Book Title: Savdhan Devdravya Vyavastha Margadarshak
Author(s): Vichakshansuri
Publisher: Kumar Agency
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिटव्य व्यायायिका मायक:प. पू. साध्वाजायरेखाश्रीजी म. कीसाशा प. पु. सायरागरेखाश्रीजन की दीवाआमदनी में से। * लेखक प. पू. आचार्य श्री विचक्षणसूरीश्वरजी मा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधान ! सावधान !! सावधान !!! (देवद्रव्य व्यवस्था मार्गदर्शक) -: सम्पादक :वर्धमान तपोनिधि आचार्य देव श्री भुवनभानुसूरीश्वर शिष्य मेवाड देशोदारक-धर्मरत्नाकर-४०० तेला के तपस्वी आचार्य श्री जितेन्द्रसूरिजी म. प्रति 2000 वि. सं. 2050 मुल्य तीन रूपए प्रकाशक व प्राप्तिस्थान कुमार एजन्सी (इण्डिया 44 खाडिलकर रोड़ . मुंबई 4. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड जिनमंदिर जीर्णोद्धार कमिटी मेवाड के जीर्ण शीर्ण क्षतिग्रस्त प्राचीन मंदिरों का जीर्णोध्दार जैन समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तिओं की बनी हुई यह कमिटी करवा रही है। करीब एक सौ मंदिरों का जीर्णोध्दार हो चुका है। करीब पच्चीस मंदिरों जीर्णोध्दार कार्य चालू है। देवद्रव्य में से. उपधालन तप की माला व प्रतिष्ठा के चढाव में से या व्यक्तिगत रकम शेजकर अनन्त पुण्य प्राप्त करें। ___जूना डीसा जैन संघ, नाकोडा तीर्थ पेदी, आणंदजी कल्याणजी पेढी, कोल्हापुर जैन संघ, संभवनाथ जैन पेढी, विजयवाडा और कई राधों से प्राप्त अनुदान व्दारा जीर्णोध्दार के कार्य प्रगति पर हैं। किसी भी एक मंदिर का सम्पूर्ण जीणोदार all आपकी ओर से करवा सकते हैं। आपके Rij ch! शिलालेख (तख्ती) लगवा दी जायेगी। ड्राफ्ट या चैक कमिटी के नाम का जिko{ पते पर भेजें : कुमार एजन्सी (इण्डिया) ४४/खाडिलकर रोड, मुंबई - 4. फोन - 35 69 47/35 77 82/35 69 38 386 97 32 फक्स - 022-387 39 42 GRAM : KUMAR CARDS Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ देवद्रव्य की रक्षा करने वालों के - जन्म-मरण घटते हैं। देवद्रव्य की वृद्धि करने वाला तीर्थंकर बनता है। देवद्रव्य का भक्षण करने वाला सात बार सातवीं नरक में जाता है / -संबोध सित्तरी प्रकरण देवद्रव्यादि धर्म द्रव्य की व्यवस्था के अधिकारी कौन ? धर्म द्रव्य की सम्पत्ति का संरक्षण संवर्धन और सद्व्यय की व्यवस्था के लिए जैन संघ व्यवस्थापक वहीवटदारों को नियुक्त करता है। उनकी जानकारी के लिए धर्म द्रव्य की व्यवस्था करने के लिए कैसे आदमी अधिकारी होते हैं ? उसका स्वरूप पंचाशक SOEVE Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकरण ग्रन्थ के अनुसार द्रव्य सप्ततिका ग्रन्थ में महोपाध्याय श्री लावण्य विजयजी ने इस तरह बताया अहिगारीय गिहत्थोमुयणो वितमंजुम्गोकुलजो। अखुद्दो धिइबलीयो मइमं तह धम्मरागी य / गुरुपूआकरणरह - सुस्सुसाईगुणसंगओ चेव / आयाहिगयविहाणरस धणियमाणपहाणो य / वास्तवमें ऐसे गुणवाला श्रावक देव द्रव्यादि धर्म - द्रव्य का और धर्म स्थानों का वहीवट करने में अधिकारी कहा गया है। (1) जिसका स्वजन कुटुंब अच्छा तथा निर्धन न हो। धर्म विरुद्ध और लोक विरुद्ध कार्य नही करने वाला कुटुंबअच्छा कुटुंब कहा जाता है। ऐसे कुटुंबवाला धर्मद्रव्य तथा धर्मस्थानों कावहीवटकरेतो उसके शुभ - भावों की वृद्धि हो सके। अन्यथा कुटुंब के सदस्य धर्म Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -विरुद्ध अथवा लोक विरुद्ध कार्य करे तो अनेक प्रकार की विपत्तियाँ आने की वजह से वहीवट करने वाले का दिमाग आर्त - रौद्र ध्यान के संक्लेश से ग्रस्त रहे। अत: उसको शुभ भाव वृद्धि की संभावना ही नही रहती। गरीब होगा तो कभी देवद्रव्य का ब्याज या रकम अपने काम में ले लेगा | जिससे जन्म-जन्म दुःख पावेगा। (2) न्यायोपार्जित धनवाला : न्याय से धन कमाने वाला हो / (3) योग्य : राजादि व्दारा सन्माननीय | जिसका कोई भी पराभव नहीं कर सके। (4) उत्तम कुलोत्पन्न : उत्तम कुलमें जन्मा आदमी धर्म द्रव्यादि के वहीवट के