SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (13) श्रादेश एच किल वेदपदाभिधेयो नोल्लट्य एष तदधीनहितार्थिजीवैः // 55 // इन सब श्लोकका रहस्य यह ही है कि- इस जगत के रचयिता कोई एक ईश्वर है, यह बात अनुमान प्रमाण से सिद्ध होती है. जैसे की प्राणीओंके छोटेसे भी कार्य में कोईन कोई अधिष्ठाता रहता है, को यह अनेक प्राणीसे बना हुवा जो ब्रह्माण्ड रूप कार्य उसमें अधिछाता सर्वत्र व्यापक एक ईश्वर को मानना चाहिये। 47 // जितनी प्रवृत्तियां यथारुचि जीवगण करता है, उन सब में एक प्रवृत्ति तो किसीका डर रखके कुटुम्ब और नगर में रहे हुवे जीव में दिखाई देता है, इसलिये जिसकी भीति से उस प्रवृत्तिको लोग कर रहे हैं, काही सर्वस्रष्टा ईश्वर है / / 48 // और उस ईश्वरका ज्ञान नित्य है याने न कभी नष्ट होता है, न कभी पैदा होता है, न कभी. वि. कार को भी पाता है, सदा एक रूपही रहता है. यदि उसको अनित्य माना जाय तो उसका (ज्ञानका) कोइ हेमन्तर खीकारना पडेगा, तो जो हेतु स्वीकृत है वह नित्य, या अनित्यः, यदि नित्य, तो ज्ञानकोही नित्य मानकर व्यर्थ हेतु प्रकल्पन क्यों करना चाहिये ? और अनित्य मानो तो उसका भी हेतु होना चाहिये. इस प्रकार माननेमें अनवस्था आती है. इसलिये ईश्वरका ज्ञान नित्य ही है और सब कार्य में कारण रूपसे उसीको ही ईश्वर धारण करतें हैं // 50 // यदि
SR No.004479
Book TitleMahamhopadhyay Shree Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepoke Uttar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSacchidanand Bhikshu
PublisherShah Harakhchand Bhurabhai
Publication Year1913
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy