________________ उस भ्रमका जनक दोष ( अज्ञानादि ) है क्यों कि प्रमाण तो कभी दोषका कारण हो ही नहीं सकता // 37 // आपसमें शत्रुतावाले सत्त्व और असत्त्व हैं, याने वह दोनो कभी साथ रही नहीं सकते तब भी तुम कहते हो की यह दोनों पदार्थ में साथ रहते हैं यह तुमारा संदेह है, और जो संशयकी छेदन करनेवाला शास्त्र हैं वह भी जो संशयको पैदा करै, दूसरा कौन शरण है ? // 38 // निर्णय करने में असमर्थता होने से विविधप्रकारके शास्त्रों का उच्छिष्ट जो एक देश उसका अल्पसंग्रह करनेवाला, और आचार्य (निश्चायक) के लक्षणों से रहित होने से, जिन (अर्हन) हमको मान्य नहीं है // 39 // और स्याद्वादकी सिद्धिको जो तुम निश्चित मानोगे तो तुमारा संशयपर्यवसायी सिद्धान्त नष्ट हो जायगा, और यदि उसमें प्रमाणकी प्रवृत्ति दिखलावोगे तब भी वही दोष आवेगा, और विद्वानों की प्रवृत्ति सदैव निश्चयपूर्वक होती है इस लिये तुमारे सिद्धान्त में कोई प्रवृत्ति नहीं कर सकता // 40 // जिसमें शकित और परस्पर विरुद्ध वाक्यों कि पुनः पुनः आवृत्ति हो वह भी शास्त्र है ऐसा कहनेवालेके मुखकी आरती जैनाङ्गना उतारै // 41 // यहां तक जो महाशयजी ने जैनियों का अभेद्य स्याद्वादका कुछ आक्षेपण किया है उसका पाठक महाशय निम्न लिखित उत्तर विचारसे पढ़ें, "महाशयजी ने कहा है कि-जैनदर्शन कार्य करने से