________________ (26 ) अब आपही उत्तर पक्षको प्रकट करते हैंजीवस्त्वयैव कृतहान्य-ऽकृतागमाभ्यां भीतेन नित्य उदितोऽस्य तनूमितत्वे / मातङ्ग-कीटवपुषारनयोः शरीर- व्यत्यास आपतति संभवपूर्त्यभावः // 42 // संकोच-विस्तृतिकथाऽत्र वृथा तथात्वे__ऽस्यापद्यतेऽवयविताऽथ विनाशिता च / कापीक्ष्यतेऽवयविनोरुभयोर्न चैक- देशस्थितिस्तदलमेभिरसत्पलापैः // 43 / / कस्मात् तपःक्षतसवासनकर्मजालो ___ जीवः प्रयात्युपरि किं भयमत्र वासे / कर्मस्वसत्स्विह परत्र च नास्ति बन्धः कर्मस्थितौ तु गगनेऽप्यनिवार्य एषः // 44 // तुमने ( जैनोने ) कृतहानि, अकृतागम दोषोंसे भय पाकर आत्माको नित्य माना है, और यदि उसको तुम तनुमात्र ( शरीर परिमाणी ) मानोगे तो हाथीका और कीटका शरीरका व्यत्यास होगा। याने हस्तिका शरीर में रहा हुआ जीव कीटके शरीर में कैसे जा। यगा !, कीटके शरीरमें रहा हुआ जीव हस्ति के शरीर में कै जायगा ! // 42 // यदि तुम (जैन) संकोचं ( समेटना) और विका