________________ बह ही भ्रम है किन्तुं धट में धटकी ज्ञान होना तो भ्रम नहीं है. ऐसे ही वस्तु उभय रूप है उस में उभयरूपताज्ञान प्रमात्मक कमी नहीं हो सकता. और जो शास्त्रीजी बावाने अपनी तूती चलाई है कि "यदि एक ही वस्तु में यह दो बात ( सद्-असद् रूपता) माना जाय तो वह ज्ञान संशयात्मक है" इस से यह मालूम होता है कि शास्त्रीजी संशयके लक्षणको मूलगये- देखिये, संशयका लक्षण पूर्व ऋषियोंने इस प्रकार बतलाया है कि- 'अनुभयन्त्र उभयको टिसंस्पर्शी प्रत्ययः संशयः; अनुभयस्वभावे वस्तुनि उभयपरिमर्शनशकि ज्ञानं संशयः / ' . याने जिसमें दो स्वभाव नहीं है और उसमें दो स्वभावका जो ज्ञान होता है वह संशय है परन्तु यह बात वस्तुका सद्-असद् उभय ज्ञान में नहीं आसकती, क्योंकि पूर्वोक्त कई प्रमाणों से वस्तु उभयस्वभाव सिद्ध हो चुकी हैं और शास्त्रीजी ने जो कहा कि "स्याद्वाद की और प्रमाण की सत्ता को निश्चित मानो तो तुमारा सिद्धान्त बाधित होगा" यह भी एक पुराण की तरह गप्प है क्योंकि जैनदर्शन तो सब वस्तु को निज रूपसे सत् और अन्यरूप से. असत् मानता है. वैसे ही स्माद्वाद भी स्वरूपसे सत् और स्याद्वादाभासरूप से असत् है और प्रमाण भी प्रमाणरूप सत्. और प्रमाणाभासरूप से असत् है. और शास्त्री जी यह समझते होंगे कि