Book Title: Khartargaccha Pattavali Sangraha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Babu Puranchand Nahar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलकत्ता-निवासी बाबू पूरणचन्दजी नाहर, एम्०ए० बी० एल० की धर्मपत्नी श्री इन्द्रकुमारीजीके ज्ञानपंचमी तपके उद्यापनार्थ वितीर्ण खरतरगच्छ-पट्टावली-संग्रह संग्राहक श्री जिनविजयजी अधिष्ठाता - सिंघी जैन ज्ञानपीठ शान्ति निकेतन प्रकाशक बाबू पूरणचन्द नाहर, एम० ए० बी० एल० नं० ४८, इंडियन मिरर स्ट्रीट, कलकत्ता वीर नि० सं० २४५८ ] [विक्रम सं० १९८८ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन आज खरतरगच्छको कई प्राचीन पट्टावलियोंका यह संग्रह पाठकोंके सम्मुख उपस्थित करते हुए हर्ष होता है। इस विषयकी सब बातें प्रवीण इतिहासवेत्ता श्री जिनविजयजी महोदयके 'किञ्चित् वक्तव्य' से ज्ञात होंगी। जैनशासनके इतिहास-सम्बन्धी साधनोंमें पट्टावलीका स्थान उच्च है ; अतः जैन और जैनेतर इतिहास-प्रेमी सज्जनोंको इन पट्टावलियोंसे विशेष लाभ होगा, इस भावनासे ही इन्हें प्रकाशित किया गया है। यह छोटासा संग्रह पुरातत्वज्ञोंके लिए अधिक उपयोगी हो, इसलिए साथमें अकारादि क्रमसे नामोंकी तालिका भो दे दी गई है। आशा है कि भविष्यमें ऐसे २ जो कुछ साधन मिलेंगे, उन्हें हमारे धर्मबन्धु प्रकाशित करनेका उद्यम करते रहेंगे। कलकत्ता ४८, इंडियन मिरर स्ट्रीट , -प्रकाशक Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूची १ किश्चित् वक्तव्य २ खरतरगच्छ-सूरिपरम्परा-प्रशस्ति ३ खरतरगच्छ पट्टावली [१] ४ पुनः (क्षमाकल्याणजी कृत) [२] ५ बृहत्पट्टावलीकी अनुपूर्ति ६ परिशिष्ट ७ खरतरगच्छ पट्टावली [३] ८ अनुक्रमणिका Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किंचित् वक्तव्य -:: लगभग ६७ वर्षसे खरतरगच्छीय पट्टावलियोंका यह छोटा सा संग्रह छपकर तैयार हुआ था लेकिन विधिके किसी अज्ञेय संकेतानुसार आजतक यह योंही पड़ा रहा और यदि विद्वद्वर बाबू पूरणचंदजी नाहर की उपालंभ भरी हुई मीठी चुटकियोंकी लगातार भरमार न होती तो शायद कुछ समय बाद यह संग्रह साराका सारा ही दीमकके पेटमें जाकर विलीन हो जाता। . ___ पूनामें रहकर जब हम 'जैनसाहित्य-संशोधक' का प्रकाशन करते थे उस समय अहमदाबाद-निवासी साहित्य-रसिक विद्वान् श्रावक श्री केशवलाल प्रे० मोदी B. A. LL. B. ने खरतरगच्छ को एक पुरानी पट्टावलीको प्रति हमें लाकर दो-जिसमें इस संग्रहकी प्रथम ही में छपी 'खरतरगच्छ-सूरिपरंपरा-प्रशस्ति' थी। उस समय तक खरतरगच्छ की जितनी पट्टावलियां हमारे देखने अथवा संग्रह करनेमें आई उन सबमें यह प्रशस्ति हमें प्राचीन दिखाई पड़ी इसलिये हमने इसको तुरंत नकल कर, 'जैन सा० सं०' के परिशिष्ट रूपमें छपवा देनेके विचारसे प्रेसमें दे दिया। कुछ समय बाद मोदोजीने एक और पट्टावलो मेजी जो गद्यमें थी और साथमें उन्होंने यह भी इच्छा प्रदर्शित की कि इसे भी यदि उसी प्रशस्तिके साथ छपवा दिया जाय तो अच्छा होगा। हमने उसकी भी नकल कर प्रेसमें दे दिया। जब ये प्रेससे कंपोज होकर आई तो इसके पूरा फार्म होनेमें कुछ पृष्ठ खाली रहते दिखाई दिये तब हमने सोचा कि यदि इसके साथ ही साथ छपा उपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी की बनाई हुई वृहत्पट्टावलि भी दे दी जाय तो खरतरगच्छके आचार्योकी परंपराका १६ वीं शताब्दि पयंतका वृत्तान्त प्रकट हो जायगा और इतिहास प्रेमियोंको उससे अधिक लाभ होगा। इस पट्टावलीकी प्रेस कापी की हुई हमारे संग्रहमें बहुत पहले ही से पड़ी हुई थी अतः हमने उसे भी प्रेसमें दे दिया। इसी तरह की, लेकिन इससे प्राचीन एक और पट्टावलो मेरे पास थी उसे भी, प्रत्यंतर होनेसे विशेष उपयोगी समझ कर इसी संग्रहमें प्रकट करनेका हमें लोभ हो आया और उसे भी छपने दे दिया। इस प्रकार चार पट्टावलियोंका यह छोटा सा संग्रह जब तैयार हो गया तब हमने इसे 'जैन सा० सं०' के परिशिष्टरूपमें न देकर स्वतंत्र पुस्तकाकार प्रकट करनेका विचार किया और यह स्वतंत्र पुस्तकका विचार मनमें घुसते ही हमारे दिलमें एक नया भूत आ घुसा। हम सोचने लगे कि जब पुस्तक ही बनाना है तब फिर क्यों नहीं विशेष रूपसे एक संकलित ऐतिहासिक ग्रंथके आकारमें इसे तैयार कर दिया जाय और खरतरगच्छके इतिहासका जितना मुख्य मुख्य और महत्वके साधन हों उन्हें एकत्र रूपमें संगृहीत कर दिया जाय क्योंकि हमारे संग्रहमें इस विषयकी कितनी ही सामग्रो-- इन पट्टावलियोंके अतिरिक्त कई और भाषाकी पट्टावलियां, ग्रंथप्रशस्तियां तथा ख्यात आदि विविध प्रकारकी ऐतिहासिक सामग्री इकट्ठी हुई पड़ी थी। उन सब सामग्रियोंको संकलित कर ऐतिहासिक ऊहापोह करनेवाली विस्तृत भूमिका और टीका टिप्पणी आदि साथमें लगाकर इस संग्रहको परिपूर्ण बना दिया जाय तो श्वेताम्बर जैन संघका एक बड़ा भारी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखा-समुदायका अच्छा और प्रामाणिक इतिहास तैयार हो जाय। इस भूतके आवेशानुसार हमने उन सब सामग्रियोंका संकलन करना शुरू किया। ऐसा करनेमें हमें कुछ अधिक समय लग गया और अहमदाबादके पुरातत्त्व मंदिरके आचार्यपदके भारने हमारी पूनाकी विशेष स्थितिको अस्थिर बना दिया। इसलिये इस संग्रहके विस्तृत-संकलनका जो विचार हुआ था वह शिथिल होने लगा और चिरकाल तक कुछ कार्य न हो सका। इधर जिस प्रेसमें यह संग्रह छपा उसके मालिकने छपाईके खर्च आदिका तकाज़ा करना शुरू किया। जिस विस्तृतरूपमें इसे प्रकाशित करनेके लिये सोचा था उसमें बहुत कुछ समय और अर्थव्ययकी आवश्यकता थी और शीघ्र ही इस कार्यको परिपूर्ण करने जैसे संयोग दिखाई न देनेसे हमने अंतमें उस विचारको स्थगित किया और यह संग्रह जो इस रूपमें छप गया था, इसे ही प्रकाशित कर देना उचित समझा। ___ इसी बीचमें बाबूवर्य श्री पूरणचंदजी नाहरके अवलोकनमें यह छपा हुआ संग्रह आया और आपने इसे अपने खर्चसे प्रकाशित कर अपनी धर्मपत्नी श्रीमती इंद्रकुमारीजीके ज्ञान पंचमी तपके उद्यापन निमित्त वितीर्ण कर देनेका अभिप्राय प्रकट किया। तदनुसार पूनेसे यह छपा हुआ ग्रंथ-भाग कलकत्ते मंगवा लिया गया और प्रेसका बिल इत्यादि चुकता किया गया। इस संग्रहके साथमें हम कुछ दो शब्द लिख दें तो इसे प्रकाशित कर दिया जाय ऐसो बाबूजीको इच्छाको हमने सादर स्वीकार कर हम इस विषयमें कुछ सोचते ही थे कि कुछ ऐसे प्रसंग, एकके बाद एक, उपस्थित होते गये जिससे वर्षों तक हम उनकी उस आज्ञाका पालन नहीं कर सके और २।४ घंटेके कामको २।४ वर्ष तक ठेलते रहना पड़ा। सन् १९२८ के प्रारम्भमें महात्माजीने गुजरात-विद्यापीठको पुनरुर्घटना की, और विद्यापीठका ध्येय 'विद्या' नहीं 'सेवा' निश्चित किया और साथमें कई प्रतिज्ञाओंका बन्धन भी लगाया। हमारा उसमें कुछ विशेष मतभेद रहा और हमने अपने विचारोंको स्थिर करनेके लिए कुछ समय तक विद्यापीठके वातावरणसे दूर रहना चाहा। इसीके बाद तुरंत हमारा इरादा युरोप जानेका हुआ। युरोपके सामाजिक और औद्योगिक तंत्रोंका विशेषावलोकन करनेका हमें अधिक मौका मिला और उसमें हमें अत्यधिक रुचि उत्पन्न हुई। हमारा जो आजीवन अभ्यस्त-विषय संशोधनका है, उसमें तो हमें वहां कोई नवीन सीखनेकी बात नहीं दिखाई दो, क्योंकि जिस पद्धति और दृष्टिसे युरोपियन पण्डितगण संशोधन-कार्य करते हैं, वह हमें यथेष्ट ज्ञात थी और उसी पद्धति तथा दृष्टिसे हम बहुत समयसे अपना संशोधन-कार्य करते भी आते थे, केवल वहांके विद्वानोंका उत्साह और एकाप्रभाव विशेष अनुकरणीय मालुम हुआ। हमें जो खास अध्ययन करनेके विशेष विचार मालुम दिये, वे वहांके समाजवाद-विषयक थे। इन विचारोंका अध्ययन करते हुए हमारो जीवनाभ्यस्त जो संशोधन-रुचि है, वह शिथिल हो चली। समाज-जीवनके साथ सम्बन्ध रखनेवाली बातोंने मस्तिष्कमें अड्डा जमाना शुरू किया। इन बातोंका विशिष्ट अध्ययन करनेके लिये हमारी इच्छा वहांपर कुछ अधिक काल तक ठहरनेकी थी, लेकिन संयोगवश हमको जल्दी ही भारत लौट आना पड़ा। इधर आनेपर बाबूजीने इस संग्रहकी सर्वप्रथम ही याद दिलाई, लेकिन सत्याग्रहके नूतन युद्ध में जुड़ जानेके कारण और फिर जेलखाने जैसे एकान्तवासके अनुभवानन्दमें निमग्न हो जानेसे इन पुरानी बातोंका स्मरण करना भो कब अच्छा लगता था। एक तो योंही मस्तिष्कमें समाज-जीवनके विचारोंका आन्दोलन घुड़दौड़ कर रहा था, और उसमें फिर भारतकी इस नूतन राष्ट्रक्रान्तिके आंदोलनने सहचार किया। ऐसी स्थितिमें हमारे जैसे Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्य परिवर्तनशील प्रकृतिवाले और क्रान्तिमें हो जीवनका विकाश अनुभव करनेवाले मनुष्यके मनमें वर्षों तक पुराने विचारोंका संग्रह कर रखना, और फिर जब चाहें तब उन्हें अपने सम्मुख एकदम उपस्थित हो जानेकी आदत बनाये रखना दुःसाध्य-सा है। जेलमुक्ति होनेपर विधाता हमें शान्तिनिकेतन खींच लाया। विश्वभारतीके ज्ञानमय वातावरणने हमारे मनको फिर ज्ञानोपासनाकी तरफ खींचना शुरू किया और हमारी जो स्वाभाविक संशोधन-रुचि थी, उसको फिर सतेज बनाया। वर्षोंसे हमने २४ ऐतिहासिक ग्रन्थोंके सम्पादन और संशोधनका संकल्प कर रखा था और उसका कुछ काम हो भी चुका था, इसलिये रह-रहकर यह तो मनमें आया ही करता था कि यदि इस संकल्पके पूरा करनेका कोई मनःपूत साधन सम्पन्न हो जाय, तो एक बार इसको पूरा कर लेना अच्छा है। बाबू श्री बहादुरसिंहजी सिंघीके उत्साह, औदार्य, सौजन्य और सौहार्दने हमारे इस संकल्पको एकदम मूर्तिमन्त बना दिया और हम जो सोचते थे, उससे भी कहीं अधिक मनःपूत साधनकी संप्राप्ति देखकर परिणाममें हमने सिंधी जैन ज्ञानपीठ और सिंघी जैन ग्रन्थमाला का भार उठाना स्वीकार किया। जबसे हम यहां आये, तभीसे इस संग्रहके लिये श्री नाहरजीका बराबर स्मरण दिलाना चालू रहा। हम भी आज लिखते हैं, कल लिखते हैं, ऐसा जवाब देकर उन्हें आशा दिलाते रहते थे। बहुत समय बीत जानेके कारण इस विषयमें जो कुछ हमारे पुराने विचार थे और जो कुछ हमने लिखना सोचा था, वह स्मृति-पटपर से अस्पष्ट हो गया। जिन प्रतियोंपरसे यह संग्रह मुद्रित हुआ था, वे भो पासमें नहीं रहनेसे, इस विषयमें क्या लिखें, कुछ सूझ नहीं पड़ती थी । विज्ञप्ति त्रिवेणि', 'कृपारस कोष', 'शत्रुजय तीर्थोद्धार प्रबन्ध इत्यादि पुस्तकोंके प्रणयनके बाद हमारा हिन्दी-लेखन प्रायः बन्द-सा ही है। पिछले कई वर्षोंसे निरन्तर गुजराती भाषा ही में चिन्तन, मनन, लेखन, और वाग्व्यवहार चलते रहनेसे हिन्दी-भाषाका एक तरहसे परिचय ही छूट गया, इस कारणसे कुछ हिन्दी लिखनेका ठोक-ठीक चित्तैकाम्य न हो पाता था, लेकिन इन दिनोंमें हमारा साहित्य-संग्रह हमारे पास पहुंच गया और वर्षोंसे संदूकोंमें बंद पड़े हुए पुराने कागज़ों और टिप्पणोंको उथल पुथल करते हुए इस विषयके कुछ साधन भी हाथमें आ गये, जिससे ये पंक्तियां लिखनेका मनमें कुछ विचार हो आया। बस यही इस संग्रहके बारेमें हमारा किश्चित् वक्तव्य है। ___ श्वेताम्बर जैन संघ जिस स्वरूपमें आज विद्यमान है, उस स्वरूपके निर्माणमें खतरतरगच्छके आचार्य, यति और श्रावक-समूहका बहुत बड़ा हिस्सा है। एक तपागच्छको छोड़कर दूसरा और कोई गच्छ इसके गौरवकी बराबरी नहीं कर सकता। कई बातोंमें तपागच्छसे भी इस गच्छका प्रभाव विशेष गौरवान्वित है। भारतके प्राचीन गौरखको अक्षुण्ण रखनेवालो राजपूतानेकी वीर भूमिका पिछले एक हजार वर्षका इतिहास ओसवाल जातिके शौर्य, औदार्य, बुद्धि-चातुर्य और वाणिज्य-व्यवसाय-कौशल आदि महद् गुणोंसे प्रदीप्त है और उन गुणोंका जो विकाश इस जातिमें इस प्रकार हुआ है, वह मुख्यतया खरतरगच्छके प्रभावान्वित मूल पुरुषोंके सदुपदेश तथा शुभाशीर्वादका फल है। इसलिये खरतरगच्छका उज्ज्वल इतिहास यह केवल जैन संघके इतिहासका ही एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण नहीं है, बल्कि समग्र राजपुतानेके इतिहासका एक विशिष्ट प्रकरण है। इस इतिहासके संकलनमें सहायभूत होनेवाली विपुल साधन-सामग्री इधर-उधर नष्ट हो रही है। जिस तरहको पट्टावलियां इस संग्रहमें संगृहीत हुई हैं, वैसी कई पट्टावलियां और प्रशस्तियां Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 1 ] संगृहीत की जा सकती हैं और उनसे विस्तृत और श्रृंखलाबद्ध इतिहास तैयार किया जा सकता है। यदि समय अनुकूल रहा, तो 'सिंघो जैन ग्रंथमाला' में एक-आध ऐसा बड़ा संग्रह जिज्ञासुओंको भविष्यमें देखनेको मिलेगा। बाबू श्री पूरणचंदजी नाहरने बड़ा परिश्रम और बहुत द्रव्य व्यय करके जैसलमेरके जैन शिलालेखोंका एक अपूर्व संग्रह प्रकाशित कर इस विषयमें विद्वानों और जिज्ञासुओंके सम्मुख एक सुन्दर आदर्श उपस्थित कर दिया है। इसके अवलोकनसे, राजपुतानेके जूने पुराने स्थानोंमें जैनोंके गौरवके कितने स्मारक-स्तंभ बने हुए हैं तथा उनसे हमारे देशके ज्वलन्त इतिहासकी कितनी विशाल-स्मृद्धि प्राप्त हो सकती है इसकी कुछ कल्पना आ सकती है। इस प्रथम प्रायः खरतरगच्छके ही इतिहासकी बहुत सामग्री संगृहीत है जो इस पट्टावलिवाले संग्रहकी बातोंको पुष्टि करती है तथा कई बातोंकी पूर्ति करती है। इन सब बातोंके दिग्दर्शनकी यह जगह नहीं है। ऐसे संग्रहोंके संकलन करनेमें कितना परिश्रम आवश्यक है वह इस विषयका विद्वान् ही जान सकता है विद्वानेव जानाति विद्वज्जनपरिश्रमः। जैसलमेरके लेखोंका ऐसा सुन्दर संग्रह प्रकाशित कर तथा इस पट्टावली संग्रहको भी प्रकट करवाकर श्रीमान् नाहरजीने खरतरगच्छकी अनमोल सेवा की है एतदर्थ आप अनेक धन्यवादके पात्र हैं। आपका इस प्रकार जो स्नेहपूर्ण अनुरोध हमसे न होता तो यह संग्रह योंही नष्ट हो जाता और इसके तैयार करने में जो कुछ हमने परिश्रम किया था वह अकारण ही निष्फल जाता अतः हम भी विशेष रूपसे आपके कृतज्ञ हैं। शान्तिनिकेतन सिंघी जैन ज्ञानपीठ जिनविजय पर्युषणा प्रथम दिन, सं० १९८७ ) Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय ॥ खरतरगच्छ-सूरिपरंपरा-प्रशस्तिः ॥ श्रियेऽस्तु वीरस्त्रिशलाङ्गजातः सेवागतानेकसुरेन्द्रजातः। ___ दुष्टाष्टकर्मक्षयबद्धकक्षस्तिरस्कृताशेषविपक्षलक्षः॥१॥ यदीयसन्तानभवा मुनीश्वराः कुर्वन्ति धर्म विमलं कलावपि । अद्यापि कालेज स पञ्चमेऽपि, श्रिये सुधर्मा गणभृद्वरोऽयम् ॥ २ ॥ येनाष्टौ नवबालिका नवनवस्नेहानुगा बन्धुराः सौवो नवकोटयो दशगुणास्त्यक्ता नवाधिक्यकाः । येन स्वेन कुटुम्बकेन सहितेनाग्राहि दीक्षा गुरोः सोऽयं केवलिपुङ्गवोऽप्यृषभभूर्जम्बूमुनिः पातु वः ॥ ३॥ चौरोऽपि प्रथितो विहाय सकलचौर्याद्यवयं सुधी रात्मीय परिगी कोणिकनृपाध्यक्षं तदागश्च यः। चौराणां शतपञ्चकेन कलितः प्रव्रज्य सर्वश्रुत ज्ञान्यासीत्प्रभवोऽथ सूरिमुकुटः सोऽस्तु श्रिये विद्विभुः॥४॥ श्रुत्वा साधुमुखाद्विनिर्गतवचोऽहो कष्टमित्यादिकं जैनीमूर्तिनिरीक्षणेन तरसा त्यक्त्वाध्वरं बन्धुरम् । संसाराद्विरतो व्रतं समाधिया चादाय सूरिपदं लेभे सार्थश्रुतज्ञतास्पदमसौ शय्यंभवः सोऽवतात् ॥५॥ यः स्वल्पायुर्ज्ञात्वा निजसुतमनकस्य चात्तचरणस्य । दशवैकालिकमकरोत् स्वल्पदिनानल्पसुखहेतुः ॥ ६॥ तं शय्यंभवसूरि प्रणमत भक्त्या गुणाजकासारम् । जिनशासनशृङ्गारं योगिमनःसरसिजे हंसम् ॥७॥ तत्पट्टभूषणमणिर्जयतु यशोभद्रसूरिधौरेयः। गुरुभक्तिशालिहृदयः सुखकारः संयमाधारः॥८॥ संभूतिविजयसूरिः सकलश्रुतकेवली जगद्विदितः। _ निखिलश्रीसूरिशिरस्तिलकसमो जयतु योगीशः॥९॥ प्राचीनगोत्रतिलको जिनशासनेऽस्मिन् मार्तण्डमण्डलवदद्भुतभास्करोऽयम् । दीप्तप्रकाशचरमश्रुतकेवलीशो जेजीयते य इह सूरिंगणावतंसः ॥१०॥ संघोपरोधवशतोऽखिलदुष्टकष्टविनापहारमुपसर्गहरं चकार । नियुक्तिकनिखिलसूत्रकदम्मकस्य या सोऽस्तु दुर्गतिहरो गुरुभद्रबाहुः ॥११॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ सूरिपरंपरा-प्रशस्तिः ॥ भूतो न कोऽपि न भविष्यति भूतलेऽस्मिन् श्रीस्थूलभद्रसदृशो मुनिपुङ्गवेषु । रागभुवनेऽपि जितो हि कामः पण्याङ्गनावरगृहे वसता निकामम् ॥१२॥ ताते स्वर्गं गतेऽपि क्षितिपतिमणिना नन्दभूपेन राज्यमुद्रामस्यार्प्यमाणामपि च विगणयन् मोक्षदुर्गस्य मुद्राम् । भोगान् भोगीशतुल्यान् परिणतिविषमाः पण्यनारीर्विचार्य त्यक्त्वैवं सर्वमेतद्वरचरणभरं यो दधार स्वदेहे ॥ १३ ॥ धन्यो हि सोऽपि जनकः शगडालमन्त्री लक्ष्मीच सा जनिकरी युवतीषु धन्या । वंशोऽपि धन्य इह नागरवाडवीयो यत्राजनिष्ट मुनिरेष मुनीन्द्रवन्द्यः || १४ || शिष्यौ च स्थूलभद्रस्य महागिरि - सुहस्तिनौ । दशपूर्वधरावेतौ प्रवीणौ पुण्यशालिनौ || १५॥ जिनकल्पतुलां विभ्रत्तयोरेको महामुनिः । द्वितीयसंप्रतिक्ष्माप - प्रतिबोधकरोऽभवत् ॥ १६ ॥ तस्योपदेशतोऽनेके विहाराः कारिता भुवि । तेन संप्रतिभूपेन यथा भूर्जिनमण्डिता ॥ १७॥ वज्रः प्रवचनाधारस्तत्पदानुक्रमादभूत् । सुनन्दाकुक्षिसंभूतो जातमात्रो विरागवान् ||१८|| पालन के स्वपन्नेकादशाप्यङ्गानि लीलया । योऽपठद्वालभावेऽपि साध्वीनां वसतौ स्थितः॥१९॥ प्रवर्धमानः क्रमशः शशाङ्कवत् ददत्प्रमोद सकलेऽपि सङ्घ । मातुर्विवादेऽपि गृहीतवाँघुरजोहृतिं वाचमभूषयत्पितुः ॥ २० ॥ अथेो गुरुः सिंहगिरिर्निजायुः पर्याप्तिमालोक्य पदं स्वकीयम् । भिन्नपञ्चद्विक- पूर्वधारिणे मुनीन्द्रवज्राय ददौ समाहितः ॥ २१ ॥ श्रीवज्रसूरिर्गुणलब्धिभूरिः कुर्वन् विहारं विविधेऽपि देशे । प्रोत्सर्पणां श्रीजिनशासनेऽस्मिन् नानाविधां प्रातनुत प्रभुर्यः ॥ २२ ॥ स्वयंवरे तां धनरत्नकोटिसमन्वितां श्रेष्ठितां त्यजन्तम् । अपि स्वरूपेण जितस्वरङ्गनां तं वज्रसूरिं प्रणमामि सादरम् || २३ || श्रीष्टिवादनाय गतेन मातुर्वाचा सुपूर्वनवकं च पपाठ सार्द्धम् । श्री आर्यरक्षित गुरुः समुदे शमाढ्यः संबोधिताखिलपरीवृतिरेष भूयात् ॥ २४ ॥ श्रीमदुल कादिपुष्पसुगुरू: श्री आर्यनन्दिप्रभुः tararaateer विजयी श्री रेवतीसूरिराद् । ब्रह्मद्वीपिगुरुः सदार्यसमितेः संप्राप्तदिक्षश्चिरं खण्डिल्लो हिमवान् गुरुर्विजयते नागार्जुनो वाचकः ॥ २५ ॥ गोविन्दाभिधवाचकं गुरुवरं संभूतिदिन्नाह्वयं श्रीहित्य मुनिं सदा प्रणिदधे श्रीपौष्य मुख्यं गणिम् । भाष्याद्येषु ( १ ) विधायक मुनिवरोमास्वातिसद्वाचकं वन्दे श्रीजिनभद्रसूरितिलकं नित्यं कृतप्राञ्जलिः || २६ ॥ त्रिखण्डमेदिनीराज्यं पालयन् सर्वतः प्रभुः । अवन्त्यां विक्रमादित्यः प्रबोध्य श्रावकी कृतः २७|| Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ-सूरिपरंपरा-प्रशस्तिः ॥ मिथ्यास्विसंगृहीतः प्राग महाकालजिनालयः। आत्मसाद्विहितो येन जिनशासनभास्वता॥२८॥ नव्यस्तोत्रप्रभावेण पार्थमातः प्रकाशिता । त्रिनेत्रपिण्डिकामध्यात् स्फटाटोपैविभूषिता ॥२९॥ श्रीवृद्धवादिसूरीन्द्र-पट्टपङ्कजभास्करम् । संतोष्टुवीमि ते भक्त्या सिद्धसेनदिवाकरम् ॥३०॥ -चतुर्भिःकलापकम् । पैर्याकिनीभगवतीवचनात्प्रबुद्धेस्त्यक्त्वाभिमानमखिलं जगृहे चरित्रम् । यैः सोगता विधिषलेन वधोपनीतास्ते सागसोऽपि यतिनीवचनाच्च मुक्ताः॥३१॥ तद्वयापत्तेः समीहोद्भवदुरितभिदे खाब्धिवेदेन्दुसंख्या जैना ग्रन्थाः कृताः स्युर्घनतिमिरभिदो नव्यगाथाप्रबंधैः । यैरप्यात्मीयशिष्यव्यपगमनभवदुःखतापामृतौघ थके ग्रन्थो रसालो धुरिकृतललितो विस्तराख्यो नवीनः ॥३२॥ ते हरिभद्रमुनीन्द्रा निस्तन्द्राश्चन्द्रकिरणसंकाशाः। ____ श्री आवश्यकलघुगुरुविवृतिकराः संघजयकाराः॥३॥-त्रिभिः कुलकम् । . वन्देऽहं देवसूरीशं नेमिचन्द्रगुरुत्तमम् । नमः सुविहितायाथ श्रीउद्योतनसूरये ॥३४॥ तत्पट्टदेवाचलकल्पवृक्षा भव्याङ्गिनां कल्पितदानदक्षाः। - सूरीश्वरास्ते सुमनोभिरामा श्रीवर्धमाना गुरवो विरामाः ॥ ३५ ॥ ये अर्बुदाद्रावृषभेश्वरस्य मणीमयीमूर्तिमतिप्रभावाम् । प्रकाशयामासुरथोरगेन्द्रासंप्राप्तसाम्नायकसूरिमन्त्राः ।। ३६ ॥ तत्पद्वपकेरुहराजहंसा जैनेश्वरा सूरिशिरोवतंसाः। . जयन्तु ते ये जिनशैवशासनश्रुतप्रविणा भववासमक्षिपन् ॥ ३७॥ श्री पत्तने दुर्लभराजराज्ये विजित्य वादे मठवासिसूरीन् । वर्षेऽब्धिपक्षानंशशिप्रमाणे लेभेऽपि यैः खरतरो बिरुद्दयुग्मं (१)॥३८॥ संवेगरङ्गशाला विहिता प्रस्तावकुसुमवरमाला । तं जिनचन्द्रमुनीन्द्रं नमत जनानन्दाक्षितिचन्द्रम् ॥ ३९ ।। वृत्तिश्चक्रे नवाझ्या ललितपदयुता देवतादेशतो यै नव्यस्तोत्रेण येषां प्रकटतनुरभूद भूमितो दिव्यरूपी । पार्श्वः स्फूर्जत्फणालः कलिमलमथनः स्तम्भनाधीश्वरोऽय मस्य स्नात्रांबुसेकाद्विगतगदतनौ दिव्यरूपं यदीयम् ॥ ४०॥ सानिध्यकारा सकलातिहारिणी पद्मावती यत्पदपङ्कजे श्रिता । ते पूज्यराजाभयदेवसूरयो यच्छन्तु संघे सकलार्थसम्पदम् ॥४१॥ मृदुपक्षीयसूरेः प्राशिष्यः कच्चोलवर्षिणः। जिनवल्लभनामाभूद्विरागी कर्मभेदतः ॥४२॥ तस्याभयगुरोः पार्थादुपसंपत्ततोऽभवत् । जिनवल्लभशिष्योऽथ सर्वसिद्धान्तपारगः॥४३॥ . क्रमशोऽभयसूरीणां पट्टकन्दरकेसरी । जिनवल्लभसूरीन्द्रो द्रव्यलिङ्गगजाईनः ॥ ४४ ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । खरतरगच्छ सूरिपरंपरा प्रशस्तिः ।। दुर्गे यैचित्रकूटे विकटभृकुटिका चण्डिका प्रत्यबोधि, नहे मानोन्नतश्रीकरणसदभरः सत्यवाग वैभवेनः । प्रागनिस्स्वो यत्प्रसादाद् धनपतिरभवत्सोऽपि सद्वारणो वै चके तेनापि जैने जिनगृहकरणायुम्नतिः शासनेऽस्मिन् ॥ ४५ ॥ पिण्डविशुद्धिप्रकरण-कर्मग्रन्थाद्यनेकशास्त्रकृते। तस्मै श्रीजिनवल्लभगुरवे सततं नमस्कुर्वे ॥ ४६ ॥ तत्पद्वे मेरुशृङ्गे सुरतरुसदृशो जैनदत्तो मुनीन्द्रो दुर्गे श्रीचित्रकूटे प्रहरसशशभृञ्चन्द्रसंख्ये हि वर्षे । भूतप्रेताः पिशाचा ग्रहगणनिवहा कुग्रहास्ते गृहीता येनासाध्येष (?) मन्त्रप्रवलबलतया योगिनीचक्रवालम् ॥४७॥ यत्पूर्व चै [व] पट्टे विनिहितमभवद् केनचिदैवतेन तस्मात्प्राकाशि मन्त्रैस्तदपि हि गुरुणा पुस्तकं मन्त्रगर्भम् । येनाथो विक्रमाख्ये विपुलपुरवरेऽवारि मारिः प्रबोध्य __ लोका माहेश्वरीयास्तदपि हि गुरुणा स्थापिता जैनधर्मे ॥४८॥ तस्मिन्नेव पुरेऽक्षसप्तगुणितं साधुव्रतिन्योः पृथग् एकस्यामपि दीक्षितं समभुवन्नन्या क्षणात्सो प्यथ । सिन्धोर्मण्डलमाससाद च गुरुः पूर्णेन्दुवत्साधुभिः __संसेव्यो जनचक्रवाकनयनानन्दं ददत् शुद्धधीः ॥४९॥ तत्र श्रीसोमराजः सुरपतिसदृशो यत्पदाम्भोजभृङ्ग__ स्तुष्टस्तस्मै स दत्ते प्रवरमिति वरं ग्रामदेशे पुरऽपि । श्राद्धः श्रीमाँस्त्वदीयो नरपतिसदृशः सत्प्रधानो गुरुर्वा भाव्यैकैकः स एष प्रकटतरमिहाद्यापि जागर्ति गच्छे ॥५०॥ यो योगीन्द्रनिषेवितक्रमयुगः प्राचीनपुण्योदया देवोक्तेश्च युगप्रधानपदवी प्राप्तो जगद्विश्रुताम् । यस्योपान्तमुपासते सुरगणा दासा इवाहर्निशं कल्पद्रुर्मरुमण्डले स जयति श्रीजैनदत्तो गुरुः ॥५१॥ तेषां नामग्रहणाद्विपत्तितां यान्ति सकलविपदोऽपि । ___ अहिदष्टमृत्य्वभावो विद्युदपातो भवेद् भविनाम् ॥ ५२ ॥ विस्फुरति कान्तिरतुला सुकला देहेऽपि मान्दरे सकला।। कमला विस्मयजननी वदने वाणी सुधोगिरणी ॥ ५३ ॥ श्रीअजयमेरुदुर्गे स्वर्गे गमनं च जातामिव येषाम् । स्तूपं तिलकसुरूयं प्राचीदिक्तरुणीभालतले ॥ ५४ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ सूरिपरंपरा-प्रशस्तिः || तत्रैव काले स्वथ निर्गतो गणः श्रीरुद्रपल्ल्यां जिनशेखरस्य हि । श्रीरुद्रपल्लीय इति प्रसिद्धो ग्रहतु चन्द्रेन्दुभिते च वर्षे ॥ ५५ ॥ वर्षे बाणखपक्षचन्द्रसुमिते श्रीविक्रमाख्ये पुरे यस्योदारमहोत्सवः समभवत् पट्टाभिषेकक्षणे । चचचन्द्रनिभाननो नरमणी भालो विशालो गुणैः सोऽयं श्रीजिनचन्द्रसूरितिलको जीयान्मनोऽभीष्टदः ॥ ५६ ॥ योगिस्तंभितविम्बमोचकतरस्तेषां पुनःस्थापक चैत्ये यः समभून्मृतेर्वशत यो त्तंभ्याशु तं योगिनम् । तोषात्तेन समर्पितामपि ललौ विद्यां न यः स्तंभिनी मुत्ष्टेित्यघनन सा क्षितौ विनिहिता तेन क्रुध्यस्वानिनी ( १ ) ॥ ६० ॥ गुरुणा पापमुक्तेन मुक्तो योगी गतोऽपि सः । सोऽयं जिनपतिः सूरिः सुरसूरिसमप्रभः ॥ ६१ ॥ जीयाचिरं चिरायुष्कः षट्त्रिंशद्गुणशेवधिः । षट्त्रिंशद्वादजेता च विधिमार्गनभोमणिः॥६२॥ श्रीजावालपुरे महोत्सवयुतो वस्वर्षिपक्षैणभृत माने वर्ष इलातले समभवत्पट्टाभिषेको महान् । श्रीजैनेश्वरसूरिराजमुकुट वागूनिर्जितो स्वर्गुरोः श्री भांडा रिकनेमिचन्द्रतनयः स पातु वो वाञ्छितम् ।। ६३ ।। श्री महाद्वारकाख्येऽखिलनगरवरे थानिपक्षद्वयेन्दुसंख्ये वर्षे विशालद्रविणवितरणे श्रावकैर्दीयमाने । पूज्यैर्विज्ञाय योग्यं स्वपदमलमचीकारि यः शैशवेऽपि तं श्रीमत्सूरिराजं जिनपतिसुगुरुं संस्तुवे पूज्यपादम् ॥ ५७ ॥ प्रतिष्ठासमयेऽन्येद्युर्योग्येकस्तत्र चागतः । प्रतिष्ठितानि विम्बानि स्तंभयामास विद्यया ॥ ५८॥ अत्रान्तरे सूरिगुणानभिज्ञा महत्तरोवाच स नर्मवाचम् । बालेन चन्द्रेण तु चन्द्रमा कति विभो प्रकाश कुरुषे कथं नहि ॥ ५९ ॥ [ इति महत्तरावचनेन गुरुरमर्षतां प्राप । ] शिखिशिखिलोचनश शिमित वर्षे जिनसिंहसूरिराजगुरोः । लघुखरतरीयगणो जातो जावालपुरनगरे ॥ ६४ ॥ चन्द्राग्निनयनशशिमितवर्षे जावालपुरमहादुर्गे । जैनगुरोरभवत्पट्टोत्सव रम्यः ।। ६५ ।। शशिवेदनयनशशिमितवर्षे जिनचन्द्रसूरिराजस्य । श्रीमज्जावालपुरेऽजनिष्ट पट्टाभिषेकमहः ।। ६६ ।। मुनिमुनिनयनैणांप्रमाणे हि वर्षे विपुलधनसमृद्धे पत्तनाख्ये पुरेऽस्मिन् । पदमहमहिमोच्चैर्विस्तृता यस्य शस्या स जिनकुशल सूरिर्भूरिसौभाग्यकारी॥६७॥ विमलगिरिवरेऽस्मिन् यस्य शश्योपदेशाद् घनतरधनकोट्या मानतुङ्गो विहारः । खरतरवसतेर्यः सुप्रतिष्ठा करोऽभूदपहतदुरितौघः प्राणिनां सर्वकालम् ॥ ६८ ॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ सूरिपरंपरा प्रशस्तिः ।। रंगतरंगा सदने तुरंगा विशालनेत्रा युवती सरंगा । __ वाणीतरंगा वदने रसाला यस्य प्रसादाकिल संभवन्ति ॥ ६९ ॥ देवराजपुरे यस्य स्वर्गतस्य गुरोरथ । पूज्यमानं जनैः स्तूपं ददाति सकलं सुखम् ॥ ७० ॥ तद्यथा-निर्धनाय धनं दद्यात् नेत्रहीनाय लोचनम् । विद्याहीनाय सद्विद्यामश्रोतृणां च सुश्रुतिम् ॥७१॥ राज्यार्थिनां च यद्राज्यं सुखं सुखार्थिनामपि । प्रयच्छत्युत्तमं भोगंभोगार्थिभ्यो विशेषतः॥७२॥ कुष्ठिनां हरते कुष्ठ रोग रोगवतामपि । कष्टं कष्टवतां पुंसां दौर्भाग्यं दुर्भगात्मनाम् ॥७३॥ --चतुर्भिः कलापकम् । शून्यं ग्रहामीदुमितेऽत्र वत्सरे श्रीदेवराजाख्यपुरे पदोत्सवः । जज्ञे च यस्याविरभूत्सरस्वती श्रिये स वः श्रीजिनपद्मसूरिराद् ॥७४ ॥ खखवेदचन्द्रमाने वर्षे पट्टाभिषचनं यस्य । गुणलब्धिरत्नजलधि याजिनलब्धिसूरिगुरुः ॥७५ ॥ पच्छून्यवेदेन्दुमिते हि वर्षे पट्टोत्सवो जेसलमेरुदुर्गे । __ यस्याभवद् द्रव्यधनव्ययेन सोऽस्तु श्रिये श्रीजिनचन्द्रसूरिः ॥७६ ॥ घाणेन्दुवेदशशिभृत्प्रमिते च वर्षे श्रीस्तंभतीर्थनगरे समभूद् यदीयः।। पट्टाभिषेकमहिमा गरिमालयोऽसौ जेजीयते गुरुजिनोदयसूरिराजः ॥ ७७ ॥ श्रीजिनेश्वरसूरीणां तदैव निर्गतो गणः । वैकट इति नानासीद्विश्रुतोऽयं महीतले ।। ७८ ॥ नेत्राक्षिनीरनिधिचन्द्रमिते च वर्षे श्रीपत्तने पुरवरे पदमाविरासीत् । ___ श्रीमज्जिनोदयगुरोः पदपङ्कजालीभृङ्गायितं नमत तं जिनराजसूरिम् ॥७९॥ तत्पट्टनन्दनवने विभाति जिनभद्रसूरिसुरफलदः। सकलमनोमतदाता शतशाखावर्धितो बाढम् ॥ ८०॥ अत्रान्तरे देवकुलादिपाटके चन्द्रर्तुवेदेन्दुमिते च वत्सरे । शाखा गुरुश्रीजिनवधनानां शुक्राद्यपक्षे दशमीदिनेऽभूत् ॥ ८१॥ बाणर्षिवेदेन्दुमिते च वर्षे माघस्य राकादिवसेऽजनिष्ट । पट्टोत्सवो भाणसपल्लिकायां ननौमि तं श्रीजिनभद्रसूरिम् ॥ ८२ ॥ गुरोः श्रीजिनभद्रस्य महिमा वर्ण्यते कियान्। यद्भाले भासते भाग्यलक्ष्मीविस्मयकारिणी॥८३॥ वामेतरे यत्करपङ्कजेऽस्मिन् चेक्रीयते सिद्धिरमामुकेलिम् । विहारनीरोर्मय एव येषां संपत्तिशस्यानि समेधयन्ति ॥ ८४ ॥ दारियं क्षीयते येषां सौम्यदृष्टिविलोकनात् । चन्द्रोदयाद्यथापैति संकोचः कुमुदाकरे ॥८५॥ तत्पशकासनेइवराजो विराजते श्रीजिनचन्द्रसूरिः।। श्रीपत्तने यस्य पदोत्सवोऽभूदाणेन्दुबाणेन्दुमिते च वर्षे ॥८६॥ श्रीमजेसलमेरौ समराकारितविहारमध्येऽस्मिन् । जिनचन्द्रसूरिगुरुणा चक्रे बिम्बप्रतिष्ठा सा॥८७॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ-सूरिपरंपरा-प्रशस्तिः ।। तत्पट्टपङ्कजयुगे भ्रमरायमाणं ननम्यते जिनसमुद्रगुरुं तमेनम् । नेत्रेक्षणेषुशशभृत्प्रमिते च वर्षे पट्टोत्सवो विपुलपुञ्जपुरे यदीयः ८८ ॥ दाने वितीर्यमाणे प्रवरां चक्रिरे प्रतिष्ठां ये। वाग्भटमेरुविहारे सारेऽस्मिन् भूतले सुतराम् ॥ ८९ ॥ आदेशान्नृपसातलस्य मुदितो जाटाभिधः श्रीवरो रत्नाब्धीषुशशिप्रमाणशरदि प्रोद्भुतपुण्योत्सवे । श्रीमण्डूकवराभिधानविषयेऽप्यानीतवान् माधवे श्रीमज्जेसलमेरुतः पुरवरे योधानके श्रीगुरून् ।। ९०॥ करसरोरुहसिद्धिरमाधरान् सकललब्धिमहोदधिसुन्दरान् । __गुरुगुणावलिभूषितविग्रहान् जिनसमुद्रगुरून्नमतादमून् ॥९१॥ --चतुर्भिः कलापकम् ॥ तेषां पट्टाम्भोजलीलामरालाः सूरीशाः श्रीजैनहंसा रसालाः । ___ कामध्वंसे नीलकण्ठोपमाना जेजीयंतां निर्जिताशेषमानाः ॥९२ ॥ श्रीविक्रमाख्ये नगरे विशाले बाणेषुबाणेन्दुमितौ समायाम् । ज्येष्ठस्य शुक्ल नवमीदिनेऽथ वारे गुरौ चारु शुभे पि लग्ने ॥ ९३ ॥ श्रीकमसिंहेन कृतोद्यमेन धनव्ययात्प्रीणितसर्वलोकः।। येषां गुरूणां नतनागराणां पट्टोत्सवोऽकारि सुविस्तरोऽयम् ॥९४ ॥ अत्रान्तरे श्रीजिनदेवसूरेः श्रीआद्यपक्षीयगणो विभिन्नः । रेयाभिधाने नगरेऽजनिष्ट बाणर्तुबाणेन्दुमिते च वर्षे ॥९५॥ कर्वन्तः क्रमशो विहारमनघं देशेष्वनेकेष्वथ श्रीमेवातविशेषकेऽतिविपुले श्रीआकराख्ये पुरे । जग्मुस्तत्र शकन्दरो नरपतिस्तद्राज्यभारंधरौ श्रीमडूंगरपद्मसिंहसचिवो श्रीमालचूडामणी ॥ ९६॥ तौ स्वश्रीफलकाङ्क्षिणौ वितरणैरत्यद्भुताडम्बरै___ श्चक्राते नगरप्रवेशनमहं श्रीमद्गुरूणां मुदा । तेषां तत्रसतामथो गुणवतां प्राचीनकर्मोदयात् । कोऽप्येको प्रतिकसुट दुष्टमतिकः पश्यन् सदौतुथूलम् (?)॥९७॥ सोऽन्येयुः क्षणमाप्य पापहृदयः सप्ताष्टवारं कुधीः साहीनस्य पुरोरदासिमखिलां (?) चक्रे तदा तामथ । नो मन्येत नृपस्ततश्च किमपि प्रोद्भाव्य कूटाशयमेकः श्वेतपटो महानतिशयीहास्तीति संश्लाघते ॥ ९८ ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ-सूरिपरंपरा-प्रशस्तिः ।। तस्यैवं कथया तया हयपतिश्चित्ते स विस्मापितः किश्चित् प्रष्टुमतः स्वधाग्नि कुतुकात् सूरीभिनाय द्रुतम् । तत्पृष्टैर्गुरभिश्व सत्यवचनेषूक्तेषु रोषादसौ चिक्षेपांहियुगे तदा नयवतां जंजीरमेषां हहा ॥ ९९ ॥ तावत्तस्य हदि भ्रमे भवति नो स्वं चापरं वेत्त्यसा बुद्रावन्त्वथ पश्यति स्म भयदं किंचित्ततो चिन्तयन् । ज्ञातं सैष सिताम्बरः कलयतीतीहक्कलां तद्भिया ___ द्राग्भीतो गुरुमोक्षणाय नृपतिश्चादिक्षदारक्षकान् ॥ १० ॥ जीरापल्लिपुरीशपार्श्वकृपया प्राचीनपुण्योदया दहध्यानवशात्तदा जयजयारावे प्रवृत्ते सति । साधं दु:स्थितबन्दिपञ्चकशतैः श्रीसूरयो निर्ययुः श्रीराहोर्वदनात् शशाङ्कवदतः साहीनकारोदरात् ॥ १०१॥ अमन्दानन्दजांकूरा उदगच्छन्मनोवनौ । विवेकिश्राद्धलोकानामुद्दीप्तं जिनशासनम् ॥१०२॥ गीतनर्तनवादित्रमङ्गलध्वनिपूर्वकम् । वर्धापनं च सर्वत्र गुरूणां मोचनेऽजनि ॥१०३॥ युग्मं ते मेघराजकुलनन्दनकल्पवृक्षाः निःशेषजन्तुहृदभीप्सितदानदक्षाः। __ श्रीजैनहंसगुरवोऽनघसंघलोके यच्छन्त्वमी सकलसिद्धिमुदारबुद्धिम् ॥१०४॥ श्रीसूरयोऽप्यथ परंपरया विहारं कुर्वन्त एव नगरं वरपत्तनाख्यम् । प्राप्ताश्चिरण करवस्विषुचन्द्रसंख्ये वर्षे समाहितधियोजच ते स्वरापुः॥१०५॥ तेषां पट्टसरोजे श्रीजिनमाणिक्यसूरिगुरुहंसाः। विशदोभयपक्षधरा जयन्तु जगतीवराभरणाः ॥१०६॥ येषां पट्टमहोत्सवो जयजयारावः प्रवृत्तो महान् __ श्रीवालाहिकगोत्रभूषणमाणिः श्रीदेवरादकारितः। पक्षाब्देषुशशिप्रमाणशरदि श्रीपत्तनाख्ये पुरे । ___ माघस्योज्ज्वलपञ्चमीवरदिने स्वोपार्जितार्थव्ययात् ॥ १०७॥ तेऽमी राजकुलाङ्गजाः सुगुरवः सूरीश्वराः साम्प्रतं रनादेव्युदरांबुधौ शशधराः पुण्याब्जपाथोधराः । सौभाग्याद्भुतभालभाग्यतिलकात्पूर्वर्षिरेखांगताः नन्दन्त्वम्बरसंस्थिताश्चिरतरं यावद्रवीन्दुध्रुवाः ॥१०८॥ श्रीमज्जिनाज्ञाप्रतिपालकाय तीर्थकरैर्वन्द्यपदाम्बुजाय । संघाय भूयाच्छिवसाधकाय भद्रं जगज्जन्तुहिताय नित्यम् ॥१०९।। श्रीचन्द्रगच्छगगने जिनहंससूरिराज्ये कराष्टशरचन्द्रमितेऽथ वर्षे । चक्रे प्रशस्तिरिति बोधयशोर्थिनैषा किश्चिन्मया स्थविरसूरिपरंपरायाः ॥११०॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली ॥ [१] श्रीगौतमस्वामी गौरग्रामवासी वसुभूति- वज्रस्वामी दशपूर्वधरः । तच्छिष्यात् नागेंड, ब्राह्मण-पृथ्वीभार्या तयोः पुत्रः। गौतमगोत्रः। चंद्र, निवृति, विद्याधर; गच्छ ४ स्थापना । तस्य गृहस्थत्वे वर्ष ५०, छमस्थत्वे वर्ष ३०, कालिकाचार्यः । आर्यश्यामाऽपरनामा । ततः श्रीवीरनिर्वाणसमये केवलमासाद्य १२ वीरात् ४१३।। वर्षेः सिद्धः। एवं सर्वायुः ९२॥ गर्दभिल्लोच्छेदको कालिकाचार्यों वीरात् श्रीवीरपट्टे सुधर्मस्वामी। ५०० वर्षेः । अग्निवेश्यायनगोत्रः । कुलागसंन्निवसे । शान्तिसूरिः। धम्मिल्लपिता भदिला माता । तस्य ५० वर्षान्ते हरिभद्रसूरिः। याकिनीधर्मपुत्रो होमानीतदीक्षा, ४२ वर्ष छद्मस्थत्वं, ८ वर्षाणि केवलं, बौद्धप्रायश्चित्तार्थं १४४४ प्रकरणकर्ता वीरात सर्वायुः १००; श्रीवीरात् २० वर्षेः सिद्धः। ५८५ वर्षैः। तत्पट्टे श्रीजंबूस्वामी। संडिल्लसूरिः। काश्यपगोत्रः, श्रीराजगृहीनगरी, ऋषभ आर्यसमुद्रसूरिः। दत्तपिता, धारिणी माता, तयोः पुत्रत्वेन आर्यभंगुः । पंचमत् च्युत्वा समुत्पन्नः। ८ कन्या आर्यधर्मः ९९ कोटिकांचनत्यागी । गृहे वर्ष १६, व्रते आर्यभद्रः। २०, केवले ४४; एवं वर्ष ८० परमायुः। आर्यवयरादिः। पीरात् ६४ वर्षेः सिद्धः। दुर्वलिकापक्षः। ततः प्रभवः कात्यायनगोत्रः। देवविगणिक्षमाश्रमणः । सकलसिद्धान्तततः शय्यंभवः । वीरात् ९८ वर्षेः स्वर्गतः। त लेखनकृत् वलभ्यां वीरात् ९०० वर्षेः । श्रीयशोभद्रः। आर्यसंभूतविजयः। गोविंदवाचकः । भद्रबाहूस्वामी। उवसग्गहरंकर्तावीरात१७० उमास्वातिवाचकः । पशमरतिप्रकरणकृत । थूलिभद्रः । कोश्याप्रतिबोधकः २१४ वर्षेः । देविंदवाचकः । १४ पूर्वधरः। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः। सर्वभाष्यकर्ता ___ आर्यमहागिरिः। दशपूर्वधरो जिनकल्पतु- ९८० वर्षेः । लनाकृत् वीरात् २७०। शीलांगाचार्यः। प्रथमद्वितीयांगवृत्तिकर्ता । आर्यसुहस्तिः । अत्रांतरे सिद्धसेनप्रति- श्रीदेवसूरिः। बोधितो विक्रमादित्योऽजनि । श्रीनेमिचंद्रसूरिः। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-१॥ १. श्रीउद्योतनसूरिः। १२ कुलकप्रेषणेन दशसहस्रवागडी प्रति२.श्रीवर्धमानसूरिः। गाजणादि १३ पाति- बोधकः स्वक्रियागुणप्रबोधितचित्र कूटीयासाह-च्छत्रोद्दालक चंद्रावती-नगरी-स्थापक मुंडः । नास्य परपक्षीयस्य पदं देयमिति सर्वसंविमल दंडनायक निर्मापित श्रीविमलवसतौ घोक्त्या श्रीअभयदेवोक्तमेनं मुक्त्वा नान्यस्य ध्यानबलवीकृतः वालीनाहक्षेत्रपालप्रकटित ददामीति देवभद्राचार्योक्त्या च १२ वर्षाणि वज्रमय आदीश्वरमूर्तिस्थापकः षण्मासाना- पट्टे शन्ये पद मास ममायुरस्तीत्यगृह्णतोपि प्रदचाम्लैः प्रकीकृतधरणेन्द्रात् सूरिमंत्रशुद्धिकारी। तं संवत् ११६७ पदं । संवत् ११६८ चित्र ३.श्रीजिनेश्वरसूरिः। सरसापत्तनवासीविप्रः कूटे स्वर्गप्राप्तिः। शिरसि मच्छिकादर्शनात् प्रतिबुध्दो गृहीत- ७. श्रीजिनदत्तसूरिः। संवत् ११३२जन्म। दीक्षः पत्तनमागतः । तत्र सोमपुरोहितगेहे वाचकमंत्रीपिता। वाहडदे माता। संवत् ११४१ स्थितः । वेदऋचासत्यापनेन रंजयित्वा दीक्षा गृहीता, ११६९पाटि वैशाषवदि ६दिने। तत्साहाय्येनैव संवत् १०८० दुर्लभराजस- श्रीजिनदत्तसूरिः ज्योतिर्बली विक्रमपुरे मारिभायां ८४ मठपतीन् जित्वा प्राप्तखरतरविरुदः। निवर्तनद्वारा प्रबोधित ५०० शिष्य दीक्षक एक ४. संवेगरंगशालाप्रकरणकारी श्रीजिन- नंद्यां, उज्जयिन्यां महाकालप्रासादे स्तंभमध्याचंद्रसूरिः। अन्यदा श्रीजिनेश्वरसूरयः मालव- दौषधबलेन प्रथमानुयोगपुस्तकाकर्षकः । ६४ देशे धारापूर्या प्राप्ताः तत्र महाधनश्रेष्ठी-धन- योगिनी, ५२ वीर क्षेत्रपालादिसाधकः । ओसीदेवीपुत्रः अभयकुमाराख्यो देशनां श्रुत्वा प्रबु- यानगरे ओसवंशीय लक्ष श्रावकप्रतिबोधकः । दो दीक्षां जग्राह । क्रमेण अभयदेवसूरयो जाताः १५०० साधु, १००० साध्वीदीक्षकः । नागगीतार्थाः। देवश्राद्धाराद्धांबिकालिखित 'दासानुदासा इव' ५. अभयदेवाचार्यों बह्वाचाम्लकरणजात- एतत्काव्यवाचनात् ज्ञातयुगप्रधानपदः। श्रीकुष्ठरोगो धवलकेऽनशनप्रतिपत्तये आहूतासन्न- जिनदत्तसूरीणां सप्तवराः योगिनीभिः प्रदत्ता:संघो पि निशि शासनसुरी ज्ञापितस्य स्तंभनक- ग्रामे २ एकः श्रावको दीप्तिमान् भवति । १ । ग्रामे सेढीनदीतटस्थ पंपरापलाशाधः स्थित श्रावकाः प्रायेण निर्धना न भवन्ति । २। श्रास्वयंदुग्धकपिलाधेनुपयःसिच्यमान श्रीपार्श्व- वकस्य कुमरणं न भवति । ३। साव्या रितुस्य 'जयतिहुअग'द्वात्रिंशतावृत्तैः प्रकटीकारको याति । ४ । गुरुनाम्ना शाकिनी न प्रभवति गत कुष्ठो नवांगीवृत्यादि महाकृत्यकरणा- ।५। विद्युन्न पराभवति । ६। खरतर श्रा. दानीतगुर्वावलीमध्यनामा च। वको यो मूलताणे याति स पंच टंककान् ६.श्रीजिनवल्लभसूरिः । चत्यवासि सुवर्णक- लात्वा समायाति । ७। एते सप्तवराः । अथ चोलकवर्षि जिनचंद्रसूरिशिष्यो दशवकालिक- योगिनीभिः सप्तवराः श्रीगुरुपार्थात् मार्गिताःसूत्रवाचनाद्वैराग्यवान् स्वयं गुरुं पृष्ट्वा अभयदे- यः आचार्यों भवति स पंचनंदी साधयति । वसूरिमुपसंपन्नः। तदनु पिंडविशुद्धि-सार्ध- ।१ । सुरिमंत्र साधयति । २। सामान्यसाधुशतक-पडशातीत्यादिग्रंथकृत् लेखरूपलिखित- सिाहस्री जापं करोति । ३। श्राद्धा उभयकाल Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पहावली-१ ।। सप्त स्मरणगुणनं कुर्वन्ति । ४। श्राविका त्रिश- ११. श्रीजिनप्रबोधसूरिः। दुर्गपदप्रबोधग्रंथ तीप्रभतीः गुणति । ५। मासं प्रतिगृहे आचा- व्याख्याता सं० १३४१ स्वर्गः। म्लद्वयं करोति ।६। यती शक्त्या एकाशनं १२. श्रीजिनचंद्रसूरिः । छाजहडवंश्यः करोति।७। एते सप्त वराः योगिनीनां दत्ताः। शतवर्षायुः चतुर्नुपप्रबोधकः कलिकालकेवलीति दिल्ली १, उझेणी २, भरुअच्छि ३, अजमेरु ४, ए विरुदः। सं १३३६ जावालपुरे स्वर्गतः। ओठपीठ । तत्र गच्छेशेन नागंतव्यमिति वक्ता -तदानीं राजगच्छ इति ख्यातिः। च संवत् १२११ आसाढ सुदि ६ तिथी अजय- १३. श्रीजिनकुशलसूरिः। छाजहडगोत्र: मेरो स्वर्गगमनं । मरुदेशे समीयाणउग्रामः । मंत्रीजील्हागर जय-संवत् १२०५ रुद्रपल्ल्यां छद्मना सूरिपदं सीरीमाता । सं० १३३० जन्म, सं० १३४७ गृहीतं जिनशेखरेण ततो रुदेलियागणो जातः। दीक्षा, सं० १३७७ पाटणनगरे पाटः। शत्रु ८.श्रीजिनचंद्रः। नरमणिमंडितभाल|श्रीजि- जये २२ वर्षाणि यावत् प्रतिदिनभोजित श्राद्ध नदत्तसूरिभिः स्वहस्तेन पट्टे स्थापितः। पूर्वस्यां पंचशत भीमपल्ली जेसलमेरुकारित श्रीवीरपादशवर्षाणि स्थित्वा मुहतीयाण श्राद्ध प्रतिबो- र्श्वनाथप्रासाद सा० तेजपालपुत्र सा० धरणा, धकः । यश्च गौर्जरत्रायै आगच्छत् अंतरा आयात सा० कडूआ कारित खरतर-वसहीति नाम श्रीमाल मदनपाल श्रीचंदादि दिल्लीसंघम- प्रसिद्ध श्रीमानतुंगप्रतिष्ठाकारकः । उच्चाऽहाग्रहेण तत्र गच्छन् प्रतोल्यां रजोहरणपाताजा- ध्वनि मार्गितजलदाता सं० १३८९ देवराजतच्छलस्तत्रैव सं० १२२३ स्वर्गगामी । षोडी- पुरे स्वर्गतः ।। याक्षेत्रपालस्तत्स्तूपे अधिष्ठाता तन्मणिश्च यो- १४. श्रीजिनपद्मसूरिः। श्रीतरुणप्रभैरष्टमगिना गृहीतः । मदनपालेन गुरुमती अनशनं गृ- वर्षेपि दत्तसूरिपदो वाग्मटमेरौ गरिष्ठ श्रीहीतं । तुर्ये २ पट्टे श्रीजिनचंद्र सूरिनामस्थापनं। वीरचैत्यालोकजाताश्चर्यपृष्टविवेकसमुद्रोपाध्याय ९. श्रीजिनपत्तिसूरिः । प्राप्त १५ वर्ष पट्टो 'बूहाणंदा वसही वड्डी अंदरि किउं माणी' धब्बेरकपत्तने ३६ वादजेता माल्हगोत्रः । आ- इति वचनेन प्रगटितमूर्खभावः पत्तनसमीपवसानगरे श्रीमालहाजीप्रतिष्ठायां योगिस्तंभित- र्तिस्वरस्वतीनदीतीरे निशि प्रातर्मया संघप्रतिमायाः स्ववासक्षेपादुत्थापकः । तद्दीयमान- समक्षं कथं व्याख्याकर्तव्येति चिंतासमनंतरविद्याद्वयाऽग्राहकः तांबूलास्वादनात् । खरतर- मेव प्रत्यक्षीभूतसरस्वतीलब्धवरः 'अहंतो गच्छसूत्रधारः । परीक्षभंडारीनेमिचंद्रदत्तांबड- भगवंत इंद्रमहिताः' इति काव्यं निर्माय व्यापुत्रः। संव० १२७७ प्रल्हादनपुरे दिवं जगाम। ख्यानमकारि। बालधवलकूर्चालसरस्वतीविरुदः १०. श्रीजिनेश्वरसूरिः । भंडारीनेमिचंद- श्रीजिनपद्मसूरिप्रमुखसाधु १८ सर्वसंघोपि स्तंपुत्रः। सर्वदेवाचार्यतः प्राप्तसूरिपदः। सं० भतीर्थे मांये पतितः। तत्र चैत्ये पुरा श्राद्धी१३३१ स्वर्ययौ। भूत पुण्यवीरयक्षप्रतिमा केनचिच्छ्राद्धेन भाषितः ___-अत्रान्तरे श्रीजिनप्रभगुरु-श्रीजिनसिंहसूरे- लपनश्रीलंटक भक्षणे किं सुगम, न संघचिंता ? लघु-खरतरगणो जज्ञे । तेनोक्तं किंचित् साहाय्यं करोषि तदा सजीकरो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ मि, स्वं श्री अजितकायोत्सर्ग घटी ४५ निरंतरं अस्खलितं कुरु अन्यथा आगंतुं न शक्यते । तेन तथा प्रतिपन्ने अष्टापदे यत्वा प्रासादखालके उपविश्य तदा प्रस्तावे देवैः स्नानं प्रारब्धं वते केनचिन्मृन्मयं कलशं स्नात्रकरणाय गृहीतं स तस्य नालको भग्नः मुक्तश्च तेन तद्गृहीत्वा पुनः खालं प्रविशता कलशमुखं भग्नं तथाविधं समानीय श्राद्धस्य दत्तं श्राद्धेन हसितं ' जेहवउ बोष छ, तेहवउ बोषउ आण्यउ' तच्छंया सर्वेपि सज्जा जाताः तन्मध्यैकेन गणीशेन श्रीजयसागर पाठकानामिदं सर्वं प्रोक्तं तच्छागंध वार ६७ वस्त्रधौते पि न गतः ततः तच्चै त्यस्थ पुण्यवीरयक्षक्षेत्रपालाभ्यां अन्य स्त्री भुज्यते चैत्यमध्ये अन्यस्त्री अन्यपार्श्वे मुच्यते स्वामीया तस्य चपेटादिना मुखक्रादिकरणं संघविज्ञप्तेन श्रीविनयप्रभपाठकेन कीलिकया चैत्थे कीलितौ पुण्यवीरमूर्तिरद्यापि वर्तते । श्री जिन पद्मसूरिः सं १४०० रुत्रः प्राप्तः पत्तने । । || खरतरगच्छ पट्टावली १ ॥ गारः १५. श्रीजिनलब्धिसूरिः । नवलखाशाखाग़रः सैद्धान्तिकोऽवधानपूरको नागपुरे स्वर्ययौ १६. श्रीजिनचंद्रसूरिः । उद्यतविहारी स्तंभतीर्थे सं० १४१४ स्वर्गतः । । १७. श्रीजिनोदय पूरिः। माल्हूसा०रूदपालधारलदेपुत्रः । समरनामा | प्रल्हादनपुरतो यज्ञयात्रांकृत्वा भीमपल्लयां कील्हूभगिन्या सह गृहीतदक्षः | सोमप्रभनामा । तरुणप्रभाचार्यतः प्राप्तपदः । पंचतिथिकृतोपवासः । २८ साधुभिः कृतसर्वदेशविहारः । क्रमेण शिष्यशिष्यणीसंघपतिबाहुल्यकृत् कृताऽनेकपदस्थः सलषणपुरे १२ ग्रामामारिघोषणाकारि । सुरत्राण सनाषत देसलहरा सारंगस्पर्धया शत्रुंजये यात्राकारी मह द्वर्था सा. कोचरश्राद्धकृतप्रवेशोत्सवः पत्तने जागा आसाधीर स्तंभतीर्थे सा० कर्मसीगृहस्थित हस्तिशालः । पत्तने सं० १४३२ स्त्रः प्राप्तः १८. तदानीं सतीर्थ्यो मानिताप्तपदो पि मं० वेगडभ्राताधर्मवल्लभसहजज्ञानगणी सा० उदयकरणवचसा उत्कटतया परित्यक्तः, स्थापितश्च - लोकहिताचार्यः श्रीजिनोदयैः । ततो मंत्रादिशक्तिमान् सरस्वतीपत्तनं गत्वा रुदेली - यागणेशपार्श्वे प्राप्तमंत्रो जिनेश्वरनामा सं० १४२२ जज्ञे । यतो वेगडागच्छः । १९. श्रीजिनराजसूरिः । मुखाधीत ३६ सहस्रन्यायग्रन्थः । स्वर्णप्रभाचार्य १, भुवनरत्ना - चार्य २, सागरचंद्राचार्य ३ स्थापकः, सं० १४६१ देवलवाटके स्वर्गगतः । सं० १४६१ देवलवाटके सा० नाल्हाकारित नद्यां सागरचंद्राचार्य स्थापितेभ्यः कृतप्राच्यादि देशविहारेभ्यः संघगणोन्नतिकारिभ्यो जैसलमैरो उत्थापित क्षेत्रपालदर्शित तुर्यव्रतशंकया तैरेव पृथक्कृतेभ्यः श्रीजिनवर्धन मूरिभ्यः पीपलयागणो जातः । ततश्च वा०शीलचंद्रगणिपार्श्वे पठितानेकश्रुता भाणशोलियाग्रामे सा० नाल्हाकारितनंद्यां सागरचंद्राचार्यैरेव स्थापिताः आबूगिरिनारजेसलमेर्वादिषु प्रासादोपदेशकाः भावप्रभ - कीर्तिरत्नाचार्यादि स्थापकाः भांडागारादि लेखकाः श्रीजिनभद्रसूरयः कुंभलमेरौ सं० १५१४ स्त्रः प्राप्ताः । २०. श्रीजिनचंद्रसूरयः । चम्मगोत्रीयाः । पत्तने सा० समरसिंह करितनंद्यां श्रीकीतिरत्नाचार्यैः स्थापिताः । अर्बुदाचले नवकणपार्श्वप्रतिष्ठापकाः । श्रीधर्मरत्न- श्रीगुणरत्नाचार्यादिमहाप कर्तारः कर्मग्रन्थवेत्तारश्च । ५० . Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-१॥ वर्षसर्वायुषः । स्वयंज्ञातावसाना जैसलमेरौ आचार्यायाः । ततो बहुकालं स्वगच्छं प्रभाव्य सप्रभावस्तूपा अभुवन् सं० १५३७। वर्ष ५७ सर्वायुषः श्रीपत्तने सं० १५८२ साव- - २१. श्रीजिनसमुद्रसूरयः। परीक्षगोत्रे धाना एव स्वर्ययुः। वाग्भटमेगै देका-देवलदेसुताः। पुंजपुरे मंडपतः २३. तत्पट्टे श्रीजिनमाणिक्यसूरयः। चोप- - समागतः। मउठीया श्रीमालसोनपालकारित- डागोत्रे सं. राउलरयणादे तनयाः तरेवे(?) सं० नद्यां श्रीजिनचंद्रसूरिस्थापिताः। साधितपंच- १५८२ स्वहस्त कमल स्थापिता बलाहीदेवरानदिसोमरादियक्षाः। महाचारित्रिणोऽहम्मदा- जेन कृतसविस्तरनंदीमहसः । कृतगुर्जराधनेवादे सं० १५५५ स्वर्ग ययुः। कदेशविहाराः संस्थापितानेकोपाध्यायवाचना२२. तपट्टे श्रीजिनहंससूरयः। संघवी- चायवराः । सातिशयाः। ध्यानबलेन जेसलमेघराज भार्या महिगलदे नंदनाः। श्रीजेसल- मेर्वागतमुद्गलसैन्योपद्रवनिवारकाः । क्रमेण मेरौ गृहीतदीक्षाः। तदनुक्रमेण सं० १५५६ देवराजपुरस्थ श्रीजिनकुशल सूरियात्रां विधाय ज्येष्ठसुदि ९ रवी श्रीविक्रमयुरे मंत्रीश्वरकर्म- परावर्तमाना देवराजपुरात् पंचविंशति क्रोशे सिंहप्रेषिताः कारणवशतः श्रीराजधान्यास्तत्र- स्वयं दर्शितस्वोपद्रवाः कृतानशनाः तत्रैव सं० प्रभूताः पीरोजालक्ष १ व्ययनिर्मितमहावि- १६१२ वर्षे आषाढसुदि ५ स्वर्गलोकं प्राप्ताः। स्तरनंधां श्रीशांतिसागराचार्यदत्तसूरिमंत्रास्तदा २४. तत्पद्वे श्रीजिनचंद्रसूरयः । रीहडगोने नीमकालजलदवर्षणसंतुष्टसर्वलोकेभ्यः प्राप्त- सा. सिरिवन्त सिरियादे सुताः। सं० १५९५ श्लाघाः । पूर्व वा. धर्मरंगाभिधाः श्री- जन्म । सं० १६०४ दीक्षा। सं० १६१२ वर्षे जिनहंससूरयस्ते चाऽन्यदा आगरातो भ्रातृ- भाद्रपद ९ दिने गुरुवारे श्रीजेसलमेरुनगरे वेगराज पोमदत्तालंकृता सं० डूंगरसीप्रहिता राउल श्रीमालदेकृत महोत्सवे भट्टारक श्रीकारणेन विहरंतःप्राप्ता आगरास्थाने।तत्र चतेन जिनचंद्रसूरिः स्थापितः । सं० १६१३ वर्षे संमुखानीताऽनेकसिंधुरसर्वसंघमालिक -उंबराव- श्रीविक्रमनगरे चैत्रमासे सप्तमीदिने क्रियोवाद्यमाननिःस्वनाद्यातोद्यादिविस्तारपूर्व प्रवे. द्धारः कृतः। तेषां त्वेतेऽवदाताः श्रीफलुद्यां ताशोत्सवे कृते पिशुनकृतविकृत्या पातिसाहि- द्य-चैत्यतालकोद्घाटकृत, पुनःसं० १६४३वर्षे शकंदराऽऽदेशतो धवलपुरे ३६ मासान रोधेन ताद्य-धर्मसागरकृतग्रंथच्छेदकृत, श्रीअकबरराक्षता अपि स्वध्यानबलेन समागतक्षेत्रपा- साहिप्रतिबोधकारी, तत् साहिवचसा युगप्रधालश्रीजेसलमेर्वीय संभवनाथाधिष्टायककृतसा- नपदधारी, सं० १६५२ वर्षे नानगानीकृत हाय्याः तेनैव स्वयं ५०० बंदिजनैः सह महोत्सवेन पंचनदीनां साधकः । सिंधु१, वयष मुक्ताः स्थापितानेकपाठकवाचनाचार्याः प्र- २, वनाह ३, रावी ४, घारउ ५, इति पंच तिष्ठात्रयकर्तारः । तदवसरे सं० १५६६ नद्यः; तथा स्तंभतीर्थे वर्ष यावत् मीनरक्षाकृत ; वर्षे पेनापि हेतुनाऽहूतैर्गीतार्थशिरोमणिभिरपि श्रीज्येष्ठपर्वणि सर्वत्राष्ट दिनानि यावदमारि श्रीशांतिसागराचार्यैरेव स्थापिताः स्वशिष्याः प्रवर्तकः; श्रीशत्रुजयादि तीर्थेषु चैत्यप्रतिमा श्रीजिनदेवसूरयः । तद्गच्छः पृथग जज्ञे बडा- प्रतिष्ठाकृत् ; श्रीविक्रमपुरे ऋषभविबादिप्रभूत Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ बिंब प्रतिष्ठा कृत्, श्रीसाहिसलेमराज्ये ताद्यकृत् श्री जिनशासनमालिन्यतः श्रीसाधुविहारो निषि - दुः साहिना तत्रावसरे श्रीउग्रसेनपुरे गत्वा साहि प्रतिबोध्य च साधूनां विहारः स्थिरीकृतः । तदा लब्धसवाई युगप्रधान वडागुरुरितिविरुदो येन गुरुणा । एवमवदाता भूयांसः संति सुप्रसिद्धाः । तेषां निर्वाणं श्रीबालाडापुरे सं० १६७० वर्षे आसूवदि २ दिने स्तूपस्थापना । तस्य वारके श्रीसागरचंद्रसूरि संताने अनुक्रमेण भावसूर निर्गता इति । २५. तत्पट्टे श्रीजिनसिंह सूरिः । चोपडा गोत्री ॥ खरतरगच्छ पट्टावली - १ ॥ कोटिद्रव्यव्ययेन मंत्रिराज श्री कर्मचंद्रेण कृतनंदी महोत्सवः श्रीलाभपुरे । तन्निर्वाणं तु श्रीमदतटे सं० १६७४ वर्षे पोसवदि १३ दिने । २६. तत्पट्टे गुरुश्रीजिनराजसूरिः । सं. १६७४ वर्षे फागुणसुदि ७ दिने संघपति श्री आसकर्णेन कृतनंदीमहोत्सवः । तस्मिन्नेव दिने श्री जिनसागरसूरीणामाचार्यपदस्थापनेति । कीयत् काले निर्वासिताः । श्रीमञ्जिनराजसूरिः । २७. तस्य पट्टे श्रीजिनरत्नसूरिः । श्रीजिनरनसूरिवार के श्रीरंगविजयो निर्वासितः । २८. श्रीजिनचंद्रसूरिश्चिरं जीयात् ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली ॥ [ २ ] प्रणिपत्य जगन्नाथं वर्धमानं जिनोत्तमम् । गुरूणां नामधेयानि लिख्यन्ते स्वविशुद्धये ॥ १. इह तावत् त्रिभुवनजनोपकर्ता, सकलपापसंतापहर्ता, परमशिवंकरः, चरमतीर्थंकरः, पञ्चमगतिगामी श्रीमहावीरस्वामी संजातः । स च इक्ष्वाकुकुलसमुद्भवः, काश्यपगोत्रीयः, क्षत्रियकुण्डग्रामनगराधीश्वरः, सिद्धार्थस्य राज्ञः त्रिशलाराश्याश्च पुत्रः, चैत्र शु० दि० त्रयोदश्यां जातजन्मा । तस्य महावीरस्य चतुर्दशसहस्रप्रामिताः साधवः, षट्त्रिंशत्सहस्रप्रमिताः साध्व्यः, एकोनषष्टि ( ५९ ) सहस्राधिकैकलक्षप्रमाणाः श्रावकाः, अष्टादशसहस्राधिकलक्षत्रयप्रमाणाः श्राविकाश्च बभूवुः । तथा पुनर्नव गच्छाः, एकादश गणधराः संजाताः । स भगवान् त्रिंशद् वर्षाणि यावत् गृहवासे स्थित्वा, एकपक्षाधिकानि सार्धद्वादश ( १२ ) वर्षाणि छद्मस्थपर्यायम्, पक्षाधिकषण्मासन्यूनानि त्रिंशद् वर्षाणि केवलिपर्यायं च प्रपाल्य - सर्वायुर्द्विसप्तति ( ७२ ) वर्षाणि पूरयित्वा चतुर्थारकस्य त्रिषु वर्षेषु सार्धाष्टमासेषु शेषेषु विद्यमानेषु पापायां नगर्या कार्तिकामावास्यायां मुक्तिं प्राप्तः । - तत्पट्टे गौतमस्वामी, स च इन्द्रभूतिनामा गौतम गोत्रीयः, वसुभूतिब्राह्मणस्य पृथ्व्याश्च ब्राह्मण्याः पुत्रः, पञ्चाशद् वर्षाणि गृहवासे स्थित्वा, त्रिंशद् वर्षाणि छद्मस्थपर्यायम्, द्वादश वर्षाणि केवलिपर्यायं च पाल्य - सर्वायुर्द्विनवति ( ९२ ) वर्षाणि पूरयित्वा वीरनिर्वाणाद् द्वादशवर्षव्यतिक्रमे मोक्षं प्राप्तः । किञ्च, गौतमस्वामिदीक्षिताः सर्वेऽपि साधवः केवलज्ञानं संप्राप्य मुक्तिमेव गताः न पश्चादेकोऽपि स्थितः तेन अग्रे गौतमस्वामिपरंपरा न व्यूढाः, अत एवाऽयं पट्टेषु न गण्यते । तथा पञ्चमारकप्रान्ते दुष्प्रसहसूरिं यावत् सुधर्मणः परंपरा स्थास्यति' इति वीरवाक्याद् अन्यैरपि सुधर्मस्वामिवर्जितैर्नवगणधरैर्निजनिजशिष्यसन्ततिं सुधर्मस्वामिने समर्प्य अनशनं कृत्वा मुक्ति श्रीर्वृता । 4 इह वरिज्ञानोत्पत्तितश्चतुर्दश वर्षे: जमालिनामा प्रथमो निह्नवो जातः, तथा षोडशवर्षैस्तिष्यगुप्तनामा द्वितीय निनवो जातः । २. अथ वीरस्वामिपट्टे सुधर्मस्वामी संजातः, कोल्लाकग्रामवासी, अग्निवैश्यायन गोत्रः, धम्मिल्लस्य पितुर्भद्दिलायाश्च मातुः पुत्रः । पञ्चाशद् ( ५० ) वर्षाणि गृहे, द्विचत्वारिंशद् (४२) वर्षाणि छद्मस्थ भावे, अष्ट ( ८ ) वर्षाणि केवलित्वे च स्थित्वा सर्वायुर्वर्षशतं ( १०० ) पाल्य वीरनिर्वाणाद विंशति ( २० ) वर्षव्यतिक्रमे शिवश्रियं प्राप । ३. तत्पट्टे श्रीजम्बूस्वामी, स च पञ्चमस्वर्गाच्च्युत्वा राजगृहनगर्यां काश्यपगोत्रीयऋषभदत्तनामा श्रेष्ठी, धारणी भार्या तयोः पुत्रत्वेन उत्पन्नः । एकदा समये सुधर्मस्वामिपार्श्वे धर्म श्रुत्वा वैराग्यं प्राप्य, स्वगृहं चागत्य रात्रौ नवपरिणीता अष्टौ कन्याः प्रतिबोधयन्, तालोद्घाटिनीविद्यासंपन्नं चौरपञ्चशतीपरिवृतं चौर्यर्थं गृहे प्रषिष्टं प्रभवनामानं राजकुमारं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली - २ ।। , प्रतिबोधितवान् । ततः प्रभाते अष्टौ ( ८ ) कन्याः, अष्टौ ( ८ ) तासां मातरः, अष्टौ ( ८ ) च पितरः स्वस्थ मातापितरौ ( २ ) च - एवं २६, तथा चौरपञ्चशतीसहितः प्रभवः (५०१ ) - सर्वे ( ५२७ ), तैः सह जम्बूकुमारो दीक्षां जग्राह । तथा नवनवति ( ९९ ) कोटिस्वर्णमुद्राणाम्, अष्टकन्यानां च परित्यागी बभूव । स च षोडश ( १६ ) वर्षाणि गृहे, विंशति ( २० ) वर्षाणि छद्मस्थभावे, चतुश्चत्वारिंशद् ( ४४ ) वर्षाणि केवलिपर्याये च स्थित्वा - अशीतिर्वर्षाणि ( ८० ) सर्वायुः प्रपाल्य, वीराच्चतुष्षष्टि ( ६४ ) वर्षव्यतिक्रमे मोक्षं गतः, चरगकेवली जातः । तथा जम्बूस्वाभिनि मुक्ति गते दशवस्तुविच्छेदो जातः । तथाहि - १. मनः पर्यायज्ञानम्, २. परमावधिज्ञानम्, ३. पुलाकलब्धि:, ४. आहारकशरीरम्, ५. क्षपक श्रेणिः, ६. उपशमश्रेणिः, ७. जिनकाल्पिमार्गः, ८. परिहारविशुद्धिः, सूक्ष्मसंपरायम्, यथाख्यातचरित्रम्, ९. केवलज्ञानम्, १०. सिद्धिगमनं चेति । ४. तत्पट्टे प्रभवस्वामी, स च जयपुरवासिनो विन्ध्यस्य राज्ञः पुत्रः, कात्यायनगोत्रीयः, त्रिंशद (३०) वर्षाणि गृहे, चतुश्चत्वारिंशद् ( ४४ ) वर्षाणि सामान्यवते, एकादश (११) वर्षाणि आचार्य पदे स्थित्वा --सर्वायुः पञ्चाशीति (८५) वर्षाणि पाल्य वीरात् पञ्चसप्तति (७५) वर्षव्यतिक्रमे स्वर्गं जगाम । ५. तत्पट्टे शय्यं भवसूरिः, स च राजगृहवास्तव्यो वात्स्यगोत्रीयः, एकदा यज्ञं कुर्वन् श्रीप्रभवस्वामिप्रेषित साधुद्वयमुखाद् 'अहो ! कष्टं २, तत्त्वं न ज्ञायते परम्' इति वचनं श्रुत्वा संजातसंशयः स्वगुरुं प्रति खङ्गमुत्पाट्य तत्त्वं पप्रच्छ । तदानीं तेन गुरुणा प्रोक्तम् 'यज्ञस्तम्भस्य अधो वर्तमानं शान्तिनाथविम्वमस्ति इति तत्त्वम् ' ततस्तद्दर्शनाद् जैनधर्मे संजातरुचिः शय्यं भवभट्टः सगर्भा स्त्रियं मुक्त्वा प्रभवस्वामिपार्श्वे व्रतं जग्राह । क्रमेण 'योग्योऽयम्' इति ज्ञात्वा गुरुभिराचार्यपदे स्थापितः । अथ प्रचात् संजातजन्मनः कदाचित् स्वपार्श्वे समागतस्य मनकनाम्नो निजपुत्रस्य सावधि आयुर्ज्ञात्वा तन्निमित्तं सिद्धान्तादुद्धृत्य दशवैकालिकशास्त्रं कृतवान् ततः संघाग्रआगामिकालभाविप्राणिनामनुकम्पया च सूरिभिः स ग्रन्थो न पश्चात् प्रक्षिप्तः । तथा श्रशिभवरिष्टाविंशति वर्षाणि गृहे, एकादश (११) वर्षाणि सामान्यत्रते, त्रयोविंशति ( २३ ) वर्षाणि सूरिपदे स्थित्वा - सर्वायुर्द्विषष्टि (६२) वर्षाणि प्रपाल्य वीराद् अष्टानवति (९८ ) वर्षे: स्वर्गभाग् जातः । 9 ६. तत्पङ्के श्रीयशोभद्रसूरिः, स च तुङ्गीयायनगोत्रीयो द्वाविंशति (२२) वर्षाणि गृहे, चतुदेश (१४) वर्षाणि सामान्य व्रते, पञ्चाशद् (५०) वर्षाणि आचार्यपदे - सर्वायुः षडशीति ( (८६) वर्षाणि पाल्य वीरा अष्टचत्वारिंशदधिकैकशत ( १४८ ) वर्षव्यतिक्रमे स्वर्गभाक् । ७. तत्पट्टे सप्तम श्रीसंभूतिविजयः, स च माठरगोत्रीयो द्विचत्वारिंशद् (४२) वर्षाणि गृहे, चत्वारिंशद् (४०) वर्षाणि सामान्यत्रते, अष्टौ (८) वर्षाणि युगप्रधानत्वे स्थित्वा सर्वायुर्नवति (९०) वर्षाणि पाल्य वीरात् षट्पञ्चाशदधिकैकशत (१५६ ) वर्षातिक्रमे दिवं गतः । ८. तत्पङ्के द्वितीयो लघुगुरुभ्राता भद्रबाहुस्वामी तु प्राचीनगोत्रीयः, प्रतिष्ठानपुरवासी, तथा Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-२ ।। व्यन्तरीभूताऽविनीतनिज-बन्धुवराहमिहिरकृतसंघोपद्रवनिवारणार्थमुपसर्गहरस्तोत्रकरणेन प्रवचनस्य महोपकारकृत्, तथा पुनश्चतुर्दशपूर्ववित्, कल्पसूत्र-आवश्यकनियुक्त्यादिप्रभूतग्रन्थकारसंजातः। स च पञ्चचत्वारिंशद् (४५)वर्षाणि गृहे, सप्तदश (१७) वर्षाणि सामान्यव्रते, चतुर्दश १४ वर्षाणि युगप्रधानत्वे स्थित्वा-सर्वायुः पट्सप्तति (७६) वर्षाणि प्रपाल्य वीरात् सप्तत्यधिकैकशत (१७०) वर्षव्यतिक्रमे स्वर्गभाक् ।। . ९. तत्पट्टे नवमः स्थूलभद्रस्वामी, स च पाटलिपुत्रनगरे नवमनन्दसूपस्य मन्त्री शकडालः, भार्या लाछलदेवी, तयोः पुत्रः, गौतमगोत्रीयः, कोश्याप्रतिबोधकः, सर्वजनप्रसिद्धः, चतुर्दशपूर्वविदां चरमः, तत्र दश पूर्वाणि वस्तुद्वयेन न्यूनानि सूत्रतोऽर्थतश्च पपाठ, अन्त्यानि चत्वारि पूर्वाणि तु सूत्रतएव अधीतवान् नाऽथतः, इति वृद्धवादः। स त्रिंशद (३०)वर्षाणि गृहे, विंशति (२०) वर्षाणि सामान्यव्रते, एकोनपञ्चाशद् (४९) वर्षाणि सूरिपदे स्थित्वा-नवनवति (९९) वर्षाणि सर्वायुः प्रपाल्य वीराद् एकोनविंशत्यधिकद्विशतवर्षेः (२१९) स्वर्ग प्राप्तः।। -अनान्तरे वीरनिर्वाणात् चतुर्दशाधिकद्विशत (२१४) वर्षेः आषाढाचार्याद् अव्यक्तनामा तृतीयो निहनवो जातः । तथा विंशत्यधिकद्विशत (२२०) वर्षैरश्वमित्रात् सामुच्छेदिकनामा चतुर्थो निहनवः। तथा पुनरष्टाविंशतिअधिकद्विशत (२२८) वर्षेः गङ्गनामा एकस्मिन समयेऽनेकक्रियोपयोगवादी पञ्चमो निहनवोऽभूत् । १०. तत्पट्टे दशम आर्यमहागिरिः, एलापत्यगोत्रीयो जिनकल्पिकतूलनामारूढः, पुनस्त्रिंशद (३०) वर्षाणि गृहे, चत्वारिंशद् (४०) वर्षाणि सामान्यव्रते, त्रिंशद् (३०) वर्षाणि सूरिपदेसर्वायुर्वर्षशतं (१००) प्रपाल्य स्वर्गभाक् । ११. तत्पट्टे आर्य हस्तिसूरिः। वासिष्ठगोत्रीयः। तेन किल पूर्वभवे द्रमकीभूतः संप्रतिजीवः प्रव्राज्य त्रिखण्डाधिपतित्वं प्रापितः, येन संप्रतिना श्रीवीरात् पञ्चत्रिंशाधिकद्विशतवर्षे राजपदं प्राप्य सपादलक्षप्रतिमा-नवीनजिनप्रासादाः कारिताः, सपादकोटिबिम्बानि कारयित्वा प्रतिष्ठापितानि, त्रयोदशसहस्रप्रमितजीर्णोद्धाराः कारिताः, पञ्चनवतिसहस्रप्रमाणाः पित्तलकाः प्रतिमा कारिताः, सप्तशतानि सत्रागारा मण्डिताः, द्विसहस्रप्रमिता धर्मशालाः कारिताः, पुनर्यः प्रतिदिन नवीनोत्पादितैकचैत्यवर्धापनिका श्रुत्वा दन्तधावनं कृतवान् । किं. नोक्तेन, यस्त्रिखण्डामपि मेदिनीं जिनगृहप्रतिमादिभिर्मण्डितामकरोत् । तथा साधुवेषधारिनिजकिंकरजनप्रेषणेन अनार्यदेशेऽपि साधुविहारं कारितवान् । श्रीश्रेणिकस्य राज्ञः सप्तदशे पट्टे संजातः । तथा श्रीगुरुभिरन्येऽपि अवन्तीसुकुमालाद्या बहवो भव्याः प्रतिबोधिताः। ते च गुरवः त्रिंशद् (३०) वर्षाणि गृहे, चतुर्विशति (२४) सामान्यत्रते, षट्चत्वारिंश (४६) वपोणि सूरिपदे-सर्वायुरेक वर्षशतं (१००) प्रपाल्य श्रीवीरात् पञ्चपष्टयधिकवर्षशतद्वये (२६५) व्यतिक्रान्ते स्वर्गभाजो जाताः। १२. श्रीआर्यसुहस्तिपट्टे श्रीसुस्थितरिः, स च कोटिशः सूरिमन्त्रजापात् 'कोटिकः,' पुनः काकन्यां नगर्या जातत्वात् ' काकन्दिकः ' इति विरुदप्रायं विशेषणद्वयम् । तथा व्याघापत्यगोत्रायः, स च एकत्रिंशद (३१) वर्षाणि गृहे, सप्तदश (१७)वर्षाणि सामान्यग्रते, अष्टचत्वारिंशदे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली-२॥ (४८) वर्षाणि सूरिपदे-सर्वायुः षण्णवति (९६) वर्षाणि प्रपाल्य वीरात् त्रयोदशाधिकवर्षशतत्रये (३१३) व्यतीते स्वर्गभाग जातः । तत एव अस्माकं संप्रदायः 'कोटिकगच्छः' इति प्रसिद्धः। १३. सुस्थितसूरिपट्टे इन्द्रदिन्नसूरिः १४. तत्पट्टे श्रीदिनसूरिः। १५. तत्पढे श्रीसिंहगिरिर्जातिस्मरणज्ञानवान् । -अत्रान्तरे पादलिप्ताचार्यो वृद्धवादिसूरिश्च बभुवतुः, तथा सिद्धसेनदिवाकरोऽप्यासीत्, येन उजायन्यां महाकालप्रासादे रुद्रलिङ्गं स्फोटयित्वा कल्याणमन्दिरस्तवेन पार्श्वनाथबिम्ब प्रकटीकृतम् । विक्रमादित्यश्च प्रतिबोधितः । विक्रमराज्यं तु श्रीवीरात् सप्तत्यधिकवर्षशतचतुष्टये (४७०) व्यतीते संजातम् । विक्रमादित्यराजा वीरात् (४७०) वर्षे जातः । १६.तत्पद्वे श्रीवत्रस्वामी,यो बाल्यादपि जातिस्मरणभाक्,गौतमगोत्रीयः,तुम्बवनग्रामवासी धनगिरि-सुनन्दयोः पुत्रः, श्रीसिंहगिरिसूरीणां हस्ताद् दीक्षां गृहीत्वा, तत्पाघे एकादशाङ्गानि अधीत्य, द्वादशस्य दृष्टिवादाङ्गस्य अध्ययनाय दशपुराद् उज्जयिन्यां श्रीभद्रगुप्ताचार्यसमीपं ययौ। तत्र गुरुभिर्दश पूर्वाणि पाठितानि । पुनर्य आकाशगामिविद्यया संघरक्षाकृत, दक्षिणस्यां दिशि बौद्धराज्ये जिनेन्द्रपूजानिमित्तं पुष्पाद्यानयनेन प्रवचनप्रभावनाकृत, देवाऽभिवन्दितः, दशपूर्वविदामपश्चिमः, तथा षण्णवत्यधिकचतुश्शत (४९६) वर्षान्ते जातः, अष्टौ वर्षाणि गृहे, चतुश्चत्वारिंशद्(४४)वर्षाणि सामान्यव्रते, षट्त्रिंशद् (३६) वर्षाणि सूरिपदे-सर्वायुरष्टाशीति (८८) वर्षाणि प्रपाल्य श्रीवीरात् चतुरशीतिअधिकपञ्चशत (५८४)वर्षान्ते स्वर्गभाक् । इतो पजशाखा संजाता। तथा वज्रस्वामितो दशपूर्व-चतुर्थसंहननादिव्युच्छेदः।। -अत्र श्रीवीरात् (५४४) वर्षे रोहगुप्तात् त्रैराशिकः षष्ठो निह्नवो जातः । -तथा वीरात् सपादपञ्चशतवर्षातिक्रमे (५२५) शत्रुञ्जयोच्छेदो जातः, ततःसप्तत्यधिकपश्चशत (५७०) वषैर्जावडोद्धारोऽभूत् । १७. तत्पट्टे श्रीवज्रसेनाचार्यः,स च उत्कोशिकगोत्रीयः। एकदा द्वादशदुर्भिक्षान्ते श्रीवज्रस्वामिवचनात् सोपारके गत्वा जिनदत्तश्रेष्ठी, तद्भार्या ईश्वरीनाम्नी, तया लक्षमूल्येन धान्यमानीय पाकार्थमग्नौ स्थापितायां हण्डिकायां विषनिक्षेपं क्रियमाणं दृष्टा, 'प्रातः सुकालो भावी' इत्युक्त्या विषनिक्षेपं निवार्य नागेन्द्र-चन्द्र-निर्वृति-विद्याधर-नामकश्चितुरः सकुटुम्बानिभ्यपुत्रान् प्रवाजितवान् । तेभ्यश्च स्वस्वनामाङ्कितानि चत्वारि कुलानि जातानि। स श्रीवज्रसेनरिः प्रान्ते चन्द्रमुनि स्वपदे निश्य, अनशनं च विधाय स्वर्गभाक् । १८.तत्पद्वे श्रीचन्द्रसूरिः,स च सप्तत्रिंश (३७)वर्षाणि गृहे,त्रयोविंशति(२३)वर्षाणिसामन्यवते, सप्त (७) वर्षाणि सूरिपदे-सर्वायुः सप्तपष्टिवर्षाणि(६७)प्रपाल्य स्वर्गभाक् । इतश्चान्द्रकुलमिति प्रसिद्धम्, अत एवाऽस्माकं गच्छेऽधुनाऽपि बृहद्दीक्षावसरे "अम्हाणं कोडिओ गणो, वयरी साहा, चो कुलं, अमुगगणनायगा, अमुगमहोज्झाया संति, महत्तरा नस्थि' इति पाठं नवीनशिष्य प्रति आचार्यशार्थस्थिता वृद्धाः श्रावन्ति ' इति संप्रदायः । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ परतरगम पहावली-५॥ १९ -अत्राऽवसरे श्रीआर्यरक्षितसूरिमहाप्रभावकः संजातः, स च दशपुरनगरे सोमदेवः पुरोहिता, रुद्रसोमा भार्या, तयोः पुत्रः साधिकनवपूर्वाणि वज्रस्वामितोऽधीत्य निजकुटुम्ब समग्रमपि प्रतियोध्य जिनशासनप्रभावनाकुजातः । तच्छिष्यः श्रीदुर्बलिकापुष्यमित्रसूरिर्वभूव । अत्रान्तरे पीरात् (५८४) वर्षे गोष्ठामाहिल: सप्तमो निह्नवो जातः। तथा (६०९) वर्षेर्दिगम्बरोत्पत्तिः । १९. ततः श्रीसमन्तभद्रसूरिर्वनवासी। २०. ततः श्रीदेवसूरिर्वद्धः। २१. ततः श्रीप्रद्योतनसूरिः। २२. ततः श्रीमानदेवसूरिः शान्तिस्तवकर्ता । २३. ततः श्रीमानतुङ्गसूरिभक्तामर-भयहरणस्तोत्रयोः कर्ता ।२४. ततः श्रीवीरसूरिर्जातः --अत्रान्तरे श्रीदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणो महाप्रभावको जातः, स च वीरात अशीत्यधिकनवशतवर्षेः (९८०) वल्लभीनगर्या समस्तसाधुमीलनेन सर्वसिद्धान्तलेखकारी । देवर्द्धि यावद् एक पूर्व स्थितमिति वृद्धसंप्रदायः । -पुनस्तदैव श्रीकालिकाचार्यो जातः, स च वीरवाक्याद् भाद्रपदशुक्लपञ्चमीतश्चतुर्थ्या श्रीपर्युषणापर्व आनीतवान्, ततएवाऽद्यापि चतुरशीतिगच्छेषु चतुर्थ्यां सांवत्सरिकप्रतिक्रमण क्रियते । अयं च वीरात् त्रिनवत्यधिकनवशतवषैः (९९३), तथा विक्रमसंवत्सरात् त्रयोविंशत्यधिकपञ्चशतवः (५२३) संजातः। -पुनः कालिकाचार्यद्वयं प्राग जातम् , तत्राऽऽद्यः प्रज्ञापनाकर इन्द्रस्याग्रे निगोदविचारवक्ता श्यामाचार्यापरनामा, स तु वीरात् (३७६)वर्षैर्जातः । द्वितीयो गर्दभिल्लोच्छेदकः, स तु वीरात् (४५३) वातः। -पुनस्तदैव श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणो जातः, स च विशेषावश्यकादिभाष्यकर्ता । तच्छिष्यः शीलाङ्गाचार्यः प्रथम-द्वितीयाङ्गवृत्तिकृत् । तदैव पुनः श्रीहरिभद्रसूरिर्बभूव, स च जात्या ब्राह्मणः, सर्वशास्त्रपारगः सन् प्रतिज्ञा चक्रे ' यदुक्तस्यार्थमहं न वेमि तच्छिष्यो भवामि' इति । तत एकदा साध्वीमुखाद् एकां गाथां श्रुत्वा तदर्थमनवबुध्यमानः प्रतिज्ञावशात् साध्वीदर्शितगुरुसमीपे व्रत जग्राह । जैनशास्त्राण्यपि सर्वाणि अधीत्य आचार्यत्वं प्राप्तः। तस्य हंस-परमहंसनामानौ द्वौ शिष्यौ परशासनरहस्यग्रहणार्थ बौद्धाचार्यसमीपं गतौ, तत्राऽध्ययनं कृत्वा, स्वपुस्तकं गृहीत्वा स्थानं प्रत्यगच्छन्तौ तौ जैनौ' इति ज्ञात्वा पश्चादागतैबौद्धर्मारिती । अथैतत् स्वरूपं विज्ञाय कोपाक्रान्तेन गुरुणा तप्ततैलपूरितं कटाहं स्थापयित्वा मन्त्रबलाचतुश्चत्वारिंशदधिकचतुर्दशशत (१४४४) बौद्धा आकर्षिताः, तदानीं याकिनीमहत्तरावचनैःकोपादुपशान्तेन गुरुणा बौद्धा मुक्ताः। ततः पापशुद्धयर्थमाकर्षितबौद्धप्रमाणानि (१४४४) पूजापशाशकादिप्रकरणानि कृतानि । एवंविधाः श्रीहरिभद्रसूरयो जाताः। २५. ततः ( श्रीवीरसूरिपट्टे ) श्रीजयदेवसूरिः । २६. ततः श्रीदेवानन्दसूरिः। २७. ततः श्रीविक्रमसूरिः। २८. ततः श्रीनरसिंहसूरिः। २९. ततः श्रीसमुद्रसूरिः। ३०. ततः श्रीमानदेवसूरिः। ३१. ततः श्रीविबुधप्रभसूरिः। ३२. ततः श्रीजयानन्दसूरिः। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || सरसरगम पावली-५॥ . ३३. ततः भारविप्रभसूरिः। ३४. ततः श्रीयशोभद्रसूरिः। ३५. ततः श्रीविमलचन्द्रसूरिः। ३६. तत्पढे श्रीदेवसूरिः। -तस्य च सुविहितमार्गाचरणात् 'सुविहितपक्षगच्छ' इति प्रसिद्धिर्जाता । ३७. तत्पढे नेमिचन्द्रसूरिः। ३८. तत्पट्टे उद्योतनसूरिः। -अस्माच्चतुरशीतिगच्छस्थापना जाता। तत्स्वरूपं यथा-एकदा श्रीउद्योतनसूरि महा विद्वांस शुद्धक्रियापात्रं च विज्ञाय अपरेषांव्यशीति (८३) संख्यानां स्थविराणां त्र्यशीतिशिष्याः पउनार्थ समागताः, तान् श्री गुरुः सद्रीत्या पाठयति स्म। तस्मिन्नवसरे अम्भोहरदेशे स्थविरमण्डल्यां वृद्धस्य जिनचन्द्राचार्यस्य चैत्यवासिनः शिष्यो वर्धमाननामा सिद्धान्तमवगाहमानश्चतुरशीत्या (८४) ऽऽशातनाधिकारे आगते सति गुरुं प्रत्येवमुक्तवान्-'भोः! स्वामिन् ! चैत्ये निवसतामस्माकमाशातना न टलति, ततोऽयं व्यवहारो मे न रोचते' इत्युक्तं श्रुत्वा गुरुणा यथा यथा विप्रतारितोऽपि अयं स्वश्रद्धातो न परिभ्रष्टः । ततः श्रीउद्द्योतनसूरि शुद्धक्रियावन्तं श्रुत्वा तत्पार्श्वे समागत्य तस्यैव शिष्यो जातः, तदुपसंपदं च गृहीतवान् । ततः श्रीगुरुभिर्योगादिकं वाहयित्वा सर्वे सिद्धान्ताः पाठिताः, क्रमेण योग्यं ज्ञात्वाऽऽचार्यपदं दत्वा, गच्छवृद्धयादिलाभं विज्ञाय उत्तराखण्डे विहारार्थमाज्ञा दत्ता। ततो वर्धमानाचार्योऽपि गुर्वादेशं स्वीकृत्य तत्र गतः। अथ श्रीउद्योतनसूरिस्त्यशीति (८३) शिष्यपरिवृतो मालवकदेशात् संघेन सार्धं शत्रुजये गत्वा ऋषभेश्वरमभिवन्द्य पश्चाद् वलमानो रात्रौ सिद्धवडस्याधोभागे स्थितः, तत्र मध्यरात्रिसमये आकाशे शकटमध्ये बृहस्पतिप्रवेशं विलोक्य एवमुक्तबान्-'साम्प्रतमीदृशी वेला वर्तते, यतो यस्य मस्तके हस्तः क्रियते स प्रसिद्धिमान् भवति' । अथैतत् श्रुत्वा व्यशीत्याऽपि शिष्यैरुक्तम्-' स्वामिन् ! वयं भवतां शिष्याः स्मः, यूयमस्माकं विद्यागुरवः, ततोऽस्मदुपरि कृपां विधाय हस्तः क्रियताम् ' । ततो गुरुभिरुक्तम्-'वासचूर्णमानीयताम् ' । तदा तैः शिष्यैः काष्ठच्छगणादिचूर्णं कृत्वा गुरुभ्य आनीय दत्तम् , गुरुभिरपि तच्चूर्ण मन्त्रयित्वा त्र्यशीतेः शिष्याणां मस्तके निक्षिप्तम्, ततः प्रभाते श्रीगुरुभिः स्वस्य अल्पायुर्ज्ञात्वा तत्रैव अनशनं कृत्वा स्वर्गतिः प्राप्ता। अथ ते त्र्यशीतिरपि शिष्याः आचार्यपदं प्राप्य पृथग विहारं चक्रुः । अथैकः स्वशिष्यो वर्धमानसूरिः, त्र्यशीतिश्व इमेऽन्यदीयाः शिष्याः -एवं चतुरशीतिगच्छाः संजाताः । ३९. उद्योतनसूरिपट्टे श्रीवर्धमानसूरिः स च षण्मासान् यावद् आचाम्लतपः कृत्वा,धरणेन्द्रं समाराध्य, श्रीसीमन्धरस्वामिपार्थे तं प्रेष्य सूरिमन्त्रं शुद्धं कारितवान् । तथा पुनरेकदा विहारं कुर्वन् सरसाख्ये पत्तने समाययौ । तस्मिन्नवसरे सोमब्राह्मणस्य द्वौ पुत्रौ शिवेश्वर-बुद्धिसागरनामानौ, एका च कल्याणवतीनाम्नी पुत्री, एवं त्रयोऽप्यते सोमेश्वरमहादेवस्य यात्रार्थ गच्छन्तः सरसाभिधाने पत्तने समाजग्मुः, तत्र सरस्वत्यां नद्यां स्नात्वा रात्रौ तव सुप्ताः, ततोऽर्धरात्रिवेलायां सोमेश्वरदेवः प्रादुर्भूय तेभ्य इत्युवाच--'भोः ! प्रसन्नोऽहम् , मार्गयत मनोवाञ्छितं वरम्; ततस्तैर्वैकुण्ठे याचिते स पाह-'भो ! ममापि वैकुण्ठं नास्ति, ततो भवद्भयः कुतो ददामि, Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । खरतरगच्छ पट्टावली-२ ।। परं पदि भवतां वैकुण्ठेच्छास्ति, तर्हि श्रीवर्धमानसूरेश्वरणसेवा कार्या, स एव एको वैकुण्ठदातास्ति' इत्युक्त्वा देवोऽदृश्यो बभूव । ततः प्रातःकाले ते त्रयोऽपि जना नद्यां स्नात्वा उपाश्रयमागत्य च गुरुभ्यो वैकुण्ठममार्गयन् । ततो गुरुभिरपि एकस्य भ्रातुर्मस्तकशिखायां स्थितां मत्सी दर्शयित्वा, दयामयं श्रीजिनधर्म द्योतयित्वा सर्वसिद्वान्तपारगाः कृताः। शिवेश्वरस्य जिनेश्वर इति नाम कृतम् । एकदा जिनेश्वरेण उक्तम्-'स्वामिन् ! यदि गुर्जरदेशे गम्यते तदा भूयसी धर्मोन्नतिः स्यात् । ततो गुरुभिरुक्तम्-'तत्र हीनाचारिणामसंयमिनां चैत्यवासिनां बहुः प्रचारोऽस्ति, ते उपद्रवं कुर्युः, ततस्तत्र न गम्यते ।' तदा पुनर्जिनेश्वरेण उक्तम्-' स्वामिन् ! यूकाभयात् किं वस्त्रं परित्यज्यते, ततो मह्यम्, बुद्धिसागराय च तत्र गमनार्थमाज्ञा दीयतास् ।' अथ गुरुभिरपि एतत् श्रुत्वा जिनेश्वर-बुद्धिसागराभ्यामाचार्यपदं दत्त्वा गुर्जरदेशं प्रति विहाराज्ञा दत्ता । तावपि गुर्वाज्ञया तं देशं प्रति विहारं चक्रतुः। तथा गुरुभिः कल्याणवती साध्वी महत्तरा कृता । तथा पुनः श्रीवर्धमानसूरिभिस्त्रयोदशसुरत्राणच्छबोहालक-चन्द्रावतीनगरीस्थापक-पोरवाडज्ञातीय-श्रीविमलमन्त्रिणं प्रतिबोध्य श्रीअर्बुदाचले छिनजैनतीर्थस्य पुनः प्रवृत्त्यर्थमुपदेशो दत्तः परं तत्रत्याह्मणैरुक्तम्- ' इदमस्माकं तीर्थमास्ति, अत्र जिनप्रासादो न भवति' इति । ततो गुरुभिः पुष्पमाला मन्त्रयित्वा, विमलमन्त्रिणे दत्वा च प्रोक्तम्-'भो ! मन्त्रिन् ! ब्राह्मणकन्याहस्ते इमां मालां प्रदाय ब्राह्मणानामग्रे इति वक्तव्यम्-'अस्मिन् पर्वते य भूमौ एषा माला पतति, तत्र अस्माकं तीर्थमस्ति ।' अथ मन्त्रिणा यथा गुरुभिरुक्तं तथैव कृतम् । ततश्च यत्र माला पतिता तत्र कलश-झल्लादिपूजोपकरणसहितं प्रतिमात्रयं प्रादुर्भुतम्-तत्रैका वज्रमयी श्रीआदिनाथप्रतिमा, द्वितीया अम्बिकामूर्तिः, तृतीया वालीनाथक्षेत्रपालमूर्तिः-इति । अथैवं कृतऽपि ब्राह्मणैः पुनरुक्तम्-'भवतां देवोऽस्ति,परं देवगृहं नास्ति, ततो देवस्यैव पूजा कार्या, देवगृहं तु न कारयितव्यम् - ति । तदा विमलमन्त्रिणा द्रव्यबलेन विप्रा वशीकृताः, स्वर्णमुद्रास्तरणं विधाय भूमि गृहीत्वा तत्र ऋषभदेवप्रासादः कारितः । अष्टादशकोटि-त्रिपञ्चाशल्लक्षप्रमितं द्रव्यं व्ययीकृतम् । तत्र अद्यापि 'विमलवसही' इति प्रसिद्धिरस्ति । ततः श्रीवर्धमानसूरिः सं० १०८८ प्रतिष्ठां कृत्वा प्रान्तेऽनशनं गृहीत्वा स्वर्ग गतः। ४०. तत्पट्टे श्रीजिनेश्वरसूरिः, स च बुद्धिसागरण साधं मरुदेशाद् विहारं कृत्वा अनुक्रमेण गुर्जरदेशे अणहिल्लपुरपत्तने समागतः । तत्र दुर्लभराजस्य पुरोहितः शिवशर्मानामा ब्राह्मणः स्वमातुलोऽस्ति, तद्गृहं प्राप्तः। अथ स विप्रो बहूंछात्रान् तर्क--व्याकरणादि शास्त्राणि पाठयन् एकस्य वेदपदस्य अशुद्धमर्थमुवाच । तदा श्रीजिनेश्वरसूरिभिः प्रोक्तम् 'अस्य पदस्य अयमों न भवति, भवद्भिः कथमित्थं पाठयते ?' । तदा विप्रेण उक्तम्-'भवतां वेदार्थपरिज्ञानं कुतः ? चेद् भवेत् तर्हि भवाद्भरेव अस्य अर्थो वाच्य ' इति । अथैतद् वचः श्रुत्वा गुरुभिर्ये केऽपि पुरो. हितस्य संदेहा अभूवन् ते सर्वेऽपि निरस्ताः। ततः पुरोहितेन पृष्टम्- ' को भवतां निवासः ? कश्च भवतः पिता ? ' इति । तदा गुरुभिर्वाराणसी नगरी, सोमदत्तब्राह्मणश्च प्रोक्तम् । तदा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || खरतर मावली-२॥ सेन ज्ञातम् एतौ मम भागिनेयो, ततश्च बहुमानपुरस्सर स्वगृहे रक्षितौ । अथैया पार्ता चैत्यवासिभिः श्रुता, चिन्तितं च स्वचित्ते यतो जिनेश्वरसूरिरत्राऽऽगतोऽस्ति, स तु संवेगरगानिमनगानः परमशुद्धक्रियापात्रमस्ति, वयं तु शिथिला हीनाचारिणः स्मः, ततोऽयं केनाऽपि प्रकारणे नगराद् निष्कासनीयः, अन्यथाऽस्माकं निन्दा भविष्यति, इत्येवं विचिन्त्य कियाद्रिभैत्यवासिभिः संभूय दुर्लभनृपाय प्रोक्तम्-'महाराज ! अस्मिन् पुरे दिल्लीतो ग्रन्थिच्छोटकाः समागताः सन्ति, ते च भवत्पुरोहितस्य गृहे तिष्ठन्ति । अथ राज्ञा एतद् वाक्यं श्रुत्वा पुरोहितमाहूय पृष्टम्-'भवद्गृहे चौरा आगताः श्रूयन्ते' । तेनोक्तम्-'राजन् ! मद्गृहे तु शुद्धाचारवन्तः, सन्मागर्सचारिणो मुनीश्वराः सन्ति, न चौराः। किंतु ये केऽपि तेषु चौरव्यपदेशं कुर्वन्ति त एव चौराः। तदा राज्ञा आचारदर्शनार्थ जिनेश्वरसूरय आहूताः, आगता गुरवो राजसभायाम् , आस्तृतं वस्त्रं दूरीकृत्य, रजोहरणेन भूमिं प्रमार्य, ईपिथिकी प्रतिक्रम्य, स्वकम्बलमास्तीर्य स्थिताः। अथैतत् सद्गुर्वालोकनाद् आनन्दितेन राज्ञा उक्तम्-'सन्मार्गधारका एवंविधा एव भवन्ति ' । तथा पुनर्भूपेन एतेभ्यो विरुद्ध चैत्यवासिनामाचारं दृष्ट्वा गुरुभ्यो मुनीनामाचारः पृष्टः । तदा जिनेश्वरसूरिभिः प्रोक्तम्-' अस्माभिर्मुखात् किं कथ्यते, भवतां देवाधिष्ठितं सरस्वतीभाण्डागारमस्ति, तत्र सर्वमतस्वरूपनिवेदकानि पुस्तकानि सन्ति, ततो निर्मलजलेन कृतस्नानां कुमारी कन्यका संप्रेष्य भाण्डागारात् पुस्तकमानायितव्यम् । तदा राज्ञा तथैव कृते सति दशकालिकपुस्तकं कन्याया हस्ते आगतम्, तच राजसभायामानीतम, ततो गुरुभिः प्रोक्तम्-' इदं पुस्तकमेतेषां चैत्यवासिनामेव हस्ते देयम् , एते एक वाचयन्तु' ततो। वाचयद्भिस्तैः साध्वाचारपत्राणि मुक्तानि, तदानीं गुरुभिरुक्तम्- 'राजसभायां दिवसे चौर्य जायते। राज्ञा पृष्टम्-'तत् कथम् ? ' तदा तैरुक्तम्-'एभिः पत्राणि मुक्तानि !' राज्ञोक्तम्-'तर्हि यूयमेव वाचयत'। गुरुभिरुक्तम्-'नाऽत्र अस्माकं कार्यम् , पक्षपातरहितैर्ब्राह्मणैर्वाचनीयम्'। ततो ब्राह्मणेभ्यः पुस्तके दत्ते सति तैयथार्थ वाचितम् । तदा शास्त्राविरुद्धाचारदर्शनेन जिनेश्वरसरिमुद्दिश्य 'अतिखराः' इति राज्ञा प्रोक्तम् । ततः 'खरतर' विरुदं लब्धम् । तथा चैत्यवासिनो हि पराजयप्रापणात् 'कुंवला।' इति नामधेयं प्राप्ताः। एवं सुविहितपक्षधारकाः जिनेश्वरसूरयो विक्रमतः१०८० वर्षेः 'खरतर' विरुदधारका जाताः। तथा पुनरेकदा मरुदेवीनाम्नी साध्वी चत्वारिंशद् दिनानि यावदनशनं कृतवती, प्रान्ते निजेरां कारयद्भिर्जिनेश्वरसूरिभिरुक्तम्-'स्वकीयमुत्पत्तिस्थानं ज्ञापनीयम्' ततः सा गुरुवचः स्वीकृत्य, कालं कृत्वा देवपदं प्राप्ता। अथैकदास देवः सीमन्धरस्वामिवन्दनार्थ गच्छन् ब्रह्मशान्तियक्षं प्रत्युवाच-'भवता जिनेश्वरसूरीणां पार्श्वे गत्वा 'मसट सट' इत्येतानि पञ्चाक्षराणि कथनीयानि, एषामर्थ स्वयमेव गुरवो ज्ञास्यन्ति'--इति । तदा यक्षेणाऽऽगत्य तान्यक्षराणि कथितानि, ततो गुरुभिस्तेषामर्थो निगदितः । तद्यथा-- मरुदेवी नाम अजा गणिनी जा आसितुह्म गच्छम्मि । सग्गम्मि गया पढमे देवो जाओ महडीओ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-२॥ टकलयम्मि विमाणे दो सागरआउसो समुप्पण्णो । समणेसस्स जिणेसरसूरिस्स इमं कहिज्जासु ॥ टक्कउरे जिणवन्दणनिमित्तमिहागएण देवेण। चरणम्मि उजमो भो कायव्यो किं च सेसेहिं ॥ .. एवंविधाः श्रीजिनेश्वरसूरयः प्रान्तेऽनशनं कृत्वा स्वर्ग गताः। ४१.तत्पट्टे एकचत्वारिंशत्तमः श्रीजिनचन्द्रसूरिः, स च संवेगरङ्गशालाप्रकरणकर्ता। तथा पुनरेकदा दिल्लीनगरे समागतः, तत्र 'त्वं दिल्लीपतिर्भविष्यसि' इति प्रागुक्त-गुरुवचनस्मरणात् संप्राप्तविवेकेन मौजदीनसुरत्राणेन प्रवेशोत्सवः कृतः, तथा धनपालश्रीमालगृहे निवासः कारितः। तदानीं धनपालः श्रावको बभूव, तत्सम्बधिनोऽन्येऽपि बहवः श्रीमालगोत्रीयाः श्राद्धाः,प्रतिबोविताः,केचिदन्यज्ञातीयराज्याधिकारिणोऽपि श्राद्धाःजाताः,तेभ्यःपातिसाहिना बहु महत्त्वं दत्तम्, ततस्तेषां 'महतीयाण' इति गोत्रस्थापना कृता। तगोत्रीयाः श्रावकाः 'जिनं नमामि, वा जिनचन्द्रगुरुं नमामि, नान्यम्' इति प्रतिज्ञावन्तो बभूवुः । एवंविधाः श्रीजिनचन्द्ररयो महाप्रभवका जाताः। तदैव च पद्मावत्या प्रत्यक्षीभूय प्रोक्तम्-'चतुर्थपट्टे सातिशयं 'जिनचन्द्र' इति नाम दातव्यमिति' । तत एवेयं व्यवस्था जाता।। ४२. तत्पट्टे द्विचत्वारिंशत्तमः श्रीअभयदेवसूरिः, स च जिनचन्द्रसूरीणां लघुगुरुभ्राता, परमसंवेगी च संजातः। तत्संबन्धो यथा-धारापुर्यों धननामा श्रेष्ठी,तद्भार्या धनदेवी, ततोऽभयछमारनामा पुत्रो जातः । स चैकदा जिनेश्वरसूरीणां पार्श्वे धर्म श्रुत्वा प्रतिबुद्धः। दीक्षां च जग्राह । क्रमेण सकलशास्त्राऽध्ययनेन गीतार्थो जातः, आ चार्यपदं च प्राप्तः। तत एकदा व्याख्याने शङ्गारादिनवरसान् पोषितवान् तदा सभा सर्वाऽपि आनन्दातिशयसंपन्ना जाता। परं गुरुभिरेकान्ते उपालम्भो दत्तः । ततोऽभयदेवसूरिणाऽऽत्मशुद्धयर्थं प्रायश्चित्ते याचिते गुरुभिरुक्तम्-'तकोपर्याऽऽगतजलेन ढुंभरकेण च षण्मासी यावद् आचाम्लतपः कार्यम् । तदा पापभीरुणा अभयदेवसूरिणा गुरुवचसा तथैव कृतम्-पडपि विकृतयः परित्यक्ताः। परमत्यन्तनीरसाहारकरणात् प्राक्तनकर्मोदयाच शरीरे गलत्कुष्ठरोगः समुत्पन्नः। तथापि औषधं न करोति । ततः प्रवृद्धो रोगः, तदा अनशनचिकीर्षया गुरवः संघाग्रहेण धवलकाभिधाने नगरे प्राप्ताः। अथ त्रयोदश्या अर्धरात्रे शासनदेबतया प्रकटीभूय प्रोक्तम्-'स्वामिन् ! नवैताःसूत्रकुक्कुटिका उन्मोहय। भगवानाह-'करागुलिगलनाद् उन्मोहयितुं न शक्नोमि'। तदा देवी प्राह-'अद्याऽपि त्वं चिरकालं वीरतीर्थ प्रभावयिप्यसि, नवाङ्गीवृत्तिं च विधास्यसि । ततो रोगगमनोपायं शृणु-स्तम्भनकपुरसमीपे सेढिकानदीतीरे खंखरपलाशतले श्रीपार्श्वनाथप्रतिमाऽस्ति, तत्र प्रत्यहमेका गौः समागत्य प्रतिमामूर्नि क्षीरं क्षरति । तत्र संघेन सार्धं गत्वा स्तुतिः कर्तव्या। प्रतिमा प्रादुर्भविष्यति, तत्स्नात्रजलेन नीरुक शरीरं भविष्यति' इत्युक्त्वा देवी अदृश्या बभूव । ततः प्रातः काले प्रत्यासन्ननगरमानेभ्य: समागतेन तद्ग्रामवासिना च श्रावकसंघेन साधे तत्र गत्वा 'जय तिहुयण ' इत्यादि नमस्कारद्वात्रिंशिका कृता । तत्र यावता 'फणफणकार' इत्यादि षोडशकाव्येन स्तुतिः Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-२॥ प्रारब्धा, तावता पार्श्वप्रतिमा प्रकटीबभूव । ततः श्रावकैः स्नात्रपूजां कृत्वा स्नपनजलेन गुरुणां शरीरं सिक्तम् , तदा रोगनिर्मुक्ताः काञ्चनवर्णशरीराः सूरयो बभूवुः। ततः श्रावकैस्तत्र उत्तुङ्गतोरणं देवगृहं कारितम् । तदा श्रीअभयदेवसूरिभिः तत्र पार्श्वप्रतिमा स्थापिता । तच्च स्तम्भनकनाम्ना महातीर्थ प्रसिद्धम् । तथा 'जय तिहुयण' स्तोत्रस्य अन्तिमे गाथाद्वये धरणेन्द्र--पद्मावत्याऽऽकर्षणमन्त्री गोपित आसीत् । तद् गाथाद्वयमपवित्रभूताः स्त्रीबालकादयो यत् किंचित् कार्येऽपि गुणयन्ति स्म, तदा उनः पुनरागमनेन खिन्नयाऽधिष्ठायकदेव्या गुरवे उक्तम्-'स्वामिन् ! एतद्गाथाद्वयं भाण्डागारे स्थापनीयम् , महति कार्ये गुणनीयम् । तथा इयं नमस्कारत्रिंशिका संध्यायां प्रतिक्रमणस्यादौ सदैव गुणनीया' इत्युक्त्वा देवी गता । ततो गुरुभिस्तथैव कृतम् । तथा नवाङ्गानां वृत्तयो विहिताः। एवंविधाः शासनप्रभावकाः श्रीअभयदेवसूरयः प्रान्ते गुर्जरदेशे कप्पडवणिजग्रामेऽनशनं कृत्वा चतुर्थ स्वर्ग प्राप्ताः।। ४३.तत्पट्टे त्रिचत्वारिंशत्तमो जिनवल्लभसूरिः, स च प्रथमं कूर्चपुरगच्छीय-चैत्यवासिजिनेश्वरसूरेः शिष्योऽभूत् । ततश्चैकदा दशवैकालिकं पठन् सावद्यौषधादिकं कुर्वाणम्-अतिप्रमादिनं स्वगुरुं विलोक्य उद्विग्नचित्तः संजातः। तदनन्तरं स्वगुरुमापृच्छय शुद्धक्रियानिधीनामभयदेवसूरीणां पार्वेऽगात् । तदुपसंपदं गृहीत्वा तेषामेव शिष्यश्च संजातः । क्रमेण शास्त्राण्यऽत्यि महाविद्वान् बभूव । तथा पिण्डविशुद्धिप्रकरण-गणधरसार्धशतक-पडशीति-प्रमुखाऽनेकशास्त्राणि कृतवान् । तथा दशसहस्रपमितवागडिकश्राद्धान् प्रतिबोधितवान् । तथा पुनश्चित्रकूटनगरे श्रीगुरुभिः चण्डिका प्रतिबोधिता। सूरिमन्त्रबलसधनीभूत साधारणश्राद्धेन कारितस्य द्विसप्तति (७२) जिनालयमण्डित श्रीवीरस्वामिचैत्यस्य प्रतिष्ठा कृता । तथा तत्रैव पुरे संवत् सागररस-रुद्र-(११६७) मिते श्रीअभयदेवसूरिवचनाद् देवभद्राचार्येण तेषां पदस्थापना कृता । ततस्ते षण्मासान यावद् आचार्यपदं भुक्त्वा अनशनेन कालं कृत्वा स्वर्ग प्राप्ताः । तद्वारके च 'मधुकरखरतर' शाखा निर्गता । अयं प्रथमो गच्छभेदः। तथा शासनदेवतावचनात् तत एव आचार्यस्य नाम्न आदौ सप्रभावस्य जिनपदस्य स्थापना प्रवृत्ता। ४४. तत्पट्टे चतुश्चत्वारिंशत्तमः श्रीजिनदत्तसूरिः, स च वाछिगमन्त्रि-वाहडदेव्योः पुत्रः, धंधूकाभिधनगरवासी, हुंवडगोत्रीयः, सं० ११३२ वर्षे लब्धजन्मा, सोमचन्द्रमूलनामा, सं० ११४१ वाचक धर्मदेवपार्श्वे गृहीतदीक्षाकः, तथा सं० ११६९ वैशाख व० दि० षष्ठीदिने चित्रकूटनगरे श्रीदेवभद्राचार्येण सूरिमन्त्रं दत्त्वाऽचार्यपदे स्थापितः-'जिनदत्तसूरि' इति नामस्थापना कृता । परंतु प्रागेकदा सारंगपुरे कुंवरपालोपाध्यायस्य निर्जरा कारिता आसीत्। स हि कालं कृत्वा देवपदं प्राप्य तदानीमेव प्रादुर्भूय बभाषे 'भोः सोमचन्द्र ! त्वमाचार्यपद प्राप्स्यसि, परं मुहूर्तप्रायं वर्तते । तत्राये मुहूर्ते मृत्युः, द्वितीये गच्छभेदः, तृतीय शुभम् । ततस्तृतीये मुहूर्ते पदं ग्राह्यम्, इत्युक्त्वा देवोऽदृश्यो जातः परं कथंचित् दैववसात् द्वितीये मुहूर्ते पदं जातं, तेन संवत् १२०४ जिनशेखराचार्यतो रुद्रपल्ल्यां रुद्रपल्लीय-खरतरशाखा भिमा । अयं द्वितीयो गच्छभेदः। पुनरेकदा श्री जिनदत्तसूरिश्चित्रकूट देवगृहे Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा । खरतरगच्छ पट्टावली-२॥ वज्रस्थंभस्थितं नानामंत्राम्नायमयं पुस्तकं मंत्रलेन प्रकटीकृत्य गृहीतवान् । तथोज्जयिन्यां महाकालप्रासादस्तंभस्थं, द्वितीयं सिद्धसेनदिवाकरस्य पुस्तकं प्रथमागतविद्ययाऽऽकृष्य जग्राह । तथा एकदा उज्जयिन्यां व्याख्यानमध्ये श्राविकारूपं विधाय छलनार्थनागताश्चतुःपष्टियोगिन्यः पट्टकेषु निवेश्य मंत्रवलेन कीलिताः, ततो व्याख्यानाते पट्टकेभ्य उत्थातुभशक्ताः सत्यो गुरुं प्रत्यूचुः-स्वामिन् ! भवता वयं प्रत्युत च्छलिताः, अथ कृषां विधाय विमोच्यास्तदा गुरुभिर्वचनं गृहीत्वा योगिन्यो मुक्ताः । अथ ताभिर्वरं सप्तकं दत्तं तद्यथा १ प्रतिग्रामं खरतर श्राद्धो दीप्तिमान भविष्यति । २ प्रायेण खरतर श्रावको निर्धनो न भावी । ३ संघे कुमरणं न भविष्यति । ४ अखंड शीलपालका साध्वी ऋतुमती न भविष्यति । ५ खरतर श्राद्धः सिंधुदेशं गतः सन् धनवान् भावी । ६ खरतर संघ शाकिन्यादयो न छलियंति। ७ जिनदत्तनाम्नि गृहीते विद्युत्पातादिरुपद्रवो न भावी । इति । पुनर्योगिनीभिरुक्तं-एतद्वचनसप्तकं पालनीयं, येन प्रागुक्तमस्मद्दत्तवरसप्तकं सफलं स्यात् । तद्यथा १ सिंधुदेशं गतैर्गच्छनायकैः पंचनदी साधनं कार्यम् । २ तथा सूरिभिः प्रतिदिनं द्विशत् ( २०० ) वारं सूरिमंत्रजापः कार्यः । ४ खरतर श्राद्धरुभयकालं गृहे वा उपाश्रये वा सप्त स्मरणानि गुणनीयानि । ५ साधुभिनित्यं द्विसहस्र नमस्कार गुणनीयाः। तत्रैकस्मिन्मणिके एको नम स्कार एकं च उपसर्गहरस्तोत्रं एवं यद्गुणनं तत् खिच्चडिका इत्युच्यते । ६ तथा खरतर श्राद्धर्मासमध्ये आचाम्लद्वयं कार्यम् । ७ खरतर साधुभिः सति सामर्थे सदा एकाशनकं कार्यम् । इति । पुनस्ताभिरुक्तं-१ दिल्ली, २ अजमेरु, ३ भरुअच्छ, ४ उज्जैन, ५ मुलतान, ६ उच्चनगर, ७ लाहोर-एतन्नगरसप्तके परिपूर्णशक्तिरहितैः खरतर गच्छनायकै रात्रौ न स्थातव्यमित्युक्त्वा स्वस्थानं जग्मुः। तथा पुनरजमेरुनगरे पाक्षिक प्रतिक्रमणं कुर्वद्भिः श्री गुरुभिः पुनः पुनर्सनत्कारं कुर्वाणा विद्युत् मंत्रबलेन जलपात्रस्याधोभागे रक्षिता, ततः प्रतिक्रमणानंतरं पात्राधोभागात निष्कास्य 'जिनदत्तनाम्नि गृहिते सति नाहं पतिष्यामीति' तद्वरं गृहीत्वा मुक्ता स्वस्थानं गता। तथा पुनरेकदा गुरवो विहारं कुर्वाणा वृद्धनगरं प्राप्ताः, तत्र जिनमतोन्नतिमसहमाना ब्राह्मणा जिनचैत्ये म्रियमाणां गां प्रक्षिपतिस्म । ततो मृता गौः। तां च विलोक्य, ब्राह्मणाः प्रोचुः-अहो जैनानां देवो गोधातक इति । ततो विलक्षीयतः श्रावकैर्गखो विज्ञप्ताः, तदा गुरुभिमंत्रबलेन व्यंतरप्रयोगेण मृता गौः सज्जीकृता; ततः सा गौः स्वयमेव जिनगृहादुत्थाय शिवदेवगृहे शिवमूरुपरि आगत्य निपतिता । ततो नगरे ब्राह्मणानामती. B. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-२ ॥ वोपहासो जातः । तदा लज्जिता ब्राह्मणा गुरूणां चरणयोनिपतिताः, इत्थं कथयामासुश्च-भो स्वामिनो यूयं महन्तः। इतः परमस्मिन् नगरे ये केपि भवत्परंपरायां सूरयः समेष्यन्ति तेषां प्रवेशोत्सवं वयं करिष्यामहे इति । तदानीं भूयसी जिनमतप्रभावना जाता । तथा पुनरन्यदा उच्चनगरे गुरवः समागतास्तत्र प्रवेशोत्सवे जायमाने जनानामतिबाहुल्यात् तद्ग्रामाधीशस्य मुगलस्य पुत्रो वाहनान्निपत्य मृतः, तदा श्राद्धाः सर्वेपि विमनस्का जाताः, अथ तेषां मुखात् श्री गुरुभिरेतत् स्वरूपं विज्ञाय जिनमतप्रभावनार्थ मद्यमांसभक्षणमस्मै न कारयितव्यमित्युक्त्वा व्यंतरप्रयोगेण षण्मासान् यावत् स मृतो मुगलपुत्रः सजीवः कृतः। तथा पुनर्नागदेवनामा श्राद्धः अंबड इत्यपर नामा एकदा गिरनार पर्वते उपवास त्रयं कृत्वा अंबिकां समाराध्य च 'हे ! मातरस्मिन् समये भरतक्षेत्रे युगप्रधानपदधारकः कः सरिरस्ति, यमहमात्मनो गुरुत्वेन स्थापयामीति' पृष्टवान्। तदा अंबिकादेव्या तस्य हस्ते सुवर्णाक्षरैः-दासानुदासा इव सर्वदेवाः, यदीय पादाब्जतले लुठंति । मरुस्थले कल्पतरुः स जायात्, युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ॥ १॥ इत्येतकाव्यं लिखित्वा प्रोक्तं ' य एतानि तव हस्ताक्षराणि प्रकटयिष्यति स सूरियुगप्रधानो ज्ञेयः । ततः स श्राद्धः स्थाने २ बहुभ्यः सूरिभ्यो हस्तमदर्शयत् परं कोपि अक्षराणि वाचयितुं न समर्थो बभूव । अथैकदा स पाटणनगरे त्रांबावाडाभिधपाटके श्री जिनदत्तसूरीणां पार्श्व समागत्य हस्तं दर्शितवान्, गुरुभिस्तद्हस्तलिखितस्वर्णाक्षराणामुपरि वासचूर्णप्रक्षेप कृत्वा शिष्याय आज्ञा दत्ता। ततो वाचितानि शिष्येण तान्यक्षराणि । तदा स नागदेवः परमभक्तिमान् श्रावको बभूव । एवं विधाः कलिकाले युगप्रधान-पदधारकाः श्री गुरवो जाताः। तथा पुनरेकदा व्याख्यानं कुर्वद्भिः श्री गुरुभिर्दी!पयोगेन समुद्रमध्ये निमज्जतं श्रावकस्य पोतं विज्ञाय स्वस्मरणं कुर्वतां जनानामुपकारार्थ व्याख्यानपृष्टकं मध्ये मुक्त्वा पक्षिरूपेण समुद्रे गत्वा पोतस्तारितः। एवं श्राद्धस्य कष्टं दूरी कृत्य पश्चादागत्य व्याख्यानं कर्तु समुपविष्टा ज्ञातश्चेष वृत्तांतः सर्वेरपि लोकः, ततः श्री गुरूणां महामहिमा प्रससार । तथा पुनरन्यदा श्री गुरवः प्रबलप्रवेशोत्सवेन मुलताननगरे समागताः, तदा चतुःपथे स्थितेन पत्तनवास्तव्य परपक्षीय-अंबडनाम्ना श्रावकेण खरतर गच्छोन्नतिमसहमानेन प्रोक्तं-- 'अस्मिन्नगरे इत्थमाडंबरेण भवद्भिरागम्यते परं अगहिल्लपत्तने यद्येवं भवदागमनं स्यात्तदा ज्ञायते' इति । अथैतत् श्रुत्वा गुरुभिरुक्तं 'भो ! वयमनेनैव प्रकारेण तत्रायास्यामः, परं त्वं तैललवणादिकं स्कंधे वहन् सन्मुखं मिलिष्यसीति' । अथ गुरवः कियद्भिर्वासरैरणहिल्लपत्तने समाजग्मुः । तदानीं स अंबडश्राद्धो दैववसान्निर्धनो जातः। ततो ग्राहकभयात् मुलतान नगरात् पलाय्य पत्तने समागत्य तैललवणादि व्यापारेणाजीविकां कुर्वन् प्रवेशोत्सवे जायमाने गुरूणां सन्मुखं भिलितः, गुरुभिरुपलक्ष्य शब्दितस्ततो गुरूपरि अति द्वेषं वहन् कपटेन खरतर श्राद्धो बभूव । एकदा श्री गुरुभ्यो विषमिश्रितं शर्कराजलं पायितवान् । ततो गुरुभिर्विषप्रयोगं ज्ञात्वा तात्य रायभणशालिक गोत्रीय आभूनामकं सुख्यश्राद्धं प्रति तत्स्वरूपं निवेद्य घटिकायोजनगाभिना क्रमेलकेन पाल्हणपुरात् विपापहारिणीमुद्रामानाय्य निर्विषैर्जाताः। अथ स Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ ॥ खरतरगच्छ पटावली-२ ॥ अंबडो लोकैः निंद्यमानस्ततो मृत्वा व्यंतरो भूत्वा छलनार्थ गुरुछिद्राणि पश्यतिस्म । एकदा पट्टात् रजोहरणप्रपतनेन छलिता गुरवस्तेन। ततः श्री गुरून व्यग्रान् विलोक्य आभूनामक श्रावकेण तव्यंतरवचसा स्वकुटुंबं गुरूणामुपरि ढोकयित्वा सज्जीकृता गुरवस्ततो गुरुभिस्तदंबडच्छलं ज्ञात्वा रजोहरणं गृहीत्वा तत्प्रयोगेण जीवितं सर्वमपि तत् कुटुंबम् । ततो नष्टो व्यंतरः स्वस्थानं ययौ। तथा पुनरेकदा विक्रमपुर मरकोपद्रवः प्रादुर्भूतः, ततो गुरुभिर्जेनेभ्यः स उपद्रवो वारितः, तदा दुःखितैर्माहेश्वरैरुक्तं-'स्वामिन् ! अस्मदुपर्यपि एषा कृपा विधेया' ततो गुरुभिर्वचनं गृहीत्वा तेषामपि मरकोपद्रवो निरस्तस्तदा बहवो माहेश्वराः श्रावकाः कृताः; तथा केपि शैवाः श्राद्धा न जाताः। तन्मध्ये यस्य चत्वारः पुत्रास्तस्य एकः पुत्रो गृहीतो, यस्य चतस्रः पुत्र्यस्तस्यैका पुत्री गृहीता, एवं च पंचशत (५००) शिष्याः, सप्तशत (७००) साध्व्यश्च दीक्षिताः। इत्थं श्रीजिनदत्तसूरिभिर्वहुषु नगरेषु नाहटा, राखेचा, भणशाली, नवलखा, डागा, लूणीया इत्यादि गोत्रालंकृताः साधिकेक (१) लक्ष श्राद्धाः प्रतिबोधिताः। तथा श्रीगुरुभिर्मुलताननगरे लूणीया गोत्रीय हाथी साहस्योपरि कृपां विधाय प्रतिक्रमणे तस्मै "अजियंजियसव्वभयं” इति स्तोत्रं दत्तम् । तथा अणहिल्लपत्तने बोहित्थरा गोत्रीय श्रावकेम्यो " जयतिहुयण वर कप्प रुक्ख" इति स्तोत्रं दत्तम् । तथा गुरुभिर्मेडताख्ये नगरे गणधर चोपडा गोत्रीय श्राद्धेभ्य " उक्सग्गहरं पासं" इति स्तवनं प्रदत्तम्। अथैवंविधाः क्षत्रीयब्राह्मणादि-कुलीन-साधिकलक्षश्राद्धप्रतिबोधकाः, जलभ्रमोपरि कंबलास्तरणादि प्रकारेण पंचनदीसाधकाः, संदेहदोलावल्याद्यनेकग्रन्थविधायकाः परकायप्रवेशिन्यादि-विविधविद्यासंपन्नाः, परोपकारकारिणः, परमयशःसौभाग्यधारिणः, श्री खरतर गच्छनायकाः महाप्रभावकाः श्रीजिनदत्तसूरयः सं० १२११ आषाढ शुदि एकादस्यामजमेरु नगरे अनशनं कृत्वा प्रथमं स्वर्ग गताः ॥ ४४ ॥ ॥श्री जिनदत्तसूरीणां गुरूणां गुणवर्णनम् । मया क्षमादिकल्याणमुनिना लेशतः कृतम् ॥ सविस्तरेण तत्कर्तुं सूराचार्योपि न क्षमः। ४५. तत्पट्टे पंचचत्वारिंशत्तमः श्री जिनचंद्रसूरिः। स च सं० ११९७ भाद्रपद शुक्ल अष्टम्यां लब्धजन्मा, पिता साह रासलकः माता देल्हणदेवी तयोः पुत्रः। सं० १२०३ फाल्गुण कृष्ण नवम्यां अजमेरुपुरे संप्राप्तदीक्षः। सं० १२११ वैशाख सुदि षष्ठ्यां विक्रमपुरे रासलकृतनंदिमहोत्सवेन श्रीजिनदत्तसूरिभिः स्वयमाचार्यपदे स्थापितः । नरमणि मंडितभालः, खंज-क्षेत्रपालसंसेवितश्च संजातः । अथान्यदा श्री गुरवो गुजरदेशं प्रति गच्छंतः श्रीपाल मदनपाल श्रीचंदादि संघाग्रहेण दिल्लीनगरे समागताः, तत्रैकदा गुरुभिरंत्यावस्थायां मदनपालश्राद्धाय उक्तं-'अस्माकं मस्तके मणिरस्ति, सा चाग्निसंस्कारसमये दुग्धभृतपात्ररक्षणेन भवता गृहीतव्या, तथा मार्गमध्ये विश्रामग्रहणार्थ सेढिका न विमोच्या, इति । ततः सर्वायुः षड् विंशति वर्षाणि प्रपाल्य सं० १२२३ भाद्र कृष्ण चतुर्दश्यामनसनेन स्वर्ग गताः। तदा सर्वे श्रावकाः संमील्य अग्निसंस्कारणार्थ चलिता यावता च Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली -२ ॥ माणिक्यचतुष्के समागताः तावता तैः कार्याकुलत्वेन प्रागुक्तगुरुवचनविस्मरणात् विश्रा मा सेकिsar विमुक्ता, मणिग्रहणाय दुग्धपात्रमपि न रक्षितं परं तत्रैको विद्यावान् योगी माजिघृक्षया दुग्धपात्रं भृत्वा एकांते स्थितः । अथ सा सेढिका बहुप्रयत्नेन उत्पाट्य मानापि नोत्तिष्ठतिस्म । ततः सर्वस्मिन्नपि नगरे एषा वार्त्ता प्रवृत्ता, क्रमेण पतिसाहिनापि श्रुता । ततः स्वयं तत्र आगत्य बहव उत्पाटनोपाया अपि कृताः, परं सेढिका पदमात्रमपि ततो न चलिता, ततः पतिसाहिना प्रोक्तं- 'सत्यो यं देवः, एतस्य स्थानमत्रैव भवतु ' ततः श्रावकैस्तत्रैवाग्निसंस्कारः कृतः । तस्मिन्नवसरे मणिर्गुरुमस्तकात् फडाकशब्दं कृत्वा योगिरक्षित दुग्धपात्रे आगत्य निपतिता, योगी च तां गृहीत्वा स्वस्थानं ययौ । तदा मदनपालेनोक्तं गुरुभिमह्यं प्रागुक्तमासीत्, परमहं त्वरावसात् विस्मृतः । ततः सर्वैः साधु श्रावकैः तस्मै उपालंभो दत्तः । अथ तत्रैव जिनचंद्रसूरीणां स्तूपस्थापना कृता, पतिसाहिप्रमुखैः सर्वैरपि लोकैर्बहुमानो विहितः, तत् स्थानमद्यापि पूज्यमानं प्रवर्त्तते । एवं विधाः सप्रभावाः श्री गुरखो जाताः । इतश्चतुपट्टे सातिशयजिनचंद्रेति नाम स्थाप्यमिति पद्मावती वचनात् व्यवस्था जाता ॥ ४५ ॥ ४६. तत्पट्टे षट्चत्वारिंशत्तमः श्री जिनपतिसूरिः । तस्य च सं० १२१० चैत्र वदि अष्टम्यां मूल नक्षत्रे जन्म । तथा माल्हूगोत्रीय साह यशोवर्द्धनः पिता, सूहवदेवी माता । सं० १२१८ फाल्गुण वदि अष्टम्यां दिल्लीनगरे दीक्षा । सं० १२२३ कार्तिक सुदि त्रयोदश्यां श्रीजयदेवाचार्येण पदस्थापना कृता । अथ श्रीजिनपतिसूरय एकदा बब्बेरनानि पत्तने समाजग्मुः तत्र षट्त्रिंशद्वादेषु जयो लब्धः । बह्री जिनशासन - प्रभावना कृता । तथा पुनरेकदा आसापुरे श्रीमालज्ञातीय हाजीसाह कारित प्रतिष्ठावमरे मणिग्राहिणा योगिना जिनप्रतिमा स्तंभिता । तदा सचिन्तै गुरुभिः स्वगुरवः समाराधिताः । ततः श्रीजिनचंद्र सूरिभिः प्रादुर्भूय चूर्ण दत्तम् । अथ प्रभाते गुरुभिः प्रतिमोपरि तच्चूर्ण प्रक्षिप्तं तेन सद्य उत्थि ता प्रतिमा, ततो रंजितेन योगिना मणिः पश्चात् प्रदत्ता, श्री गुरूणां भूयान्महिमा प्रससार तथा पुनरेकदा श्री गुरवोऽजमेरु नगरे चतुर्मास्यां स्थिता आसीत्, तदा तत्रत्य रामदेवादि rantri पुरः सदैव खेड वास्तव्य छाजेडगोत्रीय मंत्रि ऊधरण साहस्य प्रशंसामकुर्वन् । एकदा रामदेव श्राद्धो मंत्रि ऊधरणं प्रति मिलितः, तदा तेन मंत्रिणा रामदेव बहादरेण स्वगृहं समानीय विधिना भोजनादिभिस्तद्भक्तिः कृता, तस्मिन्नवसरे मंत्रिपत्नी देवगृहे देववंदनार्थं चलिता शाटक-कंचुकाद्यनेक वस्त्रता छव्वडिका सार्थे गृहीतवती । तदा रामदेवेन पृष्ट - किमर्थमेताः, ततः सेवकः उक्तं साधर्मिक स्त्रीभ्यः प्रदानार्थ सदैव गृह्यते । तदा रामदेव उवाच श्री जिनपतिसूरयो यद् भवत्प्रशंसां कुर्वन्ति तद् योग्यमेव, यद् गृहे इत्थं धर्मकार्याणि जायते इति । 看 अथैकदा ऊधरण मंत्रणा नागपुरे देवगृहं कारितं तदा विवप्रतिष्ठानिमित्तं मंत्रिणा स्वकीयाः कुलगुरवः समाहूताः परं केनापि कारणेन मुहूर्तोपरि नागताः । अपरं च ऊधरणस्य भार्या खरतर गच्छीय श्राद्धस्य पुत्री आसीत्, तया मंत्रिकुलगुरून् हीनाचारिणो मत्वा शुद्धसंवेगरंगधारिणः Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली-३॥ ३९ श्रीजिनपतिसूरयः समाहृताः, ते च मुहूर्तोपरि तत्रागताः। तदा तेषां पार्श्वे प्रतिष्ठा कारिता । जधरणमंत्रि सकुटुंबः खरतर गच्छीय श्रावकश्च बभूवः तस्य च कुलधरनामा पुत्रो जातो येन बाहडमेरनगरे उत्तुंगतोरणप्रासादः कारितः। तथा पुनर्मरोटवास्तव्य नेमिचंद्र भांडागारिकेण परीक्षां कृत्वा शुद्धसंवेगवतः श्रीगुरून् ज्ञात्वा चारित्रेच्छां कुर्वाणो अंबडनामा स्वपुत्रो गुरुभ्यो दत्तः। एवंविधाः श्रीजिनपतिसूरयः सर्वायुः सप्तपष्टि वर्षाणि प्रपाल्य, सं० १२७७ पाल्हणपुरे स्वर्ग गताः। तदा सं० १२१३ आंचलिक मतं जातं । तथा सं० १२८५ चित्रवाल गच्छीय जगच्चंद्रसूरितः तपागणो जातः॥ ४७. श्री जिनपतिमरिपट्टे सप्तचत्वारिंशत्तमः श्री जिनेश्वरसूरिः। तस्य च सं० १२४५ मार्गशीर्ष सुदि एकदश्यां भरणीनक्षत्रे जन्म । तथा मरोटवास्तव्यभांडागारिक नेमिचंद्रः पिता, लक्ष्मी माता, तयोः पुत्रो अंबड इति मलनामा । सं० १२५५ खेडनगरे दीक्षां दत्त्वा गुरुभिरिप्रभ इति नाम दत्तं । ततः सं० १२७८ माघसुदि षष्ठयां जालोर नगरे माल्हूगोत्रीय साह खीमसीकारित द्वादश सहस्र रूप्यमुद्राव्ययरूप नंदिमहोत्सवेन सर्वदेवाचार्यप्रदत्त सूरिमंत्रेण पदस्थापना जाता। अथैकदा अणहिलपत्तने कुमारपालेन राज्ञा हेमाचार्याय प्रोक्तं- स्वामिन् ! यदि मह्यं स्वर्णसिद्धरुपायं दद्यास्तर्हि विक्रमादित्यवद् अहमपि नवीनं संवत्सरं प्रवर्त्तयामि' । तदा गुरुणोक्तं- श्रीहरिभद्रसूरिशिष्यानीतबौद्धपुस्तके स्वर्णसिद्धरुपायोस्ति, परं तत् पुस्तकं खरतर गच्छे विद्यते'। ततो राजा नानादेशनिवासिनो व्यापारार्थं पत्तने स्थितान् श्रावकान् निरुध्य कथयामास 'यदि पुस्तकं आनाययत तदा मुच्यध्वे' । ततः श्रावकैर्जिनेश्वरसूरिभ्यस्तत्स्वरूपं कथापितं, तदा गुरुभिश्चित्रकूटे गत्वा चिंतामणिपार्श्वनाथ चैत्यस्तंभात् पुस्तकं निष्कास्य पत्तने आनीय राज्ञे दत्तं, परंतु "इदं पुस्तकं न छोटनीयं न वाचनीयं, किंतु भाडांगारे पूजनीयमिति” पुस्तकोपरि लिखितानि वर्णानि विलोक्य राजा उवाच-'अहं तु नैतत् पुस्तकं छोटयामि'। हेमा. चार्येणाप्युक्तं-'महापुरुषाणां वचनं न लोपनीयं । तदा हेमाचार्यभगिनी हेमश्री म महत्तरा उवाच-'अहं छोटयामि जिनदत्तसूरिवचनात् नाहं विभमि'। ततो राज्ञा तस्यै पुस्तकं दत्तं, तया छोटितं परं तत्कालमेव तस्या द्वे अपि चक्षुषी निःसृत्य पतिते; ततो अंधत्वं प्राप्तां तां दृष्ट्वा राज्ञा पुस्तकं स्वभंडागारे मुक्तं रात्री अग्नेर्लग्नात् तद्भांडागारं सर्वमपि ज्वलितं, तदा तत् पुस्तकं आकाशे उड्डीय स्वस्थानं प्राप्तम् । एवंविधाः श्री जिनेश्वरसूरयः सं० १३३१ आश्विन वदि षष्टयां अनशनेन स्वगं गताः॥