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________________ किया है. ग्रन्थकार विक्रमवर्ष 1145 में हुए थे. इस ग्रन्थके द्वितीय अध्याय के अन्त भागमें गौतम से कहे हुए मोक्षाङ्गभूत छल, जाति और निग्रह स्थान की अच्छी खबर ली है. याने छल कपट से ही मोक्ष होता तो क्यों व्यर्थ सन्यास ग्रहण करना चाहिये ?. ग्रन्थकारने और भी व्याकरण, साहित्य-प्रभृति विषय में अपनी लेखनी को व्याप्त करके जगतका उपकार बहुत किया है. .15-19 तक स्याद्वादरत्नाकर-श्रीवादिदेवमूरि. यह भी बडा भारी न्यायका ग्रन्थ है जिसका प्रमाण 84000 श्लोक है. यह आठ परिच्छेद से विभक्त हुआ है. इसके रचयिता 1143 में हुए थे इसमें प्रामाण्यवाद, आत्मवाद, तमोवाद, इन्द्रियवाद, ईश्वरतत्व, मोक्षतत्त्व प्रभृति का यथार्थ वर्णन है. और इसमें गौतमादि की तरह प्रतिवादिका पूर्वपक्ष दूसरा और वादिका उत्तर पक्षभी दूसरा इस प्रकार से व्यवहार नहीं है किन्तु परपक्षका पूर्णस्थापन होजाने पर स्वपक्षकी युक्ति चलती है. कहीं कहीं तो कुसुमाञ्जलिका पूर्वपक्ष दस 2 पृष्ठ तक चलता है और पीछे उसका खण्डन किया जाता है. यह सम्पूर्ण मिलता नहीं है. 27-29 तक स्याद्वादमञ्जरी- श्रीमल्लिषेणमूरि. 25 और 37 यह भी एक श्रीजिनस्तुतिरूपन्याय का ग्रन्थ है. रचयिता सूरि 1349 में विद्यमान थे. जो ग्रन्थ बनारस में चौखम्बा ग्रन्थमाला में छप चुका है और श्री दामोदर लाल गोस्वामी ने उसको बढीही असावधानता से शोध कर रसका सत्यरूप में कुछ विपरिणामोत्पाद किया है और यह यशोविजय प्रन्थमाला बनारस में, बंबई में भी छपा है. 41 तत्त्वार्थसूत्र-श्री उमास्वामिवाचक.
SR No.004479
Book TitleMahamhopadhyay Shree Gangadharji ke Jain Darshan ke Vishay me Asatya Aakshepoke Uttar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSacchidanand Bhikshu
PublisherShah Harakhchand Bhurabhai
Publication Year1913
Total Pages50
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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