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________________ (31) तब हम यह पूछते हैं कि क्या वह सहकारीगण उस आत्मा का कुछ उपकार करते हैं, या नहि करते हैं ?. यदि नहि करते हैं, तो जब वह सहकारी हाजिर नहीं था तब वह आत्मा अर्थक्रिया नहीं करता था, वैसे ही सहकारीगण सेवा में उपस्थित होने पर भी क्यों अर्थक्रिया करेगा ?. अब शास्त्रिजी कहें की सहकारी उसको उपकार करते हैं, तो वह सहकारी कृत उपकार आत्मासे भिन्न है, या अभिन्न है ?, यदि वह उपकार को अभिन्न माना जाय तो जैसे क्रियमाण उपकार अनित्य है, उसी तरह तदभिन्न आत्मा भी अनित्य हो जायगा, इसीसे लाभ होनेकी चेष्टा करते हुए भी आपने अपने लाभ को नष्ट किया. यदि क्रियमाण उपकार और उपकार्य आत्माको भेद माने तो वह उपकार उसी आत्मा को है ऐसा ज्ञान कैसे होगा ?. वह उपकार और किसीका क्यों नहीं है, इसमें क्या प्रमाण है ?, यदि शास्त्रीजी कहें की उपकार और उपकार्य को परस्पर समवाय नामक संबन्ध है, जिससे 'तस्यैवायमुपकारः' यह ज्ञान स्पष्ट होगा, तब मैं यही कहता हूं की समवाय मानने पर भी वह ही दोष आवेगा, क्योंकि समवाय भी एक खपुष्प तुल्य पदार्थ है, और वह एक, व्यापक होने से ( उसीसे ) उसका संबन्ध सर्वत्र होने से यह नियम नहीं हो सकता है कि यह उसका ही उपकार है. और कोई समवाय पदार्थ ही नहीं है, क्योंकि जैसे समवायत्व समवाय में स्व
SR No.004479
Book TitleMahamhopadhyay Shree Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepoke Uttar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSacchidanand Bhikshu
PublisherShah Harakhchand Bhurabhai
Publication Year1913
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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