्रावक में होती है वह सुश्रावक कहलाता है। गृहस्थ बारह व्रत अङ्गीकार करता है तब पांचवें देश विरति गुणस्थान की कोटी में आता है । देश विरति के भी तीन भेद बताये हैं। प्रथम स्थूल हिंसा का त्याग, सप्तव्यसन परिहार और पञ्च परमेष्टि मंत्र का स्मरण करता हो तो ऐसा श्रावक जघन्य कोटि में माना है। दूसरा देश विरति में न्याय सम्पन्न धन पैदा करता हो, पैंतीस मार्गानुसारी पर चलने वाला और अक्षुद्रादि इक्कीस प्रकार से धर्म योग्यता वाला हो । षट् धर्म-कर्म पालता हो, बारहव्रत का पालन करता हो और सदाचारी हो उसको मध्यम कोटि का श्रावक कहते हैं । तीसरा षट्कर्म जिन पूजा, गुरु सेवा, स्वाध्याय, संयम, इन्द्रियदमन, तप और दान देने का गुण विद्यमान हो उसको उत्कृष्ट कोटि का श्रावक कहते हैं । उत्कृष्ठ देश विरति श्रावक सचित्त आहार का त्यागी होता है। नित्य एकासना Jain Education Internationa Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत करता है । ब्रह्मचर्य पालता हो, महाव्रत लेने की भावना वाला हो ओर पापकृत्य-व्यवसाय का त्यागी हो, एकादश पडिमा धारक हो वही उत्कृष्ट श्रावक होता है। वैसे देश विरति श्रावक में रौद्रध्यान जिसके चार भेद हैं, मंदगति पर होते हैं, आर्तध्यान के चार भेद हैं, वह देश विरति श्रावक में रहते हैं। परन्तु शुद्धता आती है तब वह भी मंद होजाते हैं और इनकी मंदता से धर्म ध्यान का उदय होता है। वैसा यह भी बताया है कि धर्मध्यान देश विरति में उत्कृष्ट नहीं होता । उत्कृष्ता आते ही वह महाव्रत ग्रहण कर लेता है। इस प्रकार से श्रावक कर्तव्य कई प्रकार से बताया गया है । और भाव श्रावक के और भी गुण होते हैं जिनका वर्णन सूत्रों में है । इस प्रकार धर्म सञ्चय करने वाले पुरुष के विषय में कहा है कि पुसां शिरोमणीयन्ते धर्मार्जन परानरा। आश्रीयन्ते च सम्पद्भिर्लताभिरिव पादपा ।। भावार्थ-धर्म सञ्चय करने वाले पुरुष शिरोमणि कहे जाते हैं और जिस प्रकार से लताएं वृक्ष का आश्रय लेती है, तदनुसार लक्ष्मी और सम्पत्ति धर्मवान पुरुष का आश्रय लेती है। अतः धन की कमी हो जाने से Jain Education Internationa Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत ६ अथवा अन्य कई प्रकार की आपत्तियां आ जाय तो भी सर्व प्राप्ति के मूल रूप धर्म की आराधना में कमी नहीं करना चाहिए । धर्माराधन नित्य करते रहना और निजका चारित्र शुद्धमान बनाना चाहिए। स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत का यह मतलब है कि किसी जीव की हिंसा नहीं करना, दूसरे से नहीं कराना और जो करता हो उसकी प्रशंसा नहीं करना, यही प्राणातिपात विरमण के नियम हैं। और इस तरह के नियमों का पालना कठिन बात नहीं है । श्रावक तो जन्म जात से दयावान होता है। हिंसा के कार्य देखने मात्र से ही उसे घृणा आती है, इस तरह की प्रकृति जिस श्रावक की हो उसको प्राणातिपात विरमण व्रत का बहुमान होता है । अतः श्रावक कुल में जन्म पाया हो तो यह पहला स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत अवश्य लेना चाहिए। इस व्रत को अङ्गीकार करने वाला व्यवहार के कई अपराधों से बच जाता है । जिसके थोड़े से उदाहरण देखियेगाः (१) किसी को गालियां देकर दिल दुखाया हो तो धारा ३५२ में उसको दो वर्ष का कारावास होता है (२) पब्लिक मार्ग पर जीव का बध करने वाले को धारा २०६ Jain Education Internationa Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्रावक धर्म-अणुव्रत में दो सो रुपया दण्ड होता है (३) घात करने वाले को धारा ३०२ में मृत्यु दण्ड होता है (४) गर्भपात करने वाले को धारा ३१२ में सात वर्ष का कारावास होता है (५) आत्मघात का प्रयत्न करने वाले को धारा ३०६ में एक वर्ष का कारावास होता है (६) मृत बालक को गुप्त गाड़ दे तो धारा ३१८ में दो वर्ष का कारावास होता है (७) आक्रमण कर पीड़ा पहुंचा कर या लकड़ी या लट्ठ द्वारा प्राण हरण करने से धारा ३२३ में दस वर्ष का कारावास होता है। (८) निष्कारण अटकाने से-रोक रखने से धारा ३४१ में एक वर्ष का कारावास होता है । (६) किसी की स्वतत्रता नष्ट करने से, गुलाम बना कर रखने से धारा ३७० में छै वर्ष का कारावास होता है । (१०) पशु को बेकारण कष्ट देने से धारा ४२५ में तीन महीने का कारावास होता है । (११) मकान को आग लगाने से धारा ४३५ में सात वर्ष का कारावास होता है। (१२) किसी को डरा कर धमका कर भय पहुंचाने से धारा ५६५ में दो वर्ष का कारावास होता है (१३) व्यभिचार का झूठा आरोप लगाने से धारा ५०६ में कारावास होता है। इस तरह के अपराध व्रत लेने वाले को उदय में नहीं Jain Education Internationa Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत आते । इसलिए निज का भला चाहते हो तो नियम लीजिए कि___ निरपराधी त्रस जीव को इरादापूर्वक हिंसा करने की बुद्धि से कभी नहीं मारूगा । देखिये आप गृहस्थ हैं और गृहस्थ के अनेक कार्य अनिवार्य होते हैं । यदि मकान बनाने में कुआ, तालाब पर आरम्भ करने से हिंसा की क्रिया आजाय या व्यापारिक कार्यों में कोठार भरने से, औषधादि प्रयोग में अनायास जीव हिंसा हो जाय तो जयणा रह सकती है, अतः प्राणातिपात प्रथम अणुव्रत को बिना विलम्ब के लेना चाहिये। इस व्रत के लेने वाले को पांच प्रकार के अतिचार से बचना चाहिए (१) जीव का वध हो जाय इस प्रकार से क्रोध करके पशु आदि-गाय, बैल, घोड़ा या और भी पशु को, पक्षी को नहीं मारना ( २) बंधन नाम का अतिचार-पशुओं को या और किसी को जकड़ कर नहीं बांधना (३) छविच्छेद, पशुओं के नाक में नाथ डाले और इस प्रकार के और भी कर्म हो उनका त्याग करे (४) अतिभार-अर्थात् पशुओं पर या पशु द्वारा चलने वाले वाहन में प्रमाण से अधिक वजन नहीं डालना (५) Jain Education Internationa Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत विच्छेद-पशुओं को या और भी अपने आधीन आये हुए आत्मा को प्रमाण से अल्प आहार देना या समय पर नहीं देना और भूखे रखना, इस तरह करने से अतिचार आता है। अतः पांचों ही अतिचारों से बचना चाहिये। आप समझ गये होंगे! यदि समझ में नहीं आया हो तो फिर से पढ़ियेगा, अथवा किसी जानकार से परामर्श करिये और निज आत्म कल्याण के इस व्रत को दृढ़ता से ग्रहण करियेगा। दूसरा स्थूल मृषावाद विरमण व्रत है। दुनिया के सारे ही धर्म सम्प्रदाय और समझदार व्यक्ति यही कहते हैं कि झूठ बोलना अपराध है । कोई भी झूठ बोलना अच्छा नहीं मानता। यदि व्यापार में, राज काज में,न्यात में, सङ्घ में आप झूठ बोला करेंगे तो आपका मान नहीं बढ़ेगा। भूठे मनुष्य की कोई कद्र नहीं करता और व्यवहार में देखें तो (१) झूठी साक्षी शपथ पूर्वक देने से धारा १७८ में छै माह का कारावास अथवा एक हजार का दण्ड होता है (२) सरकारी अधिकारियों के समक्ष किये हुये कार्य का बयान लिखित देकर दस्तखत नहीं Jain Education Internationa Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत करने से धारा १८० में तीन महिने का कारावास अथवा पांच सौ रुपया दण्ड होता है (३) झूठी बात प्रतिज्ञा पूर्वक बयान करने से धारा १८१ में तीन साल का कारावास होता है (४) झूठा कलङ्क लगाने वाले को धारा १८२ में एक हजार रुपयों का दण्ड अथवा नौ माह का कारावास होता है (५) हत्या केस में मिथ्या साक्षी देने से धारा १६४ में मृत्यु दण्ड की सजा होती है (६) झूठा खत दस्तावेज लिखने से धारा १६५ में सात वर्ष तक का कारावास होता है (७) बनावटी दस्तखत या अंगूठे का चिन्ह बनाने से धारा ४७५ में सात वर्ष तक का कारावास होता है () बनावटी बहियां अथवा हिसाबी आंकड़ा बनाने से या बनाने वाले को सहायता देने से धारा ४७७ में सात वर्ष तक का कारावास होता है । यदि आपने दूसरा मृषावाद अणुव्रत ग्रहण किया है तो ऊपर बताये हुए अपराध आप नहीं करेंगे। आप इस व्रत को लेंगे तो व्यवहार में आपका मान बढ़ेगा, और उत्तम पुरुष की कोटि में आ जायेंगे । जब आप इस व्रत को ग्रहण करें तब गृहस्थ के नाते पांच बड़े झूठ बोलने का त्याग करदें (१) कन्या लग्न आदि में वय अथवा Jain Education Internationa Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत अन्य बनावटी झूठ नहीं बोलना (२) गवालिक–अर्थात् पशु के क्रय विक्रय में दुधारू का वर्णन करने में असत्य न बोलना (३) भूमि, मकान, खेत के क्रय में मिथ्या नहीं बोलना (४) थापण कोई रुपया अमानत रख जाय तो उसको इनकार नहीं करना, और प्राणांत दण्ड के अपराध जैसे मुकद्दमें में झूठी साक्षी नहीं देना । विशेष अनायास महावरे के कारण बात करते झूठ बोला जाय तो उसकी जयणा । इस तरह से दूसरा मृषावाद व्रत का पालन करने वाले को पांच अतिचार लगते हैं। जिनसे बचना चाहिये । (१) सहसात्कार-अर्थात् बिना समझे यद्वा तद्वा बोलने से (२) किसी की गुप्त बात को प्रकट करने से (३) स्वदारा आदि जो निज पर विश्वास रखते हों उनकी उनके दूषण बताकर गुप्त बात प्रसिद्ध करके उनकी आतमा को आघात पहुंचाने से लगता है (४) झूठा लेख लिखना और असत्य उपदेश देकर किसी को दुःख पहुँचाने से लगता है (५) झूठा लेख या लिखे हुए लेख में परिवर्तन करने से लगता है। इसलिये ऐसे कार्य करते सावधान रहना चाहिए । इस तरह से इस विषय को समझ लेंगे तो पालने में कठिनता नहीं होगी और आप की पेठ बढ़ेगी। Jain Education Internationa Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत-यह चोरी का विषय है, न कोई चोरी करना चाहता है, और न चोर कर्म करने वाले की प्रशंसा करता है। साहूकार और श्रावक वर्ग तो वैसे भी चोर कर्म नहीं करते तो फिर व्रत लेने में क्या नुकसान है ? आप व्रत ग्रहण कर लेंगे तो कई बार अनायास आने वाली आपत्ति से बच जांयगे। इस व्रत को लेते समय यह प्रतिज्ञा करनी होगी, कि चोरी नहीं करना, खात नहीं देना, ताला तोड़ धन हरण नहीं करना, जेब नहीं काटना, लटना नहीं, किसी की भूली हुई वस्तु का मालिक नहीं बनना, और राज दण्ड होने जैसा चोरी का कार्य नहीं करना। आप सोच लें भले आदमी के लिए यह व्रत पालना कठिन बात नहीं होगी। इस तरह से इस व्रत के पालने में भी पांच अतिचार लगते हैं (१) चोर से जान बूझ कर चोरी की वस्तु ली हो तो, (२) चोर को चोर कर्म करने में सहायता दी हो तो (३) चोरी वस्तु का रूप परिवर्तन कर चोर के माल को शुद्ध बनाने से (४) राज्य के विरुद्ध ऐसे चोरी जैसे कार्य किये हों तो, और (५) नाप, तोल बाट वजन बताने वाले तोल में कम ज्यादे रखे हों तो अतिचार लगता Jain Education Internationa Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत हैं । अतः ऐसे कार्यों से बचते रहना चाहिये, यदि आप इस व्रत का पालन करते हैं तो आपका मान बढ़ेगा और व्यवहार में उत्तम पुरुष की कोटि में आ जायगे । १६ चौथा स्थूल मैथुन विरमरण व्रत -- इस व्रत का पालन करने वाले चतुर्थव्रती को इन्द्र महाराज सभा में बैठते समय प्रणाम करते हैं । ब्रह्मव्रत के लिए कई कथाएं उपदेश और उदाहरण शास्त्र में बताये हैं । आप गृहस्थ हैं, व्यवहार भी साधना है इस लिये मर्यादा पूर्वक व्रत ग्रहण कर सकते हैं । इस व्रत के लेने से कई प्रकार के लाभ होते हैं । स्वास्थ्य सुधरता है, मस्तिष्क शक्तियां वृद्धि पाती हैं और वीर्य रक्षा से शरीर बलवान रहता है, साथ ही दुनियादारी में अनायास अथवा बिना विचारे कार्य आवेश में हो जाते हैं उनके अपराध से बच जायगे । देखिये- (१) स्त्री की लाज बलात्कार से लूटे तो धारा ३५४ में दो वर्ष का कारावास होता है (२) स्त्री के विरुद्ध बलात्कार से बुरे कृत्य करने कृत्य करने से धारा ३७६ में दस वर्ष तक का कारावास होता है (३) सृष्टि के विरुद्ध कर्म करने से धारा ३७७ में दस वर्ष तक का कारावास होता है । इस तरह के अपराधों से बच सकते हैं । अतः परस्त्री Jain Education Internationa Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत वेश्या आदि का सर्वथा त्याग कर दीजिये, और स्वस्त्री में सन्तोषी रहकर प्रमारण करिये । इस व्रत में भी पांच प्रकार के अतिचार लगना संभव है. साथही पुनर्विवाह का भी त्याग करना चाहिए । १७ 'अपरिग्गहिया इतर, अङ्ग विवाह तिव्व अणुरागे', पाठ बता कर समझाया है कि "अपरिगहि श्रा” अर्थात् बिना