कार्यों को अच्छी तरह पूर्णता तक पहुंचा सकता है। हलके कुल वाला तो बाधा या कठिनाई SO405 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पड़ने पर बीच में ही कार्य को छोड़ देता है। (7) अक्षुद्र - हृदय की विशालता वाला : यह समस्त कार्यों को सुन्दर ढंग से कर सकता है। कंजुसाइ वगैरे करने के कारण क्षुद्र आदमी से तो कार्य बिगड जाते हैं। (6) धृति बलवान : यह आदमी कितनी ही कठिनाई वाले कामों में अपने मनको स्थिर और समभाव में रख सकता है और काम को अधबीच छोड़े बिना व्यवस्थित रूप में पूरा करता है। . (7) मतिमान् - बुद्धिशाली मनुष्य अपनी बुद्धि से कार्यों में आती हुई कठिनाइओं को अच्छी तरह से दूर कर सकता है। (8) धर्म रागी - धर्म कार्य करते समय कभी भी अधर्म की प्रवृत्ति न हो जाय, उसकी सावधानी रखने वाला होता है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1) गुरु भक्त - गुरुभगवन्त इसको देव द्रव्यादि धर्म द्रव्यादि का वहीवट ठीक तौर पर कैसे करना ? यह समझा सके तथा समझ कम हो तो जिनाज्ञा के विरुद्ध वहीवट करने से रोक भी सकें। (10) शुश्रूषादि बुद्धि के आठ गुण युक्त - इनसे धर्म तत्त्वों की जानकारी अच्छी प्राप्त होने से इन गुणवाले धर्म द्रव्यादिका वहीवट सोच समझ कर जिनाज्ञा के अनुसार कर सकते हैं। (11) देवद्रव्यादि की वृद्धि वगेरे के उपायों का ज्ञाता यह देव द्रव्यादि धर्म द्रव्य के वहीवट का एक भी कार्य जिनाज्ञा के विरुद्ध नहीं करेगा / श्री जैन संघ को ऐसे गुण सम्पन्न सुश्रावक को देव - द्रव्यादि धर्म द्रव्य के तथा मन्दिर उपाश्रयादि धर्म स्थानों के वहीवट मे ट्रस्टी तरीके वास्तव में अधिकारी होने से नियुक्त करना चाहिए। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवद्रव्य भक्षण के प्रतिसुग श्रावकों को होती है / सुग चली न जावे इत्यादि अनेक हेतु से देव द्रव्य के या ज्ञान द्रव्य के मकान में किराये से भी रहना श्रावक के लिए उचित नहीं है। साधारण सम्बन्धि तुसंधानुमत्या यदि व्यापार्यत तदाऽपिलोकव्यवहाररीत्या घाटकमयीन तून्यूनम् // साधारण खाते के दुकान मकानादि में संघ की अनुमति से रह सकते हैं। फिर भी उसका किराया लोग - व्यवहार में जो हो उस मुताबिक देना चाहिये / कम देवे तोन चले। कम किराया देने वाला पापका भागी बनता है। गृहचैत्यनैवेद्यचोक्षादि तु देवगृहे मोच्यम् // श्राद्ध विधि ग्रन्थकार कहते हैं कि घर मंदिर में नैवेद्य चांवल सोपारी नारियल वगेरे जो कुछ आवे वह संघ के मन्दिर में दे देना चाहिए। . ___ कितनेक जगह पर घर मन्दिर में प्रभुभक्ति Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमित्त से इकठे हुए देवद्रव्य का व्यय घर मन्दिर के जीर्णोध्दार में रंग-रोगानादि करने में तथा पूजा के लिए केसर सुखडादि की व्यवस्था करने में करते हैं। वह किसी तरह से युक्त नहीं है। जिस व्यक्ति का मन्दिर कहलावे उसको ही निभावादि की व्यवस्था करनी चाहिये। अपने मन्दिर में आयी हुई सब आवक संघ के मन्दिर में दे देनी चाहिए। यही श्राद्ध विधि आदि शास्त्रों का फरमान है। ट्रस्टियों के कर्तव्य - (1) किसी भी ट्रस्टी को आपमति, बहुमति और सर्वानुमति के आग्रही नहीं बनना चाहिये / किन्तु शास्त्रमति के ही आग्रही रहना जरूरी है। मन्दिरादि के तथा वहीवटादि के कार्य शास्त्र के आधार से श्री अरिहन्त परमात्मा की आज्ञा अनुसार करने के लिए सावधानी रखनी चाहिये / (2) अपने बोले चढ़ावे की या स्वयं ने टीपादि में लिखाकर देने की निश्चित की हुई देवद्रव्यादि की Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रकम शीघ्रतया संघ की पेढ़ी में भरपाई करनी चाहिए और लोगों में भी जो देवद्रव्यादि की रकम बकाया होवे उसकी स्वयं या मुनिम के व्दारा उघराणी करके वसूली करनी चाहिए। हर हमेशा मन्दिर में देवाधिदेव अरिहन्त परमात्मा के दर्शन पूजन करने चाहिए और मन्दिर की सारसंभाल रखके होती हुई आशातनाओं को दूर करनेकरवाने का प्रयास करना चाहिये / इसी तरह उपाश्रयादि धर्मस्थानों में भी