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________________ Dood क FOR महामहोपाध्याय श्रीगंगाधरजी के, जैनदर्शन के विषय में, असत्य आक्षेपों के उत्तर। 2000 (लेखक-सच्चिदानन्द भिक्षु) Printed and Published by Shah Harakhchand love Bhurabhai, at the Dharmabhyudaya :: Press, Benares City. मूल्य एक आना. .
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________________ लेखमुखपाठकगण ! इस लेख में क्या विषय है यह समाचार तो ग्रन्थ के नाम से ही ज्ञेय है. इस लेख के लिखने का प्रयोजन और कुछ नहीं है किन्तु हमारे काशी के विद्वान् आस्तिक्यपूर्ण जैनदर्शन को नास्तिक कह कर उसके ग्रन्थ विनाही पढ़े उसका खण्डन लिखने को उद्यत हो जाते हैं, अब से ऐसा न होने पावे और सर्व विद्वान् महाशय आंख खोल के जैनदर्शन को पढकर उसका खण्डन करें यह ही लेख निदान है। महाशय ! यदि आप उभय लोक में सुख की इच्छा करते हों तो वह तब तक परिपूर्ण नहीं हो सकती जब तक आप सत्य धर्म को प्राप्त न करें, में अपना अनुभव पक्षपात राहित्य से आपकी समक्ष दिखलाता हूं कि यदि जगत में प्राचीन, वीतराग प्रदर्शित, परस्पर अबाधित, शान्तिप्रिय और आधुनिक विज्ञान से भी सिद्ध कोई धर्म है तो केवल जैन धर्म ही है इस में कोई भी संदेह नहीं है, इस जैन धर्म के विषय में प्राचीन ग्रन्थकारों की लेखनी इतनी निर्दोष और अगर्व है कि ग्रन्थ को पढतेही ग्रन्थकार का आतत्व स्पष्टही झलकता है जिस प्राचीन जैन ग्रन्थों से मुझे बहुत उपकार हुआ है, उपकार ही क्या ?, किन्तु, भवसागर से मेरा उद्धार ही होगया है, उस प्रन्यों का और उसके निर्दोष सर्वज्ञ जैनश्वेताम्बराचार्य प्रणेताओं का नम्र अनुचर होला हुआ मैं उसको अनन्त धन्यवाद देता हूं और इस छोटे से लेख में प्रमाणभूत दिये गये जैन ग्रन्थों का पाठक महाशयों को कुछ परिचय भी देता हूं। लेखपृष्ठ- ग्रन्थनाम- कर्ता 7 प्रमाणमीमांसा- कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रमूरि. यह एक अपूर्वतर्क ग्रन्थ है. ग्रन्थकार ने इसको पांच अध्याय से संपूर्ण
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________________ किया है. ग्रन्थकार विक्रमवर्ष 1145 में हुए थे. इस ग्रन्थके द्वितीय अध्याय के अन्त भागमें गौतम से कहे हुए मोक्षाङ्गभूत छल, जाति और निग्रह स्थान की अच्छी खबर ली है. याने छल कपट से ही मोक्ष होता तो क्यों व्यर्थ सन्यास ग्रहण करना चाहिये ?. ग्रन्थकारने और भी व्याकरण, साहित्य-प्रभृति विषय में अपनी लेखनी को व्याप्त करके जगतका उपकार बहुत किया है. .15-19 तक स्याद्वादरत्नाकर-श्रीवादिदेवमूरि. यह भी बडा भारी न्यायका ग्रन्थ है जिसका प्रमाण 84000 श्लोक है. यह आठ परिच्छेद से विभक्त हुआ है. इसके रचयिता 1143 में हुए थे इसमें प्रामाण्यवाद, आत्मवाद, तमोवाद, इन्द्रियवाद, ईश्वरतत्व, मोक्षतत्त्व प्रभृति का यथार्थ वर्णन है. और इसमें गौतमादि की तरह प्रतिवादिका पूर्वपक्ष दूसरा और वादिका उत्तर पक्षभी दूसरा इस प्रकार से व्यवहार नहीं है किन्तु परपक्षका पूर्णस्थापन होजाने पर स्वपक्षकी युक्ति चलती है. कहीं कहीं तो कुसुमाञ्जलिका पूर्वपक्ष दस 2 पृष्ठ तक चलता है और पीछे उसका खण्डन किया जाता है. यह सम्पूर्ण मिलता नहीं है. 27-29 तक स्याद्वादमञ्जरी- श्रीमल्लिषेणमूरि. 25 और 37 यह भी एक श्रीजिनस्तुतिरूपन्याय का ग्रन्थ है. रचयिता सूरि 1349 में विद्यमान थे. जो ग्रन्थ बनारस में चौखम्बा ग्रन्थमाला में छप चुका है और श्री दामोदर लाल गोस्वामी ने उसको बढीही असावधानता से शोध कर रसका सत्यरूप में कुछ विपरिणामोत्पाद किया है और यह यशोविजय प्रन्थमाला बनारस में, बंबई में भी छपा है. 41 तत्त्वार्थसूत्र-श्री उमास्वामिवाचक.
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________________ इनके रचयिता विक्रम वर्ष के 170 वर्ष पहलेही प्रायः हुये थे, इसमें संक्षेप से जैनदशर्न का रहस्य समझाया गया है। ग्रन्थकार बडेही संग्राहक थे यह वात इस ग्रन्थ के पाठक स्वयं जान लेते हैं और बडे भारी विद्वान् और आप्तप्रवर थे. सूत्ररूप से ग्रन्थ दश अध्याय में है और साथ स्वोपज्ञभाष्य भी दिया गया है, इसका भाषान्तर रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला के अध्यक्षों ने श्री महामहोपाध्याय दामोदर शास्त्री के शिष्य ठाकुर प्रसाद व्याकरणाचार्यजी से करवाया है। किन्तु भाषान्तरकार ने केवल दक्षिणाप्राप्ति पर लक्ष्य रक्खा है किन्तु पाठक लोग इस भाषान्तर से ग्रन्थ का तात्पर्य कैसे समझेंगे इसका ख्याल बहुत कम किया है और भाषान्तर में स्खलना भी बहुत है. माघशुक्ल-द्वितीया. सच्चिदानंद भिक्षु. स्थल-शान्तिशिखर.
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________________ महामहोपाध्याय श्रीगंगाधर जी के, जैनदर्शन के विषय में, असत्य आक्षेपों के उत्तर। श्रीगिरिजापतये नमो नमः / मैं पवित्र काशीपुरी में कितने वरसों से प्राचीन न्याय पढ़ रहा हूँ। पढ़ते पढ़ते मैंने आजतक प्राचीन न्याय में गौतमभाष्य, न्यायवार्तिक, तात्पर्यटीका, श्लोकवार्तिक, ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य, शाबरभाष्य, सांख्यदर्शन, और बौद्धका न्यायबिन्दु, माध्यमिकावृत्ति प्रमृति ग्रन्थोमें श्रीगुरुदेवकी परमंदया से यथाशक्ति नैपुण्य पाया है, मैं गवेषी, जिज्ञासु, आत्मा हूँ. मेरा कहीं पर मिथ्या आग्रह नहीं है. मैं जैनों के और चार्वाकों के दर्शनों को भी देखने के लिये पिपासु हूँ. थोड़े ही दिनों के पहिले श्रीमाधवाचार्य विरचित 'सर्वदर्शनसंग्रह' मैं पढ़ता था, जब उसमें जैनमत आया तब मेरी बुद्धिको भी चक्कर आ गया याने जैनीयों के वास्तव मन्तव्य को मैं जान नहीं सका. तब मुझे जैनतार्किकों के तर्कों को देखने की विशेष इच्छा हुई. उसकी परिपूर्णताके लिये मैं शिवपुरी में घूमता था, इतने में परमभाग्य से एक जैनश्वेताम्बर पाठशाला मुझको मिल गई. वहां के
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________________ ( 2 ) बड़े बड़े छात्र मेरे अच्छे स्नेही हो गये. वहां के अध्यक्ष को मैंने प्रार्थनापूर्वक अपनी पूर्वोक्त इच्छा प्रकट की तब उन्होंने बड़े हर्ष के साथ एक अध्यापक के पास मुझको परिपूर्ण समय दिया. वहां भी कम से कम मैं दो वर्ष पढ़ा, और जैनन्याय के स्याद्वादमञ्जरी, रत्नाकरावतारिका, अनेकान्तजयपताका, सम्मतितर्क आदि ग्रन्थों को समाप्त कर दिया, और भी कई जैन के आगमग्रन्थ भी देख डाले, इससे मुझे यह स्पष्ट ज्ञात हुआ कि जैनदर्शन में परस्पर जरासा भी विरोध नहीं है, और सब प्राचीन जैनग्रन्थ एक ही मन्तव्य पर चलते हैं. और वेदानुयायि, नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक, वेदान्तादि दर्शनो में बहुतसा विरोध स्पष्ट दिखाई देता है याने जो वेदकी श्रुति का नैयायिक लोक अर्थ करते हैं, उससे विपरीत ही सांख्य लोक करते हैं, तात्पर्य यह है कि पूर्व आर्यावर्त में सदैव सुभिक्ष होने से निश्चिन्ततासे प्राचीन ऋषिओ ने बिचारे वेदकी मिट्टी को खराब कर दी है किसी कविने कहा है कि "श्रुतयश्च भिन्नाः स्मृतयश्च भिन्ना नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् / धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां - महाजनो येन गत्तः स पन्थाः " // 1 // यह ठीक 2 सुघटित होता है. और जैन दर्शन पढ़ने से मुझे
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________________ यह भी एक बड़ा लाभ हुआ की जो मेरा अटल निश्चय था की जैनलोग नास्तिक हैं, जैनलोग अस्पृश्य हैं, वह सब हवा में उड़ गया; और मनमें यह प्रतिभान हुआ की वेदानुयायि, कुमारिल, शंकर, गौतम, वेदव्यास, वाचस्पति प्रभृतिने जैनीयों के विषय में जो कुच्छ भी लिखा है वह वादिप्रतिवादि की नीति से नहीं लिखा है, किन्तु छल से सब उटपटाँग घसीट मारा है, याने जैनीयों के सिद्धान्त दूसरे, और अपना खण्डन का बकवाद दूसरा, अब उसी निश्चय से मेरी लेखनी प्रवृत्त हुई है की सत्य सूर्य का उदय हो, असत्य घूको का संहार हो. याने पूर्वोक्त ऋषि के और आधुनिकमहर्षिओं के झूठे आक्षेपोंका प्रत्युत्तर युक्तियुक्त लिखना चाहिये, परन्तु यहां तो मैं 'प्रत्यासत्तिर्बलीयसी' इस न्याय से आधुनिक कविचक्रशक्र महामहापोध्याय गंगाधर जी महाशय से निर्मित 'अलिविलासिसंलाप नामक खण्डकाव्य की संक्षिप्त समालोचना करूंगा. इस महाशयजी ने भी 'बाप जैसा बेटा और वड तैसा टेटा' इस किंवदन्ती को सत्य की है याने पूर्वोक्त ऋषिओं की तरह इन्होंने भी जैनीयों के विषयमें मनःकल्पित अपना अभिप्राय प्रकट किया है इस लिये पाठकोंको 'अलिविलासिसंलाप' का चौथा शतक देखना चाहिये. मैं भी दिखलाता हूँ की महाशयजी किस रीति से जैनीयों का झूठा पूर्व पक्ष खड़ा करते हैं और किस प्रकार उसका आपही आप उत्तर भी देते हैं.
