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________________ श्रावक धर्म-अणुव्रत वाली नहीं होती, समकितधारी आत्मा शुद्धदेव, शुद्ध गुरु और शुद्ध धर्म को मानता है। शुद्ध देव किसको कहते हैं ? हास्यादिषट्कं चतुरः कषायात् । पंचाश्रवान प्रेममदौ च केलि ॥१॥ भावार्थ--शुद्ध देव में हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगंच्छा, क्रोध, मान, माया, लोभ, प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, प्रेम, मद और क्रीडा इस तरह के अट्ठारह दोष नहीं होते। __ शुद्ध गुरु-कञ्चन कामनी के त्यागी पांच महाव्रत को पालने वाले और धर्म की शुद्ध व्याख्या करने वाले हों। शुद्ध धर्म--केवली भगवन्त भाषित अहिंसा संयम तप प्रधान हो। ___व्रतधारी सोचता है कि मुझे शुद्ध देव, गुरु, धर्म मान्य है । संसार व्यवहार से कारणवशात् अन्य देव गुरु को वन्दन करना पडे तो जयणा । विस्मरण होने से अदेव को देव, अगुरु को गुरु और अधर्म को धर्म कहना अथवा कारणवशात् मानना पडे तो जयणा। Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003175
Book TitleShravak Dharma Anuvrata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanmal Nagori
PublisherChandanmal Nagori
Publication Year
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, C005, M000, & M020
File Size3 MB
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