हर रोज जाना चाहिये और उसकी साफ-सफाई वगैरे करवाने का ध्यान रखना चाहिये | उपाश्रय में गुरुमहाराज बिराजमान होवे तो प्रतिदिन उनको वन्दन करने जाना चाहिये तथा उनके प्रवधन सुनने चाहिये। उनके पास स्वयं जिस रीति से वहीवट करते हो उसकी जानकारी देनी चाहिये | उसमें जो भुलचूक बतावे उसका सुधारा करना चाहिये / धर्मस्थानों का वहिवट करने की विधि के बताने वाले शारत्र अवसर पर सुनने चाहिये। प्रत्येक ट्रस्टी का फर्ज है कि ट्रस्टी बनने पर 2090E Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्दिर में दर्शन पूजन करने वालों की संख्या में वृद्धि होवे तथा उपाश्रय में सामायिकादि की आराधना करनेवालों की संख्या बढ़े और गुरु-महाराज के व्याख्यानादि में ज्यादा लोग उपस्थित होवे ऐसे प्रयत्न करते रहना चाहिये। जैन शासन के प्रभावना के महोत्सवादि कार्यों में प्रत्येक ट्रस्टी को सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिये। आजकल कई जगह पर ट्रस्टी वर्ग ट्रस्टी बनने के बाद कुछ ऐसे निष्क्रिय बन जाते हैं कि महोत्सवादि शासन - प्रभावना के प्रसंगों की बात तो बाजू में रखो लेकिन आवश्यक कार्यों के लिये ट्रस्टियों की बुलाई मीटिंग में भी उनकी उपस्थिति नहीं रहती / कोई भी कार्य में भाग नहीं लेते | यह अत्यन्त ही अनुचित है। संघ के प्रसंगोपस्थित कार्यों में भोग देकर भाग लेने की वृत्ति न होवे तो ऐसे आदमी को ट्रस्टी पद पर आरूढ ही नही होना चाहिये। हर ट्रस्टी को शासन के प्रत्येक कार्य में जिनागम - शास्त्र का अनुसरण करके संघ को बनाए रखना चाहिये और जैन संघ में विखवाद खडे न हों EO99105 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसकी सावधानी रखनी चाहिए। कोई अपने स्वार्थीय कारणों से संघ में विखवाद खड़ा करे तो उसको सप्रेम समझाने के लिए प्रयत्न करना चाहिये / मन्दिर के पूजारी आदि से तथा साफ-सफाई आदि के लिए रखे हुए उपाश्रयादि के नौकर से अपला निजी कोई भी कार्य नही करवाना चाहिये / अपना काम करवाना होवे तो उसको अपनी ओर से पैसे देकर ही करवाना उचित है। अन्यथा देवद्रव्यादि के भक्षण का दोष लगेगा / और निजी कार्य पूजारी आदि के दारा इस ढंग से तो नही ही करवाना चाहिये कि जिससे मन्दिर के कार्यों में, प्रभुभक्तिमें व्याोप पडे, व्याघात होवे। जिनमन्दिरादि के वहीवट करने वाले ट्रस्टीग] के दिमाग में यह बात निश्चित रूप से होनी चाहिए कि ट्रस्टी पद सत्ता भोगने का पद नही है / लेकिन जिनमन्दिररादि संस्था के सेवक बनकर कार्य करतो का पद है। आज कई जगह ट्रस्टी पद को मान-सम्मान सत्ता और प्रतिष्ठा का पद बना दिया है। ये लोग जिनमन्दिरादि की सार-संभाल तथा देवद्रव्यादि की 12 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D व्यवस्था सही ढंग से जही करते / जब मानसन्मानादि में बाधा खड़ी होने का प्रसंग उपस्थित होता है तब ये ट्रस्टीमंडल में पधापक्षी का वातावरण पैदा करके रगडे झगडे खडे कर देते हैं। अन्त में जाकर ये रगडे झगडे संघ के संप को तोड़ के रहते हैं। उसके कारण कई लोग धर्म विमुख बन जाते हैं। ऐसे ट्रस्टी का में अरिहन्त परमात्मा के प्रति तथा ऊके शासनके प्रति श्रद्धा की कमी है। श्रध्दा हीन पैसेदार जब ट्रस्टी पद पर अरूढ होते हैं तब उनका अभिमान आसमान तक पहुँच जाता है। वे न जिनाज्ञा मुताबिक वहीवटी कार्य करते हैं और न तो उसमें गीतार्थ गुरुभगवन्तों की राय ही लेते हैं। ऐसे लोग अयोग्य स्थानों में देवद्रव्य का दुरुपयोग करके भयंकर पापों का बंध कर दुर्गति के उअधिकारी बनते हैं | अत: ट्रस्टी महानुभावों को सूचन किया जाता है कि वेट्रस्टी पदको मानसन्मानादि का पद न बनाकर सेवा का पद बनावे और श्री अरिहंत परमात्मा की आज्ञा को निगाह में रखकर समय समय पर जिनआज्ञा का पालन करके जिनमन्दिरादि धर्म - स्थानों का तथा देवद्रव्यादि धर्मद्रव्य का वहीवटी कार्य करें, ताकि अपनी आत्मा संसार में डूबे नही और दुरन्त = 13 = Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दु:खदायी