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श्रावक धर्म-अणुव्रत
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आत्मा ने अनेक भव किये हैं, और उन भवा म भाग उपभोग के अनेक स्वाद लिये हैं। कोई वस्तु बाकी नहीं रहती कि जिसका भोग उपभोग नहीं किया हो, पिछले अनेक भवों में आत्मा सर्व पदाथो का भोक्ता बन चुका है । इस अपेक्षा से भोगी हुई वस्तु का त्याग करने में तो केवल मनुष्य भव ही है। यदि मानव भव में त्याग करना उदय में नहीं आया तो समझलो कि पशु जीवन-जी रहे हो, अतः यह लाभ तो बिना कष्ट के उपयोग द्वारा ले सकते हैं । त्याग भावना के लिये तो मानव भव ही श्रेष्ठ माना गया है, त्याग-तप, जप, नियम-संयम तो अनेक भवों में भविष्य में लाभ देने वाले होते हैं, इन के करने से पुन्यायी पैदा होती है, त्याग तपस्या भी मूर्छा सहित होना चाहिए जिस त्याग में मूर्छा नहीं है वह त्याग लाभ नहीं पहुँचाता, जो लोग लीलोतरी का त्याग कर सुखोतरी काम में लेते हैं,और जो लोगजमीकंद का त्याग कर सूखा हुवा कंद काम में लेते हैं उन को तो अधिक क्रिया आती है और ऐसी प्रकृति वालों से न स्वाद छूटता है, न मूर्छा आती है। सुखोतरी करने में तीन गुनी वनस्पति सुखाई जाती है और फिर उस पर वैसे
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