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________________ ( 7 ) हि वस्तु को सत् मानता है इत्यादि। - मैं महाशयजी से प्रार्थना पूर्वक कहता हूँ की यदि आप अपना पक्षपातोपहतचक्षुः को दूर करते. तो स्पष्ट मालूम होता की जैनदर्शनका वह ( पूर्वोक्त) मन्तव्य नहीं है. परन्तु जैनदर्शनका यह मन्तव्य है कि वस्तुका स्वभाव ही सद् असद् रूप है. याने स्वभाव से ही वस्तु भावाऽभाव उभयस्वरूप है. फिर शास्त्रीजी की स्थूल बुद्धिमें इस वातकी समझ न पड़ी तो कहा की क्या एकही वस्तु भावस्वरूप और अभावस्वरूप कभी होसक्ती है ?, तो मुझे कहना चाहिये की क्या आपमें पुत्रत्व, पितृत्व नहीं है ? क्या आप मनुष्यभावरूप और अश्वाऽभावरूप नहीं है !, आपको अविलम्ब स्वीकार करना होगा विरुद्ध धर्म भी सापेक्ष होकर एक वस्तु में अच्छी रीति से रह सकते हैं, इसमें कोई प्रकार का विरोध नहीं है. देखिये और चित्त को सुस्थित रख कर पढ़िये___ "न हि भावैकरूपं वस्त्विति, विश्वस्य वैश्वरूप्यप्रसङ्गात् / नाsप्यभावरूपम् , नीरूपत्वप्रसङ्गात् / किन्तु स्वरूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र-कालभावैः सत्त्वात् , पररूपेण स्वद्रव्य-क्षेत्र काल-भावैश्वाऽसत्त्वात् भावाsभावरूपं वस्तु / तथैव प्रमाणानां प्रवृत्तेः / .. यदाह“अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः।
SR No.004479
Book TitleMahamhopadhyay Shree Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepoke Uttar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSacchidanand Bhikshu
PublisherShah Harakhchand Bhurabhai
Publication Year1913
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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