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________________ "स्यादस्ति कार्यकरणेन समस्तवस्तु / स्थानास्ति तच्च विलयात् परतश्च बाधात् // 25 // यहाँ से 28 तक- .. नैनदर्शन कार्य करनेसे ही सब वस्तु को सत् मानता है, और वस्तु नाश होने से यातो इतरज्ञान से बाघ होनेसे वस्तुओं को असत् मानता है इत्यादि / अब इस पूर्वपक्ष के खण्डन में महाशयंजी अपनी न्यायप्रवीणता दिखलाते हैं की "हा ! हन्त ! संतमससंततवासघूक! नानाविकल्पमयदुर्मतजञ्जपूक ! / प्रामाणिको न हि वदन् विरमेद् विकल्पेड प्रामाणिकोक्तिरपराध्यति वादकाले // 36 // वस्तुस्थितिप्रमितिरेव हि मानकृत्वं न त्वस्ति बस्तु युगपत् सदसद्विरूपम् / वस्तुन्यसइद्विविधरूपमतिभ्रमः स्यात् / - तां दोष एव जनयेद् न कदापि मानम् // 37 // अन्योऽन्यबाधकमसत्त्वमथापि सत्त्व मेकत्र वक्षि युगपद् यदि संशयः सः। यत्सर्वसंशयनिवर्ति तदेव शास्त्रं. संशाययत्तदपि चेत् शरणं किमन्यत् // 38 //
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________________ मिणेतुमक्षमतया विविधागमार्थों च्छिष्टैकदेशलघुसंग्रहमात्रकारी / आचार्यलक्षणविहीनतया न मान्यः संशायकोत्युपनमढजिनो जिनो नः // 39 // साझदसिद्ध्युपगमे स्वमतस्य हानि स्वत्र प्रमाणकथनेऽपि स एव दोषः। साध्यप्रमाणविषये तु कथं प्रवृत्तिः.. सेष्ठा सदा मतिमत्तोऽध्यवसायपूर्वा / दिनेतरेतरविरुद्धसशङ्कवाक्या-.. . वृत्येकसारमपि शास्त्रमिति प्रवक्तुः। नीराजयन्तु वदनं कृतहस्तताला : - जैनागना बहुलगोमयदीपिकाभिः॥४१॥" प्रथम, 36 में श्लोकमें तो पण्डितजी ने गेहेरास्ता दिखलाई है पाने डस्पोक की तरह जैनतार्किकों को दो एक मालियाँ दी है, फिर आगे चल कर पण्डितजी अपनी पण्डिताई छांटते हुए कहते हैं की वस्तु याने पदार्थ की स्थिति की ठीक ठीक प्रमिति (धन) करानी यही प्रमाण का कार्य है. और वस्तु सद् और असद् ऐसे दो स्वभाववाली नहीं है, तब भी जो तुम यह कहते हो कि वस्तु सत् और असत् यह उभयखभावसहित है वह तुमको भ्रम है, तो . और वस्तात (धन ) स्वभाववाली नहीं है
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________________ उस भ्रमका जनक दोष ( अज्ञानादि ) है क्यों कि प्रमाण तो कभी दोषका कारण हो ही नहीं सकता // 37 // आपसमें शत्रुतावाले सत्त्व और असत्त्व हैं, याने वह दोनो कभी साथ रही नहीं सकते तब भी तुम कहते हो की यह दोनों पदार्थ में साथ रहते हैं यह तुमारा संदेह है, और जो संशयकी छेदन करनेवाला शास्त्र हैं वह भी जो संशयको पैदा करै, दूसरा कौन शरण है ? // 38 // निर्णय करने में असमर्थता होने से विविधप्रकारके शास्त्रों का उच्छिष्ट जो एक देश उसका अल्पसंग्रह करनेवाला, और आचार्य (निश्चायक) के लक्षणों से रहित होने से, जिन (अर्हन) हमको मान्य नहीं है // 39 // और स्याद्वादकी सिद्धिको जो तुम निश्चित मानोगे तो तुमारा संशयपर्यवसायी सिद्धान्त नष्ट हो जायगा, और यदि उसमें प्रमाणकी प्रवृत्ति दिखलावोगे तब भी वही दोष आवेगा, और विद्वानों की प्रवृत्ति सदैव निश्चयपूर्वक होती है इस लिये तुमारे सिद्धान्त में कोई प्रवृत्ति नहीं कर सकता // 40 // जिसमें शकित और परस्पर विरुद्ध वाक्यों कि पुनः पुनः आवृत्ति हो वह भी शास्त्र है ऐसा कहनेवालेके मुखकी आरती जैनाङ्गना उतारै // 41 // यहां तक जो महाशयजी ने जैनियों का अभेद्य स्याद्वादका कुछ आक्षेपण किया है उसका पाठक महाशय निम्न लिखित उत्तर विचारसे पढ़ें, "महाशयजी ने कहा है कि-जैनदर्शन कार्य करने से
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________________ ( 7 ) हि वस्तु को सत् मानता है इत्यादि। - मैं महाशयजी से प्रार्थना पूर्वक कहता हूँ की यदि आप अपना पक्षपातोपहतचक्षुः को दूर करते. तो स्पष्ट मालूम होता की जैनदर्शनका वह ( पूर्वोक्त) मन्तव्य नहीं है. परन्तु जैनदर्शनका यह मन्तव्य है कि वस्तुका स्वभाव ही सद् असद् रूप है. याने स्वभाव से ही वस्तु भावाऽभाव उभयस्वरूप है. फिर शास्त्रीजी की स्थूल बुद्धिमें इस वातकी समझ न पड़ी तो कहा की क्या एकही वस्तु भावस्वरूप और अभावस्वरूप कभी होसक्ती है ?, तो मुझे कहना चाहिये की क्या आपमें पुत्रत्व, पितृत्व नहीं है ? क्या आप मनुष्यभावरूप और अश्वाऽभावरूप नहीं है !, आपको अविलम्ब स्वीकार करना होगा विरुद्ध धर्म भी सापेक्ष होकर एक वस्तु में अच्छी रीति से रह सकते हैं, इसमें कोई प्रकार का विरोध नहीं है. देखिये और चित्त को सुस्थित रख कर पढ़िये___ "न हि भावैकरूपं वस्त्विति, विश्वस्य वैश्वरूप्यप्रसङ्गात् / नाsप्यभावरूपम् , नीरूपत्वप्रसङ्गात् / किन्तु स्वरूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र-कालभावैः सत्त्वात् , पररूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र काल-भावैश्वाऽसत्त्वात् भावाsभावरूपं वस्तु / तथैव प्रमाणानां प्रवृत्तेः / .. यदाह“अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः।
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________________ नैष वस्त्वन्तराऽभावसंवित्त्यनुगमाहते / 1 / ".. जेगत में वस्तु केवल भावरूपही नहीं है क्योंकि यदि भावरूप होती. तो..घट भी पटभावरूप, अश्वभावरूप, हस्तिभावरूपा होता,, और वस्तु केवल अभावरूप भी नहीं है- ऐसा माने तो सब का शून्यत्व का ही प्रसंग होगा, इस लिये सब वस्तु अपने रूप से याने अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूपसे तो सत् है. और परकीयरूपसे याने पराया द्रव्य, क्षेत्र, काल, मावरूम से. असत् है जैसे कि- द्रव्यसे घट पार्थिवरूपसे है, परन्तु जलरूपसे नहि है, क्षेत्र से काशी में बना हुआ घट काशी का है, किन्तु, हरद्वार का नहीं है। काल से वसन्त ऋतु में बना हुआ घट वासन्तिक है किन्तु शैशिर नहीं है; भावसे श्याम घट श्याम है, किन्तु रक्त नहीं है। यदि सब रूपसे वस्तु को सत् मानने में आवे तो एक ही घट. का. बहुत रूपसे ( इतर पटादिरूपसे ) भी स्थिति होनी चाहिये, इस लिये जैन तार्किकों का यह तर्क ठीक 2 वस्तुका निश्चय ज्ञान दिखलाता है कि वस्तु स्वभाव से ही स्वरूप से सत् है और पररूपसे असत् है..और यह बात तो आबाल गोपाल प्रसिद्ध है. और शास्त्रीजी ने जो कहा कि "वस्तु में भावाऽभावरूप जो ज्ञान है वह भ्रमजन्य है". वह भी उनका कथन भ्रमविषयक है, क्योंकि भ्रमका जो लक्षण 'अतस्मिन् तदध्यवसायो प्रमः' याने जो घट में पटका ज्ञान होना
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________________ बह ही भ्रम है किन्तुं धट में धटकी ज्ञान होना तो भ्रम नहीं है. ऐसे ही वस्तु उभय रूप है उस में उभयरूपताज्ञान प्रमात्मक कमी नहीं हो सकता. और जो शास्त्रीजी बावाने अपनी तूती चलाई है कि "यदि एक ही वस्तु में यह दो बात ( सद्-असद् रूपता) माना जाय तो वह ज्ञान संशयात्मक है" इस से यह मालूम होता है कि शास्त्रीजी संशयके लक्षणको मूलगये- देखिये, संशयका लक्षण पूर्व ऋषियोंने इस प्रकार बतलाया है कि- 'अनुभयन्त्र उभयको टिसंस्पर्शी प्रत्ययः संशयः; अनुभयस्वभावे वस्तुनि उभयपरिमर्शनशकि ज्ञानं संशयः / ' . याने जिसमें दो स्वभाव नहीं है और उसमें दो स्वभावका जो ज्ञान होता है वह संशय है परन्तु यह बात वस्तुका सद्-असद् उभय ज्ञान में नहीं आसकती, क्योंकि पूर्वोक्त कई प्रमाणों से वस्तु उभयस्वभाव सिद्ध हो चुकी हैं और शास्त्रीजी ने जो कहा कि "स्याद्वाद की और प्रमाण की सत्ता को निश्चित मानो तो तुमारा सिद्धान्त बाधित होगा" यह भी एक पुराण की तरह गप्प है क्योंकि जैनदर्शन तो सब वस्तु को निज रूपसे सत् और अन्यरूप से. असत् मानता है. वैसे ही स्माद्वाद भी स्वरूपसे सत् और स्याद्वादाभासरूप से असत् है और प्रमाण भी प्रमाणरूप सत्. और प्रमाणाभासरूप से असत् है. और शास्त्री जी यह समझते होंगे कि
