________________
श्रावक धर्म-अणुव्रत
है। चौथे लक्षण में चार प्रकार से सरल व्यवहार वाला होने का वर्णन है । पांचवें लक्षण में चार प्रकार की गुरुभक्ति का वर्णन है और छटे लक्षण में छह प्रकार से शास्त्र का ज्ञाता हो; इस प्रकार की गुणमाला जिस श्रावक में होती है वह सुश्रावक कहलाता है।
गृहस्थ बारह व्रत अङ्गीकार करता है तब पांचवें देश विरति गुणस्थान की कोटी में आता है । देश विरति के भी तीन भेद बताये हैं। प्रथम स्थूल हिंसा का त्याग, सप्तव्यसन परिहार और पञ्च परमेष्टि मंत्र का स्मरण करता हो तो ऐसा श्रावक जघन्य कोटि में माना है। दूसरा देश विरति में न्याय सम्पन्न धन पैदा करता हो, पैंतीस मार्गानुसारी पर चलने वाला और अक्षुद्रादि इक्कीस प्रकार से धर्म योग्यता वाला हो । षट् धर्म-कर्म पालता हो, बारहव्रत का पालन करता हो और सदाचारी हो उसको मध्यम कोटि का श्रावक कहते हैं । तीसरा षट्कर्म जिन पूजा, गुरु सेवा, स्वाध्याय, संयम, इन्द्रियदमन, तप और दान देने का गुण विद्यमान हो उसको उत्कृष्ट कोटि का श्रावक कहते हैं । उत्कृष्ठ देश विरति श्रावक सचित्त आहार का त्यागी होता है। नित्य एकासना
Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org