व्याही हुई स्त्री के साथ सम्बन्ध रखना, “इतर” अर्थात् किसी की अल्प समय तक रखी हुई स्त्री के साथ प्रेम ग्रंथी, "अङ्ग" काम क्रीड़ा अथवा विवाह सम्बन्ध, "तिव्व अणुरागे" अर्थात् काम भोग सेवन करने की तीव्र अभिलाषा से सम्बन्ध होगया हो तो अतिचार लगता है । इस तरह का वर्णन आवश्यक सूत्र पृष्ठ ८२३ पर किया है । वैसे विषय वासना के दो भेद बताये हैं, एक सूक्ष्म और दूसरा स्थूल । इन्द्रियों के अल्प विकार को सूक्ष्म कहते हैं, और मन वचन काया द्वारा विषय वासना पूरी करना स्थूल विषय कहा है। गृहस्थ को स्थूल विषय का त्याग करना चाहिए। अर्थात् स्वदारा में संतोष और परदारा का त्याग । इस तरह से चतुर्थ व्रत लेने वाले मनुष्य तीन तरह के होते हैं (१) सर्वथा Jain Education Internationa Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ श्रावक धर्म-अणुव्रत ब्रह्मव्रती (२) स्वदारा संतोषी और (३) परदारा त्यागी। इस प्रकार के व्रती पुरुष में से प्रथम प्रकार के व्रतधारी को तो इस व्रत के पांचों अतिचार लगते हैं, परन्तु दूसरे तीसरे ब्रह्मचारी के विषय में मत भेद हैं । श्रीमान भगवन् हरिभद्रसूरिजी महाराज ने आवश्यक सूत्र की टीका में लिखा है कि स्वदारा संतोषी को पांचों अतिचार लगते हैं, परन्तु परदारा त्यागी को पहिले के दो नहीं लगते इस तरह का वर्णन आवश्यक सूत्र की टीका पृष्ठ ८२५ पर है। इस विषय में दूसरा मत यह है कि स्वदारा संतोषी को पहिला अतिचार छोड़ कर शेष चार अतिचार लगते हैं। तीसरा मत यह है कि परदारा त्यागी को पांचों अतिचार लगते हैं, परन्तु स्वदारा संतोषी को दो छोड़ कर शेष तीन अतिचार लगते हैं, इस तरह से भिन्न भिन्न मत हैं। पञ्चाशक टीका पृष्ठ १४ और १५ पर स्पष्ट किया है कि इस विषय में पांचों अतिचार लगते हैं, और यह कथन मत भेद रहित बताया है। अतः हमें तो जो लाभ की बात हो उसे ग्रहण करना चाहिए । अब अतिचार Jain Education Internationa Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत ... . ...... . ...... . .. का भेद बता देते हैं (१) कुंवारी कन्या या वेश्या के साथ सम्बन्ध जोड़ना यह पहिला अतिचार है (२) जिस स्त्री को अल्प समय के लिए किसी ने रखी हो उसके साथ सम्बन्ध जोड़ना (३) सृष्टि के विरुद्ध काम क्रीडा करना (४) निज के पुत्र पुत्री के सिवाय किसी के ब्याह करनाकराना और (५) काम भोग की तीव्र अभिलाषा करना और ऐसे विचारों में मग्न रहना, इस प्रकार के अतिचार न लग जायें जिसका ध्यान रखना चाहिए। ____ कई बार चक्षु द्वारा बेकारण कर्म बंध हो जाता है, श्रवण इन्द्रिय द्वारा भी होजाता है और बुरी दृष्टि से या बुरे विचारों से मन परिणाम बिगड़ जाता है, अतः ऐसे समय में संयम रखना चाहिए। शीयल पालने का विशेष महत्व है, धन्नेणं से पुरिसे कयत्थे महाणुभावे जेणं लोगलज्जाए वि सीलं पालेइ ॥ "महानिशीथ सूत्र" ते कारण लज्जादिक थी, शील धरे जे प्राणी जी । धन्य तेह कृत पुण्य कृतारथ महानिशीथे वाणी जी ।। "श्रीमद उपाध्यायजी" Jain Education Internationa Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत __ महानिशीथ सूत्र में भी वर्णन है कि लोकलाज से भी जो शियल पालता है वह पुरुष धन्यवाद के योग्य है। और श्री मद् उपाध्यायजी महाराज ने भी तदनुसार वर्णन किया है, और उववाई सूत्र में कहा है कि कितने ही कुल में बाल विधवाएँ परिवार की लज्जा से ब्रह्मव्रत पालती हैं, आबरू का डर है और भी भय है; परन्तु इतना पालन करने से भी देवगति मिलती है। इसलिए विकार को रोकना चाहिए इस विषय को स्पष्ट करते सुयगडांग सूत्र में कहा है कि विकार पांच प्रकार से उत्पन्न होता है (१) मन परिचारण (२) वचन परिचारण (३) रूप परिचारण (४) स्पर्श परिचारण (५) काय परिचारण, अतः पांचों परिचारण पर संयम रखना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र के सोलहवें उद्देषे में कहा है कि विकार वासना उत्पन्न होने के पांच कारण होते हैं (१) कामवर्धक मधुर शब्द (२) विकार दृष्टि (३) रूप शृङ्गार (४) कामवर्धक भोजन और (५) कामवर्धक स्पर्श, इस तरह से इन कारणों पर और मन की दौड़ पर संयम न रखा जाय तो मन काबू में नहीं आता और अधिकाधिक जागृति होती है, और जागृति से मनुष्य कामांध भोगांध बन जाता है Jain Education Internationa Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत फिर उसको निज की आबरू घर घराणे का ध्यान नहीं रहता और जहां तक चेष्टाएँ पूरी न हो जांय उद्वेग बढ़ता है और भोगांध की मनोकामना सिद्ध न हो तो उसको मृत्यु जैसा अनुभव होने लगता है । सुयगडांग सूत्र के बारहवां उद्देषे में कहा है कि, जो मनुष्य विषय वासना में आसक्त रहता है, और विषय वासना अतिमात्रा में है तो वह मनुष्य संसार में कई बार भव भ्रमण करेगा, और सुयगडांग सूत्र के नौवां उद्देषे में स्पष्ट कहा है कि काम वासना भव भ्रमण करने वाली होती है। उत्तराध्ययन सूत्र के चौदवें उद्देषे में कहा है कि विषय विकार नर्थ की खान है । उत्तराध्ययन सूत्र के अठारहवा उद्देषे में कहा है कि मन की अस्थिरता अव्यवस्था और चित्त की विषयासक्ति आत्मा के अनंत बल को नष्ट करने वाली होती है । और उत्तराध्ययन सूत्र के बत्तीसवां उद्देषे में कहा है कि जो जीव भोग वासना में तीव्र आसक्ति रखता हो वह पुरुष काल में हो मृत्यु पाता है । इस प्रकार से बहुत से प्रमाण शास्त्रों में मिलते हैं, मनुष्य को चाहिए कि इस व्रत को अवश्य अङ्गीकार करे । पांचवां स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत -- इस व्रत के २१ Jain Education Internationa Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ श्रावक धर्म-अणुव्रत - ~ -un-. -.-.-~ - ~ - ~ वर्णन में स्थावर जङ्गम सारी वस्तुएँ आ जाती हैं । इस व्रत को लेने से तृष्णा-लोभ पर अंकुश आ जाता है । यदि सृष्णा पर काबू नहीं आया है तो स्वर्ग का राज पाने तक की भावना हो जाती है । लोभ संज्ञा तीव्र होने से सद्गति नहीं मिलती। त्याग मूर्छा सहित हो वही काम श्राता है । जिस त्याग में मूर्छा नहीं है वैसा त्याग तो केवल चेष्टा रूप होता है। और मूर्छा सहित त्याग हो वह सोना में सुगंध जैसा माना गया है। इसलिये समझाया है कि जितना धन वैभव तुम्हारे पास हो उस से अधिक पाने की इच्छा जहां तक ठहरती हो ठहरा लो, और उस से अधिक प्राप्त हो जाय तो धर्म कार्य में व्यय करने का नियम ले लो। इस तरह करने से लोभवृत्ति पर अंकुश लग जायगा और संतोष की प्राप्ति होगी। इसलिये इस व्रत द्वारा परिग्रह का परिमाण करना चाहिये । नकद रुपया धन, धान्य, सोना, चांदी, जवाहरात, जायदाद, बरतन, फर्नीचर, आभूषण, जेवर, पशु, खेत, कूवा, बाग आदि की कीमत लिख कर एक अङ्क बना लीजिये, यदि इस तरह करने में झंझट मालूम हो तो नवनिध परिग्रह का समुच्चय प्रमाण अङ्क संख्या में Jain Education Internationa Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत कर लें, और भविष्य के लिये सोचते रहे और भाग्य योग से अधिक धन की प्राप्ति हो जाय तो धर्म मार्ग में व्यय करना न भूलें । २३ इस व्रत के लेने वाला दुनियादारो के कई अपराधों से बच जाता है, जिसका कुछ परिचय इस प्रकार से है । लोभवृत्ति से ----- (१) खोटे सिक्के बना कर पास में रखने वाले को धारा २३१ में दस वर्ष का कारावास होता है । (२) खोटे सिक्के पास में रखने वाले को धारा २४२ में तीन साल का कारावास होता है । (३) खोटे तोल माप बाट रखने वाले को धारा २६४ में एक वर्ष का कारावास होता है । (४) बनावटी नोट बनाने वाले को धारा ४८६ में दस वर्ष का कारावास होता है । (५) लांच - रिश्वत लेने वाले को धारा १६१ में तीन वर्ष का कारावास होता है । इस तरह के और भी कई प्रकार के अपराधों से बच जाते हैं । इस व्रत को लेते समय निज के संयोग Jain Education Internationa Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत - देख सहस्रावधि लाख या लाखों तक जितना परिग्रह रखना हो-रख लें, और उस से अधिक का त्याग करना है, जो धन अभी तक पाया नहीं है और भविष्य में प्राप्त हो या न हो संदेह युक्त विषय है तथापि ऐसे धन का त्याग भी लाभ पहुंचाता है, और समझने वाले पुरुष आसानी से ले सकते हैं। ___ इस प्रकार के पांच अणुव्रत हैं जिनके तीन गुणत्रत हैं, (१) दिक्परिमाण (२) भोगोपभोग पदार्थ का परिमाण (३) अनर्थ दण्ड विरमण, यह तीनों व्रतधारी मनुष्य में निवास होनी चाहिये दिक् परिमाण से यह बताया है दस दिशाओं में कहां तक कितनी दूर तक जाना जिस का परिमाण करलें और यात्रा के निमित्त विशेष जाना पडे तो जयणा। सातवां व्रत और दूसरा गुणव्रत-भोग-उपभोग में आने वाली वस्तु पदार्थ आदि का परिमाण करना और इसके चौदह नियम हैं जिन का नित्य स्मरण कर निज के लिये नित्य का नियम बना लेना, आठवां व्रत और तीसरा गुण अनर्थ दंड विरमण है जिस की व्याख्या आगे बताई जायगी,गुणव्रत के बाद चार शिक्षा व्रत हैं शिक्षा का मतलब यह है कि ग्रहण करना सशिक्षा पाकर उसका Jain Education Internationa Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत २५ Vvvvvvvvvvvvvvvvvwww पालन करना, जिस में बताया है कि नित्य सामायिक करना यह नौवां व्रत, दसवां व्रत देशावगासिक अर्थात् दिशा प्रमाण का संक्षेप करना, ग्यारहवां पौषधोपवास व्रत-साल भर में अमुक संख्या में पौषध करना, और बारहवां अतिथिसंविभाग-दान देना सत्कार करना आदि जिसका संक्षिप्त वर्णन आगे देख लेवें । and Jain Education Internationa Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । वीराय नित्यं नमः॥ SUo श्रावक धर्म-अणुव्रत । सम्यक्त्वं मूलानि, पञ्चाणुव्रतानि गुणास्त्रयम् । शिक्षापदानि चत्वारि, व्रतानि गृहमेधिनाम् ॥१॥ "योगशास्त्र" भावार्थ-श्रावक को समकित मूलरूप पांच अणुव्रत तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार के बारहव्रत को अङ्गीकार करना चाहिये। __व्रत ग्रहण करने वाले को मूल समकित विशुद्धि पर विशेष लक्ष्य रखना चाहिए, समकित सर्व क्रियायों का बीज रूप है जिस मनुष्य को श्रद्धा शुद्ध न हो पाई हो तो अपार क्रिया करने पर भी सम्यग् फल के देने Jain Education Internationa Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत वाली नहीं होती, समकितधारी आत्मा शुद्धदेव, शुद्ध गुरु और शुद्ध धर्म को मानता है। शुद्ध देव किसको कहते हैं ? हास्यादिषट्कं चतुरः कषायात् । पंचाश्रवान प्रेममदौ च केलि ॥१॥ भावार्थ--शुद्ध देव में हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंच्छा, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, प्रेम, मद और क्रीडा इस तरह के अट्ठारह दोष नहीं होते। __ शुद्ध गुरु-कञ्चन कामनी के त्यागी पांच महाव्रत को पालने वाले और धर्म की शुद्ध व्याख्या करने वाले हों। शुद्ध धर्म--केवली भगवन्त भाषित अहिंसा संयम तप प्रधान हो। ___व्रतधारी सोचता है कि मुझे शुद्ध देव, गुरु, धर्म मान्य है । संसार व्यवहार से कारणवशात् अन्य देव गुरु को वन्दन करना पडे तो जयणा । विस्मरण होने से अदेव को देव, अगुरु को गुरु और अधर्म को धर्म कहना अथवा कारणवशात् मानना पडे तो जयणा। Jain Education Internationa Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mnm २८ श्रावक धर्म-अणुव्रत ~~~~~m mmm. धर्म विरुद्ध कार्य-लोक व्यवहार और लोक विरुद्धता से बचने के लिये अनिवार्य योग प्राप्त होने से करूं अथवा व्यवहार से प्रणाम नमस्कार करूं तो जयणा। निस्संकिय निक खिय,निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठिा उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥ भावार्थ--(१) निशङ्कता-वीतराग भगवन्त के वचन में शङ्का नहीं करना (२) कांक्षारहित-जो वीतराग भाषित नहीं है उस की चाहना नहीं करना (३) निःसंदेहत्यागियों के त्यागवृत्ति के कारण वस्त्रादि की मलीनता पर घृणा नहीं करना धर्म के फल में संदेह नहीं करना (४) मोह रहित दृष्टि-धर्महीन मिथ्यावादी के बाह्याडम्बर को देख कर सत्य मार्ग से पतित नहीं होना (५) उपबृहणसमकितवन्त आत्मा के अल्पगुण की भी प्रशंसा करना और वचन द्वारा प्रोत्साहित करना (६) स्थिरकरण-धर्म