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________________ (10) जैनदर्शन का मन्तव्य अव्यवस्थित है तो यह नहीं है क्योंकि पूर्वोक्त रीतिसे जैनदर्शन कथित वस्तुस्वभाव कथन वास्तव वस्तुका निश्चायक है परन्तु उसमें अल्प भी अव्यवस्था नहीं है, जो कई लोग वस्तुका एकही रूप है याने वस्तु भावरूप ही है या अभावरूप है ऐसा मानते हैं उनके सिद्धान्त में बड़ी भारी अव्यवस्था हो जायगी. और यदि शास्त्रीजी एकही पदार्थ में विरुद्ध धर्मद्वय के स्वीकार को विरोध समझें तो उनके पितामह प्रशस्तपादभाष्यकार के सिद्धान्त को मी विरुद्ध मानना चाहिये क्योंकि, भाष्यकार भी एक ही पृथ्वी, जल, वायु, अमि, उसमें नित्यता और अनित्यता मानते हैं उन्होंने कहा है कि- 'सा तु द्विविधा, नित्या अनित्या च, नित्या परमाणुरूपा कार्यरूपा तु अनित्या.' याने जो पृथ्वी परमाणुरूप है वह नित्य है और जो पृथ्वी कार्यरूप है वह अनित्य है. और नवीन तार्किकगण भी भाव और अभावका समानाधिकरण मानते हैं यह बात क्या शास्त्रीजी भूल गये ! इन सब बातों से यही सिद्ध होता है कि अलिविलासिसंलाप और उसके निर्माता ये दोनों ही अनाप्त हैं। . अब जैनसम्मत ईश्वर में जो शास्त्री जी के पूर्वपक्ष हैं उनको हम लिखते हैं "पाताल-भू-गगनसर्वपथीनजीवाः
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________________ ... (11) खादृष्ट-यत्रसहिता निजभोग्यभागान् / उत्पादयन्त्वलमशेषकृतेश्वरेण .. __ क्लुप्तेन, सिध्यति फलेन हि कल्ल्यतेऽन्यत् // सब जीव अपने अदृष्ट (भाग्य) और यत्न से सब चीज को पैदा करते हैं, इसलिये सृष्टि का बनानेवाला एक ईश्वर है ऐसी झूठी कल्पना नहीं करनी चाहिये, सृष्टिकर्ता ईश्वर के विना भी जब अपना इष्ट होता है तब उसकी कल्पना निष्फल है।" (शास्त्रिजी कृत उत्तरपक्ष) "दृष्ट्वैकचेतननिदेशवशां प्रवृत्ति कार्ये लघावपि गृहे बहुचेतनानाम् / ब्रह्माण्डनिर्मितमनेककृतामपीच्छ- . बेकं समस्तविभुमीश्वरमाश्रयख // 47 // कुर्वन्तु काश्चन यथावरुचि प्रवृत्ती रेकाऽपि कापि परभीतिकृता प्रवृत्तिः। दृष्ट्वा कुटुम्बनगरस्थितचेतनेषु . -: यद्भीतिजाऽखिलकृतिः परमेश्वरः सः॥४८॥ तनित्यमिष्टमुपपत्तिमदन्यथाऽस्य हेत्वन्तरानुसरणे त्वनवस्थितिः स्यात् / नित्यं गतातिशयमीश इदं दधानः . . .
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________________ ( 12 ) साधारणं सकलकार्यविधौ निदानम् / / 50 / / खस्वार्जिताशुभशुभावहकर्मभेदात प्रामोति जीवनिवहा फलमेदभद्धा / आन्ध्येन पङ्गुसदृशाक्षमकर्मवृन्दा". अधिष्ठानतातनिदानगुणो पहेश: / / 51 // क्षेत्री लभेत यदि कर्षणवीजवाप-.. . दाक्ष्यप्रमादवशतः फलसिद्ध्य-सिद्धी / दोषोऽत्र नै जलदस्य तथेश्वरस्य .. वैषम्यनिघृणतयोन यतः प्रसङ्गः // 52 / / अन्येषु हेतुषु तु सत्त्वऽपि कटंचेष्टा .... स्यानिष्फला जलधरो यदि नः प्रवर्षेत् / साधारण जलधरः किल सेन हेतु: सा रीतिरप्रतिहता परमेश्वरेऽपि // 53 / / जीवो ना वेत्ति सकलं स्वमपीह कर्म / दूरे परस्य कथमेव ततोऽधितिष्ठेत् / .. सर्वज्ञतां तदुधितां हि वहन् परेशो ऽधिष्ठानताभरसहोऽल्पपतिनै जीका // 54 // इत्युक्तयुक्तिनिवहैः परमेशसिद्धौ तस्य प्रपञ्चहितसाधनमार्गदी।
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________________ (13) श्रादेश एच किल वेदपदाभिधेयो नोल्लट्य एष तदधीनहितार्थिजीवैः // 55 // इन सब श्लोकका रहस्य यह ही है कि- इस जगत के रचयिता कोई एक ईश्वर है, यह बात अनुमान प्रमाण से सिद्ध होती है. जैसे की प्राणीओंके छोटेसे भी कार्य में कोईन कोई अधिष्ठाता रहता है, को यह अनेक प्राणीसे बना हुवा जो ब्रह्माण्ड रूप कार्य उसमें अधिछाता सर्वत्र व्यापक एक ईश्वर को मानना चाहिये। 47 // जितनी प्रवृत्तियां यथारुचि जीवगण करता है, उन सब में एक प्रवृत्ति तो किसीका डर रखके कुटुम्ब और नगर में रहे हुवे जीव में दिखाई देता है, इसलिये जिसकी भीति से उस प्रवृत्तिको लोग कर रहे हैं, काही सर्वस्रष्टा ईश्वर है / / 48 // और उस ईश्वरका ज्ञान नित्य है याने न कभी नष्ट होता है, न कभी पैदा होता है, न कभी. वि. कार को भी पाता है, सदा एक रूपही रहता है. यदि उसको अनित्य माना जाय तो उसका (ज्ञानका) कोइ हेमन्तर खीकारना पडेगा, तो जो हेतु स्वीकृत है वह नित्य, या अनित्यः, यदि नित्य, तो ज्ञानकोही नित्य मानकर व्यर्थ हेतु प्रकल्पन क्यों करना चाहिये ? और अनित्य मानो तो उसका भी हेतु होना चाहिये. इस प्रकार माननेमें अनवस्था आती है. इसलिये ईश्वरका ज्ञान नित्य ही है और सब कार्य में कारण रूपसे उसीको ही ईश्वर धारण करतें हैं // 50 // यदि
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________________ (14) जैन कहे की अपना 2 शुभाशुभ कर्मसेही आत्मा शुभाशुभ फल पाता है तो भी यह उचित नहीं, क्योंकि कर्म तो जड़ होनेसे फल देनेमें असमर्थ है, इसलिये उसका (कर्मका) भी एक महेश भधिष्ठाता होना चाहिये // 51 // खेतीहर अपनी कर्षणकी और बोनेकी कुशलता और अकुशलता से फलसिद्धि यातो फलाऽसिद्धिको पाता है, जैसे इसमें मेघका दोष नहीं है, वैसेही जीवको सुख, दुःख पानेमें ईश्वरका दोष नहीं है इसलिये ईश्वर रागी, द्वेषी नहीं कहा जा सकता है // 52 // और भी सब हेतुगण विद्यमान होनेपर भी यदि वृष्टि न होवे तो जैसे खेतीहर की सब कर्षणादि चेष्टा निष्फल होती है, वैसेही यदि ईश्वरेच्छा न हो तो एक भी कार्य नहीं होसकता // 53 // जीव अपने कर्मको जानता नहीं है; और परकीय कर्म दूर है, इसलिये स्व, पर कोई कर्मका अधिष्ठाता नही होसकता, अतः उसका अधिष्ठाता सर्वज्ञ महादेवजी ही है // 54 // ऐसी अनेक युक्तिसे जगत्कर्ता ईश्वर सिद्ध होनेपर उसका सकलमार्गदर्शी वेदविहित जो आदेश उसको उल्लवित नही करना चाहिये // 55 // और भी वह महाशय धर्मान्धतामें लिपट कर अपने महादेव बावाका जूठाही निष्पक्षपात बतलातें हैमायेत् खलो गुरुतरार्चनया, कुलीनो दण्डे महीयसि कृते भृशमुद्विजेत् / . याया विपर्ययमनेन च लोकयात्रा
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________________ ( 15 ) ____ऽऽयत्यां शुभं विदधदेष न पक्षपातः // 61 // बड़ी पूजा से खल-दुष्ट मत्त होता है, और बड़ा दण्ड करनेसे अलीन अच्छा मनुष्य उद्विग्न होता है और ऐसा करनेसे लोकयात्रा व्यवस्थिति में रह नहीं सकती, और उचित पूजा, दण्ड करनेसे यह पक्षपात नहीं कहलाता है। अब शास्त्रीजीने जो उपरोक्त पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष सृष्टिकर्ता के बारेमे दिखलाये हैं, वे सब मिथ्या प्रलाप है और ईश्वरको कलहित बनानेके उपाय है, देखिये-वीतराग ईश्वर इस जगतको किस लिये बनावेगा !. तथाहि- शशभृन्मौलेस्त्रैलोक्यघटने भवेत् / यथारुचिप्रवृत्तिः किम् ?, कर्मतन्त्रतयाऽथवा ? // 1 // धर्माद्यर्थमथोद्दिश्य ?, यद्वा क्रीडाकुतूहलात् / निग्रहाऽनुग्रहाय वा ? सुखस्योत्पत्तयेऽथवा // 2 // यद्वा दुःखविनोदार्थम् ?, प्रत्यवायक्षयाय वा / भविष्यत्सत्यवायस्य परीहारकृते किमु // 3 // अपारकरुणापूरात् किं वा ?, किंवा स्वभावतः / / एकादशैवमेते स्युः प्रकाराः परदुस्सहाः // 4 // अर्थात् क्या महादेवजी जो सृष्टि बनाते हैं सो अपनी यथारुचि बनाते हैं / या कर्म से परतन्त्र होकर बनाते हैं / वा अपने
