________________ मैं कहां तक लिख , यदि आत्मा व्यापक माना जाय तो आत्मा का शरीर के बाहर का जो अंश है सो तमाम निकम्मा ( निष्फल ) है, क्योंकि वह अंश, कुछ नहीं जानता है, न स्मृति कर सकता है, और न कोई भी क्रिया वह कर सकता है, ठीक ठीक वह अंश और जड़ पदार्थ समान हो जाते हैं, इसलिये यही कहना ठीक है कि आत्मा खशरीर परिमित है, और यदि आत्मा को व्यापक मानें तो फिर उपासना क्यों करनी ?, उपासना किसकी करनी यह सब प्रश्न उपस्थित होते हैं, जिसका उत्तर श्रीब्रह्माजी, सी. आई. इ. भी नहीं दे सकते हैं, इसलिये शास्त्रीजी से मैं नम्र प्रार्थना करता हूं की आप सत्य के पक्षपाती बनकर अपने ब्राह्मण जन्म को सफल कीजिये, और कुछ कृपाकर सायन्स भी पढ़ लीजिये जिससे पाश्चात्य लोग आपकी हंसी न करें / जो शास्त्रीजीने लिखा है कि मुक्तजीव उपर क्यों जाते हैं !, यह शास्त्रीजीकी शङ्का शास्त्रीजीकी सब पोलको खोल देती है, क्योंकि जड़, चेतन यह दोनों पदार्थ में क्या क्या शक्तियां हैं उससे शास्त्रीजी अपरिचित है. देखिये, और सावधानी से विचारिये पूर्वप्रयोगात् , असङ्गत्वात् , बन्धच्छेदात् , तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः॥ . अर्थात् यह चार प्रकार से जीवकी ऊर्ध्वगति होती है. शास्त्रीजी