दुर्गतियों के गहरे खड्डे में गिरे नही / ___ जैन शासन में सारे वहीवटदार लोग सही तर पर वहीवटी कार्य करके उत्तम कोटी का पुण्य लभ उठावे इसी हेतु हमारा यह पुस्तक प्रकाशन कार्य है। यह पुस्तक एकध्यान से पुन: वांचकर जिनाबा मुताबिक समस्त ट्रस्टी वर्ग वहीवटी कार्य सही ढंग से करें / यही हमारी शुभ अभिलाषा है। देव द्रव्यादि की बोली बोलने वालों के कर्तव्य प्रत्येक महानुभावों का कर्तव्य है महोत्सवादि प्रसंग पूजा वगेरे करने की तथा पर्दूषण में स्वप्नाजी झुलाने इत्यादि की बोलीयां बोली जाती हैं। उसमें रुपये आदि से जो महानुभाव चढ़ावा लेते हैं और प्रथम पूजाद का लाभ प्राप्त करते हैं / उनको प्रथमपूजादि का लभ लेने के पहले ही या पश्चात बोली के रुपये तुरंत रघ की पेढी में भर पाई करना चाहिए | कुछ महिने या सालभर के बाद ही पैसे देने होवे तो ब्याज सहित ने SO980 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए। जिससे देवद्रव्यादिधर्म द्रव्य के भक्षण का पाप नहीं लगे। तुरंत ही पैसे संघ की पेढी में भर-पाई करने से वे पैसे बैंक में रखने से ब्याज चालु हो जाता है। कई साल तक चढ़ावे के पैसे भर पाई न करने वाले जब पैसे चुकाते हैं तब जो ब्याज देते नही / उनको देव द्रव्यादि भक्षण का भयंकर दोष लगता है। ___ व्यवहार में भी कोई आदमी किसी को ब्याज से रपये उधार देता है और उधार लेने वाला एक सप्ताह में ही यदि वे रुपये लौटा देता है तब भी उधार देने वाला कही तो एक महिने का पूरा ब्याज ले लेता है। न केवल सप्ताह का / तो फिर जो बोली आदि के रुपए तुरंत न कावे, कई महिनों या सालों के बाद चुकावे, वे भी विना ब्याज के, यह कितना अनुचित है ! इसीलिए शास्त्र में कहा गया है कि चढावादि के पैसे तुरंत ही का दो, कुछ देर से चुकाना, हैं, तो ब्याज सहित फाओ | तभी आपको सच्चा लाभ मिलेगा / तुरंत पैसे दो में एक लाभ यह भी है कि बोली बोलकर छठीवा लो के वक्त में अमाप उत्साह होने की वजह से सी भी समय पैसे चुका देने में अपूर्व कोटिका पुल्यबंध होता Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। यदि उसी समय पैसे न दिये जाए, पैसे देने में विलब किया जावे तो पीछे से पैसे देने में उत्साह मंद पड जाता है और कभी तो उत्साह का भंग भी हो जाता है। बिना उत्साह से पैसे भरपाई करे तो पुण्य बन्ध में भी भारी कमी आ जाती है। इसलिए हरेक पुण्यवान आवक वो शास्त्राज्ञानुसार फर्ज है कि बोली बोलते ही पैसे भरपाई कर देना या विलम्ब से भरपाई करना होवे तो ब्यान सहित भरपाई करना चाहिए। जिससे अच्छे पुण्य बन्य के भागीदार बन सके। अपने यहां पुण्यवान उदारताशील ऐसे भी श्रावव हो गये हैं कि चढावे बोलकर तुरन्त ही पैसे भरपा करते थे। महामंत्रीश्वर पेथडशा ने गिरतार तीर्थ दिगम्बर के साथ विवाद में इन्द्रमाल पहिलाकर गिरता! तीर्थ जैन श्वेताम्बर की मालिकी का करने के लिए 19, घडी सोने की बोली लगा करके चढावा लिया था। क 56 धड़ी सोना भरपाई करने के लिए उंटडिओ पर अपने घर से सोना लाने के लिए अपने आदमिओं को भे था | क्योंकि सोना न आवे तब तक अन्नपाणी न लेन, यह निर्णय था / 56 घडी सोना आने में दो दिन लो, Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ um maaamanaSENIORamr दो दिन के उपवास हुए / तीसरे दिन पेढी में 56 धडी सोना चुकाकर पारणा किया | यह बात खास याद रखने जैसी है, और याद रखकर जीवन में अमली बनाने जैसी है। जो बोली बोलो वह दुरन्त दे दो। हो सके तो बोली बोलने वालों को पैसे जेब में लेकर ही आना चाहिए। उघाई करने के लिए मुनिम वगेरे वहीवट करने वालों को रखने पडे, यह रीत योग्य नहीं है। इसमें शाहुकारी नही रहती है | बोली के पैसे तुरन्त देना यह पहली शाहुकारी है, देने में विलंब करते हुए भी यदि ब्याज बजार भाव का देवे तो भी ठीक है। स्वयं लेवे दो टका और देवे एक टका ब्याज, तो देवद्रव्य का एक रूपया खा जाने का दोष लगता है। चढावे की रकम तुरन्त न देने में कभी अकल्पित बनाव भी बन जाते हैं। श्रीमंताई पुण्य के