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श्रावक धर्म-अणुव्रत
वेश्या आदि का सर्वथा त्याग कर दीजिये, और स्वस्त्री में सन्तोषी रहकर प्रमारण करिये । इस व्रत में भी पांच प्रकार के अतिचार लगना संभव है. साथही पुनर्विवाह का भी त्याग करना चाहिए ।
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'अपरिग्गहिया इतर, अङ्ग विवाह तिव्व अणुरागे', पाठ बता कर समझाया है कि "अपरिगहि श्रा” अर्थात् बिना व्याही हुई स्त्री के साथ सम्बन्ध रखना, “इतर” अर्थात् किसी की अल्प समय तक रखी हुई स्त्री के साथ प्रेम ग्रंथी, "अङ्ग" काम क्रीड़ा अथवा विवाह सम्बन्ध, "तिव्व अणुरागे" अर्थात् काम भोग सेवन करने की तीव्र अभिलाषा से सम्बन्ध होगया हो तो अतिचार लगता है । इस तरह का वर्णन आवश्यक सूत्र पृष्ठ ८२३ पर किया है । वैसे विषय वासना के दो भेद बताये हैं, एक सूक्ष्म और दूसरा स्थूल । इन्द्रियों के अल्प विकार को सूक्ष्म कहते हैं, और मन वचन काया द्वारा विषय वासना पूरी करना स्थूल विषय कहा है। गृहस्थ को स्थूल विषय का त्याग करना चाहिए। अर्थात् स्वदारा में संतोष और परदारा का त्याग । इस तरह से चतुर्थ व्रत लेने वाले मनुष्य तीन तरह के होते हैं (१) सर्वथा
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