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________________ . (29) पि? / तत्संबन्धात् तस्यायमिति चेत् / उपकार्योपकारयोः का सम्बन्धः 1 / न तावत् संयोगः; द्रव्ययोरेव तस्य भावात् / अत्र तु उपकार्य द्रव्यम् , उपकारश्च क्रियेति न संयोगः। नापि समवायः; तस्यैकत्वात्-व्यापकत्वाच प्रत्यासत्तिविप्रकर्षाभावेन सर्वत्र तुल्यत्वाद् न नियतैः सम्बन्धिभिः सम्बन्धो युक्तः / नियतसंबन्धिसंबन्धे चाङ्गीक्रियमाणे तत्कृत उपकारो स्य समवायस्याभ्युपगन्तव्यः / तथा च सति उपकारस्य भंदाऽभेदकल्पना तदवस्थैव / उपकारस्य समवायादभेदे, समवाय एव कृतः स्यात् / भेदे, पुनरपि समवायस्य न नियतसम्बन्धिसंबन्धत्वम् / तनैकान्तनित्यो भावः क्रमेणार्थक्रियां कुरुते / . सब दर्शनकारोने वस्तुका लक्षण : अर्थक्रियाकारित्व माना है, ह लक्षण कूटस्थ और अपरिणामि आत्मा में जा नहीं सकता. कूटथ और अपरिणामि वह कहा जा सकता है, जो कभी नष्ट नहीं होता हो, जो कभी उत्पन्न नहीं होता हो, और जिसका एकही स्थर ही रूप हो, यद्यपि ऐसा पदार्थ जगत में एक भी नहीं है यह बात. आजकाल के नये विज्ञान ( सायन्स ) विद्याविशारदोने भी जगत को प्रत्यक्ष कराई है तब भी "तुष्यतु दुर्जनः" इस न्याय से इक आत्मा को हम ऐसा कूटस्थ अपरिणामी नित्य माने तो वह एक
SR No.004479
Book TitleMahamhopadhyay Shree Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepoke Uttar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSacchidanand Bhikshu
PublisherShah Harakhchand Bhurabhai
Publication Year1913
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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