________________ (19) एवं हीश्वरसंविदो विफलता तस्माद् निसर्गाद् निजात् किं मा भूद् जगतां प्रवर्तन विधिनिश्चेतनानामपि / तत्तेषां परिकल्पयन्ति किमधिष्ठातारमेते शिवं . व्यर्थे वस्तुनि युज्यते मतिमतां किं पक्षपातः कचित् ? // 14 // निश्चेतनानां जगतां प्रवृत्ती कार्य कथं स्याद् नियतप्रदेशे। जातेऽपि कार्ये विरतिश्च न स्याद् इत्येतदप्येति न युक्तिवीथीम् // 15 // स्वभाववादाश्रयणप्रसादा देवंविधानां कुविकल्पनानाम् / नास्ति प्रसङ्गः कथमन्यथा स्याद् नायं सुधादीधितिशेखरेऽपि 1 // 16 // यह हमारे एकादश विकल्प में से यदि शास्त्रीजी प्रथम विकल्प को स्वीकृत करें, तो सृष्टि कभी न कभी दूसरी रीतिसे होनी चाहिये, याने ब्राह्मणकी स्त्रीको मूंछ और डाढी आनी चाहिये, और ब्राह्मणको स्तन भी होना चाहिये, क्योंकि हमेशा समान, नियमित सृष्टि होने में महादेवजी को कोई निमित्त नहीं है // 1 // यदि मी० गंगाधरजी कहैं की महादेवजी कर्मसे परतन्त्र होकर सृष्टिको रचते है. पाठकगण ! देखिये महादेवजीकी स्वतन्त्रता, कोई तो चेतन से पराधीन होता है,