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________________ को धर्म हो इसलिये ! या अपनी क्रीड़ा के लिये ?. या प्राणियोंको निग्रह और अनुग्रह करने के लिये? या अपने को सुख होवे इसलिये, या अपने दुःखका नाश करनेके लिये ? या अपने पापका क्षयके लिये ! या अपने स्वभाव से इस सृष्टिका रचना करते हैं ?. यह हमारा एकादश विकल्प शास्त्रिजीका अलिविलासिको विलापि बना देगा.. जायेत पौरस्त्यविकल्पना ____ कदाचिदन्याहगपि त्रिलोकी / न नाम नैयत्यनिमित्तमस्य किंचिद् विरूपाक्षरुचेः समस्ति // 1 // करोत्ययं तां यदि कर्मतन्त्रः स्वतन्त्रतैवास्य तदा कथं स्यात् / सखे ! स्वतन्त्रत्वमिदं हि येषां / परानपेक्षैव सदा प्रवृत्तिः॥२॥ फर्मव्यपेक्षस्य च कर्तृताया मीशस्य युक्ता न खलु प्रवृत्तिः। कर्मैव यस्मादखिलत्रिलोकी ___ करिष्यते चित्रविपाकपात्रम् // 3 // नाऽचेतनं कर्म करोति कार्य
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________________ (17) मप्रेरितं चेदिह चेतनेन। यथा मृदित्येतदपास्यमान___ माकर्णनीयं पुरतः सकणैः॥४॥ तृतीयकल्पे कृतकृत्यभावः कथं भवेद् भूतपतेः कथंचित् / प्रयोजनं तस्य तथाविधस्य धर्मादिकं हन्त ! विरुध्यते यत् // 5 // अथाऽपि शम्भुर्जगतां विधाने .. . प्रवर्तते क्रीडनकौतुकेन / कथं भवेत् तर्हि स वीतरागः .. सखे ! प्रमत्ताभकमण्डलीव ? // 6 // विनिग्रहाऽनुग्रहसाधनाय प्रवर्तते चेद् गिरिशस्तदानीम् / विरागता द्वेषविमुक्तता वा तथाषिधस्वामिवदस्य न स्यात् // 7 // उत्पत्तये न च सुखस्य तथा प्रवृत्तिः . शम्भोर्यतः सुखगुणोऽत्र न सम्मतस्त्रे / स खीकृतो दशगुणेश्वरवादिभिर्यै' स्वैरप्यसावुपगतो बत ! नित्य एव / / 8 //
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________________ (18) एतस्य दुःखं न भवद्भिरिष्टं न प्रत्यवायोऽपि कदाचनाऽपि / दुःखादिभेदत्रितयं न वक्तुं युक्तं ततो यौगधुरन्धरस्य // 9 // पुण्यकारुण्यपीयूषपूरेणाऽत्यन्तपूरितः। . प्रवर्तते जगत्सर्गे भर्ग इत्यपि भङ्गुरम् / / 10 // यत:क्षुद्रग्रामे निवासः कचिदपि.सदने रौद्रदारिद्रयमुद्रा जाया दुर्दर्शकाया कटुरटनपटुः पुत्रिकाणां सवित्री / दुःस्वामिप्रेष्यमावो भवति भवभृतामत्र येषां बतैतान् शम्भुर्दुःखैकदग्धान् सृजति यदि तदा स्यात्कृपा कीदृगस्य ? अथ धर्ममधर्ममङ्गभाजां - सचिवं कार्यविधावपेक्षमाणः। सुखमसुखमिहार्पयद् गिरीशस्त दवरमुपरि निषेधनादमुष्य // 12 // स्वभाव एवैष पिनाकपाणेः प्रवर्तते विश्वविौ यदेवम् / . खभाव एवैष रविर्जगन्ति प्रकाशयत्येष यदित्ययुक्तम् // 13 //
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________________ (19) एवं हीश्वरसंविदो विफलता तस्माद् निसर्गाद् निजात् किं मा भूद् जगतां प्रवर्तन विधिनिश्चेतनानामपि / तत्तेषां परिकल्पयन्ति किमधिष्ठातारमेते शिवं . व्यर्थे वस्तुनि युज्यते मतिमतां किं पक्षपातः कचित् ? // 14 // निश्चेतनानां जगतां प्रवृत्ती कार्य कथं स्याद् नियतप्रदेशे। जातेऽपि कार्ये विरतिश्च न स्याद् इत्येतदप्येति न युक्तिवीथीम् // 15 // स्वभाववादाश्रयणप्रसादा देवंविधानां कुविकल्पनानाम् / नास्ति प्रसङ्गः कथमन्यथा स्याद् नायं सुधादीधितिशेखरेऽपि 1 // 16 // यह हमारे एकादश विकल्प में से यदि शास्त्रीजी प्रथम विकल्प को स्वीकृत करें, तो सृष्टि कभी न कभी दूसरी रीतिसे होनी चाहिये, याने ब्राह्मणकी स्त्रीको मूंछ और डाढी आनी चाहिये, और ब्राह्मणको स्तन भी होना चाहिये, क्योंकि हमेशा समान, नियमित सृष्टि होने में महादेवजी को कोई निमित्त नहीं है // 1 // यदि मी० गंगाधरजी कहैं की महादेवजी कर्मसे परतन्त्र होकर सृष्टिको रचते है. पाठकगण ! देखिये महादेवजीकी स्वतन्त्रता, कोई तो चेतन से पराधीन होता है,
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________________ (20) परन्तु महादेवजी तो जडरूप जो कर्मसमूह, उसके वश होकर कार्य करते हैं, तब भी स्वतन्त्र कहलाते हैं, यह स्वतन्त्रता दक्षिण देशकी है. मैं मी० गंगाधरजी से कहता हूँ की सखे ! उसका ही नाम स्वातन्व्य है कि जहां कोई की भी अपेक्षा न की जावे, और भी हमारे शास्त्रीजी ईश्वर को कर्मपरतन्त्र न मानकर केवल सकर्मक आत्मा ही यह सब सृष्टिका प्रवाहरूप से रचयिता है, ऐसा माने तो कोई भी दूषण देखनेमें नहीं आता है, फिर क्यों ईश्वर को बीच में अन्तर्गडु कि तरह शास्त्रीजी मानते हैं ? यदि शास्त्रीजी इस दलील को पेश करें, की कर्म जड होनेसे उससे सहकृत आत्मा एक भी संपूर्ण नियमित कार्य नहीं कर सकता है, तो यह बात सविस्तर सयुक्तिक आगे खण्डित की जावेगी इसलिये पाठक महाशय सावधानता से देख लेवें, और भी जडसहकृत चेतन नियमित कार्य नहि करसकता है, यह बात कहना सर्व वर्तमान व्यवहार का अपलाप करना है // 3 // यदि शास्त्रीजी कहैं कि 'अपनेको धर्म हो' इस लिये शिशिर ऋतु में भी प्रातःकाल महादेवजी अपनी प्रिया पार्वती की शय्या को छोडकर कुम्भकार की तरह यह संसार की रचना में लगते हैं, तो यह बात भी ब्राह्मण के शृङ्ग की समान है. क्योंकि आप (न्यायदर्शन) श्रीमहादेवजी को कृतकृत्य मानते हैं, और वह ही कृतकृत्य कहा जा सकत है कि जो कभी कार्य करने में प्रवृत्त न होवे, परन्तु आपके गिरि
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________________ (21) जापति की तो कृतकृत्यता भी विलक्षण है जब महादेव बाबा कृतकृत्य ठहरे तो उनको धर्म करने से क्या मतलब ? // 4 // यदि पण्डितजी कहें की महादेवजी पार्वती के मान से खिन्न होकर अपनी मौजके लिये यह सब कारवाई करते हैं तो धन्य है आपके महादेवजी को, जो पार्वती के पैरोंमें भी अपना सिर झुकाने को भी तत्पर हैं और यदि महादेव इस संसार को क्रीडासे करते हैं तो फिर उसकी वीतरागता कहां रही !, वीतरागी होकर सामान्य जीव भी क्रोडा नहि करता है तो वीतराग होने पर भी महादेवजी छोटे बच्चे की तरह खेल करने लगे तब तो महादेव की तरह क्रीडा करने पर भी सब वीतराग कहलावैगे // 5 // और यदि शास्त्रीजी कहैं की प्राणियों को निग्रह और अनुग्रह करने के लिये यह सब तकलीफ महादेवजी उठाते हैं, तब भी महादेव जी प्रजापालक राजा की तरह कभी वीतराग और वीतद्वेष नहीं हो सकते, और यह नियम तो खानुभवसिद्ध है कि जो कार्य करने में आता है उसके आगे कर्ता को भी उस कार्य की तरह परिणत होना चाहिये, तो जब महादेवजी कहीं भी अनुग्रह करेंगे तब वे सरागी कहे जायेंगे और कहीं निग्रह करें तो वे संद्वेष होजाते हैं, यदि निग्रह अननुह करने पर भी जो महादेवजी को ईश्वर का टाइटल दिया जावे तो हमारे निग्रह, अनुग्रह के कता महाराजा पञ्चम जार्ज को भी साक्षात् ईश्वर माननेमें क्या हरज है ? // 6 // यदि पण्डितजी फरमावे कि अपने
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________________ (22) को सुख हो इस लिये, अपना प्रत्यवाय ( पाप ) नष्ट हो इस लिये और अपना होनहार जो प्रत्यवाय उसके नाश के लिये भी महा देवजी इस जगतको.पैदा करते हैं तो यह कथन भी शपथश्रद्धेय है, क्योंकि ईश्वर में तो नित्य ही सुख रहता है तो फिर महादेव क्यों सुख के लिये यन करेंगे, और विचारे भोले महादेव को प्रत्यवाय भी माननेमें नहीं आता है तो फिर वे अपना प्रत्यवायके नाश के लिये क्यों उद्यत होंगे // 7 // यदि शास्त्रीजी कहैं कि अपूर्व अनुकम्पा से महादेवजीने यह जगत बनाया है, यह कथन भी वृथा है, यदि महादेव करुणासे जगत बनाते तो यह कभी न होता कि एक दरिद्री, एक धनी, एक सुरूपी एक कुरूपी, एक विद्वान् , एक पागल, एक देव, और एक दानव होता, यदि शास्त्रीजी कहैं कि प्राणियोंके धर्म और अधर्म के बराबर उनको महादेवजी फल देते हैं, महाशय ! देखिये ऐसा मानने में द्वितीय श्लोक में दिखाई हुई बराबर ईश्वर की खतन्त्रता नष्ट हो जायगी और एक मामूली कुलीकी श्रेणिमें महादेवजी का नम्बर लग जायगा. जैसे कि ( सापेक्षोऽसमर्थः ) याने जो कोई भी कार्य में किसी का अपेक्षा रक्खे तो वह असमर्थ, पराधीन कहलाता है वैसे ही धर्म और अधर्म सापेक्ष कार्य करनेवाला महादेव कहां से स्वतन्त्र होगा ? // 8 // . अब शास्त्रीजी परेशान होकर अन्तिम पक्षको स्वीकारते हैं की महा
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________________ (23) देवजीका जगन् बनानेका स्वभाव ही है, यदि केवल महादेवका स्वभाव मानने पर यह सब संसार हो सकता है तब महादेवजीको सर्वज्ञ, व्यापक और नित्य न मानना चाहिये, क्योंकि सर्वज्ञ, व्यापक और नित्य न होनेपर भी महादेव अपने स्वभाव से ही इस संसार चक्रको घुमावेगा, हम तो बिचारे के सुख के लिये मी. गंगाधर जी को कहते हैं की महादेवजी की तरह सकर्मक आत्मा में अपने कर्म का फल पाने का, और यह सृष्टिको चलाने का स्वभाव मान ले और महादेवजी को तो पार्वती के चरणरेणुका स्पर्शसुख लेनेमें अन्तराय न करें, और मी० गंगाधरजीने जो पूर्वमें कुतर्क दिखलाये हैं कि कर्म जड होनेसे उससे सहकृत आत्मा कुच्छभी नहीं कर सकता है, तो वह कुविकल्प स्वभाववादमें नहीं चल सकता. जैसे लोहचुम्बक जड होनेपर भी निज स्वभावसे दूरस्थितभी लोहाको खींचता है, दूरबीन और खुरबीन यह दोनो यन्त्र जड काचके बने हुए हैं तब भी उससे सहकृत पुरुष दूरकी बस्तुको और सूक्ष्म पदार्थ को भी प्रत्यक्ष करलेता है, फोनोग्राफ जडहोने पर भी सब तरहके शब्द, सबतरहकी भाषाको बोल सकता है, ज्यादा क्या कहैं, परन्तु सकर्मक जीव, विना जड एक कदम भी नहीं दे सकता है. इसलिये सकर्मक आत्माका पूर्वोक्त स्वभाव मानने में कोई भी हानि नहीं आती, तो बिचारे बूढे महादेवजी को क्यों सताते हो? और जैन
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________________ ( 24 ) दुर्शन केवल सकर्मक जीवको ही कर्ता मानता है वैसाही नहीं है, परन्तु हर कोई कार्य करनेमें पुरुषार्थ, कर्म काल नियति, स्वभाव यह पांच कारणों की भी जरूरत मानता है यदि इस पांच कारणों में से एक भी न हों तो पुरुष अपनी अङ्गुली तक को भी हिला नहीं सकता. इसलिये स्वभाववादमें इन पांचो कारणोंसे सृष्टि प्रवाह होना असंभवित नहीं है, परन्तु यह पांच कारणभी विना जीव, कुछ नहि करसकते इसलिये जैनदर्शन में जीवको ही कर्ता, भोक्ता मानते हैं. बस, इससे पाठक गणको जरूर विदित हुआ होगा कि मी-गंगाधरजीका सृष्टिकर्ताके विषयमें जो जो कुच्छ वक्तव्य था वह सब कैसा नियुक्तिक और तुच्छ था. अभी तो इस विषयको में यहां ही खतम करता हुआ आगे मी-गंगाधरजी की खबर लेता हु // से और भी वे साहब अपनी महामहोपाध्यायता प्रकट करते हुए आत्म व्यापकत्वमें पूर्वपक्ष दिखलाते हैं-- . (पूर्वपक्ष) देहाद् बहिनहि सुखादि कदापि दृष्टं ...तेनाऽस्तु देहपरिमाणक एव जीवः। बन्धोऽस्य सम्भवति देहमितत्व एव .. .मोक्षोऽपि वा स्वतनुयोगवियोगभेदात् // 31 // वस्मिन् विभौ तु सतताऽखिलकाययोगा. दापचते सततबन्धनदुष्पसङ्गः। ..
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________________ (25) देहान् मृषेति मनुषे यदि तर्हि मोक्षे सिद्धे मुधा किमनुतिष्ठसि साधनानि 1 // 32 // अस्मन्मते तनुमितो निजपुण्य-पाप देहादिभारभृदपारभवाब्धिमग्नः। सम्यक्चरित्र-मति-दर्शनलुप्तभारो जीवः प्रयात्यनिशमूर्ध्वमियं विमुक्तिः॥ 33 // , अर्थात् सुख, दुःख, ज्ञान प्रभृति आत्मीयगुण शरीर में ही दिखाई पड़ते हैं, और किसीने भी पूर्वोक्त गुण देह के बहार नहीं देखे, इसलिये यह बात साफ सबूत होती है कि जिसका गुण जहां है, वह भी वहां ही रहता है, याने आत्मा सर्वव्यापी नहीं है किन्तु देहव्यापी याने जितना बडा शरीर है, उत्तना ही परिणाम आत्माका है, और जिस शरीर में आत्मसंयोग है उसीसे उसका बन्ध और मुक्ति है // 31 // यदि कोई आत्माको सर्वव्यापी माने तो वह आत्मा सर्व शरीर से संयुक्त होनेसे उसको सदैव बन्धन प्रसङ्ग होगा और यदि सब शरीरको मिथ्या माने तो मोक्ष स्वयं सिद्ध है, फिर मोक्ष के लिये कोइ भी अनुष्ठान क्यों करना ? // 32 // हमारें मतसे आत्मा शरीरपरिमाणी है, और पुण्य पापके भारसे लिप्त है. जब बह सम्यग् ज्ञान, दशर्न, चारित्र को पाता है तब उसकी ऊर्ध्वगति होती है वहही विमुक्ति ( मोक्ष ) है // 33 //
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________________ (26 ) अब आपही उत्तर पक्षको प्रकट करते हैंजीवस्त्वयैव कृतहान्य-ऽकृतागमाभ्यां भीतेन नित्य उदितोऽस्य तनूमितत्वे / मातङ्ग-कीटवपुषारनयोः शरीर- व्यत्यास आपतति संभवपूर्त्यभावः // 42 // संकोच-विस्तृतिकथाऽत्र वृथा तथात्वे__ऽस्यापद्यतेऽवयविताऽथ विनाशिता च / कापीक्ष्यतेऽवयविनोरुभयोर्न चैक- देशस्थितिस्तदलमेभिरसत्पलापैः // 43 / / कस्मात् तपःक्षतसवासनकर्मजालो ___ जीवः प्रयात्युपरि किं भयमत्र वासे / कर्मस्वसत्स्विह परत्र च नास्ति बन्धः कर्मस्थितौ तु गगनेऽप्यनिवार्य एषः // 44 // तुमने ( जैनोने ) कृतहानि, अकृतागम दोषोंसे भय पाकर आत्माको नित्य माना है, और यदि उसको तुम तनुमात्र ( शरीर परिमाणी ) मानोगे तो हाथीका और कीटका शरीरका व्यत्यास होगा। याने हस्तिका शरीर में रहा हुआ जीव कीटके शरीर में कैसे जा। यगा !, कीटके शरीरमें रहा हुआ जीव हस्ति के शरीर में कै जायगा ! // 42 // यदि तुम (जैन) संकोचं ( समेटना) और विका
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________________ ( 27 ) (फैलना) आत्मा में मानोगे, तो वह अवयवि होनेसे विनाशी मानना पडेगा, और दो अवयवि तो कभी एक देशमे ठहर नहीं सकते, इसलिये ऐसा झूठा प्रलाप मत करो कि आत्मा व्यापक नहीं है // 43 // और जब आत्मा निष्कर्मा होता है तब जैनीयोंके मत में वह उंचा चला जाता है, क्या इधर रहने में उसको कुच्छ भय है !, जो आत्मा निष्कर्मा है तो उसको कहिं भी रहने में हरज नहीं है, और आत्मा सकर्मक है तो ऊपर जानेसे भी क्या हुआ ? // 44 // इस उत्तर पक्ष में जो शास्त्रीजीने आत्मा का शरीर परिमाणत्वका खण्डन, आत्मव्यापकत्वका मण्डन किया है वह भी भ्रममूलक है, क्योंकि शास्त्रीजीने जो आपत्तियाँ आत्माका शरीर परिमाणमें दी है वे सब झूठी हैं, जो शास्त्रीजी कहते हैं कि जीव अपरिणामी कूटस्थ नित्य है. यह अनुभव, प्रमाण और वर्तमान विज्ञान से विरुद्ध है. वर्तमान विज्ञान ( सायन्स ) यह ही सिद्ध करता है कि दुनिया में कोई भी चीज केवल नित्य या अनित्य नहीं है. किन्तु सब पदार्थ नित्य, अनित्य उभय स्वरूप हैं यदि आत्मा को या कोई पदार्थको अपरिणामी नित्य माना जाय तो वह अपरिणामी कूटस्थ नित्य पदार्थ कभी एक भी क्रिया नहीं कर सकता. देखिये___ वस्तुनस्तावदर्थक्रियाकारित्वं लक्षणम् , तच्चैकान्तनित्यानित्यपक्षयोन घटते, अपच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकरूपो हि नित्यः,
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________________ (28) स च क्रमेणार्थक्रियां कुर्वीत, अक्रमेण वा ?, अन्योऽन्यव्यव. च्छेदरूपाणां प्रकारान्तरासम्भवात् / तत्र न तावत् क्रमेण, स हि कालान्तरभाविनीः क्रियाः प्रथमक्रियाकाल एव प्रसह्य कुर्यात् ; समर्थस्य कालक्षपाऽयोगात् / कालक्षेपिणो वाऽसामर्थ्यप्राप्तेः / समर्थोऽपि तत्तत्सहकारिसमवधाने तं तमर्थ करोतीति चेत् / न तर्हि तस्य सामर्थ्यम् ; अपरसहकारिसापेक्षवृत्तित्वात् ; सापेक्षमसमर्थम् , इति न्यायात् / / ____न तेन सहकारिणोऽपेक्ष्यन्ते; अपि तु कार्यमेव सहकारिष्वसत्स्वभवत् तानपेक्षत इति चेत् / तत् किं स भावोऽसमर्थः समर्थो वा ? / समर्थश्वेत , किं सहकारिमुखप्रेक्षणदीनानि तान्युपेक्षते ?, न पुनझटिति घटयति / ननु समर्थमपि बीजम्इलाजलानिलादिसहकारिसहितमेवाङ्करं करोति, नान्यथा / तत् किं तस्य सहकारिभिः किश्चिदुपक्रियेत, न वा? / यदि नोपक्रियेत, तदा सहकारिसन्निधानात् प्रागिव, किं न तदाऽप्यर्थक्रियायामदास्ते ? / उपक्रियेत चेत् सः, तर्हि तैरुपकारोऽभिन्नो भिन्नो वा क्रियत इति वाच्यम् ? / अभेदे स एव क्रियते / इति लाभमिच्छतो मूलक्षतिरायाता, कृतकत्वेन तस्यानित्यत्वाऽऽपत्तेः। . भेदे तु स कथं तस्योपकारः ?, किं न सह्य-विन्ध्यादेर
