SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होती है की मूल द्रव्य, वह तो नित्य है. परंतु वह मूल द्रव्य में समय समय में परिणाम हुवा ही करता है. किन्तु वह मूल द्रव्य नष्ट नहीं होता है और वास्तवमें वस्तुका सत्य स्वरूप तो यह ही है की जिसमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य यह तीन रहता है वह ही पदार्थ है और इससे अन्य सब ब्राह्मणपुच्छ की तरह है. पाठकगण ! खूब सोच के पड़े, इस समय में पूर्वोक्त उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का स्वरूप दिखलाता हूँ. जो पदार्थ उत्पन्न होता है, बदलता भी है, और स्थिर रहता है वह ही पदार्थ है, यह बात अनुभव से सिद्ध भी है, परन्तु शोक है की शास्त्रीजी की वृद्धावस्था होने से उनको पक्ष पातका चश्मा आगया है. देखिये- आपका ही ( शास्त्रीजी का ) उदाहरण- आपका नाम गंगाधर है जो बहुत छोटी अवस्था में रक्खा गया था, जब वह नाम रक्खा गया तब आपकी शरीराकृति और ही थी और अब आपका शरीरसौन्दर्य उस आकृति से बिल. कुल विपरीत है. जिस आकृति की विद्यमानता में आपका नाम गंगाधर रक्खा गया था वह आकृति न होने पर भी इस समय सब लोग आपको गंगाधर ही क्यों कहते हैं ?, जरा बुद्धि लगाकर विचारने से स्पष्ट सिद्ध होता है की जो पूर्वका गंगाधर था, वह कालादि परिणाम से विकृत होकर इस समय एक नया ही गंगाधर बना है, और जो नया बना है, जो विकृत हुआ था, यह दोनो में गंगाधर
SR No.004479
Book TitleMahamhopadhyay Shree Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepoke Uttar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSacchidanand Bhikshu
PublisherShah Harakhchand Bhurabhai
Publication Year1913
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy