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________________ भवान्तर में जाना पडता है। धर्मस्थानों का देना बकाया रखना और मुनिम आदि को धक्के खिलाते रहना यह रीत भी लाभदायी तथा शोभास्पद नहीं है। अत: आत्मकल्याण के लिए जितने द्रव्य का सद्व्यय करना नक्की किया है। वह तुरंत दे देना ही आत्मार्थी पुरुष के लिए वाजबी है। जैन शासन में सर्वश्रेष्ठ कोटी का द्रव्य देवद्रव्य माना गया है / उसको जानपने या अनजानपने में अपने उपयोग में लेना, खा जाना, नुकसान पहुँचाना तथा कोई खा जाता होवे, चुरा लेता होवे, हानि पहुँचाता होवे उसकी उपेक्षा करना यह बड़ा पाप है। हिंसा के पापों में जैसे तीर्थकर की हिंसा सबसे बड़ा पाप है। उसी तरह देव द्रव्य का भक्षणादि करने से बढकर कोई बड़ा पाप नही है। सामान्य तौर पर यह कहा जा सकता है कि एकेन्द्रिय जीव की हिंसा से बेइंद्रिय जीव की हिंसा में ज्यादा पाप है, उससे तेइन्द्रिय जीव की हिंसा में ज्यादा पाप है। इस तरह चौरिन्द्रिय की तथा पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में उत्तरोत्तर ज्यादा पाप लगता है। 18
SR No.004475
Book TitleSavdhan Devdravya Vyavastha Margadarshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansuri
PublisherKumar Agency
Publication Year1994
Total Pages34
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size3 MB
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