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________________ . (29) पि? / तत्संबन्धात् तस्यायमिति चेत् / उपकार्योपकारयोः का सम्बन्धः 1 / न तावत् संयोगः; द्रव्ययोरेव तस्य भावात् / अत्र तु उपकार्य द्रव्यम् , उपकारश्च क्रियेति न संयोगः। नापि समवायः; तस्यैकत्वात्-व्यापकत्वाच प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावेन सर्वत्र तुल्यत्वाद् न नियतैः सम्बन्धिभिः सम्बन्धो युक्तः / नियतसंबन्धिसंबन्धे चाङ्गीक्रियमाणे तत्कृत उपकारो स्य समवायस्याभ्युपगन्तव्यः / तथा च सति उपकारस्य भंदाऽभेदकल्पना तदवस्थैव / उपकारस्य समवायादभेदे, समवाय एव कृतः स्यात् / भेदे, पुनरपि समवायस्य न नियतसम्बन्धिसंबन्धत्वम् / तनैकान्तनित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां कुरुते / . सब दर्शनकारोने वस्तुका लक्षण : अर्थक्रियाकारित्व माना है, ह लक्षण कूटस्थ और अपरिणामि आत्मा में जा नहीं सकता. कूटथ और अपरिणामि वह कहा जा सकता है, जो कभी नष्ट नहीं होता हो, जो कभी उत्पन्न नहीं होता हो, और जिसका एकही स्थर ही रूप हो, यद्यपि ऐसा पदार्थ जगत में एक भी नहीं है यह बात. आजकाल के नये विज्ञान ( सायन्स ) विद्याविशारदोने भी जगत को प्रत्यक्ष कराई है तब भी "तुष्यतु दुर्जनः" इस न्याय से इक आत्मा को हम ऐसा कूटस्थ अपरिणामी नित्य माने तो वह एक
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________________ (30) भी व्यापार को नहीं कर सकता. मैं पूछता हूँ कि कूटस्थ अपरिणामी आत्मा अपने व्यापार को कम से करेगा ?, या युगपत् करेगा?, क्योंकि विना क्रम और अक्रम दूसरा कोई भी उपाय नहीं है कि जिससे क्रिया हो सके. यदि महाशयजी कहें की क्रम से व्यापार करता है, तो यह नहीं हो सकता, क्योंकि जब वह आत्मा कूटस्थ, अपरिणामी नित्य है तो उसको व्यापार करने में किसी की अपेक्षा नहीं है याने वह स्वयं समर्थ है, तो कालान्तर में होनेवाली जो क्रियाएं है उनको भी एक ही काल में करने में समर्थ होना चाहिये, अन्यथा वह असमर्थ होनेपर अनित्य हो जायगा. अब शास्त्रिजी यदि फिर कहें की वह आत्मा किसीकी अपेक्षा नहीं रखता है, किन्तु होनेवाला जो कार्य है सो विना सहकारी नहीं होता है, तब मुझे कहना चाहिये की वह आत्मा पदार्थ समर्थ है ?, या असमर्थ है ?, यदि समर्थ है, तो वह उस कार्य को क्यों सहकारी की अपेक्षा रखने देता है ?, क्यों शीघ्र पैदा नहीं करता है ?, फिर शास्त्रिजी उच्चारे की क्या समर्थ भी सहकारी की अपेक्षा नहि रखता है ?, अवश्य रखता है, जैसे वृक्ष को पैदा करनेवाला बीज समर्थ होनेपर भी पृथ्वी, जल, वायु और तापकी अपेक्षा रखता है, इसी तरह यह समर्थ भी आत्मा व्यापार करने में सहकारी की अपेक्षा रखता है, उससे वह उस बीजकी तरह असमर्थ नहीं कहा जायगा.
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________________ (31) तब हम यह पूछते हैं कि क्या वह सहकारीगण उस आत्मा का कुछ उपकार करते हैं, या नहि करते हैं ?. यदि नहि करते हैं, तो जब वह सहकारी हाजिर नहीं था तब वह आत्मा अर्थक्रिया नहीं करता था, वैसे ही सहकारीगण सेवा में उपस्थित होने पर भी क्यों अर्थक्रिया करेगा ?. अब शास्त्रिजी कहें की सहकारी उसको उपकार करते हैं, तो वह सहकारी कृत उपकार आत्मासे भिन्न है, या अभिन्न है ?, यदि वह उपकार को अभिन्न माना जाय तो जैसे क्रियमाण उपकार अनित्य है, उसी तरह तदभिन्न आत्मा भी अनित्य हो जायगा, इसीसे लाभ होनेकी चेष्टा करते हुए भी आपने अपने लाभ को नष्ट किया. यदि क्रियमाण उपकार और उपकार्य आत्माको भेद माने तो वह उपकार उसी आत्मा को है ऐसा ज्ञान कैसे होगा ?. वह उपकार और किसीका क्यों नहीं है, इसमें क्या प्रमाण है ?, यदि शास्त्रीजी कहें की उपकार और उपकार्य को परस्पर समवाय नामक संबन्ध है, जिससे 'तस्यैवायमुपकारः' यह ज्ञान स्पष्ट होगा, तब मैं यही कहता हूं की समवाय मानने पर भी वह ही दोष आवेगा, क्योंकि समवाय भी एक खपुष्प तुल्य पदार्थ है, और वह एक, व्यापक होने से ( उसीसे ) उसका संबन्ध सर्वत्र होने से यह नियम नहीं हो सकता है कि यह उसका ही उपकार है. और कोई समवाय पदार्थ ही नहीं है, क्योंकि जैसे समवायत्व समवाय में स्व
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________________ (32) रूप संबन्ध से रहता है वैसेही पृथिवी में पृथ्वीत्व, घट में नील वगैरह को भी स्वरूप संबन्ध से रहने वाले मानो, क्यों निष्फल समवाय की जूठी कल्पना करते है ?, भला यह क्या बात है कि पृथिवीका धर्म पृथ्वीत्व तो पृथ्वी में समवाय से रहे, और समवाय का धर्म समवायत्व समवाय में स्वरूप संबन्ध से रहे ?, हम तो यह कहते हैं कि दोनों धर्म एकही संबन्ध से मानना चाहिये, तो जो समवाय से मानो तो समवाय का एकत्व नष्ट होजायगा, और स्वरूप संबन्ध से मानो तो यह बात सर्वाभेद्य है, इस लिये समवाय कोई भी प्रकार से पदार्थ की गिनती में नहीं आ सकता, और पूर्वोक्त प्रकार से नित्य पदार्थ क्रमसे अर्थ क्रिया नहीं कर सकता है. यदि शास्त्रीजी कहें कि अक्रम से अर्थक्रिया करता है, तो फिर जरा शास्त्रीजी स्वयं सोचे की वह जब अक्रम से ( युगपत् ) साथही एक क्षण में सब क्रिया कर देगा तो फिर दूसरे क्षण में क्या बनावेगा ?, यदि कुछ न करे तो फिर अर्थक्रिया शून्य होने से पदार्थ की गणना में कैसे आ सकता है ? और यदि कुछ क्रिया करे तो फिर क्रम ही हो गया, और शास्त्रीजी का अक्रम पक्ष तो गंगास्नान करने को गया, और भी यह बात अनुभव से विरुद्ध है की एक ही पदार्थ सब क्रियाओं को एक क्षण में कर देवें, इसलिये कभी अक्रम से भी अर्थक्रिया नहीं हो सकती है. तब जब कूटस्थ अपरिणामि नित्य मानने पर कोई चीज बात अनुभव से / इसलिये कभी अनित्य मानने प
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________________ (33 ) कम, अक्रम से एक भी क्रिया नहीं कर सकती है तब पदार्थ की श्रेणी में तार्किक, लोग कैसे मान सकते हैं ?. पाठक ! अब तक शा- , स्त्रीजी का एक भी पक्ष नहीं ठहर सका है, तब भी सब से अधिक अनुकम्प्य ब्राह्मण वर्गस्थ शास्त्रीजी को एक बात मैं सिखलाता हूं, कि जिससे शीघ्र ही शास्त्रीजी विजयी बनें. शास्त्रीजी महाशय! अब अपने यशकी रक्षा के लिये जो आपने धर्मान्धता का वेष पहिना है उसको उतारिये और निष्पक्षपातिका ड्रेसको अपने दिल पर लगा लीजिये याने आप आकाश से लेकर परमाणु तक छोटा मोटा सब पदार्थ को नित्यानित्य मानें तो आपके यह मत में बृहस्पति भी दूषण नहीं डाल सकता है. जैसे उदाहरण में आप आत्मा को ही समझिये की आत्मा जब गमन क्रिया में प्रवृत्त होता है तब उस क्रिया के पूर्व आत्मा की शयन क्रिया में जो प्रवृत्ति थी वह नष्ट होती है, अर्थात् सब पदार्थ क्रिया करते समय अपने पूर्व का आकार ( पर्याय ) को त्यजते हैं, और उत्तर के आकार को स्वीकारते हैं. जैसे एक वस्त्र पर काला रङ्ग है. उसको धोने से वह चला जाता है, और वस्त्र भी लाल हो सकता है, उससे पस्त्र नष्ट होता है यह बात नहीं है, वैसेही यह आत्मा भी अपना पूर्व रङ्ग को छोड़ता है, उत्तर रङ्ग को स्वीकारता है इससे वह परिणामी है किन्तु नष्ट नहीं होता है. और भी आज कल के नये विज्ञान से यह साफ सिद्ध
