________________ (14) जैन कहे की अपना 2 शुभाशुभ कर्मसेही आत्मा शुभाशुभ फल पाता है तो भी यह उचित नहीं, क्योंकि कर्म तो जड़ होनेसे फल देनेमें असमर्थ है, इसलिये उसका (कर्मका) भी एक महेश भधिष्ठाता होना चाहिये // 51 // खेतीहर अपनी कर्षणकी और बोनेकी कुशलता और अकुशलता से फलसिद्धि यातो फलाऽसिद्धिको पाता है, जैसे इसमें मेघका दोष नहीं है, वैसेही जीवको सुख, दुःख पानेमें ईश्वरका दोष नहीं है इसलिये ईश्वर रागी, द्वेषी नहीं कहा जा सकता है // 52 // और भी सब हेतुगण विद्यमान होनेपर भी यदि वृष्टि न होवे तो जैसे खेतीहर की सब कर्षणादि चेष्टा निष्फल होती है, वैसेही यदि ईश्वरेच्छा न हो तो एक भी कार्य नहीं होसकता // 53 // जीव अपने कर्मको जानता नहीं है; और परकीय कर्म दूर है, इसलिये स्व, पर कोई कर्मका अधिष्ठाता नही होसकता, अतः उसका अधिष्ठाता सर्वज्ञ महादेवजी ही है // 54 // ऐसी अनेक युक्तिसे जगत्कर्ता ईश्वर सिद्ध होनेपर उसका सकलमार्गदर्शी वेदविहित जो आदेश उसको उल्लवित नही करना चाहिये // 55 // और भी वह महाशय धर्मान्धतामें लिपट कर अपने महादेव बावाका जूठाही निष्पक्षपात बतलातें हैमायेत् खलो गुरुतरार्चनया, कुलीनो दण्डे महीयसि कृते भृशमुद्विजेत् / . याया विपर्ययमनेन च लोकयात्रा