रहित आत्मा को धर्म में लगाना और धर्मी आत्मा कारणवशात् पतित होता हो तो उनको स्थिर करना (७) वात्सल्यता-स्वधर्मी भ्राता के हित की ओर ध्यान देना (८) प्रभावक-ऐसे कार्य करना कि जिन को देख कर लोग श्रद्धा Jain Education Internationa Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत बान बनायें, धर्म की प्रशंसा करे और धर्म को प्रभावना हो २६ Jain Education Internationa Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ३ श्रावक धर्म-अणुव्रत प्रथम स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत ___इस व्रत को अङ्गीकार करते समय प्रतिज्ञा करिये कि निरपराधी त्रस जीव को सङ्कल्प पूर्वक मारने की बुद्धि से नहीं मारूंगा। जहां तक हो सकेगा जीव रक्षा करूंगा परन्तु व्यवहार से मकान, दुकान, कूवा, बावडी, बागायत आदि कराना पडे तो जयणा से बरतंगा खेती के लिये करना पडे तो उपयोग रख कर जयणा पूर्वक उपयोग सहित करूंगा औषधादि बनाने में या ऐसे अन्य कार्यों में योग देना पडे तो व्रत को दूषण नहीं आने दूंगा और सर्व करते कराते क्रिया आ जाय तो जयणा । इस व्रत में पांच अतिचार बताये हैं। प्रथम क्रोध सहित पशु पक्षी आदि को क्रूरता से मारने पर अतिचार लगता है । दूसरा बंध-पशु आदि को गाढ बंधन से जकड कर बांधने से अतिचार लगता है। तीसरा छविच्छेद-पशु आदि का नाक-कर्ण छेदन करने कराने से अतिचार लगता है । चौथा अतिचारपशुओं पर अथवा पशु द्वारा खेंचे जांय ऐसे वाहन में अधिक वजन डालने से अतिचार लगता है। पांचवां Jain Education Internationa Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत पशु प्राणी पक्षी - पंखेरु को नित्य की खुराक में कमी करना एवं समय पर नहीं देने से अतिचार लगता है । ३१ Jain Education Internationa Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत दूसरा स्थूल मृषावादविरमण व्रत - इस व्रत का यह तात्पर्य है कि पांच बातों में बडा झूठ नहीं बोलना चाहिये (१) कन्या के सम्बन्ध में, भूमि, पशु, प्राणी के क्रय विक्रय में अनहोनी बात नहीं करना (२) गवालिक - पशु, दुधारू पशु के सम्बन्ध में दूध, घी का बयान करते अनहोनी बात नहीं कहना (३) भूम्यालिक - भूमि, खेत, मकान, बाग आदि के क्रय विक्रय में झूठ नहीं बोलना ( ४ ) थापणमोसो - जमा थापण से इन्कार नहीं करना, वैसे विश्वास से रख गया हो उसे नहीं दबाना (५) मिथ्यासाक्षी - झूठी गवाही नहीं देना देहांत दंड से बचाने के हेतु करना पडे सो जयगा । ३२ इस तरह व्रत लेने पर व्यवहार से कुछ कहा जाय किया जाय और स्वभाव के कारण बोला जाय तो पांच अतिचार लगते हैं । प्रथम अतिचार अधिक बोलने की आदत से अनुचित कह दिया जाय तो अतिचार लगता है। दूसराकिसी पुरुष की गुप्त बात को प्रगट करना, अनहोनी बात कह कर किसी को बदनाम करने के लिये प्रपन Jain Education Internationa Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत ३३ - - - कर के क्षोभ पहुंचाने से अतिचार लगता है। तीसरा विश्वस्त मंत्र भेद विश्वासु निज की भार्या के दूषण अथवा गुप्त बात प्रगट करने से मंत्र भेद और विश्वास भंग करने से अतिचार लगता है। चौथा मिथ्या उपदेश देकर खोटी सलाह देकर प्रपञ्च से किसी को क्षोभ दुःख पहुंचाने से अतिचार लगता है। पांचवां असत्य लेख, बनावटी खत झूठा दस्तावेज लिखने से और झूठी गवाही देने से अतिचार लगता है। Jain Education Internationa Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ श्रावक धर्म-अणुव्रत तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत___ इस व्रत को लेते समय सावधानी से समझ लीजिये कि (१) किसी के यहां खात नहीं देना दूसरे से नहीं दिलाना (२) गांठ छोड कर वस्तु नहीं निकालना (३) जेब काट कर वस्तु नहीं निकालना (४) चोरी करने के हेतु ताला नहीं तोडना, किसी प्रकार से चोरी नहीं करना (५) धाडा डाका नहीं डालना (६) किसी की भूली हुई पडी हुई वस्तु छिपाना नहीं (७) राज शिक्षा दे ऐसी चोरी महसूल आदि की नहीं करना लोक व्यवहार का भय रखना। इस प्रकार के व्रत में पांच अतिचार का आना संभव है। प्रथम-(१) चोर के पास से चोरी की वस्तु जान बूझ कर लेना (२) चोर को चोर कर्म करने में सहायता देना (३) चोरी की वस्तु के रूप को बदलना, स्वच्छ वस्तु में अशुद्ध वस्तु का मिश्रण करना (४) राज्य की ओर से निषेध किया हो उस आज्ञा का भंग करने से (५) खोटे तोल माप रखने से अतिचार लगता है। Jain Education Internationa Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत .......amanumar -... - - - - ---- - Jain Education Internationa Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत चोथा स्थूल मैथुन विरमण व्रत- इस व्रत को ग्रहण करते समय ठीक तरह से समझ लेना चाहिए। जिस से व्रत निभाने में दृषण नहीं आवे । इस व्रत को लेते समय पुरुष निज के लिये, स्त्री निज के लिये लिया हुआ समझे । स्वस्त्री में संतोष करे और परस्त्री का सर्वथा त्याग करे, स्वस्त्री पति में संतोष करे और पर पुरुष का सर्वथा त्याग करे । विशेष तियञ्च अथवा नपुंसक के साथ विषय सेवन का सर्वथा त्याग करे । स्वप्नादि में स्खलना हो जाय तो जयणा । स्वस्त्री में भी हो सके तो पांच तिथियों का शियल पाले और भावना शुद्ध रखे। इस व्रत में पांच अतिचार लगना संभव है। (१) अपरिग्रहीता गमन-स्त्री किसी की ग्रहण की हुई नहीं हो उस के साथ सम्बन्ध करने से (२) ईत्वरपरिग्रहितागमनअमुक समय के लिये वैश्या को किसी ने रखी हो उस के साथ विषय सेवन करे तो अतिचार लगता है, परन्तु स्वदारा संतोषी के लिये तो यह दोनों अतिचार अनाचार में जाते हैं। (३) अनङ्ग क्रीडा-अङ्ग-उपाङ्ग विषय दृष्टि Jain Education Internationa Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत ३७ w aaromomann से देखे, हाथ कुछ नहीं आता परंतु रूप और अङ्ग देखने से भाव बिगड जांय तो अतिचार (४) परविवाहकरण - औरों के लग्न-विवाह सम्बन्ध कराना (५) तीव्राभिलाषकामचेष्टा की तीव्र अभिलाषा करने से अतिचार लगता है । अतः अतिचारों से बचना चाहिये। Jain Education Internationa Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S श्रावक धर्म-अणुव्रत पांचवां स्थूल परिग्रहपरिमाण व्रत परिग्रह का प्रमाण करने से आशा-तृष्णा सीमा में आ जाती है। और एक प्रकार से अधिक प्राप्ति पर मूर्छा हो जाती है, इसलिये इस व्रत द्वारा परिग्रह का परिमाण करना चाहिए । रोकड, धन, धान्य, सुवर्ण, चांदी, जवाहरात, जायदाद, बरतन, फर्नीचर, आभूषणजेवर, पशु, खेत, कूवा, बाग आदि की कीमत लिख एक अंक बना लीजिये, यदि इस प्रकार करने में झंझट मालूम होती हो तो नवनिध परिग्रह का समुच्चय प्रमाण अंक संख्या में कर लें और भविष्य के लिये सोचते रहें कि विशेष उत्पन्न हो जाय तो शुभ मार्ग में व्यय कर देना, इस व्रत में भी पांच अतिचार लगना संभव है। (१) धन धान्य परिमाणातिक्रम-नियम से अधिक धन की प्राप्ति होने पर पुत्र स्त्री के नाम करदेने से अतिचार लगता है । (२) क्षेत्र परिमाणातिक्रम-खेत आदि नियम से अधिक रखने से अतिचार लगता है । (३) सोना, चांदी आदि नियम से अधिक रखने से अतिचार लगता है। (४) तांबा, पीतल आदि धातु के बर्तन अधिक रखने Jain Education Internationa Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत ३६ से अतिचार लगता है । (५) दास, दासी, नोकर, चाकर, गाय, भैंस आदि नियम से अधिक रखने से अतिचार लगता है। Jain Education Internationa Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० श्रावक धर्म - अणुव्रत छठा दिशा परिमाण व्रत चार दिशा, चार विदिशा, उर्ध्व और अधो मिलाने से दश दिशायें होती है । इन दिशाओं में अमुक माइल तक पर्यटन करना, तार, पत्र, अखबार, औषधी मंगवाते और खेपिया भेजना हो तो जयगा । इस व्रत में पांच अतिचार इस प्रकार हैं । (१) उर्ध्वदिकूपरिमाणातिक्रमनियम से अधिक ऊँचा जाना (२) अधोदिकपरिमाणातिक्रमनियम से अधिक नीचे जाना (३) तिच्र्च्छादिकूपरिमाणातिक्रम - चार दिशा विदिशा में नियम से अधिक जाना (४) क्षेत्रवृद्धि - सर्व दिशाओं के माइल को जोड कर एक दिशा में अधिक जाना (५) स्मृति अंतर्धान - नियम विस्मरण हो जाने से संदेह हो जाने पर भी अधिक जाना । Jain Education Internationa Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ . . . . .. h . सातवां भोगोपभोग विरमण व्रत भोग-एक बार काम में आने वाली वस्तु जैसे जन, पान, विलेपन आदि जो एक बार ही काम में जाने वाली वस्तुएँ। उपभोग-जो वस्तु अनेक बार काम में ली जाती है, • आभूषण, वस्त्र, स्त्री, वाहन, मकान, फर्नीचर आदि का प्रमाण गिनती से या वजन से करना चाहिए। के चौदह नियम बताये हैं जिन का संक्षिप्त इस प्रकार हैचत्त वस्तु-मुख में लेने का प्रमाण । घ-मुख में जितनी वस्तु डाली जाय उनका स्वाद ग अलग हो तो द्रव्य संख्या प्रमाण करना । य-अर्थात् घृत, तेल, दूध, दही, गुड और कडाई छे विगयों में से हो सके जितनी का त्याग करना, में कच्ची विगय या मूल से जिस प्रकार इच्छा पाग करना। --उपानह, अर्थात् पांव रक्षा पगरखी, बूट, आदि की संख्या का प्रमारण करना। Jain Education Internationa Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत (५) तंबोल - सुपारी इलायची आदि मुखवास की वस्तुओं का वजन से प्रमाण करना । (६) वत्थ - - दिन रात में वस्त्र- कपड़े आदि काम में लिये जांय जिन की संख्या का प्रमाण करना । (७) कुसुमेसु - सूंघने की वस्तु के वजन का प्रमाण करना । (८) वाहन - - गाडी, घोड़ा, ऊंट, मोटर, जहाज आदि फिरते चलते, तैरते, उडते वाहन की संख्याका प्रमाण करना । (६) शयन - उपभोग में आने वाली रजाइयां, गादियां, शाल, दुशाले, पलंग आदि की संख्या का प्रमाण करना । (१०) विलेपन -- शरीर पर, सिर पर मालिश करने कराने की वस्तु का प्रमाण करना । (११) ब्रह्मचर्य - पालन करने के लिये यथा शक्ति नियम लेना । १२) दिशा - दश दिशाओं में जाने का प्रमाण करना । १३) न्हाण - स्नान करने की गिनती का प्रमारण करना धार्मिक क्रिया के हेतु अधिक बार स्नान करना पडे तो जयगा । (१४) भत्तेसु - भोजन पान की वस्तुओं का वजन रखना । इस प्रकार से चौदह नियम नित्य धारना जिस मे संयोगानुसार कम या अधिक रख सकते हैं । इसके Jain Education Internationa Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत अतिरिक्त (१) पृथ्वीकाय-कच्ची मिट्टी, गार, निमक (२) अप्पकाय-पानी, (३) तेऊकाय-चूला सगडी दीपक, (४) वायुकाय-पंखा ,हिंगराट, हिंडोला, झापट, (५) वनस्पति काय-उपयोग में आने वाली हरी साग, फल, पुष्प, का तोल से प्रमाण करना । (६) असि-हथियार, चाकू, कैंची, सरोता, सुई, सोया आदि का संख्या प्रमाण (७) मसी-दवात कलम पेन पेंसिल की गिनती। (८) कृषिहल, फावडा, कुदाली, घेती आदि इन सबका गिनती से प्रमाण करना। सातवां व्रत के पालन में पांच अतिचार का ध्यान १) सचित्त-वस्तु पान करने से (२) सचित्त प्रतिबंध आहार, सचित्त के साथ लगी हुई अन्य वस्तु पान करने से (३) अपक्क आहार, बिना पकी वस्तु पान करने से (४) दुष्पक आहार-अशुद्ध और मिश्रित पकी हुई वस्तु पान करने से (५) तुच्छौषधि-भक्षण-अर्थात् खाने में कम आवे और फैंकने में विशेष आवे ऐसी वस्तु जैसे गन्ना, बेर, अनार, सीताफल, टीमरु, खजूरा आदि इन सब का प्रमाण-त्याग आदि करना, इस प्रकार से पांच अतिचार लगते हैं, और पन्द्रह कर्मादान Jain Education Internationa Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ श्रावक धर्म-अणुव्रत के मिलाने से बीस अतिचार होते हैं। Jain Education Internationa Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत आठवां अनर्थदंडविरमण व्रत क्रीडा कुतूहल के लिये पशु पक्षी आदि को पीञ्जरे में नहीं डालना, और हिंसक जानवर का संग्रह करना उचित नहीं है। हाथी, घोडा, सांड, मुर्गा, बंदर, सर्प, नोलिया आदि की परस्पर की लड़ाईयां देखने नहीं जाना, मार्ग में जाते आते अनायास दृष्टि में आ जाय तो जयणा । किसी को सूली फांसी पर चढाते समय देखने नहीं जाना। बिना कारण हरि वनस्पति को चूंटना नहीं, और घट्टी, ऊखल, मूसल, हल, मांगे हुए नहीं देना, घर के काम में लिये जाय उस की जयणा । इस व्रत के पांच अतिचार हैं (१) कंदर्प-विषय विकार की वृद्धि हो, ऐसी कुचेष्टा करना (२) कोकुच्यविषयविकार-काम उत्पन्न हो वैसी वार्ता करना (३) मौखर्य-मुख से हास्यादिक-स्मित करके किसी को दुःख पहुंचाना वचन बाण से आघात पहुंचाना । (४) संयताधिकरण-निज के am - Jain Education Internationa Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ श्रावक धर्म-अणुव्रत wwwwwwwwwwwwwwww में आवे उस से अधिक वस्तु तैयार रखना। इस तरह की प्रवृत्ति रखने से अतिचार लगता है। Jain Education Internationa Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत नौवां सामायिक व्रत सामायिक का फल तो पारावार है, । य एक अथवा अधिक सामायिक करना चाहिए। शरीर के कारण न बन सके तो अथवा आधिव्याधि उपाधिक कारण नहीं हो सके तो पांच तिथि अवश्य करना चाहिए। सामायिक व्रत के पांच अतिचार हैं, (१) मन दुःप्रणिधान- अर्थात् कुविकल्प विचार करके दुषित होना । (२) वचन दुःप्रणिधानः-अर्थात् सावध वचन बोल कर क्रिया को दूषणवाली बनाना (३) काय दु:प्रणिधान-सामायिक करते समय दीवार का सहारा लेना अङ्गोपाङ्ग फैलाना (४) अनवस्था दोष-समय पूरा होने से पहिले सामायक पारना (५) स्मृति विहीन-सामायिक लेने का समय याद रहने से अथवा सामायिक पारना भूल जाय तो इस तरह की क्रिया से अतिचार लगता है। Jain Education Internationa Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internationa Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत ५६ दशवां देशावगासिक व्रत दसवां व्रत छठे व्रत को संक्षेप करने के हेतु से है हाल में ऐसी प्रथा है कि एकासना, आयबिल या उपवास करके एक साथ दस सामायिक करते हैं । सामायिक काल में व्याख्यान श्रवण, ध्यान, अध्ययन स्मरण पाठ इच्छानुसार करते हैं। ऐसे व्रत वर्ष में जितने किये जांय उतनी संख्या लिख लेना । ऐसा लेख भी मिलता है कि आठ सामायिक और दो टंक प्रतिक्रमण करना। इस व्रत के पांच अतिचार हैं (१) अनयन प्रयोगनियम उपरांत की भूमि से वस्तु मंगवाना (२) प्रेष्य प्रयोगनियम से विशेष दूर वस्तु भेजना (३) शब्दानुपात-शब्द द्वारा हद्द बहार से वस्तु मंगवाना (४) रुपानुपात-स्व रूप-रूप दिखा कर नियम उपरांत दूर से वस्तु मंगवाना (५) पुद्गल प्रक्षेप-कंकर आदि फेंक कर इशारा करके नियम विरुद्ध वस्तु मंगवाना। Jain Education Internationa Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० श्रावक धर्म-अणुव्रत विशेष वर्णन Jain Education Internationa Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत ग्यारहवां पौषध व्रत - ५१ प्रति वर्ष आठ पहर या चार पहर के कितने पोषध करना जिस की संख्या निर्धारित करना । वैसे पौषध वा सामान्य अर्थ और प्रकार इस तरह है । 1. (१) आहार पौषध - देश से एकासना आयंबिल करके करना । ( २ ) शरीर सत्कार पौषध - शरीर का सत्कार नहीं करना । (३) व्यापार पोषध - संसार के सारे व्यापार बंध करना । (४) ब्रह्मचर्य पौषध - ब्रह्मचर्य पालन करना - पौषध में चार प्रकार के व्यापार का त्याग होता है प्रथम आहार पौषध में देश से एकासना, आयंबिल और उपवास करके किया जाता है । इस व्रत के पांच प्रतिचार (१) प्रतिलेखित शैया सोने की जगह और बिछाने का संथारिया की पडिलेह बराबर न की हो । (२) प्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित शैया संस्तारक बराबर पुजा न हो प्रमार्जित न किया हो (३) प्रतिलेखित - दुष्प्रतिलेखित - स्थंडिल जाने की जगह बराबर पडिले न की हो (४) अप्रमार्जित - दुष्प्रमा Jain Education Internationa Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत र्जित, उच्चार पासवरण भूमि स्थंडिल मात्रा की जगह का प्रमार्जन न किया हो (५) पौषध विधि - पोषध समय पर न लेना और समय से पहले पारना, इस तरह के पांच अतिचार न लग जाय जिनका ध्यान रखना चाहिए। विशेष वर्णन ફ Jain Education Internationa Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत बारहवां अतिथि संविभाग व्रत इस व्रत में मुख्यतया चऊविहार उपवास वाला पौषध के पारने के दिन एकासना करे, जिन पूजा करे और मुनिराज को लावे और जितनी चीज मुनिराज बहोरें उतनी प्रमाण में वस्तु लेकर पारना करे, या जितने द्रव्य मुनिराज लेवें उतने द्रव्य से पारना करे, इस तरह का योग प्राप्त न हो तो व्रतधारी श्रावक को भोजन कराने बाद पारना करे, इस व्रत में और भी आगार रखना हो तो नोंध कर लेना और वर्ष में कितनी बार अतिथि सत्कार करना है, संख्या में निर्णित कर लेना। इस व्रत के पांच अतिचार १) सचित्त निक्षेपसचित्त वस्तु अचित्त वस्तु में मिला कर बोहराना (२) सचित्त-पिधान-सचित्त वस्तु से ढांकी हुई अचित्त वस्तु बोहराना (३) अन्य व्यप देश-अपनी वस्तु औरों की बता कर देने से इन्कार करना-अथवा औरों की वस्तु निज की बता कर बोहराना (४) समत्सरधन-मत्सर कर के दान देना (५) कालातिक्रम-बोहरने का समय हो जाने बाद जा कर गौचरी के लिये लाने का आग्रह करना, इस तरह Jain Education Internationa Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ श्रावक धर्म-अणुव्रत के दोष से वंचित रहना। . विशेष वर्णन Jain Education Internationa Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत ५५ मिठाई का और पानी का काल (१) कार्तिक सुदी १५ से फागुन सुदी १४ तक मिठाई ___ का काल एक महिना, पानी का काल चार पहर । (२) फागुन सुदी १५ से आषाढ सुदी १४ तक मिठाई का काल बीस दिन, पानी का काल पांच पहर । (३) आषाढ सुदी १५ से कार्तिक सुदी १५ तक मिठाई का काल पन्द्रह दिन, पानी का काल तीन पहर । नियम धारने का परिशिष्ट जिन पुरुषों को नियम की विगत स्मरण न रह सके और इस कारण से नियम लेने में बाधा आवे उन पुरुषों के लिये परिशिष्ट दिया जाता है सो इस का अभ्यास करते रहें। थोड़े अभ्यास के बाद नियम याद करने से अधिक सुविधा होगी। Jain Education Internationa Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ श्रावक धर्म-अणुव्रत