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________________ होती है की मूल द्रव्य, वह तो नित्य है. परंतु वह मूल द्रव्य में समय समय में परिणाम हुवा ही करता है. किन्तु वह मूल द्रव्य नष्ट नहीं होता है और वास्तवमें वस्तुका सत्य स्वरूप तो यह ही है की जिसमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य यह तीन रहता है वह ही पदार्थ है और इससे अन्य सब ब्राह्मणपुच्छ की तरह है. पाठकगण ! खूब सोच के पड़े, इस समय में पूर्वोक्त उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का स्वरूप दिखलाता हूँ. जो पदार्थ उत्पन्न होता है, बदलता भी है, और स्थिर रहता है वह ही पदार्थ है, यह बात अनुभव से सिद्ध भी है, परन्तु शोक है की शास्त्रीजी की वृद्धावस्था होने से उनको पक्ष पातका चश्मा आगया है. देखिये- आपका ही ( शास्त्रीजी का ) उदाहरण- आपका नाम गंगाधर है जो बहुत छोटी अवस्था में रक्खा गया था, जब वह नाम रक्खा गया तब आपकी शरीराकृति और ही थी और अब आपका शरीरसौन्दर्य उस आकृति से बिल. कुल विपरीत है. जिस आकृति की विद्यमानता में आपका नाम गंगाधर रक्खा गया था वह आकृति न होने पर भी इस समय सब लोग आपको गंगाधर ही क्यों कहते हैं ?, जरा बुद्धि लगाकर विचारने से स्पष्ट सिद्ध होता है की जो पूर्वका गंगाधर था, वह कालादि परिणाम से विकृत होकर इस समय एक नया ही गंगाधर बना है, और जो नया बना है, जो विकृत हुआ था, यह दोनो में गंगाधर
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________________ धारक एक चीज स्थिर है उसीसे अब भी आप गंगाधर शब्द वाच्यः हैं. जब आपमें भी उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य यह तीन शक्ति है, तो आपको यह शक्ति सब पदार्थ में मानने में क्या हानि है ? और पूर्वोक्त युक्तिसे आत्मा में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य मानने पर एक भी दूषण गौतमगुरु भी नहीं दे सकते. इससे यह ही फलितार्थ हुआ की आत्मा कूटस्थ नित्य नहीं है, तब भी जो शास्त्रिजी को आग्रह है की आत्मा कूटस्थ नित्य है, उससे वह पक्ष में और भी दृषण बतलाता हूँ-- नैकान्तवादे सुख-दुःखभोगौ न पुण्य-पापे न च बन्ध-मोक्षौ। . . दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम् // 27 // जो युक्तियां मैंने पदार्थकी अर्थक्रियाके बारेमें दिखलाई है, / उसी ही तकों से कूटस्थ नित्य आत्मा कभी सुख, दुःखको अनुभव में नहीं ला सकता, वैसे जीवको पुण्य, पाप भी लग नहीं सकता, वह आत्मा कभी बद्ध, मुक्त नहीं होसकता, हैं, इसलिये सापेक्ष आत्मा नित्यानित्य है यह सिद्धान्त अवश्य स्वीकारना पड़ेगा. और जैनदर्शन से, नव्य विज्ञान से भी यह बात सिद्ध की गई है, कि सब पदार्थ मात्र नित्यानित्य हैं तब भी, शास्त्रिजी ! आपकी यह पुरा
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________________ णगप्प आपका भालचन्द्र ही सुनेगा और कोई प्रामाणिक न मानेगा, और जो शास्त्रिजी ने कहा की हाथी का आत्मा कीट में कैसे जायगा और कीटस्थ जीव हाथी में कैसे जायगा यह भी शास्त्रीजी की शङ्का गलत है. क्योंकि सब लोग आबालगोपाल यह अनुभव करते हैं की एक बड़ा भारी दीपक जिसमे बहुत प्रकाश हो, उसको लाकर बड़े कमरे में रखिये तो उसका सारा प्रकाश सारे कमरे में फैल जायगा, और उसी बड़ा भारी दीपक को एक छोटी पर्णकुटी में रखिये तो वह प्रकाश का दृश्य और कुछ हो जायगा याने इससे यह सिद्ध होता है की प्रकाश तो दोनों स्थल में समान ही है किन्तु जिसको जितना फैलने के लिये स्थान मिलता है उतनाही फैलता है इसी तरह आत्मा का कोई भी मान नहीं है, किन्तु उसमें यह एक प्रकार की शक्ति है की जहां जितना स्थल वहां उसका उतनाही पसरना होता है इसलिये शरीरी आत्मा का प्रमाण जिस शरीर में वह है उतनाही है ऐसे सिद्धान्त में कुछ बाधाही नहीं होती है. मुझे हँसी आती है कि जो लोग, जो ऋषी यह कहते हैं कि आत्मा का परिमाण महत् है तो वे ऋषी महाशय कणाद, गौतम, गङ्गाधरजी प्रभृति गज लेकर क्या आत्मा को नापने गये थे? हरगिज नहीं, परन्तु यह झूठा जाल पसार कर बिचारे अज्ञानी प्राणिओं को दुर्मार्ग दिखलाकर वे गृहविजयी बनते हैं. पाठकगण ! और भी इसी विषय में कुल,
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________________ (37 ) युक्तियां दिखलाता हूं यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवन्निष्पतिपक्षमेतत् / तथापि देहाद् बहिरात्मतत्त्व मतत्त्ववादोपहताः पठन्ति // यह बात सबको ही मालूम है कि जहां जो गुण रहता है, वहां ही उस गुण का आधार भी अवश्य रहता है. जैसे जहां घट को रूप की स्थिति है उसी. स्थल में घट की भी स्थिति चार आखों से देखने में आती है. उसी तरह आत्मा का गुण ज्ञान, स्मरण, अनुभव, चैतन्य प्रभृति जहां रहते हैं, जहां देखने में आते हैं वहां आस्मा की स्थिति भी होनी चाहिये. इस सिद्धान्त का विरोधक और कोई मी सिद्धान्त न होने पर भी हमारे अविद्या से उपहत शास्त्रीजी बाबा अपनी सच्ची करने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण से स्थिर बात को भी नहीं मानकर प्रज्ञाचक्षु की गिनती में आना चाहते हैं. पाठक महोदय ! यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण से स्थिर की गई है कि आत्मा का ज्ञानादि गुण केवल स्थूल शरीर में ही * उपलब्ध होते हैं. तब भी आत्मा सर्व व्यापक है यह कहना केवल अपने पाण्डित्य को कलकित करने को उद्यत होना है. भला ऐसा कोई कह सकता है कि अनि ( आग ) तो सर्वव्यापक है परन्तु उसका दाह गुण तो सिर्फ
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________________ (38) चूहा में ही मालूम होता है ? ब्राह्मण तो सर्वव्यापक है किन्तु ब्राह्मण का धर्म तो अमूक गल्ली में ही मिल सकते हैं. ऐसी ऐसी ब्राह्मणपुच्छ समान बातों को कहनेवाले बड़े प्राऽज्ञ समझे जाते हैं, और भी आत्मा व्यापक मानने में बडी 2 आफत का सामना करना पड़ता है, जैसे यदि कोई शास्त्रीजी बावा को पूछे की जो आत्मा * व्यापक है तो वह अमूक अमूक स्थल में ही क्यों भोगादि करता है ?, सर्वत्र अपना भोगादि क्यों नहीं करता है ?, तब तो शास्त्रीजी कांपते कांपते कहेंगे की यह बात तो उपाधि भेदसे मालूम होती है, वास्तव में आत्मा सर्वत्र है. फिर कोई शास्त्रीजी से पूछे की क्या उपाधि से जो भैद मालूम पड़ता है वह सच्चा है की झूठा ?, यदि शास्त्रिजी कहैं कि झूठा तब तो वे सारे संसार के व्यवहारके, नाशक भये क्योंकि आत्मा पुरुष नहीं है, आत्मा स्त्री नहीं है, आत्मा क्लीब नहीं है आत्मा ब्राह्मण नहीं है, आत्मा शूद्र नहीं है, आत्मा माता नहीं है ऐसे प्रकार से जो जो जगत् में व्यवहार चले आते हैं, वे सब का कारण फक्त उपाधि ही है. याने अपनी 2 कर्मस्थिति ( उपाधि ) भिन्न होने से समान स्वरूप आत्मा भी भिन्न प्रकार से व्यवहृत होता है, यदि यह सब व्यवहार उपाधि जन्य होनेसे जूठा माना जाय तो जगत ही नहीं चल सकता, इस लिये उपाधि जन्य व्यवहार में भी प्रामाण्य रहा हुवा है. इसलिये
