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श्रावक धर्म-अणुव्रत
__ महानिशीथ सूत्र में भी वर्णन है कि लोकलाज से भी जो शियल पालता है वह पुरुष धन्यवाद के योग्य है।
और श्री मद् उपाध्यायजी महाराज ने भी तदनुसार वर्णन किया है, और उववाई सूत्र में कहा है कि कितने ही कुल में बाल विधवाएँ परिवार की लज्जा से ब्रह्मव्रत पालती हैं, आबरू का डर है और भी भय है; परन्तु इतना पालन करने से भी देवगति मिलती है। इसलिए विकार को रोकना चाहिए इस विषय को स्पष्ट करते सुयगडांग सूत्र में कहा है कि विकार पांच प्रकार से उत्पन्न होता है (१) मन परिचारण (२) वचन परिचारण (३) रूप परिचारण (४) स्पर्श परिचारण (५) काय परिचारण, अतः पांचों परिचारण पर संयम रखना चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र के सोलहवें उद्देषे में कहा है कि विकार वासना उत्पन्न होने के पांच कारण होते हैं (१) कामवर्धक मधुर शब्द (२) विकार दृष्टि (३) रूप शृङ्गार (४) कामवर्धक भोजन और (५) कामवर्धक स्पर्श, इस तरह से इन कारणों पर और मन की दौड़ पर संयम न रखा जाय तो मन काबू में नहीं आता और अधिकाधिक जागृति होती है, और जागृति से मनुष्य कामांध भोगांध बन जाता है
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