________________ "स्यादस्ति कार्यकरणेन समस्तवस्तु / स्थानास्ति तच्च विलयात् परतश्च बाधात् // 25 // यहाँ से 28 तक- .. नैनदर्शन कार्य करनेसे ही सब वस्तु को सत् मानता है, और वस्तु नाश होने से यातो इतरज्ञान से बाघ होनेसे वस्तुओं को असत् मानता है इत्यादि / अब इस पूर्वपक्ष के खण्डन में महाशयंजी अपनी न्यायप्रवीणता दिखलाते हैं की "हा ! हन्त ! संतमससंततवासघूक! नानाविकल्पमयदुर्मतजञ्जपूक ! / प्रामाणिको न हि वदन् विरमेद् विकल्पेड प्रामाणिकोक्तिरपराध्यति वादकाले // 36 // वस्तुस्थितिप्रमितिरेव हि मानकृत्वं न त्वस्ति बस्तु युगपत् सदसद्विरूपम् / वस्तुन्यसइद्विविधरूपमतिभ्रमः स्यात् / - तां दोष एव जनयेद् न कदापि मानम् // 37 // अन्योऽन्यबाधकमसत्त्वमथापि सत्त्व मेकत्र वक्षि युगपद् यदि संशयः सः। यत्सर्वसंशयनिवर्ति तदेव शास्त्रं. संशाययत्तदपि चेत् शरणं किमन्यत् // 38 //