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________________ (39) शास्त्रिजी सर्वज्ञ होने पर भी यह कभी नहीं कहसकते हैं कि उपाधि जन्य व्यवहार असत्य, मिथ्या है, यदि शास्त्रिजी कहें की यह सब भ्रान्त है जैसे स्फटिक निर्मल होने पर भी यदि कोई लाल, काला पदार्थ उसके पास रक्खा जाय कि तुरन्त उसका रंग बदलके लाल, काला, हो जायगा, इसलिये स्फटिक का मूल श्वेतवर्ण तो सत्य है और दूसरे पार्श्वस्य पदार्थ से भये हुये स्फटिक वर्ण भ्रान्त है, तो यह भी बाबाजी किं झूठी बात है, क्योंकि आप महामहोपाध्याय तो हुए हैं परन्तु अफसोस है कि आपने आज काल की नयी साइन्स विद्या कुछ भी न देखी, यदि आप पूर्वोक्त बात कोई साइन्स विद्या विशारदको कहते तो वे जरूर हँसता और आपकी महामहोपाध्यायता पर मुग्ध हो जाता; वारे महाशय ! एक पदार्थ से जो दूसरे पदार्थ में परिणाम होता है सो कभी मिथ्या, प्रान्त नहीं है, जैसे कोई रंगसाज ने लाल रंग से एक श्वेत कपड़ा को लाल बनाया, तो क्या उस कपड़े का लाल रंग झूठा कहा जावेगा !, और श्वेतरंग सच्चा कहा जावेगा ?, यह कभी होही नहीं सकता, क्योंकि दोनों रंग सच्चे हैं. यदि दोनों में से एक भी झूठा होता तो बजाज से और रंगरेज से कोई वस्त्र ही नहीं खरीदता, और रंग की दुकान पर जो लाखों रुपये कि आमदनी है सो भी नहीं होती, इसलिये वस्त्र रंग की तरह स्फटिक का रंग भी जो भिन्न भिन्न पार्श्ववर्ति प
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________________ (40) दार्थों से होता है सो भ्रान्त, मिथ्या नहीं है, उसी तरह आपका व्यापक आत्मा भी उपाधि से जो शरीर में ही प्रमाणित होता है सो भी असत्य नहीं है। अब तो आपका आत्मा व्यापक है, और उ. पाधि से छोटा है यह दोनों बात आपके अभिप्राय से सिद्ध हो चुकी तब भला आपके मत में एक आत्मा में दो विरुद्ध धर्म कैसे रह सकता है ? क्योंकि मी० व्यासजी ने लिखा है कि "नैकस्मिन्नसंभवात्" याने असंभव होने से एकही पदार्थ में प्रकाश और अन्धकार कि तरह दो विरुद्ध धर्म नहीं ठहर सकते हैं, तब भला आप क्या करियेगा ? क्योंकि आपने पूर्वोक्त युक्ति से दोनों बात ( उपाधि जन्य लघुत्व, व्यापकत्व ) सिद्ध किया है, यदि दोनों ही एक ही आत्मा में आप मानें तो आपके प्रपितामह के वचन पर पोचा फेर जायगा, और यदि एकही आत्मा में यह दोनों बात को आप न माने तो आप प्रमाणसिद्ध वस्तु के अपलापी की पदवी से विभूषित किये जायंगे. पाठकगण! अब यह बूढे ब्राह्मण को "इतो नदी इतो व्याघ्रः'' यह दशा हुई है, अब भी जो वे माने की जड़ चेतन सब पदार्थों में परिणाम हुआ ही करता है और कोई भी कूटस्थ नित्य नहीं है सब वस्तु सापेक्ष नित्याऽनित्य है. और आत्मा का कोई भी नियत परिमाण नहीं है तब तो ये बच सकते हैं, अन्यथा प्रामाणिक और सायन्सवेत्ता यह ब्राह्मण की हंसी उड़ावेंगे. पाठक महाशय !
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________________ मैं कहां तक लिख , यदि आत्मा व्यापक माना जाय तो आत्मा का शरीर के बाहर का जो अंश है सो तमाम निकम्मा ( निष्फल ) है, क्योंकि वह अंश, कुछ नहीं जानता है, न स्मृति कर सकता है, और न कोई भी क्रिया वह कर सकता है, ठीक ठीक वह अंश और जड़ पदार्थ समान हो जाते हैं, इसलिये यही कहना ठीक है कि आत्मा खशरीर परिमित है, और यदि आत्मा को व्यापक मानें तो फिर उपासना क्यों करनी ?, उपासना किसकी करनी यह सब प्रश्न उपस्थित होते हैं, जिसका उत्तर श्रीब्रह्माजी, सी. आई. इ. भी नहीं दे सकते हैं, इसलिये शास्त्रीजी से मैं नम्र प्रार्थना करता हूं की आप सत्य के पक्षपाती बनकर अपने ब्राह्मण जन्म को सफल कीजिये, और कुछ कृपाकर सायन्स भी पढ़ लीजिये जिससे पाश्चात्य लोग आपकी हंसी न करें / जो शास्त्रीजीने लिखा है कि मुक्तजीव उपर क्यों जाते हैं !, यह शास्त्रीजीकी शङ्का शास्त्रीजीकी सब पोलको खोल देती है, क्योंकि जड़, चेतन यह दोनों पदार्थ में क्या क्या शक्तियां हैं उससे शास्त्रीजी अपरिचित है. देखिये, और सावधानी से विचारिये पूर्वप्रयोगात् , असङ्गत्वात् , बन्धच्छेदात् , तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः॥ . अर्थात् यह चार प्रकार से जीवकी ऊर्ध्वगति होती है. शास्त्रीजी
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________________ (42) महाशय ! जैसे एक कुम्भारने अपने हस्त, दण्डका प्रयोग से चक्र को चलाया, फिर वह कुम्भार अपना हस्त, दण्डका प्रयोग नहीं करता है तब भी वह चक्र बहुत समय तक चला करता है अर्थात् वेगसे यह चक्र चलता है वैसेही कर्म (पुण्यपाप) रूप कुलाल से यह आत्म चक्र घुमाया जाता है, जब वह कर्म कुलालका समूल नाश हो गया, तब भी पूर्व के वेगसे वह मुक्तजीव उपरही जाता है. दूसरा प्रकार यह है कि जीव में हमेशा ऊपर जानेकी ही शक्ति नियत है, जड़में हमेशा अधोगमन की शक्ति नियत है, परन्तु जब तक जीव और पुद्गल किसी के अधीन रहते हैं तब तक उसकी सब तरफ गति होती है, और जब जीव, पुद्गल असङ्ग, स्वतन्त्र होते हैं तब उसकी गति अपने नियमानुसार ऊपर और नीचेही होती है, तीसरा प्रकार तो खेतिहर भी जानता है. जैसे एरण्ड की सिङ्गका बन्धच्छेद करने से एरण्डकी ऊर्ध्वगति होती है वैसेही जीव के कर्मबन्धका छेद होने से उसकी उच्चगति होती है, और चौथा प्रकार तो स्पष्ट ही है कि जैसे तुम्बको जब पङ्कलगता है तब जल के नीचे जाता है, और जब पङ्क नष्ट होता है तब वह तुम्न उपर चला आता है, उसी तरह कर्मपङ्क नष्ट होने से वह जीवमें उच्चगमन का परिणाम होता है और वह ऊंचे लोकान्त तक जाता है, इसीसे ही शास्त्रीजी समजे होंगे की मुक्तजीव उपर क्यों जाता है यदि और भी कोई शङ्का शास्त्रीजी की होवे तो
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________________ (43) जसको भी विनीततां से पूछने से उत्तर दे सकता हूँ. अब. शास्त्रीजी के शब्दार्थ कोश ज्ञान की मीमांसा की जाती है, मैं सुनता हूं कि शास्त्रीजी साहित्य के बड़े नामी विद्वान है किन्तु यह बात इस 'अलिविलासी' को देखकर संदिग्ध हो जाती है, क्योंकि शास्त्रीजीने इस 'अलिविलासी' में कई श्लोको में जहां जैनो का खण्डन हो रहा है उसमें जैनके स्थान पर बौद्धसूचक शब्द रक्खा है, याने कौन शब्द बौद्धका वाचक और कौन शब्द जैनका वाचक है यह बात शास्त्रीजी से अपरिचित है, देखिये इत्थं तथागतपथागतवेदनिन्दासर्वेश्वरादरविरोधवचो निशम्य // 35 // तथागतपथागताहितकथा वितीर्णप्रथा // 103 // चतुर्थशतक. ऐसे बहुत से श्लोक में अर्हन् का पर्याय तथागत को रक्खा गया है, पाठक ! आपही कहिये की इस वृद्धावस्थामें भी शास्त्रीजी को कोश कण्ठस्थ करने की आवश्यकता है या नहीं? शास्त्रीजी महाशय ! तथामत नाम अर्हन् (जैनधर्मप्रकाशक ) का नहीं है किन्तु वह नाम आपके बुद्धावतार, बुद्धदेव को बतलाता है, परन्तु अर्हन का नाम तो यह है कि अर्हन् जिनः पारगतस्त्रिकालवित्
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________________ (44) क्षीणाष्टकर्मा परमेष्ठ्यधीश्वरः। शम्भुः स्वयम्भुभगवान् जगत्पति स्तीर्थकरस्तीर्थकरो जिनेश्वरः // ( इत्यादि ) . ___ अब मैं अपनी लेखनी को विश्रान्ति देता हुआ आपसे (शास्त्रीजी से) प्रार्थना करता हूँ कि 'सहसा विदधीत न क्रियाम्' इस वाक्य को आप बराबर याद रखिये, याने जिस सिद्धान्त का खण्डन करना उसका मण्डन बराबर देख लेना, परन्तु गडरिका प्रवाह की तरह प्राचीन बुड्ढोकी माफक अण्ड बण्ड नहीं घसेटना. समय आनेपर वे सब बुड्ढों की ( कुमारिल, गौतमादि की ) भी मनीषा मीमांसा करूँगा. ___अब जिस वेद में हिंसा भरी हुई है, और जिस वेद की भाषा का भी कुछ ठिकाना नहीं है, क्योंकि ऋषी पाणिनीय ने भी अपनी प्राकृतमञ्जरी में छ भाषा की गिनती की है जो संस्कृत, प्राकृत शौरसेनी, पैशाची, मागधी और अपभ्रंश है, उसमें की कोई भी भाषा चेद में नहीं है, किन्तु वेद में विचित्रही भाषा है, उस वेद को भी धर्मान्धशास्त्रीजी ईश्वर तुल्यमान रहे हैं, अहो ! क्या श्रद्धा का चमत्कार की गधे को भी सींग मानना, बस लेख में जो कुछ शास्त्रीजी की हित शिक्षा के लिये कटु शब्द लिखे गये हों सो शास्त्रीजी क्षमा करें।