अधीन है। पुण्य खतम हो जावे और पाप का उदय जागृत हो जावे तो बड़ा श्रीमंत भी एकदम दरिद्री बन जाता है। लक्ष्मी चली भी जाती है, जिंदगी तक जीवन जीने में भी कठिनाईयां भोगनी पडती हैं। ऐसी अवस्था में धर्मादा द्रव्य का देना कैसे चुकावे ? अन्त में कर्जदार बनकर 17 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवान्तर में जाना पडता है। धर्मस्थानों का देना बकाया रखना और मुनिम आदि को धक्के खिलाते रहना यह रीत भी लाभदायी तथा शोभास्पद नहीं है। अत: आत्मकल्याण के लिए जितने द्रव्य का सद्व्यय करना नक्की किया है। वह तुरंत दे देना ही आत्मार्थी पुरुष के लिए वाजबी है। जैन शासन में सर्वश्रेष्ठ कोटी का द्रव्य देवद्रव्य माना गया है / उसको जानपने या अनजानपने में अपने उपयोग में लेना, खा जाना, नुकसान पहुँचाना तथा कोई खा जाता होवे, चुरा लेता होवे, हानि पहुँचाता होवे उसकी उपेक्षा करना यह बड़ा पाप है। हिंसा के पापों में जैसे तीर्थकर की हिंसा सबसे बड़ा पाप है। उसी तरह देव द्रव्य का भक्षणादि करने से बढकर कोई बड़ा पाप नही है। सामान्य तौर पर यह कहा जा सकता है कि एकेन्द्रिय जीव की हिंसा से बेइंद्रिय जीव की हिंसा में ज्यादा पाप है, उससे तेइन्द्रिय जीव की हिंसा में ज्यादा पाप है। इस तरह चौरिन्द्रिय की तथा पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में उत्तरोत्तर ज्यादा पाप लगता है। 18 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य में भी एक सामान्य मनुष्य की हिंसा की अपेक्षा उत्तरोत्तर शेठ श्रीमंत शक्ति सम्पन्न तथा राजा, महाराजा, चक्रवर्ती, साधु, उपाध्याय, आचार्य, गणधर - तीर्थकर की हिंसा में अधिक - अधिक पाप लगता है। क्योंकि एकेन्द्रिय से लगाकर तीर्थकर तक के जीव उत्तरोत्तर विशेष विशेष पुण्यवान होते हैं। विशेष विशेष पुण्यवानों की हिंसा करने में उत्तरोत्तर हिंसक के दिल में निर्दयता और क्रूरता अधिक अधिक आती है। उसी तरह कोई आदमी सामान्य किसी आदमी का धन खा जावे उसकी अपेक्षा जीवदयादि का द्रव्य खा जावे तो ज्यादा पाप का बन्ध करे | उससे भी साधारण द्रव्य - श्रावकादि का द्रव्य, साधु आदि का द्रव्य-ज्ञान द्रव्य तथा देवद्रव्य का भक्षण करने वाले को उत्तरोत्तर अधिक अधिकतर और अधिकतम पाप का बन्ध होता है। सब जीवों में तीर्थङ्करसर्वश्रेष्ठ है। उसी तरह सर्व - द्रव्य में देवद्रव्य सर्वश्रेष्ठ कोटी का द्रव्य है। तीर्थङ्कर की हिंसा करने की प्रवृत्ति करने वाला जैसे घोर पापी SO93E Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, उसी तरह देवद्रव्य का भक्षणादि करनेवाला भी धोर पापी है। देवद्रव्य के भक्षणादि का ऐसा घोर पाप है कि देवद्रव्यादि का भक्षणादि करने वाले को इस जन्म में भी दरिद्रतादि की भयंकरयातनाएं भोगनी पडती हैं और जन्मान्तर में दुर्गतियों के चक्कर में अनन्त अनन्त बार घूमना पडता है / अनन्तान्त असह्य दुःख भोगने पड़ते हैं। मन्दिर के दीपक से अपने घर का काम करने वाली देवसेन श्रेष्ठि की माँ की क्या दशा हुई ? उसकी जानकारी के लिए उपदेश प्रासाद, श्राद्ध विधि आदि ग्रन्थों में उसका दृष्टान्त आता है - इन्द्रपुर नगर में देवसेन नाम के धनाढ्य सेठ रहते थे। हररोज उसके घर एक उंटडी आती थी। उसको बेडीया मार-मार के अपने घर ले जाता था, लेकिन वह उंटडी वापस देवसेन सेठ के घर पर आ जाती थी। यह देखकर देवसेन श्रेष्ठि को बडा आश्चर्य हुआ। एक दफे ज्ञानी गुरु भगवन्त पधारे। उनसे देवसेन श्रेष्ठि ने पूछा 'भगवन् यह उंटडी बार-बार मेरे घर पर क्यों आ जाती 20E Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ? तब ज्ञानी गुरु भगवन्त ने कहा कि यह उंटडी गत जन्म में तेरी माँ थी। वह हरहमेश जिनेश्वर भगवन्त के आगे दीपक करती थी और उसी दीपक से अपना घर काम भी करती थी / जिनेश्वर भगवन्त के आगे धरे हुओ दीपक से घर काम करने से देवद्रव्य भक्षण का पाप लगता है। तेरी माँ जिनेश्वर देव के आगे रखे दीपक से अपने घर का काम करती थी। उसी तरह धूप के लिए रखी