कितना काम में लेना कितना लिया | लाभ में - 8 नाम सचित्त द्रव्य विगई वाणह तंबोल MK० वस्त्र कुसुम वाहन शयन विलेपन ब्रह्मचर्य दिशी स्नान भात पाणी पृथ्वी काय अपकाय तेउ काय वायु काय वनस्पति काय असि मसि कृषि - Jain Education Internationa Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत सात व्यसन द्यूत, मांस, मदिरा, वेश्यागमन, शिकार, चोरकर्म, परस्त्रीगमन, यह सर्वथा त्याग करने योग्य हैं। बाइस अभक्ष (१) शहद, (२) मक्खन, (३) मदिरा, (४) मांस, (५) उबर फल (६) बडके फल (७) कोठीबडा (6) पीपल पेपडो (६) पीपल फल, (१०) बरफ, (११) अफीम, (१२) करा बरसाद का बरफ, (१३) कच्ची मिट्टी, (१४) रात्रि भोजन, (१५) बहुबीज, (१६) अथाणां (बोल) (१७) विद्दल. (१८) रांगणा, (१६) अजाना फल, (२०) तुच्छ फल, (२१) चलितरस, (२२) अनंत काय. बत्तीस अनंतकाय (१) सुरणकंद (२) लसण (३) हरी हलदी (४) आलू (५) कचूरा (६) सतावरी कंद (७) हीरली कंद (८) कंवार पाठा (5) थोर (१०) गलोय (११) सकरकंद (१२) वंश करेला (१३) गाजर (१४) मक्खन (१५) लोढी (१६) Jain Education Internationa Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म - अणुव्रत गोरीकर्णिका ( १७ ) कोमल पत्ते (१८) खरसैया (१६) थेक की भाजी (२०) हरी मेथी (२१) लुली के झाड की छाल (२२) खीलोडा (२३) अमृतवेल (२४) मूला कंड (२५) भूमिफोडा (२६) कोमल अंकुर (२७) बाथला के पत्ते (२८) सुवेर बेल (२६) पालका के पत्ते (३०) कुणी बली (३१) रतालु (३२) पिंडालु. पन्द्रह कर्मादान ५८ पन्द्रह कर्मादान त्याग करने योग्य होते हैं जिनका वर्णन गुरु महाराज से समझ लेना चाहिए । जीलोतरी त्याग लीलोतरी अर्थात् बनस्पति लाखों की संख्या में है, मनुष्य के सारी वनस्पतियां भोग में नहीं आती, बहुत कम वनस्पति काम में आती है जिनका प्रमाण कर अधिक बनस्पति का त्याग करना चाहिए । यदि त्याग न किया जाय तो क्रिया आती है । कहने वाले कहेंगे कि जो वस्तु काम में न आई हो उसकी क्रिया हमें किस प्रकार लगती है ? उत्तर स्पष्ट है कि मनुष्य जन्म पाने से पहले Jain Education Internationa Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत ५६ आत्मा ने अनेक भव किये हैं, और उन भवा म भाग उपभोग के अनेक स्वाद लिये हैं। कोई वस्तु बाकी नहीं रहती कि जिसका भोग उपभोग नहीं किया हो, पिछले अनेक भवों में आत्मा सर्व पदाथो का भोक्ता बन चुका है । इस अपेक्षा से भोगी हुई वस्तु का त्याग करने में तो केवल मनुष्य भव ही है। यदि मानव भव में त्याग करना उदय में नहीं आया तो समझलो कि पशु जीवन-जी रहे हो, अतः यह लाभ तो बिना कष्ट के उपयोग द्वारा ले सकते हैं । त्याग भावना के लिये तो मानव भव ही श्रेष्ठ माना गया है, त्याग-तप, जप, नियम-संयम तो अनेक भवों में भविष्य में लाभ देने वाले होते हैं, इन के करने से पुन्यायी पैदा होती है, त्याग तपस्या भी मूर्छा सहित होना चाहिए जिस त्याग में मूर्छा नहीं है वह त्याग लाभ नहीं पहुँचाता, जो लोग लीलोतरी का त्याग कर सुखोतरी काम में लेते हैं,और जो लोगजमीकंद का त्याग कर सूखा हुवा कंद काम में लेते हैं उन को तो अधिक क्रिया आती है और ऐसी प्रकृति वालों से न स्वाद छूटता है, न मूर्छा आती है। सुखोतरी करने में तीन गुनी वनस्पति सुखाई जाती है और फिर उस पर वैसे Jain Education Internationa Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत ही वर्ण की फूलन जमना संभव है, अतः आत्मा पर संयम रखना चाहिए । मनुष्य भव बारबार नहीं मिलता त्याग तप किये बगैर मानव भव यूही चला जाता है अतः आत्म हित और कल्याण के लिये त्याग करना उचित है। हरी साग और फल के नाम १. अनार २. अमरूद ३. अदरक ४. अन्नास ५. आम-केरी ६. अजबान के पत्ते ७. आम पके हुए ८. अफीम के पत्ते १. अफीम की गांदर १०. पालडी-दी ११. अंगूर १२. अंजीर १३. आंवला १४. काचरी १५. काकडी सियालु १६. काकडी उनालु १७. केरा १८. काचरा १६. कोला २०. कोला सफेद २१. करमदा कच्चा २२. करमदा पक्का २३. करेला २४. करेला-मार Jain Education Internationa Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक धमें-अणुव्रत २५, केरा लाल २६. केरा कोकनी २७. कच्ची इमली २८. खरबूजा २६. खजूरा ३०. खट्टे के पत्ते ३१. गलक्या ३२. गेहुं की ऊंबी ३३. गवार पाठा ३४. गवार फली ३५. गुलाब के फूल ३६. चंवरा की फली ३७. चीकू ३८. चंदरोई ३६. चने नीलबा ४०. चने के पत्ते ४१. जौ की ऊंबी ४२. जारी बेर ४३. जांबू ४४. टमाटर ४५. टीडोरी ४६. टीमरु ४७. तरोई ४८. तरबूज ४६. तुलसी पान ५०. दातून बंबल ५१. दातून नीम ५२. दातून उमर ५३. धनिया ५४. नींबू कागदी ५५. नींब मीठा ५६. नीली हलदी ५७. नीली कालीमिरच ५८. नारियल ५६. नारंगी ६.. पालक ६१. पान नागर वेल ६२. पोदीना Jain Education Internationa Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ श्रावक धर्म - अणुव्रत ६३. परवल ६५. फालसा ६७. फूंकडा जुवार ६६. बाजरा के सिंट्टे ७१. भुट्टा मकई ७३. मूली के पत्ते ७५. मटर की फली ७७. मूंगफली नीली ७६. मोगरी ६४. पान गोबी ६६. फूल गोबी ६८. बेर पेमली ७०. भींडी ७२. मेथी के पत्ते ७४. मूली ७६. मटर दक्षिणी ७८, मतीरा ८०. मोसमी ८२. मिरच जाडी ८१. मिरच पतली ८३. लींची ८५. बालोर ८७. बीजोरा ८६. सफर जंग ६१. सांठा गुदगरी ६३. सरजना की फली ६४. सींगोडा ६५. सीताफल ६७. आपी ८४. रायण ८६. वाथूला ८. सेव-नाशपाती ४०. सांठा पौंडा ६२. सांठा भरडा ६६. हजार काकडी Jain Education Internationa Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक रूपये सात क्षेत्र का लाभ श्री जिनदत्तसूरि सेवा संघ के सदस्य बन कर पुण्य सञ्चय करिये सदस्य शुल्क 1) रुपश सिर्फ सेवा संघ समाज की सेवा करने में आपका सहयोग चाहता है एक रुपया वार्षिक देना बड़ी बात नहीं है / बगैर विलम्ब पत्र लिखिये।। मंत्री-प्रतापमलजी सेठिया श्री जिनदत्तसरि सेवा संघ --38 मारवाडी बाजार, बम्बई 2. ఆ మారిన తుంపలుచటి మైలతు వరకు मुद्रक-पं० ईश्वरलाल जैन "स्नातक श्रानन्द प्रिंटिंग प्रेस Jain Education InternationaFor Private & Personal use only.