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________________ (30) भी व्यापार को नहीं कर सकता. मैं पूछता हूँ कि कूटस्थ अपरिणामी आत्मा अपने व्यापार को कम से करेगा ?, या युगपत् करेगा?, क्योंकि विना क्रम और अक्रम दूसरा कोई भी उपाय नहीं है कि जिससे क्रिया हो सके. यदि महाशयजी कहें की क्रम से व्यापार करता है, तो यह नहीं हो सकता, क्योंकि जब वह आत्मा कूटस्थ, अपरिणामी नित्य है तो उसको व्यापार करने में किसी की अपेक्षा नहीं है याने वह स्वयं समर्थ है, तो कालान्तर में होनेवाली जो क्रियाएं है उनको भी एक ही काल में करने में समर्थ होना चाहिये, अन्यथा वह असमर्थ होनेपर अनित्य हो जायगा. अब शास्त्रिजी यदि फिर कहें की वह आत्मा किसीकी अपेक्षा नहीं रखता है, किन्तु होनेवाला जो कार्य है सो विना सहकारी नहीं होता है, तब मुझे कहना चाहिये की वह आत्मा पदार्थ समर्थ है ?, या असमर्थ है ?, यदि समर्थ है, तो वह उस कार्य को क्यों सहकारी की अपेक्षा रखने देता है ?, क्यों शीघ्र पैदा नहीं करता है ?, फिर शास्त्रिजी उच्चारे की क्या समर्थ भी सहकारी की अपेक्षा नहि रखता है ?, अवश्य रखता है, जैसे वृक्ष को पैदा करनेवाला बीज समर्थ होनेपर भी पृथ्वी, जल, वायु और तापकी अपेक्षा रखता है, इसी तरह यह समर्थ भी आत्मा व्यापार करने में सहकारी की अपेक्षा रखता है, उससे वह उस बीजकी तरह असमर्थ नहीं कहा जायगा.
SR No.004479
Book TitleMahamhopadhyay Shree Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepoke Uttar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSacchidanand Bhikshu
PublisherShah Harakhchand Bhurabhai
Publication Year1913
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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