धूपदानी की अग्नि से चूल्हा भी जलाती थी। इन दोनों पाप से तेरी माँ उंटडी रूप से पैदा हुई है। तुझे और तेरे घर को देखकर इसे शान्ति मिलती है। अब तू इसे तेरी माँ के नाम से बुला और दीपक की तथा धूप की बात कर, जिससे इसे जातिस्मरण ज्ञान और प्रतिबोध होगा / देवसेन सेठ ने गुरु भगवन्त के कहे मुताबिक बात की। अपना पूर्वभव सुनकर उंडी को जातिस्मरण ज्ञान हुआ / गत जम में किये देवद्रव्य भक्षण के पाप का उसे भारी पश्चाताप हुआ और सोचने लगी “अरे ! इस पाप से उत्तम कोटी का मानव जन्म गँवा कर मैं जानवर बन गई। अब मेरा क्या होगा ? मैं धर्म कैसे 021 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर सकूँगी ? वह धर्म पाई / गुरु के पास सवितादि के त्याग के नियम लिए / सुन्दर जीवन जीने लगी। अन्त में शुभ ध्यान में मरकर देवलोक में गई। __इसलिए अपने पूर्वावार्य कहते हैं कि मन्दिर की कोई भी चीज या उपकरण का अपने स्वयं के काम में उपयोग नही करना चाहिए - ताकि देवद्रव्य के भक्षण का पाप न लगे। जिस तरह मन्दिर की कोई भी चीज का अपने कार्य में उपयोग करना पाप है। उसी तरह मन्दिर की कोई भी अच्छी चीज अदल बदल कर ले लेतना यह भी भारी पाप बन्ध का कारण है और इस जन्म में भी दरिद्रतादि कई प्रकार से दुःखदायी बनता है। इस बात को जानने के लिए शुभंकर श्रेष्ठि की कथा उन्ही शास्त्रों में लिखी है। वह इस तरह है - कांचनपुर नगर में शुभंकर नाम के सेठ रहते थे। संस्कारी और सरल स्वभावी शुभंकर रोठ को प्रतिदिन जिनपूजा और गुरु वन्दन करने का नियम था / एक दिन सुबह में किसी जिनभक्त ने दिव्य Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चावलों से प्रभुभक्ति की / सेठने दिव्य चावल की ढगलियां मन्दिर के रंगमंडप में देखी / वे चावल अलौकिक थे तथा सुगन्ध से तन मन को तरबतर करने वाले थे | उन चावलों को देखकर शुभंकर सेठ के दाढ में पानी आ गया और सोचा कि यदि इन चावलों का भोजन किया जाय तो उसका स्वाद कई दिनों तक याद रह जायगा। “मंदिर में जिनेश्वर देव की भक्तिमें रखे चांवल तो ऐसे ही लिए नहीं जाते। अब क्या करना ?" अन्त में उसने रास्ता ढूंढ निकाला / अपने घर से सामान्य चावल लाकर दिव्य चापल के प्रमाण में अधिक रखकर उन चावलों का बदला किया / दिव्य चावल घर ले जाकर उनकी खीर बनाई। खीर की खुशबू चारों ओर फैल गई। उस समय मासोपवासी एक तपस्वी मुनि महात्मा का उसके घर में पदार्पण हुआ | सेठ ने मुनि महात्मा को खीर बहोराई। मुनि महात्मा खीर वहेर कर उपाश्रय तरफ जा रहे थे। रास्ते में पातरे को अच्छी तरह से ढंकने पर भी दिव्य खीर की खुशबू मुनि महात्मा के नाक तक पहुँच गई। तब मुनि ने न करने जैसे विचार किए। BOP Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेठ मेरे से भी बहोत भाग्यवान हैं कि वे ऐसा स्वादिष्ट और सुगन्धित भोजन प्रतिदिन करते हैं। मैं तो साधु रहा, मुझे ऐसा भोजनसदा कहाँ से मिले ? लेकिन आज मेरे भाग्य के व्दार खुल गये हैं। आज तो स्वादिष्ट और सुगन्धित खीर खाने को मिली है। ज्यों ज्यों उपाश्रय तरफ मुनि आगे बढ़ रहे हैं, त्यो त्यो मुनि की विचारधारा भी दुर्ध्यान तरफ आगे बढ़ती जाती है। अन्त में तो यहाँ तक निर्णय कर लिया कि "यह खीर गुरु को बताउंगा तोसबवेखा जायेंगे। इसलिए गुरुजी को बताये बिना उनकोखबर न पडे इस तरह एकान्त में बैठ कर खीर खा लुंगा।" उपाश्रय में जाकर गुरु कोखबर न पडे इस तरह चुप के से खीर अकेले ने खा भी ली / खाते खाते भी खीर के ससाद की और शुभंकरसेठ के भाग्य की खूबखूब मनोमन प्रशंसा करने लगे ! “अ हा हा ! क्या मधुर-स्वाद ! देवों को भी ऐसी खीर खाने को मिलना मुश्किल है। मैंने तप करके फिजुल देहदमन किया"। मुनि खीर खा के शाम को सो गये / प्रतिक्रमण भी नहीं किया / गुरुने प्रेरणा की फिर भी वह सोते ही ORX Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त पव रहे। सुबह भी प्रतिक्रमण नहीं किया | गुरु महाराज ने विचार किया। "यह क्या हुआ ? यह मुनि तो महान् आराधक है। साधु-जीवन की समस्त क्रियाएं प्रतिदिन अप्रमत्त भाव से करता था | आज ऐसा क्यों ? मुझे लगता है की इसने अवश्यमेव अशुध्द आहार का भोजन किया है। गुरु महाराज यह विचार कर रहे थे उस वक्त सुबह में शुभंकर सेठ गुरु भगवन्त को वन्दन करने आये। सेठ ने देखा मुनि महात्मा अभी तक सोये हुए हैं। गुरु को इसका कारण पूछा | गुरु ने कहा “यह मुनि गोचरी करके सोये हैं। उठाने पर भी उठे नही / मुझे लगता है की कल इसमें कोई अशुध्द आहार का भोजन किया होगा। यह सुनकर सेठ ने कहा कि कल तो मैंने ही गोचरी बेहेराई है। गुरुने पूछा, शुभंकर सेठ ! आपको तो मालूम ही होगा कि आपने बहोराया हुआ आहार शुद्ध और मुनि को खप में आवे वैसा ही था न ? शुभंकर सेठ ने सरल भाव से बिना छुपाये मन्दिर में से बदलकर लाए चांवल से बनाई खीर की 25 = Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |बात कह दी। ___ गुरु महाराज ने कहा "शुभंकर ! यह आपने ठीक नहीं किया / तुमने देवद्रव्य के भक्षण का महान पाप किया है। सेठ ने कहा - हां गुरुजी ! उसके पीछे मेरे को भी कल बहुत धन की हानि हुई है। गुरु ने कहा - तेरे तो बाह्य धन की हानि हुई और इस मुनि को अभ्यन्तर संयम धन की हानि हुई है। हे शुभंकर ! इस पाप से बचना हो तो तेरे पास जो धन है उसका व्यय करके एक जिनमन्दिर बना देना चाहिये। सेठ ने पाप से बचने के लिए एक मन्दिर अपने सारे धन से बनवाया / साधु के पेट की जुलाब की औषधि देकर शुद्धि की तथा पातरे को गोबर और राख के लेप लगाकर तीन दिन धूप में रखकर और उसके बाद शुध्द जल से साफ करके शुद्धि की। मुनि महात्मा ने भी अपने किये अतिचार - पाप का प्रायश्वित कर लिया / SREF Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस दृष्टान्त से यह बात सिध्द होती है कि देवद्रव्य का भक्षण हलाहल विष है। अनजान में भी भक्षण हो जावे तो इस जन्म में भी आदमी को नुकसान किये बिना नहीं रहता, तो जानबूझ के खाने वाले की क्या दशा होवे ! इससे सब श्रावकों को यही सीखने का है कि अधिक द्रव्य देकर भी देवद्रव्य की चीज अपने उपयोग में नही लेनी और परस्पर किसी को देनी भी नही। देवद्रव्य के भक्षणादि के बारे में शास्त्र में बहुत से द्रष्टान्त दिये हैं उनको वांचकर-सुनकर देवद्रव्य के भक्षणादि से बचने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए। देव द्रव्य बाबत सभी सम्प्रदाय के मुनि सम्मेलन का एक निर्णय (1) मंदिर का पैसा (देवद्रव्य) मूर्ति बनाने व मंदिर निर्माण व जीर्णोध्दार सिवाय कही वापरना नही। .(2) प्रभुना मंदिर मां के बहार गमे ते ठिकाने प्रभुना निमित्ते जे जे बोली बोलाय ते सघलुं देव द्रव्य कहेवाय। (3) उपधान संबन्धी माला आदि नी उपज देव - #ORU 05 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यमां लइ जवी योग्य जणाय छ / (4) श्रावकोए पोताना द्रव्यथी प्रभु पूजा वगेरेनो लाभ लेवो ज जोइए / परन्तु कोई स्थले अन्य सामग्रीना अभावे प्रभुनी पूजा आदिमां वांधो आवतो जणाय तो देव द्रव्य मांथी पण प्रभुनी पूजादि तो जरूर थवी जोइए / (7) तीर्थ अने मंदिरोना वहीवंटदारोए तीर्थ अने मंदिर सम्बन्धी कार्य माटे जरूरी मिल्कत राखी बाकीनी मित्कतमांथी तीर्थोध्दार अने जीर्णोद्धार तथा नवीन मंदिरो माटे योग्य मदद आपवी जोईए / ओम आ मुनि सम्मेलन भलामण करे छे. द. विजय नेमिसूरि / जयसिंह सूरि / विजयसिदिसूरि। आनंद सागर / विजय वल्लभ सूरि / विजयदान सूरि। विजयनीति सूरि। मुनि सागरचन्द / विजय भूपेन्द्र सूरि। अखिल भारत वर्षीय जैन श्वेतांबर मुनिसम्मेलने सर्वानुमते आ पटक रूपे नियमो कर्या छे. तेनो असल पट्टक शेठ आणंदजी कल्याणजी नी पेढीने सोप्यो छे. कस्तुरभाई मणिभाई श्री राजनगर जैन संघ वंडा वीला ता. 10-4-34 = 28 = Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक कोथली से व्यवस्था दोषित है। देवद्रव्यादि धर्म द्रव्य की व्यवस्था एक कोथली से करना दोषपात्रहोने की वजह से अत्यन्त अनुचित है। कई गांवों में एक कोथली की व्यवस्था है। देवद्रव्य के रुपये आवे तो उसी कोथली में डाले, ज्ञान द्रव्य के रुपये आये तो उसी कोथली में तथा साधारणादि के रुपये वे भी उसी कोथली में डालते हैं। जब मंदिरादि के कोई कार्य में खर्चने होते हैं तब उसी कोथली में से खर्च करते हैं। लेकिन जब उस कोथली में केवल देव - द्रव्य के ही रुपये पडे होते हैं और चौपड़े में ज्ञान या साधारण खाते का एक पैसा भी नहीं हैं। उस वख्त आगम ग्रन्थ लिखवाने का या छपवाने का कार्य उपस्थित हुआ अथवा साधु साध्वीजी महाराज को पढाने वाले पंडितजी को पगार चुकाने का प्रसंग उपस्थित हुआ, तब जिस कोथली में केवल देव द्रव्य का ही धन बचा है उसमें से रुपये लेकर खर्च करते हैं। उससे जब तक कोथली में ज्ञान या साधारण द्रव्य उघराणी में से न आवे तब तक देवद्रव्यं का उपभोग हुआ। अत: एक कोथली पाप में पडने का OR03 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाय है। वास्तव में देवगव्य की, ज्ञानद्रव्य की तथा साधारण द्रव्य वगेरे सबकी कोथली अलग अलग रखनी चाहिए। देवद्रव्य आदि के उपभोग से बचने के लिये यह बहुत ही जरूरी है। मंदिर का कार्य आवे तो देवद्रव्य की कोथली में से धन व्यय करना चाहिए। ज्ञान का कार्य आवे तो ज्ञान द्रव्य की कोथली में से धन व्यय करना चाहिये / लेकिन ज्ञान या साधारण खाते की रकम न होवे तो देवद्रव्य की कोथली में से लेकर ज्ञानादि के कार्य में व्यय नही कर सकते / देव द्रव्य का व्यय करने की नौबत आवे तब वे ज्ञानादि के कार्य बन्ध रखने चाहिये / यद्यपि देवद्रव्य कोथली में न होवे और मंदिर का कोई कार्य आवे तो ज्ञान द्रव्यादिका उपयोग हो सकता है। क्योंकि उपले खाते के कार्य में नीचले खाते की सम्पत्ति का व्यय करने में शास्त्र का कोई बाध नही है। अत: देवद्रव्यादि सब द्रव्य की एक कोथली ट्रस्टीओं के लिए कार्य करने में सुविधा जनक होते हुए भी देव द्रव्यादि के उपयोग के पाप के कारण दोष है। इस हेतु सब द्रव्य की एक कोथली रखना और सब कार्यों में उसमें से खर्चना तद्दन गलत है। 30 = Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयड अति प्राचीन तीर्थ-तपागच्छ उद्गम स्थान उदयपुर हांथी पोल से 3 k.m. दूर अति प्राचीन चार विशाल जैन मंदिर हैं। तेरहवी सदी में परमतपस्वी आचार्य श्री जगच्चन्द्रसूरिजी के आजीवन बारह वर्ष तक आयंबिल तपस्या से प्रभावित होकर मेवाड के महाराणा जेत्रसिंह ने उन्हें 'तपा' का बिरुद दिया था। तब से महावीर स्वामी की परम्परा के साधुओं का तपागच्छ कहलाया | दो मंदिरों का जीर्णोध्दार चल रहा है। उनमें एक का आणंदजी कल्याणजी पेढी, अहमदाबाद व दूसरे का पिण्डवाडा जैन संघ पेढी की ओर से हो रहा है। . धर्मशाला, भोजनशाला, उपाश्रय भी बनेंगे / दाताओं के लिए लक्ष्मी के सदुपयोग करने का सुंदर स्थान है। * पत्र व्यवहार c/o. दीवान सिंह बाफना घंटाघर - उदयपुर (राजस्थान) पिन - 3130016 फोन. R. 23307 - S. 245 = 31 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री दयालशाह किला जैन श्वे. तीर्थ कांकरोली - राजसमन्द के बीच राजसमन्द झील के किनारे सुंदर पहाडी पर तिमंजिला विशाल प्राचीन चौमुखा आदि जिन.प्रासाद, 2200 वर्ष प्राचीन पुंडरीकस्वामी, शांतिजिन मंदिर, सम्मेतशिखर, तलहट्टी मंदिर, गुरुगौतम मंदिर दर्शनीय हैं / भोजनशाला, उपाश्रय, धर्मशाला आदि सुंदर व्यवस्था है। पत्र व्यवहार - श्री दयालशा किला जैन तीर्थ पेढी दयालशा मार्ग. पो - राजसमंद (राजस्थान) पिन. 313326 फोन - 2049 एक्स - कांकरोली मंदिर का जीर्णोध्दार चल रहा है। देवद्रव्य के सदुपयोग करने का सुवासालै .. शास्त्रवचन महावारवाणी नवीनचैत्य विधाने, यत्पुण्यं प्रकीर्तितम् / तस्मादषगुणं पुण्यं, जीर्णोद्धारण जायते // अर्थ - नया जैन मंदिर बनाने में जितना पुण्य होता है / उससे आठ गुना पुण्य जीर्णोद्धार कराने से होता है। E Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक मिलने का पता मनरूपजी रिखबचंद एण्ड कंपनी 72/ झवेरी बाजार, श्ला माला मुंबई 2. ____पो. तखतगढ़ (राजस्थान) पिन - 306912 जिला - पाली