४७॥ तद्वारके १३३१ जिनसिंहसूरितो लघु खरतर शाखा भिन्ना । अयं तृतीयो गच्छभेदः॥ ४८. श्री जिनेश्वरसूरि पट्टेऽष्टचत्वारिंशत्तमः श्रीजिनप्रबोधरिः। स च दुर्गप्रबोधव्याख्याता । साह श्रीचंद-भायां सिरीयादेवी तयोः पुत्रः। सं० १२८५ लब्धजन्मा पर्वत इति मूलनामा । सं० १२९६ फाल्गुण वदि पंचम्यां हस्ताकें थिरापद्रनगरे गृहीतदीक्षः, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । खरतरगच्च पदावली-२॥ प्रबोधमूर्तिरिति दत्तनामा क्रमेण वाचकपदं प्राप्तः, ततः सं० १३३१ आश्विन वदि पंचम्यां संक्षेपेण कृतपट्टाभिषेकः । पश्चात् सं० १३३१ फाल्गुणवदि अष्टम्यां स्वातिनक्षत्रे जालोरवास्तव्य माल्हूगोत्रीय साह खीमसीकेन पंचविंशति सहस्र (२५०००) रूप्यक व्ययेन सविस्तरं विहितपदमहोत्सवः । एवंविधः श्री जिनप्रबोधसूरिनिर्मलचारित्रमाराध्य सं० १३४१ स्वर्ग गतः ॥४८॥ ४९. तत्पट्टे एकोनपंचाशत्तमः श्रीजिनचंद्रसूरिः। तस्य च समियाणाभिधग्रामवास्तव्य छाजहडगोत्रीय मंत्रिदेवराजः पिता, कमलादेवी माता, खंभराय इति मूल नाम । सं० १३२६ मार्गशीर्ष सुदि चतुर्थी जन्म । सं० १३३२ जालोरनगरे दीक्षा। सं० १३४१ वैशाखसुदि तृतीयायां सोमवारे जालोरवास्तव्य माल्हूगोत्रीय साहखीमसीकेन द्वादशसहस्र (१२०००)रूप्यकव्ययेन पदमहोत्सवः कृतः। एवंविधाश्चतुर्नूपप्रतिबोधकाः, कलिकाल-केवलीति विरुदविख्याताः, जितानेकवादिनः, जिनशासनोन्नतिकारिणः, श्रीजिनचंद्रसूरयः सं० १३७६ कुसुमाणाख्ये ग्रामे स्वर्ग गताः ॥४९॥ तद्वारके खरतर गच्छस्य राजगच्छ इति प्रसिद्धिर्जाता । ५०. तत्पट्टे पंचाशत्तमः श्रीजिनकुशलसूरिः। तस्य च समियाणाभिधग्रामवास्तव्य छाजहड गोत्रीय मंत्रि जील्हागरः पिता, जयंतश्रीः माता, सं० १३३० जन्म। सं० १३४७ दीक्षा । स० १३७७ जेष्ट वदि एकादश्यां राजेंद्राचार्येण सूरिमंत्री दत्तः। तदा पाटणवास्तव्य माह तेजपालेन नंदिमहोत्सवः कृतः । चतुर्विंशतिशत (२४००) साधु-साध्वीभ्यः, तथा सप्तशत (७००) वेषधारि दर्शनि प्रमुखेभ्यो वस्त्राणि दत्तानि तथा तस्मिन्नवसरे दिल्लीवास्तव्य महनीयाणगोत्रीय विजयसिंह श्राद्धः तत्रागतस्तेनापि बहुधनव्ययेन नंदिमहोत्सवः कृतः । तथा सं० १३८० साह तेजपाल कृत संधेन साधं शत्रुजयतीर्थे समागतैः गुरुभिर्मानतुंग नाम्नि खरतर वसतिप्रासादे सप्तविंशत्यंगुलप्रमाण श्रीआदिनाथविव-प्रतिष्ठा कृता। तथा भीमपल्लीनगरे भवनपालकारित द्वासप्तति (७२) देवकुलिकामंडित श्रीवीरचैत्यं प्रतिष्ठितम् । तथा जेसलमेरुनगरे जमधवलकारितचिंतामणिपार्श्वनाथप्रतिष्ठा कृता। तथा पुनः जालोरनगरे श्रीपार्श्वनाथप्रतिष्ठा विदिता। तथा आगराभिधनगरनिवासी-श्रीसंघस्य आग्रहेण तत्सार्थे भूत्वा शत्रुजय यात्रां कृत्वा भाद्रपदवदि सप्तम्यां पाटणनगरे आजग्मे । तथा श्रीगुरूणां द्वादशशत (१२००) साधु पटायो जातः, पंचाधिकैकशत (१०५) साध्वी संप्रदायोऽभूत् । तथा श्रीगुरुभिविनयप्रभादिशिष्येभ्य उपाध्यायपदं दत्तं,येन विनयप्रभोपाध्यायेन निर्धनीभूतस्य निज भ्रातुः संपत्तिसिद्धयर्थ मंत्र गर्भितगौतमरासो विहितस्तद्गुणनेन स्वभ्राता पुनर्धनवान्जातः। एवंविधा बहुश्रावकप्रतिबोधकाः, परम जिनधर्मप्रभावकाः, श्रीजिनकुशलसूरयः, सं० १३८९ फाल्गुणवदि अमावस्यां देराउर नगरे अष्टौ दिनानि यावत् अनशनं कृत्वा स्वर्ग प्राप्ताः। ते च अधुनापि " दादौजी" इति नाम्ना सर्वत्र जगति प्रसिद्धाः संति, प्रति नगरं गुरूणां चरणन्यासौ पूज्यते, सोमवत्यां पौर्णमास्यां प्रथमं दर्शनं दत्तं, तेन तद्दिने विशेषेण पूजा प्रवर्तते इति ॥५०॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || खरतरगच्छ पट्टावली -२ ।। ५१. तत्पट्टे एकपंचाशत्तमः श्रीजिनपद्मसूरिः । तस्य च छाजहडवंशविभूषणस्य सं० १३८९ जेष्ट सुदि पष्ट्यां श्री देराउरपुरे साह हरपालेन नंदिमहोत्सवः कृतः । तदा अष्टमे वर्षे तरुणप्रभाचार्येण सूरिमंत्रो दत्तः । अथैकदा श्रीगुरुर्बाडमेरुनगरे श्री वीर - प्रासादे देववंदनार्थं आजग्मे, तदा देवगृहस्य लघु द्वारं महती च प्रतिमां विलोक्य, पंजाबदेशोत्पन्नत्वात्तद्देशभाषया प्रोक्तं- ' चूहा नंदा वसही बड्डी अंदर क्युं माणीति अथेग् वचनैः प्रकटितवालभावं, श्रीगुरुं प्रति पार्श्वस्थितेन विवेकसमुद्रोपाध्यायेन मौंन कुरु, इति प्रोक्तं; ततो व्याख्यानादि स्थितिं प्रवर्त्तयता तेनोपाध्यायेन सार्द्ध श्री गुरवो गुर्जरदेशे आगताः, तत्र पाटणपार्श्वे सरस्वती नदीतटे रात्रौ स्थिताः परं तदानीं गुरुचेतसि इयं चिंता समुत्पन्ना -' प्रभाते संघाग्रेऽनया भाषया कथं व्याख्यानं करिष्ये' अथैवं चिंतयतां गुरूणां भाग्येन अर्धरात्रसमये सरस्वतीनद्या अधिष्ठायिका सरस्वती देवी प्रादुर्भूय इत्थं वरं दत्तवती - 'भो स्वामिन् ! प्रभाते त्वं संघाग्रे यत् किमपि वक्ष्यसि तद्वचः सकलजनमनोहारि भविष्यति । ततः प्रभाते समस्तसंघाग्रे श्री गुरुभिः स्वयमेव “ अर्हतो भगवंत इंद्रमहिता ” इत्यादि नवीनोत्पादित काव्येन उपदेशो दत्तः तदा समस्तोपि संघो श्री गुरुवाग्विलासश्रवणेन रंजितमना संजातः । तत्र गुरुभिः “ बालधवलकूर्चाल सरस्वती ” बिरुदं प्राप्तम् । एवंविधाः श्री जिनपद्मसूरयः सं० १४०० वैशाख सुदि चतुर्दश्यां पाटण नगरे स्वर्गं गताः ॥ ५१ ॥ " 64 ३१ " ५२. तत्पट्टे द्विपंचाशत्तमः श्रीजिनलब्धिमूरिः । तस्य च पाटणवास्तव्य नवलखागोत्रीय साह ईश्वरकृतनंदिमहोत्सवेन पदस्थापना जाता । तरुणप्रभाचार्येण सूरिमंत्रो दत्तः । ततः क्रमेण श्री गुरु: सर्वसैद्धांतिकशिरोमणिरष्टविधानपूरकश्च संजातः । स च सं० १४०६ नागपुरे स्वर्ग भाक् ॥ ५२ ॥ ५३. तत्पट्टे त्रिपंचाशत्तमः श्री जिनचंद्रसूरिः । तस्य च सं० १४०६ माघ सुदि दशम्यां नागपुरवास्तव्य श्रीमाल साह हाथीकृत नंदिमहोत्सवेन पदस्थापना जाता । तरुणप्रभाचा - for सूरिमंत्रो दत्तः । श्री गुरुः सं० १४१५ आषाढ वदि त्रयोदश्यां स्तंभतीर्थे स्वर्गभाक् ॥५३॥ ५४. तत्पढे चतुःपंचाशत्तमः जिनोदयसूरिः । तस्य च पाल्हणपुरवास्तव्य माल्हूगोत्रीय साह रुंदपाल पिता, धारलदेवी माता, सं० १३७५ जन्म, समरौ इति मूलनाम । सं० १४१५ आषाढसुदि द्वितीयायां स्तंभतीर्थे लूणीयागोत्रीय साह जेसलकृत नंदिमहोत्सवेन श्री तरुणप्रभाचार्येण पदस्थापना कृता । ततः श्रीगुरुभिः तत्र श्रीस्तंभतीर्थे अजितजिनचैत्यप्रतिष्ठितं, तथा श्री शत्रुंजययात्रां कृत्वा तत्र पंच प्रतिष्ठाः कृताः । एवं विधाः पंचपर्वदिनोपवासकारकाः, द्वादश ग्रामेषु अमारिघोषणा प्रवर्त्तकाः, अष्टाविंशति (२८) साधुपरिवारेणानेकदेशविहारकारिणः, श्रीजिनोदयसूरयः सं० १४३२ भाद्रपद वद एकादश्यां पाटणनगरे स्वर्गं गताः । तद्वारके सं० १४२२ वेगड खरतर शाखा भिन्ना; तदेवप्रथमं धर्मवल्लभवाचकाय आचार्यपद प्रदानविचारः कृत आसीत्, पश्चात् तं सदोपं ज्ञात्वा द्वितीयशिष्याय आचार्यपदं दत्तं । तदा रुष्टेन धर्मवल्लभगणिना जेसलमेरुवास्तव्य वेगड़ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली-२॥ छाजहडगोत्रीय स्वसंसारिणामग्रे सर्वोपि स्ववृत्तांतः प्रोक्तः। ततः तेषां मध्ये कैश्चित् तद् भ्रातादिभिरुक्तं 'अस्माकं त्वमेवाचार्यः, वयमन्यं न मन्यामहे' इति । तदा तत्रायं चतुर्थो गच्छभेदो जातः। परं तत्संसारिण एव द्वादश श्रावका जाताः, नान्ये; तथा गुरुशापात् तद्गच्छे प्राय एकोनविंशति (१९) यतिभ्योऽधिका यतयो न भवंति, यदि स्यात् तदा म्रियतेभ्रष्टो वा स्यात् इति ॥५४॥ ५५. श्रीजिनोदयमूरिपट्टे पंच पंचाशत्तमः श्रीजिनराजमूरिः। तस्य च सं० १४३२ फाल्गुनवदि षष्ठयां पाटणनगरे साह धरणकृतनंदिमहोत्सवेन सूरिपदं जातं । ततो मुखाधीतसपादलक्षप्रमाण न्यायग्रन्थाः, श्री स्वर्णप्रभाचार्य, भुवनरत्नाचार्य, सागरचंद्राचार्य स्थापकाः, श्री गुरवः सं० १४६१ देवलवाडाख्ये नगरे स्वर्ग गताः॥ ५५॥ ५६. तत्पट्टे षट्पंचाशत्तमः श्री जिनभद्रसूरिः। तत् प्रबंधो यथा-सागरचंद्राचार्येण श्री जिनराजसूरिपट्टे श्री जिनवर्द्धनसूरिः स्थापित आसीत् । स चैकदा जेसलमेरुदुर्गे श्री चिंतामणिपार्श्वदेवगृहे मूलनायकपार्थस्थितां क्षेत्रपालमूर्ति विलोक्य, स्वामिसेवकयोस्तुल्यस्थाने अवस्थानमयुक्तमिति विचिंत्य च क्षेत्रपालमूर्ति उत्पाट्य द्वारे स्थापितवान् , ततः कुपितः क्षेत्रपालो यत्र तत्र गुरूणां चतुर्थव्रतभंगं दर्शयामास । अनया रीत्या एकदा चित्रकूटे समागताः, तत्रापि देवेन तथैव कृतं, ततः सर्वेपि श्रावकाः चतुर्थव्रतभंगं ज्ञात्वाऽयं पूज्यपदयोग्यो नास्ति, इति कथयामासुः, अथ जिनवर्द्धनसूरयो व्यंतरप्रयोगेण ग्रथिलीभूताः संतः पिप्पलकग्रामे गत्वा स्थिताः, कियंतः शिष्याः पार्श्वे स्थितवंतः। अथ पश्चात् सागरचंद्राचार्यप्रमुखसमस्तसाधुवर्गेण एकत्रीभूय ‘गच्छस्थितिरक्षणार्थं नवीन आचार्यः स्थाप्य' इति विचारं कृत्वा एकं नवीनं क्षेत्रपालमाराध्य तं च सर्वेषु देशेषु संप्रेष्य'यद्यूयं करिष्यध्वे तदस्माकं प्रमाणमिति' समस्त खरतरगच्छ-संघस्य हस्ताक्षराणि आनाय्य सर्वसाधुमंडली संमील्य भाणसोलग्रामे आजग्मे । तत्र श्रीजिनराजसूरिभिरेकः स्वशिष्यो वाचकशीलचंद्रगणिपार्श्वेऽध्यापनाय रक्षितोऽभूत् । स च अधीतसकलसिद्धान्तार्थः, भणसालिक गोत्रीयः, भादौ इति मूल नामा। सं० १४६१ गृहीतदीक्षः। क्रमेण पंचविशति वर्षीयो जातः। तं च योग्यं ज्ञात्वा श्री सागरचंद्राचार्यः सप्त भकाराक्षराणि संमील्य सं० १४७५ माघ सुदी पौर्णमास्यां भणसालिक नाल्हा साहकारित सपादलक्षरूपकव्ययरूपनंदिमहोत्सवेन सूरिः स्थापितवान् । सप्त भकारास्तु अमी-१ भाणसोल नगरं, २ भणशालिक गोत्रं, ३ भादौ नाम, ४ भरणी नक्षत्रं, ५ भद्रा करणं, ६ भट्टारकपदं, ७ जिनभद्रसूरीति स्थापित नाम, इति । अथैवंविधा अर्बुदाचल, गिरिनार, जेसलमेरु प्रमुखस्थानेषु बिंबप्रासादप्रतिष्ठाकारकाः, श्री भावप्रभाचार्य, कीर्तिरत्नाचार्य-स्थापकाः। स्थान २ पुस्तक भांडागारस्थापकाः, श्री जिनभद्रसूरयः, सं० १५१४ मार्गशीर्ष वदि नवम्यां कुंभल मेरुनगरे स्वर्ग प्राप्ताः। तद्वारके सं० १४७४ श्री जिनवर्द्धनसूरितः पिप्पलक खरतर शाखा भिन्ना। अयं पंचमो गच्छभेदः ॥५६॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टापली-२॥ ५७. तत्पट्टे सप्तपंचाशत्तमः श्री जिनचंद्रसूरिः। तस्य च जेसलमेरुवास्तव्य चम्मगोत्रीय साह वच्छराजः पिता, बाल्हादेवी माता । सं० १४८७ जन्म, सं० १४९२ दीक्षा, सं० १५१४ वै० व० २ कुंभलमेरु वास्तव्य कूकडचोपडागोत्रीय साह समरसिंहकृतनंदिमहोत्सवेन श्री कीर्तिरत्नाचार्येण पदस्थापना कृता । ततो अर्बुदाचलोपरि नवफणपार्श्वनाथप्रतिष्टाविधायकाः, श्रीधर्मरत्न, गुणरत्नमूरि, प्रमुखानेकपदस्थापकाः श्री जिनचंद्रसूरयः सं० १५३० जेसलमेरुनगरे स्वर्ग प्राप्ताः ॥५७॥ -तद्वारके सं० १५०८ अहमदावादे लौंकाख्येन लेखकेन प्रतिमा उत्थापिता, ततः सं० १५२४ वर्षे लौकाभिधं मतं जातं ॥ ५८. तत्पट्टे अष्टपंचाशत्तमः श्री जिनसमुद्रसूरिः। तस्य च बाहडमेरुवासी पारख गोत्रीय देकासाह पिता, माता देवलदेवी। सं० १५०६ जन्म, सं० १५२१ दीक्षा, सं० १५३० मा० सु० १३ जेसलमेरुवास्तव्य संघपति सोनपालकृतनंदिमहोत्सवेन श्री जिनचंद्रसूरिभिः स्वहस्तेन पदस्थापना कृता । ततः पंचनदी सोमयक्षादिसाधकाः, परमचारित्रवंतः, श्री जिनसमुद्रसूरयः सं० १५५५ अहमदावाद नगरे सर्ग गताः ॥५८॥ ५९. तत्पट्टे एकोनषष्टितमः श्री जिनहंसमूरिः। तस्य च सेत्रावाभिध नगरवास्तव्य चोपडागोत्रीय साह मेघराजः पिता, कमलादेवी माता । सं० १५२४ जन्म, सं० १५३५ दीक्षा, सं० १५५५ अहमदावादे पदस्थापना जाता। तथा सं० १५५६ वैशाखसुदि तृतीयायां रोहिणीनक्षत्रे श्रीवीकानेरनगरे करमसीमंत्रिणा पीरोजी-लक्षव्ययेन पुनः पदस्थापना-महोत्सवो विहितः। अथैकदा आगराभिधनगरवास्तव्य सं० डुंगरसी, मेघराज, पोमदत्त प्रमुख संघेन अत्याग्रहेण आहूताः श्री जिनहंससूरयः तत्र गताः । तदा पतिसाहिप्रहितहस्त्यश्वसिबिकावादित्रछत्रचामराद्याडंबरेण गुरूणां प्रवेशोत्सवो विहितः। तत्र गुरुभक्तिसंघभक्ति-आदौ द्विलक्षद्रव्यं व्ययीकृतं, तदसहमान-पिशुनकृतविकारेण पतिसाहिना गुरव आहूताः, धवलपुरे रक्षिताः । ततो देवकृतसांनिध्यात् श्री गुरवः पतिताहिचित्तं रंजयित्वा, पंचशत (५००) बंदिजनान् मोचयित्वा, अमारघोषणां कारयित्वा, उपाश्रये आगताः। हर्षितः समस्तोपि संघः। ततोऽतिसौभाग्यधारकाः, त्रिषु नगरे प्रतिष्ठात्रयकारकाः, अनेकसंघपतिप्रमुखपदस्थापकाः, श्री गुरवः पाटणनगरे त्रीणि दिनानि अनशनं कृत्वा सं० १५८२ स्वर्ग प्राप्ताः ॥ ५९॥ —तद्वारके सं० १५६४ मरुदेशे उपाध्याय (प्रत्यन्तरे आचार्य) शान्तिसागरतः आचार्य खरतर शाखा भिन्ना अयं षष्ठो गच्छभेदः॥ ६०. तत्पट्टे षष्टितमः श्रीजिनमाणिक्यसूरिः। तस्य च कूकडचोपडागोत्रीय साह जीवराजः पिता, पद्मादेवी माता । सं० १५४९ जन्म, सं० १५६० दीक्षा, सं० १५८२ वर्षे भाद्रपदवदि नवम्यां साह देवराजकृत नंदिमहोत्सवेन श्रीजिनहंससूरिभिः स्वहस्तेन पदस्थापना कृता । ततो गुर्जर देश, पूर्व देश, सिंधु देशादि विहारकारकाः, पंचनदीसाधकाः, Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || खरतरगच्छ पट्टावली - १ ।। सं० १५९३ मिते वीकानेरवास्तव्य वच्छासुत मंत्रि कर्मसिंहकारित नमिनाथ चैत्यविवप्रतिष्ठाकारकाः श्री जिनमाणिक्यसूरयः कियंति वर्षाणि जेसलमेरुदुर्गेऽवसन् । तदा मुनयः सर्वेपि शिथिलाचारा जाताः, प्रतिमोत्थापकमतं च बहु विस्तृतं । ततो बीकानेर वास्तव्य वच्छावत मंत्रि संग्रामसिंहेन गच्छस्थितिरक्षणार्थ श्री गुरव आहूताः, तदा भावतो विहितक्रियोद्धारैः श्रीगुरुभिः ' प्रथमं देराउरनगरे श्रीजिनकुशलसूरियात्रां कृत्वा पश्चात् परिग्रहं इतो विहारं करिष्ये' इति विचिंत्य गुरुयात्रार्थं देराउरे जग्मे । तत्र गुरुदर्शनं कृत्वा, जेसलमेरुं प्रति पश्चादागच्छतां गुरूणां मार्गे जलाभावात्पिपासापरीषहः समुत्पन्नः । ततो रात्रौ जलं मिलितं तदा गुरुभिश्चिंतितं “ मया इयंति वर्षाणि रात्रौ चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं कृतं, तदद्य एकस्मिन् दिने कथं विनाश्यते ' इति । ततः तत्रैव सं० १६१२ आषाढसुदि पंचम्यामनशनेन कालं कृत्वा स्वर्गतिं प्राप्ताः ॥ ६० ॥ ३४ ६१. तत्पढे एकषष्टितमः श्रीजिनचंद्रसूरिः । तस्य च तिमरीनगरपार्श्वस्थवडलीग्राम वास्तव्य रोहडगोत्रीय साह श्रीवतः पिता, सिरीयादेवी माता । सं० १५९५ जन्म, सं० १६०४ दीक्षा, सं० १६१२ भाद्रपदसुदि नवम्यां जेसलमेरुनगरे राउत मालदेवकारितनंदि महोत्सवेन सूरिपदं जातं । तदा एव रात्रौ श्रीजिनमाणिक्यसूरिभिः प्रादुर्भूय समवसरणपुस्तकस्थमाम्नायसहितं सूरिमंत्रपत्रं जिनचंद्रसूरिभ्यो दर्शितं । ततः श्रीजिन'चंद्रसूरयः संवेगवासनया वासितचित्ताः संतः गच्छे शिथिलत्वं दृष्ट्वा सर्व परिग्रहं परित्यज्य मंत्रिसंग्रामसिंहपुत्रकर्म चंद्राग्रहेण बीकानेर नगरे समागताः, तत्र प्राचीनोपाश्रयं शिथिलाचार - तिभिर्निरुद्धं विलोक्य मंत्रिणा स्वकीयाऽश्वशाला गुरुभ्यो दत्ता, अपरापि बही गुरुभक्तिः कृता । गुरवस्तत्र विशेषतः क्रियोद्धारं विधाय सुविहितसाधुमार्गमाहत्य, स्वसमानाचारैः साधुभिः सार्द्धं ततो विहारं कृत्वा स्थाने स्थाने प्रतिमोत्थापक मतोच्छेदं कुर्वतः स्वसमाचारी द्रढयंतः क्रमेण गुर्जरदेशे आगताः । तत्राऽहमदाबाद नगरे चिर्भटीव्यापारेणाजीविकां कुर्वाणौ मिथ्यात्विकुलोत्पन्नौ प्राग्वाटज्ञातीयौ सिवा - सोमजी - नामानौ द्वौ भ्रातरौ प्रतिबोध्य सकुटुंब महाधनवतौ श्रावकौ कृतवंतः । तथा पाटण नगरे एकदा केनापि परपक्षीयेण जनानां पुरो 'अभयदेवसूरिः खरतरगच्छे न जातः' इत्युक्तं -- तदा गुरुभिः शास्त्रसंमतं वादं कृत्वा चतुरशीतिगच्छीय मुनिसमक्षं परपक्षीयाः पराजयं नीताः । ततः सर्वैरपि नवांगीवृत्तिविधायकोऽभयदेवसूरिखरतरगच्छे जातः इत्यंगीकृतं । पुनः तत्कृतकुमतिकुद्दालग्रन्थोऽ शुद्धभावं प्रापितः । तथा पुनः फलवर्द्धिकपार्श्वनाथदेवगृहद्वारे तपागच्छीयैर्दत्तानि तालकानि उद्घाटितानि, तथा पुनरेकदा मंत्रि कर्मचंद्रमुखाद् गुरूणामति महत्वं श्रुत्वा पतिशाहिना दर्शनार्थ समाहूता गुरखो लाहोरनगरे गत्वा अकब्बरं प्रतिबोध्य सकलदेशेषु फुरमाणकान् मोचयित्वाऽष्टाह्निकासु अमारिपालनं कारितवंतः, तथा वर्ष यावत् स्तंभनगरपार्श्वस्थसमुद्रमत्स्यान् मोचितवंतः, तथा पुनर्येषामतिशयं दृष्ट्वा पतिसाहिना युगप्रधानपदं दत्तं । तस्मि - अवसरे एव श्रीमदकम्बराग्रहात् गुरुभिर्जिन सिंहसूरिः स्वहस्तेनाचार्यपदे स्थापितः । तदाऽि Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली-२॥ प्रमुदितेन कर्मचंद्रमत्रिणा महोत्सवो विहितः। तत्र नव ग्रामाः ९, नव हस्तिनः ९, पंचाशत् (५००) घोटकाः याचकेभ्यो दत्ता एवंकारसपादकोटि द्रव्यं दत्तं । पुनमंत्रिणाऽनेकदा श्री खरतरगच्छोद्दीपनं विहितं । तथा पुनः सं० १६५२ श्री गुरुभिः पंचनद्यः साधिताः, तत्र पीरपंचक, मानभद्र यक्ष, खंजक्षेत्रपालादयो देवाः साधिताः। तथा पुनरेकदा सं० १६६९ श्री सलेमपतिसाहिना गानादिकलानिपुणत्वेन स्वपार्श्वे रक्षितस्य तपागच्छीययतेर्निजस्त्रिया सह एकांतस्नेहवा करणाद्यनाचारं विलोक्य कुपितेन सता स्वसेवकेभ्य इत्थमाज्ञा दत्ता-" मम सर्वदेशेषु ये केपि दर्शनिनः संति ते सर्वेपि स्त्रीधारकाः कर्तव्याः, नोचेत् देशेभ्यो बहिः कार्या" इति । ततो भीता यतयः केचित् समुद्रमुल्लंघ्य द्वीपांतरं गताः, केचित् भूमिगृहेषु प्रविष्टाः, केचित् कोलिककाष्ठिकादीनां स्थानेषु स्थिताः। तस्मिन्नवसरे श्रीजिनचंद्रसूरिभिः पाटणतो विहृत्य उपद्रववारणार्थ आगराख्ये नगरे आजग्मे । तत्र गुरुदर्शनादेव रंजितेन पतिसाहिना बहादरेण गुरव आहूताः, तदा गुरुभिर्बहुचमत्कारान् दर्शयित्वा प्राग्दत्ताज्ञा दूरीकारिता, सर्वत्र फुरमाणकान्मोचयित्वा सर्वे यतयः स्व स्व स्थान प्रापिताश्च । इत्थं बहुधा जिनशासनोन्नतिः कृता, पुनर्गुरूणां-१ समयराज, २ महिमाराज, ३ धर्मनिधान, ४ रत्ननिधान, ५ ज्ञानविमल-एतत्पांडवपंचकप्रमुखाः, पंच नवति (९५) शिष्याः संजाताः। एवंविधाः श्रीजिनचंद्रसूरयः सर्वायुः पंचसप्तति (७५) वर्षाणि पालायित्वा, सं० १६७० आश्विन वदिद्वितीयायां बेनातटे स्वर्ग प्राप्ताः॥६१॥ -तद्वारके सं० १६२१ भावहर्षोपाध्यायात् भावहर्षीय खरतरशाखाभिन्ना । अयं सप्तमो गच्छभेदः॥ ६२. तत्पट्टे द्वाषष्टितमः श्रीजिनसिंहसूरिः । तस्य च गणधरचोपडागोत्रीय साह चांपसी पिता, चतुरंगदेवी माता । सं० १६१५ मार्गशीर्षसुदि पौर्णमास्यां खेतासरनामे जन्म, मानसिंहेति मूलनाम । सं० १६२३ मार्गशीर्षवदि पंचम्यां वीकानेरे दीक्षा। सं० १६४० माघसुदि पंचम्यां जेसलमेरौ वाचकपदं। सं० १६४९ फाल्गुनसुदि द्वितीयायां लाहोरनगरे बीकानेर वास्तव्य मंत्रि कर्मचंद्रकृत महोत्सवेन आचार्य पदं । सं० १६७० वेनातटे सूरिपदं । सं० १६७४ पौषवदि त्रयोदश्यां मेडताख्य नगरे स्वर्गप्राप्तिर्जाता ॥६२ ॥ ६३. तत्पढे श्रीजिनराजसूरिः। तस्य च बोहित्थरा गोत्रीय साह धर्मसी पिता, धारलदेवी माता। सं० १६४७ चै० सु० ७ जन्म, सं० १६५६ मि० सु०३ वीकानेरे दीक्षा, राजसमुद्र इति नाम दत्तं । सं० १६६८ आसाउलिपुरे श्रीजिनचंद्रसूरिभिः वाचकपदं प्रदत्तं । ततः सं० १६७४ फा० सु० ७ मेडताख्ये नगरे चोपडा गोत्रीय साह आसकरणकृत महोत्सवेन सूरिपदं जातं श्रीजिनराजसूरिरिति नामविहितं; तथा द्वितीय शिष्य बोहित्थरा गोत्रीय सिद्धसेनगणिः, तस्मै आचार्यपदं दत्तं, जिनसागरसूरिरिति नाम विहितं । ततो द्वादशवर्षाणि यावदाचार्यः श्रीपूज्यानां आज्ञायां प्रवृत्तः, पश्चात्समयसुन्दरोपाध्याय-शिष्य हर्षनंदनकृत कदाग्रहेण सं० १६८६ आचार्य जिनसागरसूरितो लघु-आचार्याय-खरतर शाखा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-२॥ भिन्ना। अयमष्टमो गच्छभेदो जातः। ततः श्री जिनराजसूरिभिः लोद्रवपत्तने श्री जेसलमेरु वास्तव्य भणशालिक साह थाहरू कारितोद्धार विहारशृंगार श्रीचिंतामणिपार्श्वप्रतिष्ठा कृता । तथा सं० १६७५ वै० म० १३ शुक्रे श्रीराजनगर वास्तव्य प्राग्वाटज्ञा० संघपति सोमजीपुत्र रूपजीकारित श्रीशजयोपरि चतुर्दार विहारहारायमाण श्रीऋषभादि जिनैकाधिक पंचशत (५०१) प्रतिमानां प्रतिष्ठा विहिता। तथा पुनर्भानुवडग्रामे साह चांपसीकारितदेवगृहमंडन श्रीअमृतश्राविपार्श्वनाथ प्रमुखाशीति (८०) बिंबानां प्रतिष्ठा विधायि । तथा पुनर्मेडताख्ये नगरे गणधरचोपडागोत्रीय संघपति श्रीआसकरणसाहकारित चैत्याधिष्ठायक श्रीशांतिनाथप्रतिष्ठा निर्मिता । एवरन्यत्रापि-राजनगराधनेकनगरेषु श्रीजिनप्रतिष्ठा चक्रे । एवंविधाः श्रीजिनमतोन्नतिकारकाः, अंबकाप्रदत्तवरधारकास्तबलप्रकटित धंधाणीपुरस्थितचिरंतनप्रतिमाप्रशस्तिवर्णातराः समस्ततर्कव्याकरणच्छन्दोलंकारकोशकाव्यादिविविधशास्त्रपारिणो नैषधीयकाव्यसंबंधी जैनराजी-वृत्त्याद्यनेकनवीन ग्रन्थ विधायकाः श्रीबृहत्खरतरगच्छनायकाः श्रीजिनराजसूरयः सं० १६९९ आषाढ सु० ९ पत्तने स्वर्गभाजः। तदेव, सं० १७०० मिते उ० श्रीरंगविजयगणितो रंगविजय खरतर शाखा भिन्ना। अयं नवमो गच्छभेदः । ततस्तन्मध्यात् श्रीसारोपाध्यायतः श्रीसारीय खरतर शाखा भिन्ना । अयं दशमो गच्छभेदः । एकादशस्तु बृहत्खरतर नामा मूलगच्छः। एवमेकादशभेदः खरतर गच्छः। ६४. तत्पट्टे श्रीजिनरत्नसूरिः। तस्य च सेरूणाभिध ग्रामवास्तव्य लूणीयागोत्रीय साह तिलोकसी पिता, तारा देवी माता, रूपचंद्रेति मूल नाम । तथा निर्मलवैराग्येण मातृसहितेन दीक्षा गृहीता। ततः सं० १६९९ आषाढ सुदि सप्तम्यां श्रीजिनराजसूरिभिः सूरिमंत्रो दत्तः । ततश्च शुद्धक्रियाभ्यासिनोऽनेकपुरविहारकारिणः श्रीजिनरत्नसूरयःसं० १७११ श्रा० व० ७ अकबरावादे स्वगं गताः। ६५. तत्पट्टे श्रीजिनचंद्रसूरिः। तस्य च गणधरचोपडागोत्रीय साह सहसकरणः पिता, सुपियारदेवी माता, हेमराजेति मूलनाम, हर्षलाभेति दीक्षानाम । सं० १७११ भा० व० १० श्रीराजनगरे नाहटागोत्रीय साह जयमल्ल तेजसी मातृकस्तूरवाईकृत महोत्सवेन पदस्थापना जाता। ततः श्रीगुरुभिर्योधपुरवास्तव्य साह मनोहरदासकारित श्रीसंधेन सार्ध श्रीशत्रुजययात्रा कृता, तथा मंडोवरनगरे संघपति मनोहरदासकारित चैत्यशृंगार श्रीऋपभादि चतुर्विंशतिजिनप्रतिष्ठा विहिता। एवंविधा नानादेशविहारिणः सर्वसिद्धान्तपारगाः श्रीजिनचंद्रसूरयः सं० १७६३ श्रीसूरतविंदरे स्वर्ग प्राप्ताः । ६६. तत्पट्टे श्रीजिनसौख्यसूरिः। तस्य च फोगपत्तन वास्तव्य साहलेचा बुहरागोत्रीय साह रूपसी पिता, सुरूपा माता, सं० १७३९ मार्गशीर्ष सुदि १५ जन्म, सं० १७५१ माघ वदि ५ पुण्यपालरग्रामे दीक्षा, सुखकीर्तिरिति दीक्षानाम । सं० १७६३ आषाढ सु ११ सूरतविंदरवास्तव्य चोपडागोत्रीय पारिष सामीदासेन एकादश सहस्र रूपकव्ययेन पद महोत्सवः कृतः। तत एकदा घोघाविंदरे नवखंडपार्श्वनाथयात्रां कृत्वा श्रीगुरुवः संघेन Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । खरतरगच्छ पट्टावली-२॥ साधं स्तंमतीर्थगमनार्थ प्रवहणमारूढास्तत्रसमुद्रमध्यभागे पोतस्याधस्तनफलकं भग्नं, ततो जलेन पूर्यमाणं पोतं विलोक्य गुरुभिः स्वेष्टदेवाराधनं चक्रे । ततः श्रीजिनकुशलसूरिसाहायेन अकस्मान्नवीनपोतप्रादुर्भावाज्जलधेः पारं लब्धं ततः स पोतोऽदृश्यो बभूव । एवंविधाः श्रीशत्रुजयादियात्राविधायकाः सकलशास्त्रपारगा विजेतानेकवादिनः श्रीगुरवस्त्रीणि दिनान्यनशनं कृत्वा सं० १७८० ज्ये०व०१० श्रीरिणीनगरे स्वर्ग प्राप्तास्तत्र तदिने देवैरदृष्टवादित्राणि वादितानि तत्पुराधीशादिसर्वलोकास्तद्वाद्यघोषं श्रुत्वाऽऽश्चर्यवन्तो जाताः ॥६५॥ ६७. तत्पट्टे श्रीजिनभक्तिसूरिः। तस्य च इंदपालसर ग्रामवास्तव्य सेठगोत्रीय साह हरिचंद्रः पिता, हरिसुखदेवी माता। सं० १७७० ज्ये० सु०३ जन्म भीमराजेति मूलनाम । सं० १७७९ माघसुदि ९ दीक्षा भक्तिक्षेमेति दीक्षानाम । सं० १७८० ज्येष्ठवदि ३ रिणीपुरे श्रीसंघकृतमहोत्सवेन गुरुभिः स्वहस्तेनाचार्यपदं दत्तं। ततो नानादेशविहारिणः सादडीप्रभृतिनगरेषु हस्तिचालनादिप्रकारेण प्रतिपक्षान् पराजयं नीत्वा विजयलक्ष्मीधारिणः सर्व सिद्धान्तपाठप्रचारिणः श्री सिद्धाचलादि सकलमहातीर्थयात्राकारिणः श्री गूढाख्ये नगरे अजितजिनचैत्यप्रतिष्ठाविधायिनो महातेजस्विनः सकलविद्वजनशिरोमणि-श्रीराजसोमोपाध्याय, श्रीरामविजयोपाध्यायादि-सत्परिकरसंसेवितचरणाः श्रीजिनभक्तिसूरयः कच्छदेशमंडनश्रीमांडवीविंदरे सं० १८०४ ज्ये० सु० ४ स्वर्ग प्राप्ताः । तत्र सायं अग्निसंस्कारभूमौ देवैर्दीपमाला विहिता । ईदृक् प्रभावका जाताः॥६६॥ ६८. तत्पट्टे श्रीजिनलाभसूरयः। तेषां च वीकानेवास्तव्य वोहित्थरागोत्रीय साह पंचायणदासः पिता, पद्मादेवी माता। सं० १७८४ श्रा० सु० बापेउग्रामे जन्म, लालचंद्रेति मूलनाम, सं० १७९६ ज्येष्ठसुदि ६ जेसलमेरुनगरे दीक्षा, लक्ष्मीलाभ इति दीक्षानाम । सं० १८०४ ज्ये सु० ५ श्रीमांडवीविंदरे छाजहडगोत्रीय साह भोजराजकृत नंदिमहोत्सवेन पदस्थापना जाता। ततः श्रीगुरवो जेसलमेरुवीकानेरायनेकपुरेषु विहारं कृत्वा सं० १८१९ ज्ये०व०५, पंचसप्तति (७५)साधुभिः सार्धं श्रीगौडीपार्श्वेशयात्रां कृतवन्तः। ततःसं०१८२१फा०सु० प्रतिपत्तिथी पंचाशीति (८५) मुनिभिः सह श्रीअर्बुदाचलयात्रां कुर्वति स्म । ततश्च घाणेराव-शादडीनामके नगरद्वये चोपडा वषतसाहादिकृतमहोत्सवेन समागत्य उपद्रवकरणाय सं० पक्षीयान् स्ववलेन पराजयं नीत्वा विजयवादित्राणि वादितवंतः। ततस्तद्देशराणपुरादि-पंचतीर्थी वंदित्वा वेनातटमेदिनीतट-रूपनगर-जयपुरोदयपुरादि-नगरेषु विहत्य सं० १८२५ वै० सु० १५ अष्टाशीति (८८) मुनिभिःसाई श्रीधूलेवगढाधिष्ठायकऋषभदेवयात्रां कुर्वति स्म। ततः पल्लिकासत्यपुर-राधनपुरादिषु विहत्य श्रीसंखेश्वर पार्श्वयात्रां कृत्वा सेठ गुलालचंद सेठ भाईदास श्रीसंघाग्रहात्सूरतविंदरे समागताः। तत्र सं० १८२७ वै० सु० १२ आदिगोत्रीय साहनेमीदासांगज भाईदास कारित त्रिभूमप्रासादमंडन श्रीशीतलनाथ सहस्रफणपार्श्व गौडीपार्थाघेकाशीत्यधिक शत (१८१) बिंब प्रतिष्ठां कृतवंतः। तथा सं० १८२८ वै० सु० १२ तत्रैव देवगृहे श्री महावीरादि द्वयशीति (८२) बिंबप्रतिष्ठां कुर्वति स्म । तदा देवगृहबिंब निर्मापण Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली -२ ॥ प्रतिष्ठाद्वयविधानसंघभक्तिकरणादौ षट्त्रिंशत्सहस्र ( ३६००० ) रूपकानि व्ययी भूतानि । ततश्च मुनिसुव्रतस्वामियात्रार्थं भृगुकच्छे समागताः । तत्र रात्रौ रेवातटे योगिनी कृत महाघनवृष्टयुपद्रवेण व्याकुलीभूतं सर्वसार्थं स्वष्टदेवस्मरणेन निराकुलं कृतवंतः । ततां राजनगर भावनगरादौ विहृत्य घोघावंदरे नवखंडपार्श्वयात्रां विधाय पादलितपुरे समागताः । तत्र सं० १८३० माघवदि ५, पंचसप्ततिमुनिभिः सार्द्ध श्रीशत्रुंजययात्रां कुर्वति स्म । ततो जीर्णगढमागत्य सं० १८३० फा० सु०९ पंचाधिकैकशत (१०५) साधुभिः सह श्री गिरनार मंडन भिजिनयात्रामकुर्वन् । ततो वेलाकूलपत्तन - नव्यनगरादिषु विहृत्य कच्छदेशे मांडवीबि - दरे श्रीगुरुपदकमलस्थापनां वंदित्वा क्रमेण तद्देशाद्विहृत्य राउपुरनगरे श्री चिन्तामणिपार्श्वेशमभिवंद्य सं० १८३३ मिति चैत्र वदि द्वितीयायां श्री गौडीपार्श्वयात्रां चकुः । एवंविधाः परम सौभाग्यादिसद्गुणश्रेणिधारिणो महोपकारिणः श्रीजिनलाभसूरयः सं० १८३४ मिति आश्विन वदि १० श्री गूढानगरे स्वर्ग गताः ॥ ६७ ॥ ૨૮ ६९. तत्पट्टे श्रीजिनचंद्रसूरयः । तेषां च वीकानेरवास्तव्य वच्छावतमुंहता रूपचंद्र पिता, केसरदेवी माता, सं० १८०९ कल्याणसरग्रामे जन्म, अनूपचंद्रेति मूलनाम । सं० १८२२ मंडोवरे पुरे दीक्षा, दयासार इति दीक्षानाम । सं० १८३४ आश्विन वदित्रयोदश्यां सोमे शुभलग्ने गूढानगरे कूकडचोपडागोत्रीय दोसी लक्खासाहकृतोत्सवेन सूरिपदं जातं । ततस्तेगणाधीश्वरा महेवादिपुरेषु चैत्यान्यभिवंद्य श्रीगोडीपार्श्वशं नत्वा क्रमेण जेसलमेरुवीकानेरादिषु चिन्तामणि पार्श्वनाथादि देवयात्रां कृतवंतः । तत्र जेसलमेरौ आवश्यकादि - योगक्रियां च विहितवंतः । ततोऽ योध्या कासी : चंद्रावती पाटलीपुत्र चंपा मकसूदावाद संमेतसिखर पावापुरी राजगृह मिथिला दुतारापार्श्वनाथ क्षत्रिकुंडग्राम काकंदी हस्तिनागपुरादियात्रां व्यधुः । तदानीं पूर्व देशे श्रीलक्ष्याउनगरे नाहटागोत्रीयः सुश्रावको राजा वच्छराजाख्यश्चतुर्मास कत्रयं महोत्सवेन कारितवान् । तत्र बहुविस्तृतः प्रतिमोत्थापक - निन्हवमार्गः श्रीपूज्यैः स्वज्ञानबलेन निराकृतः, बहवः श्राद्धाः सन्मार्ग नीताः । श्रीपूज्यानां सुतरां महिमा प्रससार । तन्नगरासनोद्याने राज्ञा श्रीजिनकुशलसूरीणां स्तूपः कारितस्ततोविहृत्य श्रीगिरनारशत्रुंजयतीर्थयोर्यात्रां व्यधुः । तत्र पादलिप्सपुरे परपक्षीयैः सार्द्धं महान् विवादः समजनि; परं श्रीदेवगुरुप्रसादाज्जयप्राप्तिर्जाता, परपक्षीयाः पराजयं प्राप्य पलायितास्तदा तत्रत्य नृप। दिभिर्वहुमानकरणात्पूज्यानां महिमा सर्वत्र सुतरां विस्तृतवान् । ततो वर्षानंतरं मोरवाडाभिधग्रामे श्रीगौडी पार्श्वेश यात्रार्थमागते साधिक लक्ष मनुष्यात्मक श्रीसंघे तत्रत्यामात्यादि प्रधानपुरुषवचनाद् द्वयोभट्टारकयोः परस्परमेलः संजातः । ततो दक्षिणदेशेऽन्तरिक्षपार्श्वेशयात्रां कृत्वा श्रीसूरत बिंदरे सं० १८५६ ज्ये० सु० ३ स्वर्गं गताः । एवंविधाः परमसौभाग्यधारिणः सकलजन्मनोहारिणः सर्वसिद्धान्ताध्ययनकारिणः सर्वत्र विख्यातकीर्तिभरा जंगमयुगप्रवराः श्रीबृहत्खरतर गच्छेश्वराः वाग्जितसुरेंद्रसूरयः श्रीजिनचंद्रसूरयः संजाताः ॥ ६८ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली - २ ।। ३९ गांभीर्यादिगुणग्रामवेश्मनां शुद्धचेतसां । श्रीजिनलाभसूरीणामाज्ञामादाय शोभनां ॥ १ ॥ श्रीजिनभक्तिसूरीन्द्रशिष्या बुद्धिवार्द्धयः । प्रीतिसागरनामानस्तच्छिष्या वाचकोत्तमाः ॥ २ ॥ श्रीमंतोऽमृतधर्माख्यास्तेषां शिष्येण धीमता । क्षमाकल्याणमुनिना शुद्धिसंपत्तिसिद्धये ॥ ३ ॥ संवत्सरे व्योमकुशानु सिद्धि क्षोणी (१८३०) मिते फाल्गुन मास रम्ये । विशुद्धपक्षे लिखिता नवम्यां गुरुस्तुतिर्जीर्णगढे नवासौ ॥ इति श्रेयः ॥ [ अनुपूर्तिः ] ७०. तत्पट्टे श्रीजिनहर्षसूरयः । तेषां वालेवाग्रामे जन्म, हीरचंद्रेति मूलनाम, मीठडियावुहिरागोत्रीय साह तिलोकचंद्रः पिता, तारादेवी माता । सं० १८४१ आऊग्रामे दीक्षा, हितरंग इति दीक्षानाम; सं० १८५६ ज्ये० सु० १५ श्रीसूरतविंदरे श्रीसंघकृतोत्सवेन सूरिपदं जातं । श्रीजिनहर्षसूरिरितिनाम विहितं । तदा तस्मिन्नगरे श्रीसंघेन चैत्यबिंब प्रतिष्ठा करापिता । तथा सं० १८६० अक्षयतृतीयायां तिथौ देवीकोटवास्तव्य श्रीसंघकारित देवगृहे सार्द्ध शतबिंबानां प्रतिष्ठा व्यधायि । तथा पुनर्जालोरनगरे मंत्रि अषयराजकारित देवगृहे प्रतिष्ठा निर्मिता । तथा सं० १८६६ चै० मुदि १५ गिडीयासंघपति राजाराम लुणीया गोत्रीय साह तिलोकचंद कृत संधे सपाद लक्ष श्राद्धैः एकादश शतसाधुभिः सह श्रीगिरनार - पुंडरीकादी यात्रामकुर्वन् । ततो गुरवः अनेक देशेषु विहृत्य सं० १८७० शिखरगिरिराज तीर्थस्य यात्रां चक्रुः । पुनरपि सं० १८७६ श्रीसंघेन सह शिखरागेरियात्रां चक्रुः । ततः पश्चाद् दक्षिणदेशे अंतरीक पार्श्वनाथ, मगसी पार्श्वनाथ, धुलेवगढ इत्यादि तीर्थयात्रां कुर्वता सं० १८८७ आषाढ सुदि १० तिथौ श्रीवीकानेरे श्रीसीमंधरस्वामिमंदिरे पंचविंशति बिंबानां प्रतिष्ठा निर्मिता । सं० १८८९ मा० सु० १० तिथौ श्रीवीकानेरे सेठियागोत्र साह अमीचंद कारित सम्मेतशिखर गिरिभावविराजितमंदिरस्य प्रतिष्टा विहिता । तस्मिन्नवसरे जेसलमेरवास्तव्य वाफणा साहवाहदरमल्ल जोरावर मल्लकस्य हृदये सिद्धाचलगिरियात्राविचारो बभूव । मनसीति विचारः स मुत्पन्नः - यः सिद्धाचलगिरिं स्पृशति तस्य जीवितं सफलं भवति' इति विचार्य सर्व परिवारेण सह विक्रमपुरे आगताः, महामहोत्सवेन बहुद्रव्यव्ययेन गुरवः वंदिताः, सप्तस्थानेषु बहु द्रव्यं दत्तं, तदा सर्वसाधून् प्रति बहु वस्त्राण्यर्पितानि । तदा गुरवः श्रीसंघेन सह सिद्धाचलगिरियात्रां प्रतिचेलुः। अंतराले वर्षाकालस्समागतः । तदा गुरवः मंडोवरे चतुर्मास्यां स्थिताः । एवं विधाः जितानेकवादिनः जिनशासनोद्योतकराः गुरवस्तत्र मंडोवरे सं० १८९२ का० व० ९ चतुः प्रहराणि यावदनशनं प्रपाल्य स्वर्गगताः ॥ ७१. तत्पट्टे एक सप्ततितमाः श्रीजिनसौभाग्यसूरयः । तेषां च मारवाडवास्तव्य स्वाई सेरडाग्रामे सं० १८६२ जन्म, सुरतरामेति मूलनाम, गणधर चोपडा कोठारी गोत्रीय साह करमचंदः पिता, करुणा देवीमाता, सं० १८७७ सिंघिया दोलतरावकस्य लस्करे दीक्षा शौभाग्यविशा - लेति दीक्षानाम, सं० १८९२ मार्गशीर्ष शुक्ल सतम्यां गुरुवारे शुभलग्ने श्रीमद्विक्रमनगरे खजानची साह लालचंद सालमसिंह कृतनंदी महोत्सवेन सूरिपदं जातं ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्. [प्रत्यन्तरे ६२ तम पट्टपश्चात्-यावत् ७१ पतम पट्टपर्यन्तं निम्नलिखिता भिन्न पट्टपरंपरा समुपलभ्यते.] ६३. तत्पट्टे त्रिषष्टितमः जिनसागरसूरिः। तस्य च वोहित्थरागोत्रीयः श्रीवीकानेरवास्तव्य साह वच्छराजः पिता, मिरगादे माता। सं० १६५२ वर्षे कार्तिकसुदि १४ रखो अश्विन्यां जन्म, चोला मूलनाम । सं० १६६१ वर्षे माहसुदि ७ दिने अमरसरसि श्री जिनसिंहसूरिणा दीक्षितः। श्रीमालचुहरा अचूका श्रावकैनंदीमहोत्सवः कृतः। वादी श्री हर्षनंदनगणिना बाल्यत आरभ्य सर्वशास्त्राणि पाठितानि । सं० १६७४ वर्षे फाल्गुनसुदि सप्तम्यां मेडताख्ये नगरे चोपडागोत्रीय साह आसकरणकृतमहोत्सवेन सृरिपदं जातं, श्री जिनसागरसरिरिति नाम विहितं । तथा द्वितीय शिष्य बोहित्थरागोत्रीय राजसमुद्रगणिः, तस्मै आचार्यपदं दत्तं, जिनराजसूरिरिति नाम विहितं । ततो द्वादशवर्षाणि यावदाचार्यः श्री पूज्यानां आज्ञायां प्रवृत्तः, पश्चात् आचार्य जिनराजसूरितः त्रिभिर्गच्छो विभिन्नः । तस्य व्यवस्था इयं-सं० १६९९ मिते बृहत् भट्टारक श्रीरंगविजयगणितो रंगविजय खरतर शाखा भिन्ना, अयं नवमो गच्छभेदः। ततः तन्मध्यात् श्रीसारोपाध्यायतः श्रीसारीय खरतर शाखा भिन्ना, अयं दशमो गच्छभेदः। ततः सं० १७१२ आचार्य जिनराजसूरीणां द्वितीय शिष्य रूपचंद्रेण लघु भट्टारक खरतर शाखा भिन्ना, अयं एकादशमो गच्छभेदो जातः । ततः भट्टारक श्री जिनसागरसूरिभिः सं० १६७४ वैशाख सुदि त्रयोदश्यां शुक्रे श्रीराजनगरवास्तव्य प्राग्वाटज्ञातीय संघपति सोमजीपुत्र रूपजीकारित श्री शत्रुजयोपरि चतुर्दार विहारहारायमाण श्रीऋषभादिजिनकाधिक पंचशत (५०१) प्रतिमानां प्रतिष्ठा विहिता । एवंविधाः श्रीजिनमतोन्नतिकारकाः, अंबिकाप्रदत्तवरधारकाः, समस्ततर्कव्याकरणच्छंदोलंकारकोषकाव्यादि विविधशास्त्रपारिणः, स्थाने स्थाने सर्वत्र श्रावकर्मानिताः, परमसंवेगवंतः, भाग्यसौभाग्यवंतः, भट्टारक श्रीजिनसागरसूरयः श्री अहमदाबादनगरे सं० १७२० वर्षे ज्येष्ठवदि तृतीयायां एकादशवासराऽनशनं विधाय, स्वपट्टे श्री जिनधर्मसूद्रिान् संस्थाप्य, सर्वशिष्याणां शिक्षां दत्वा स्वर्ग जग्मुः। अयमष्टमस्तु बृहत्खरतरनामा मूलगच्छः। एवमेकादशभेदः खरतर गच्छः ॥ ६३॥ ६४. तत्पद्वे चतुषष्टितमः श्रीजिनधर्मसूरिः। स च भणशालीगोत्रीय श्रीवीकानेरवास्यव्य सा० रिणमलभार्या रतनादेपुत्रः, सं० १६९८ वर्षे पौषसुदि २ अभिजित् नक्षत्रे जन्म, खरहथ मूलनाम । सं० १७........वर्षे वैशाखसुदि ३ दिने श्रीजिनसागरसूरिणा दीक्षितः। वादि श्री हर्षनंदनगणिना बाल्ये वयसि सर्वशास्त्राणि पाठितानि। सं० १७११ वर्षे माघसुदि १२ आचार्यपदमहोत्सवः चर्द्ध (१) भार्या विमलादे कृतः । सं० १७२० वर्षे श्री विक्र Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-२॥ मपुरे भट्टारक पदमहोत्सवः गोलवच्छा अचलदासजीकेन कृतः। ततो भट्टारक श्रीजिनधर्मसूरिभिः साह उग्रसेन रतनकृत श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ संघयात्रा कृता, पुनः शत्रुजये षष्ठाष्टमादितपः कृतं, सर्वदेशेषु सर्वक्षेत्रेषु विहारः कृतः। सं० १७४६ वर्षे मृगसिरवदि ८ श्रीजिनचंद्रसूरीणां गच्छभारं स्वकीयपट्ट समर्प्य श्री लूणकरणसरसि नगरे स्वर्ग गताः॥६४॥ ६५. तत्पट्टे पंचषष्ठितमः श्रीजिनचंद्रसूरिः। वावडीयग्रामवासी वुहरागोत्रीय साह सांमलदास साहिबतयोः पुत्रः, सं० १७२९ वर्षे जन्म, सुखमल्ल नाम । सं० १७३८ वर्षे श्रीजिनधर्मसूरिपार्श्वे दीक्षा गृहीता। सं० १७४६ वर्षे मृगसिरसुदि १२ लूणकरणसरसि भट्टारक पदं प्राप्तं, तदुत्सवश्व छाजहड रतनसी जोधाणीकेन कृतः। ततः सर्वदेशेषु विद्वत्य सं० १७८५ वर्षे श्रीवीकानेरमध्ये श्रीजिनविजयसूरीणां आचार्यपदं दत्तं । ततः सं० १७९४ वर्षे ज्येष्ठसुदि १५ दिने श्रीवीकानेरनगरे सर्वायुः ६५ वर्षाणि प्रपाल्य स्वर्ग गताः ॥६५॥ ६६. तत्पट्टे षष्ठषष्ठितमाः श्रीजिनविजयसूरयः । कीदृशाः-नाहटागौत्रीय साह डुंगरसी दाडिमदेपुत्र, सं० १७४७ वर्षे जन्म, नाम रतनसी । सं० १७५३ वर्षे श्रीजिनचंद्ररिपार्श्वे दीक्षा । सं० १७८५ वर्षे श्रीवीकानेरमध्ये आचार्यपदं प्राप्त, तदुत्सवः श्री हाजीखांनडेरा वास्तव्य डेहरा थाहरुमल्लकेन कृतः। सं० १७९४ वर्षे श्री बीकानेरमध्ये भट्टारकपदं प्राप्तं, तदुत्सवश्च डागा पुंजाणी कृतः, प्रभावना बाई फूलां कृता । सं० १७९७ वर्षे आसो वदि ६ दिने जेसलमेरुदुर्गे दिवं गताः ॥ ६६ ॥ ६७. तत्पट्टे सप्तषष्ठितमाः श्रीजिनकीर्तिपूरयः । तेषां च मारवाडवास्तव्य खीवसरा गोत्रीय साह उग्रसेन पिता, उच्छरंगदेवी माता, सं० १७७२ वर्षे वैशाख सुदि सप्तम्यां फलवर्द्धनगरे जन्म, किसनचंद्रति मूलनाम । सं० १७९७ जेसलमेरु मध्ये भट्टारक पदं प्राप्तं । अनेक देशेषु विहारं कृत्वा पूर्वदेशे समेतशिखरादि तीर्थ यात्रां कृत्वा मुकसुदाबाद मध्ये चतुर्मासकत्रयं कृतं, पश्चात् ततो विहारं कृत्वा अनुक्रमेण श्री विक्रमपुरे प्राप्तः। पश्चात् सं० १८१९ विक्रमपुरे दिवं गताः ॥ ६७॥ ६८. तत्पद्वे अष्टपष्टितमाः श्री जिनयुक्तसूरयः। तेषां च मारवाडवास्तव्य वुहरा गोत्रीयः साह हंसराज पिता, लाछलदेवी माता, सं० १८०३ वैशाखसुदि पंचम्यां जन्म, मूलनाम जीमणेति । सं० १८१५ भट्टारक जिनकीर्तिमूरिणा स्वहस्तेन दीक्षिताः । अनेकशास्त्रपारगा एतादृशाः, सं० १८१९ भट्टारकपदं श्री विक्रमपुरे प्राप्तं, तदुत्सवश्व गोलेच्छा कृतः। ततो विहारं कृत्वा श्री जेसलमेरुदुर्गे सं० १८२४ आसो पदि द्वादश्यां स्वर्ग गताः ॥६८॥ ६९. तत्पट्टे एकोनसप्ततितमाः श्रीजिनचंद्रसूरयः। तेषां च ग्राम भगवास्तव्य रेहडगोत्रीय साह भागचंद्र पिता, माता च भक्तादेवी । सं० १८०३ चैत्रसुदि चतुईश्यां जन्म। सं० १८२० युगप्रधान श्री जिनयुक्तसूरिणा स्वयमेव दीक्षा दत्ता, ततो व्याकरणादि समग्रसिद्धान्तपारगाः, परमतखंडन प्रवीणाः, एवंविधा बभूवुः। सं०१८२४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ।। खरतरगच्छ पट्टावली-२॥ श्री जेसलमेरदुर्गे आचार्यपदं प्राप्त, तदुच्छवश्च लक्षव्ययेन भूपाल मूलसिंघेन नंदिमहोत्सवो कृतः। अथान्यदा रतलामपुरे चतुर्मासी कृता, तत्र जिनबिंबस्य प्रतिष्ठामकरोत् । ततः श्री शत्रुजयादि यात्रां कृत्वानुक्रमेण विक्रमपुरं अगमत् । अथान्यदा श्री आचार्यस्य मुखात् धर्म श्रुत्वा विक्रमपुरस्य राजा परमश्रावको जातः । एवंविधा जिनचंद्रसूरयः जेसलमेरदुर्गे सं० १८७५ कार्तिक मुदि पूर्णिमायां स्वर्ग गताः॥६९॥ ७०. तत्पट्टे सप्ततितमः श्री जिनउदयसूरिः । स च सौवमपालग्रामवास्तव्य वोत्थरागोत्रीय साह जयराजपिता, जयदेवी माता तयोः पुत्रः। सं० १८३२ माघ सु० सप्तम्यां जन्म । सं० १८४७ मृगसिरसुदि तृतीयायां भट्टारक श्री जिनचंद्रसूरिणा दीक्षा दत्ता । सं० १८७५ मृगसिरसुदि पंचभ्यां जेसलमेरदुर्गे आचार्यपदं प्राप्तं, तत्र तत्पट्टमहोत्सवः संघवी तिलोकचंद्रेश सहस्र द्रव्यव्ययेन नंदिमहोत्सवः कृतः। अथान्यदा मंदसोर पुरेऽगमत् , तत्र सं० १८९३ वैशाखसुदि तृतीयायां ऋषभजिनस्य बिंब प्रतिष्ठितं । पुनः विक्रमपुरे सं० १८९७ वैशाखसुदिपष्टयां श्री शान्तिनाथविंबं प्रतिष्ठित । सं० १८९७ वैशाखसुदि त्रयोदश्यां दिने विक्रमाख्ये पुरे स्वर्गमगमत् ॥ ७० ॥ ७१. तत्प? एकसप्ततितमः श्रीजिनहेमसूरिः ।। गो....त्रीयः साणियाला ग्राम वास्तव्यः साह पृथ्वीराज भा० प्रभादेवी तयोः पुत्रः, सं० १८६६ वर्षे आसाढशुक्ल प्रतिपदायां पुष्यनक्षत्रे जन्म, हुकमचंद मूलनाम । सं० १८८३ वर्षे वैशाखसिते तृतीयायां श्रीजिनउदयसूरिणा दीक्षीतः। दीर्घदर्शी कस्तुरचंद्रजीगणिना बाल्यावस्थायां शास्त्राणि पाठितानि । सं० १८९७ वर्षे ज्येष्ठशुभ्रदले पंचम्यां तिथौ श्री विक्रमपुरे भट्टारकपदमहोत्सवः डागा सुरतरामजीकेन कृतः। ततो भट्टारक श्री जिनहेमसूरिभिः इंदोराख्यपुरे ऋषभेश्वरबिंबप्रतिष्ठा कृता, तत्र श्री संवस्य द्विधाभावं निवार्यानंतरं मनोदग्रामे श्री पार्श्वप्रभोविवप्रतिष्टा विहिता । पश्चात् श्री शगुंजयादि तीर्थयात्रां कृत्वा सर्वदेशेषु विहृत्य विक्रमपुरे प्राप्तः। तस्मिन् चिरं पदं भुक्तवान् । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥खरतरगच्छ पट्टावली॥ [३] अथ पट्टावली लिख्यते । प्रथमं श्रीउद्योतनसूरिः। सुविहितचक्ररूडामणिरुत्कृटक्रियाकर्ता जिनशासनसाधुमार्गप्रकाशको बभूव । एकदा मालवदेशात् बहुश्रीसङ्घसहितैः श्रीशत्रुञ्जयतीर्थयात्रार्थ गच्छद्भिर्मध्यरात्री आकाशे रोहिणीशकटमध्ये बृहस्पतिः प्रविष्टो दृष्टः । श्रीसरिभिरुक्तं 'यदि साम्प्रतं सूरिपदं यस्य दीयते स गच्छाधिपतिर्महान् भावी, गच्छस्य वृद्धि प्रामोति; गवेषिताः साधवः परं पार्श्वे नोपलभ्यते'। तदा गणेशेनोक्तं भवच्छिष्यो वृद्धाख्योऽ स्ति तस्य दीयतां यदि वेलामाहात्म्यमस्ति अयमपि भाग्याधिको भविष्यति । वासो नास्ति । गोछगणकचूर्णेन लुंकडीयावडवृक्षाधः स्थापितो वर्धमानसूरिः श्रीउद्योतनसूरिभिः। क्रमेणाथ श्रीवर्धमानसूरयो बहुपरिवारा जाताः। तस्मिन्नवसरे विमलदण्डनायकेन गुर्जरराज्ञा सम्मानितेनार्बुदाचलधरित्र्यां आरासननगरे अम्बायाः कुलदेव्याः प्रासादः कारितस्तत्रागम्य स्वमे देव्या दर्शनं दत्तं । खड्गं गृहाणेत्युक्त्वा रुप्यत्रम्बकषानी दर्शते च तया । ततस्तेन महत् सैन्य कृत्वा देवीमाहात्म्येन चतुर्विंशति देशा गृहीताः। छत्राणि अग्रे ताड्यन्ते वणिककुलत्वात शीर्षे न स्थाप्यन्ते तस्येति । सौराष्ट्रादिमहादेशेषु प्रोढाज्ञा प्रतिपालयन बहुकालं निनाय । सः अन्यदाऽर्बुदाचलेऽगात् श्रीभार्यासुप्रभातपुत्राभ्यां साधं । शुभस्थानमालोक्य श्रीः प्रोचे विमल स्वामिन्नत्र स्थले चेत् जिनप्रासादः कार्यः ते तदा महान् लाभो भवति । द्विजाः पृष्टाः प्रोचुरिदमस्मदीयं तीर्थ न कदाचिज्जैनतीर्थमत्रासीत् । इत्युक्त्वा विमहान् कलिः प्रारब्धः, मरणाय बहवो ब्राह्मणा उद्यता जाताः। तस्मिन्नवसरे श्रीवर्धमानसूरयः समेताः विमलेन वन्दिताः पृष्टाश्च, भगवन् अत्र जैनं चैत्यं नास्ति अहं तत् चैत्यं कारयामि । परं विगैरेतादृशं कर्म प्रारब्धं किं क्रियते । अत्रचेत् जिनप्रतिमा निर्गच्छति तदा एते यान्ति । ततः श्रीसूरिभिः सपादकोटि सरिमन्त्रजापेन धरणेन्द्रं समाहूय तस्याग्रे वार्ता उवता, तेन त्वरितमेव श्रीआदिनाथप्रतिमा धनुःपञ्चाशादधःस्थाद्दर्शिता । अत्र तीर्थंकरप्रतिमासीत् इत्युक्त्वा ततो विमलेन सर्वे द्विजा मेलिताः। यत्रेयं मालापतति ततोऽधो जिनप्रतिमा । क्रमेण नि:सृता जिनप्रतिमा । द्विजाः प्रोचुर्भवदीयं तीर्थ पुरासीत् परमधुनास्माभिः गृहीतं । महीं मौल्येन दास्याम इति । कृपालुना विमलेन मधुकरीभिर्धरा पूरिता अन्तरालधरा तिष्ठति सापि पूरिता, पञ्चकं तत्र जातं विमलेन हठात चिन्तितं सर्वोऽप्ययं गिरिर्मया स्वर्णमुद्रया गृहीप्यते । द्विजैराचिन्ति तीर्थमस्मदीयं सर्व यास्यतीति विचिन्त्य स्तोकैव बरा दत्ता । तत्र महान् श्रीआदिनाथप्रासादः कारितः । अथैकदा श्रीसूरयः सरस्वतीपत्तने जग्मुः। शालायां स्थिताः स्वशिष्यान् तर्क पाठयन्ति। तदा जिनेश्वरबुद्धिसागरी विौ श्रुत्वा तर्कशालायां समेतौ । वादः कृतः गुरुभिर्दयाधर्मो व्याख्यातः। ताभ्यामूचे दयावन्तो विप्रा एव । सूरिभिरुक्तं न विप्रेषु दया प्राप्यते । . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली-३॥ ताभ्यामुक्तं कथं नेति । गुरुभिः सातिशयैर्वभाषे युवयोः शिरसि मृतमत्स्योऽस्ति । ताभ्यां तथैव दृष्टः । प्रतिबुद्धौ द्वाभ्यामपि दीक्षा गृहीता। पठितानि सम्यग् शास्त्राणि । गुरुभिः पट्टे स्थापितः जातः श्रीजिनेश्वरसूरिः॥ अपरो भ्राता आचार्यों बुद्धिसागरः। अन्यदा गुर्जरधरित्र्यां श्रीअनहिल्लपाटके श्रीसूरयः समेताः । तत्र दुर्लभो राजा अतीव-विज्ञः पदर्शन पूजकः । तत्र चैत्यवासिनोऽतीवप्रमत्ताः साधुजनद्वेषिणः सन्ति । श्रीजिनेश्वरसूरिः, भ्राता बुद्धिसागराचार्यः स्वमातुलगृहमागतः । चैत्यवासिनां निर्णीतिर्जाता । प्रभाते राज्ञः सभायां चैत्यवासिनः समेताः। श्रीगुरवोऽपि राज्ञा पृष्टा युष्माकं मध्ये के सदाचाराः। गुरुभिरुक्तं ये सिद्धान्तप्रोक्तमार्गानुयायिनस्ते सत्याः। राज्ञा निजकन्या भाण्डागारे मुक्ता, हे कन्ये त्वं पुस्तकं यथारुचि गृहीत्वा समानय । सा गता प्रथमत एव दशवैकालिकसूत्रं समानीतं सभा समक्षं, चैत्यवासिनः पुस्तकं गृहीत्वा वाचयन्ति स्म । गुरुभिरर्थोऽभिहितः । साध्वाचारे गोचर्याधिकारे पत्र चतुष्कमाच्छादितं । गुरुभिरुक्तं-राज्यपर्षदि स्तैन्य जायते । पत्राणि निर्वासितानि । एतेऽसत्यवादिनस्तस्कराः। यूयं खरतराः, इति सत्यवादिनः । गुरुभिरुक्तमेते कोमलाः इति । ततः श्रीगुरुभिः खरतरविरुदं प्राप्तं ।। दससय चिहु वासेहि नयरपाटण अणहिलपुरि । हुओ वाद सुविहित चइवासीसु बहुपरि । दुलभनवइ सभासुमुपि जिणि हेलइ वजित्तउ । चित्तवास उत्थपिअ देस गूरजरहिव दित्तउ । सुविहितगच्छखरतर विरुद दुलभनरवइ तिहां दियउ । श्रीवर्धमान पदृइ तिलउ सूरि जिणेसर गहगाउ ॥ गच्छस्थापना जाता । बहवः श्रावका बभूवुः। २. तेषां पट्टे श्रीजिनचन्द्रसूरयः। मोजदीन पातिसाहस्य पिंजारकगृहस्थितस्य उक्तमभूत्, यथायं ढिल्यां मालवोपि पातिसाहो भविष्यति । ततः क्रमेण कस्यापि म्लेच्छस्य षवासो जातः । एकदा पातिसाहेनोक्तं म्लेच्छस्य एष सेवको सवालोऽस्माकं देहि । तेन दत्तः। शतवर्षीयो मृतावस्थाप्राप्तः पातिसाहः क्षणं यावत् सचेतः क्षणं अचेतो भवति । तदा पातिसाहपुत्रो मोजदीनः पिंजारकपुत्रो पि षवासो नाम्ना मोजदीनः। षवासः तिष्ठन् पार्थे परिचर्या करोति, तावत् प्रधान रुपैरुक्तं स्वामिन् पुत्रस्य राज्यं देहि । तेनोक्तमवसरे दास्यामि । अन्यदा मध्यरात्रौ श्वासश्चटितः, ज्ञातं म्रियते, आकारितः पुत्रो मोजदीनः । पुत्रस्य निद्रा समेता । खावासेन ज्ञातं परिचर्यार्थ मामाकारयति । आगतः षवासः पुत्रभ्रान्त्या शिरः टोपी तस्य शिरसि न्यस्ता, पङ्गः करे दत्तः। स्वयं प्रणामः कृतः। मिलिताः प्रधानाः प्रोचुः-स्वामिन् किंकृतं ? नामभ्रांत्या पवासस्य राज्यं दत्तं । पातिसाहेनोक्तं-मया यत् दत्तं तत दत्तमेवेति । सत्पुरुषवाक्यं नान्यथा स्यात् । पुत्रः प्रणष्टः खवासस्य राज्यं जातं मोजदीनपातिसाहिरिति । अथ श्री जिनचन्द्रसूरिभिर्जातं स एव पिंजारकपुत्रोऽस्मत्कथितः पातिसाहिर्जातः । ढिलीमण्डले साधूनां विहारो नास्ति । अनेक मुल्ला-सेख-काजी-प्रमुखैषिभिर्निवारितो । वयं यामो येन साधूनां विहारो भवेदिति विमृश्य तत्रागता गुरवः । श्रीमालधनपालगृहस्थिताः । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली - ३ ॥ ४५ तेनोक्तम्(- ' श्रीपूज्यानामत्रागमनं दुःखाय भविष्यति । सो आगतोऽस्ति । धनपालो जगाम तथैवोवाच च । प्रभाते महोत्सवेन समानीताः गुरवः । पतितः पादयोः । सर्वत्र देशे साधूनां विहारो जातः । बहवः श्रावका जाताः । धनपालकटाकजाता महुतीयाण गोत्रीया इति । मुहुतीयाण डादुइ जिण नमह कड़ जिण कह जिणचंद | तस्य पद्मावती प्रत्यक्षासीत् गुरुभिरुक्तं - अस्माकं गच्छो यथा वर्धते तथा कुरु । देव्योक्तं गच्छो वर्धिष्यते, चतुर्थपट्टे भवदीयं नामदेयमिति । तेन दीयते स तु प्रायो भव्यो भवति । , तच्छिष्यः श्रीअभयदेवसूरिः । पोडशवर्षे आचार्यपदं । प्रथमे दिनेऽतिङ्गाररसो व्याख्यातो, लोका हर्षिताः । परं गुरुभिरुक्तं शिष्य, कृङ्गाररसोऽतीव साधुभिर्न वर्ण्यते । यतो विनाशो भवति धर्मस्य । त्वं नीरागी, परं लोकाः सरागाः सन्तीति । तदोत्थाय साधुसमक्षं षट्विकृतित्यागं विदधाति स्म । टूबर छासि जलं एतत् द्रव्यत्रयं गृहीष्यामीत्यभिग्रहं ललौं । क्रमेण गलितकुष्ठी जातः । गलिताः नासिकाद्याः शरीरावयवाः मुखवस्त्रिकामपि गृहीतुं न शक्नोति । तदा म्बावतीपुरश्रावकाणां पुरतः प्रोचे गुरुभिः, चेत् संघः कथयति तदाहमनसनं गृह्णामि । सङ्घेनोक्तं प्रातः । ततो रात्रौ शासनदेवता आगता कथितं नवैताः सूत्रको कव्यः संतिता उद्धर । तेनोक्तं अङ्गुलीभिर्विना कथमुद्धरामि । तयोक्तं-सेटिकानदीतीरे पापरापलाशतरुतले धेनुर्दुग्धं सवति तत्र श्रीस्तम्भनकपार्श्वनाथप्रतिमास्ति नागार्जुनेन क्षिप्तास्ति । तत्र गत्वा निजबुद्धया स्तवनं कृत्वा तिष्ठ, तत्स्नानोदकेन स्वर्णसमशरीरं ते भविष्यति । ततः प्रभाते श्रीसङ्घपुरतो वार्ता कथिता । सङ्घो जहर्ष । श्रीसङ्केन समं श्रीगुवस्तत्र गताः । गोपालेन दर्शितः पलाशः । नवीनस्तोत्रं कृतं ' जयतिहुयणवर कप्परुक्ख इत्यादि स्तवनप्रभावेन प्रकटिता श्रीस्तम्भनकपार्श्वेश प्रतिमा । श्रीसचेन पूजा कृता । स्नानोcha गतो रोगः सकलोऽपि । श्रीजिनशासनमहिमा जातः । सकलदेशे बहवः श्रावका जाता: । ततोऽन्यदा शासनदेवी समायाता । तयोक्तं त्वयोक्तमभूत् हस्ते सज्जीकृते कोकडीरुद्धरिष्यामि तदधुनोद्धर । नवाङ्गानां वृत्तिं कुरु । ततो नवाङ्गानां वृत्तिः कृता, प्रतिमा पंभायतनगरे स्थापिता । जयतिहुयणद्वात्रिंशिका सर्व श्रावक श्राविकाभिः पठिता । तत्र प्रान्तगाथायां धरणेन्द्रपद्मावत्योराकर्षणमन्त्रं समानीतं नायोऽपित्रा पठन्ति ( 3 ) । ततः कुप्यत - स्तोकेनापि धेनुदुग्धाग्रहणावसरो गुणितं स्तवनं सेहलात् सर्पो बभूव ( ? ) । ततः सूरिभिर्दे गाथे भण्डारिते, विना कष्टं न जप्येते इति । श्रीअभयदेवसूरिराचार्यो जातः न भट्टारकस्तेन नामादौ जिनपदं न दत्तमिति । अथ श्री गुरुणा श्रावक एकः प्रतिबोधितः परमजैनधर्मवासितः समृत्वा देवलोकं गतः । देवलोकात् तीर्थंकरवन्दनार्थं महाविदेहे गतो देशनानन्तरं श्रीसीमन्धराः पृष्टाः - मम गुरवोऽभयदेवसूरयः कतमे भवे मुक्तिं गमिष्यन्ति । उक्तं प्रभुणा तृतीये भवे । पृष्टो वोघोति वेदितं श्रीअभयदेवसूरीणां यतः भणियं तित्थयरेहिं महाविदेहे भवंमि तइयंमि । तुम्हाण चेव गुरुणो सिग्धं मुत्तिं गमिस्संति । कटवाणिज्ये नगरे श्रीअभयदेवा दिवं गताः चतुर्थदेवलोके विजयिनः सन्ति । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-३ ॥ अन्यदा चित्रकूटे कच्चोलाक्षा आचार्याः सन्ति, तेषां शिष्यो वल्लभाभिधः। स तु अत्यन्तसंवेगी परं सर्वशास्त्राणि अधीतानि । यः कोऽपि नवीनः पण्डित आगच्छति तस्य वादेन जित्वा स्वर्णकचोलकं गृह्णाति, तेन भोजनं करोति, तेन नाना कचोलवृक्षाभिधः । अन्यदापडीगणार्थ आचार्या ग्रामंगताः। वल्लभस्योक्तं सर्व पुस्तकं तवायत्तमस्ति परमेषा अपवरिका नोद्घाख्या । ततस्तेन सेवकान्ते दृष्टा । एकादशाङ्गानि वाचितानि । ज्ञातः साधुमार्गः । गुरुणा पृष्टं, सिद्धान्तकारणकथितं, यतिरहं भवामि भवदाज्ञया। ततो दत्तादेशः खरतरगच्छे श्रीअभयदेवसूरिपार्थे दीक्षा गृहीता । अत्यन्तवैराग्यवान् जातः । श्रीअभयदेवसूरिभिः अन्त्यसमये प्रोक्तं-वल्लभस्य पदं देयं । नतो गच्छवासिनः पदं न प्रयच्छन्ति, कोमल्योयं न विश्वासोऽस्य । एकदा त्रिस्थानको गुरुः चित्रकूटे गतः। चामुण्डाप्रसादे स्थितः। शिष्यमेकं मुक्त्वा स्वयमाहारार्थ गतः। पश्चात् शिष्येण चामुण्डाअक्षिणी उत्पाटिते क्रीडया, शिष्य अंधो जातः । आगतो गुरुः, शिष्येण प्रवृत्तिरुक्ता । तत्रैव स्थित्वा एकविंशतिकाव्यैश्चामुण्डा प्रतिबोधिता। शिष्यः सजीकृतः। देव्या हिंसा त्यक्ता, गुरोर्महान् लाभो जात इति। तथा बागडदेशे श्रावका बहवो प्रतिबोधिताः-दशसहस्र प्रमाणाः । संघपट्टनामा ग्रन्थो विहितः लघुर्वृद्धोऽपि। पिण्डविशुद्धिनाम शास्त्रं कृतं । शुद्धमार्गः प्ररूपितः। वर्ष १२ यावत् आचार्गच्छो निर्वाहितः, तदा मधुकरखरतरगच्छो निगतः। सौराष्ट्रदेशे प्रसिद्धः। चिन्तामणिपार्श्वनाथनासादे प्रशस्ति-काव्याष्टकं लिखितमस्ति । तथा 'भावारिवारण' स्तवनं निजनामरहितं कृतं । चित्रवालगच्छनायकेन गृहीतं । चत्रकूटे चैत्यनिर्णये जाते चरणे पतितः ततो निजनामस्तोत्रे समानीतं । षण्मासायुषि पट्टो दत्तः। संवत् ११६७ वर्षे आसाढवदि ६ दिने पट्टे स्थापना श्रीदेवभद्रसूरिणा कृता श्रीचित्रकूटे। ततो मृत्युअवसरे गच्छेषु गवेषितो वाचनाचार्य जयदेवशिष्यः जिनदत्ताभिधः हुंबडज्ञातीयः पट्टार्थे । श्रीजिनवल्लभः स्वर्गतः । ततः श्रीसंघेन समाकारितः श्रीजिनदत्तः सर्व शास्त्रवेत्ता मार्गे आगच्छन् सारंगपुरे एकः कोमल्यौपाध्यायस्तस्य शिष्याः सन्ति परमतीव मन्दमतयः, पाठकस्य तदा मरणावस्था समेता, कोऽपि नाराधनाकारकस्तादृग् विद्वान्, तदा तं तथाविधं समालोक्य ज्ञातमरणो जिनदत्तः करुणापरो धर्ममनशनलक्षणं तस्मै ददौ । सोऽपि दिनत्रयमनशनं प्रतिपाल्य महधिको देवोऽभूत् । तेन जिनदत्तोपकारं स्मरता रात्रौ प्रत्यक्ष समेत्याचे तव सान्निध्यं सर्वदा करिष्यामि। परं तव पट्टाभिषेको मुहूर्तत्रयं गवेषितमस्ति, प्रथमे षण्मासे मृत्युः, द्वितीये गच्छस्फोटो भविप्यति, तव गच्छानिष्कासनं; तृतीये सुंदरं भावीति । परमियं प्रवृत्तिर्मम न कस्याप्यग्रे वाच्या। ततः समागतो जिनदत्तः प्रथाममुहूर्ते कायोत्सर्गे स्थितः । वेला व्यतीता । द्वितीयेऽपि कायोत्सर्गः समारब्धः साधुश्रावकैनिषिद्धः। ततो द्वितीये मुहूर्ते स्थापितः। संवत् ११६९ वर्षे वैशाख सुदि १० दिने सन्ध्यालग्ने श्रीदेवभद्रमूरिणा, चित्रकूटे श्रीमहावीरभवने, नाम श्री जिनदत्तसूरिरिति जातं । सर्वेऽपि साधवः स्वीयस्थाने गताः। इतश्चैको महात्मा श्रीजिनवल्लभेन गच्छानिष्कासितोऽभूत, असह्यप्रतिक्रमणापराधेन । स तदा समागतः ममोपरि कृपां कुरुत । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-३ ।। गुरुभिः क्षिप्तः। आगताः साधवः । अहारार्थ मुखवस्त्रिका प्रति लेखयतो गुरोचोलपट्टः स्फाटितो, ज्ञातं गच्छो द्विधा भविष्यति । तदा वारिकरणावसरे त्रयोदशाचायरेक्तं एष बाह्यः कृतोऽस्ति, अस्य दृष्टया आहारो न कर्तव्यो भवद्भिः । गुरुभिरुक्तं-अयं क्षिप्तो मया गच्छे । कुपिता आचार्याः-अद्यैव स्वयं कर्ता जातः । अयोग्योऽयमस्माकं न पृच्छति । समिलित्वा निष्कासितो गुरुर्गच्छात् । ततः पट्टाभिषेककारकस्य श्राद्धस्योक्तं सूरिणा वर्षत्रयं यावत् मम मार्गोऽवलोक्यो भवता, यदि मम माहात्म्यं भवति तदाहमेव भवतो गुरुः, नान्यथेति । त्रिस्थानकेन निर्गतो गुरुः क्रमेण विक्रमपुरे समागतः । तत्र मरकोपद्रवो महान् । जनैः पृष्टा गुरवो, गुरुरूचे-यस्य चत्वारः पुत्राः सन्ति स एकं मह्यं ददातु, यस्य च तिस्रः पुत्र्यः स एकां चेति । तैर्भणितं गत उपद्रवे दास्याम इति । ततो गुरुणा 'तं जयउ' इति नाम स्तवनं कृतं । तन्माहात्म्येन शान्तिर्जाता । तत्रैव पुरे पञ्चशतप्रमाणाः शिष्या जाताः । साध्वीनां त्रिशतं जातम् । सर्वेऽपि श्रावका जाता इति । ततो विहृत्य गुरवो नारनउलपुरे गताः। तत्रेश श्रीमालश्रावकस्य जामाता विवाहसमये एव मरणधर्म प्राप्तः । तेन सार्धं कन्याया अपि काष्टभक्षणं कारयन्ति जनाः । सा भीता गुरूणां पार्थे समेता । तदा गुरुभिरुक्तं पित्रोः 'अयुक्तमेतत् क्रियते'। पितृभ्यामुक्तमावयोनित्यशल्यं भविष्यति । गुरुभिर्गृहीता कोमल्यसाध्वीनां दत्ता 'त्वया एषा पाठ्या।' तस्याः पार्श्वे द्वादश वर्षाणि स्थिता । ततो गुरुभिर्दीक्षिता । तस्या वस्त्रे बढ्यः षटपद्यः पतन्ति । साध्वीभिरुक्तं गुरूणां एषा अतीवाहण्डा एतस्या वस्त्रे पतन्ति यूकाः । गुरुभिरुक्तं एषा सप्तशतसाध्वीनां मुख्या भविष्यति । तदैव तस्याः साध्व्याः सर्वाः शिक्षिणात्वेन दत्ताः, महत्तरापदं च दत्तं । कोमल्यसाच्या सा महत्तरा पृष्टा त्वयास्माकं किमपि कथनं करणीयं, अस्माभिस्त्वं पाठिता। तयोक्त्तं-बदत किंकरोमि । ताभिरूचे-धर्म ध्वजे दशाकाः प्रलम्बाः कार्या इति । प्रतिपन्नं तद्वचः, अद्यापि तथैव जायते इति । तदा गुरूणामतीव माहात्म्यं वर्धते स्म । आचार्यैः पुनर्गच्छे समानीता गुरवः। सर्वेऽपि साधवो गुर्वाज्ञायां प्रवर्तते स्म । ततस्तेभ्य एक आचार्यों नितो रुद्रपल्लीयगच्छो जातः । अन्यदा जिनदत्तसूरय सिन्धुदेशं प्राप्ताः। तत्र मूलत्राणे चतुर्मासं स्थिताः। तत्र कोमल्यगच्छीयाः श्रावकाः महर्द्धिकाः, खरतराः सामान्याः। तैरुक्तं खरतराणां महत्त्वपातकं करोमि (कुर्मः )। तदा हाथी इति नामा लूणियागोत्रीयः श्रावकः सामान्योऽस्ति । अथ यदा धर्मदेशनावसरे हाथी श्रावकः समागच्छति तदा श्रीजिनदत्तसूरिः प्रभूतं सत्कारं ददाति । अन्ये श्रावका: कथयन्ति-किमर्थमस्य बहु सत्कारं दत्थ । गुरुभिरुक्तं-एप हस्ती राजद्वारे शोभते । महति कार्ये समेष्यत्यसौ । अन्यदा कोमल्यश्रावकैबहु धनं दत्वा पातिसाहिर्वशीकृतः, कथितं च तैः खरतराणां शिरच्छेदं कुरु । साहिनोक्तं--कथं ज्ञास्यन्ति खरतराः, कथं च भवन्तः । तैरुक्तं ये कोमल्यास्ते तिलकं विधाय मस्तके समेष्यन्ति, ये तु तिलकवर्जितास्ते खरतरा इति। तां वातां श्रुत्वा हस्ती रात्रौ गुरुसमीपे समेतो वार्ता चोक्ता । गुरुणोक्तं-त्वं याहि बीबीपार्श्वे सुन्दरं भविष्यति । सोऽपि बीबीपार्श्वे गत्वोवाच झगिति । ममाघ मरणं, तेनाहं मिलनाय समेतः। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली-३ ।। तस्या अग्रे वार्ता प्रोक्ता । सापि गता साहिपार्श्वे एष हस्ती मम भ्राता। अनेन सार्धमहमपि मरिष्यामि । साहिनोक्तं-प्रभाते वैपरीत्यं विधास्यामि, मा कुरु चिन्तां । प्रगे कोमाल्यश्रावकाः सतिलकाः सर्वेऽपि समेताः खरतरा अतिलकाः। पतिसाहिना वभाषे-कपाटं दत्वा ये सतिलकास्ते सर्वेऽपि वध्याः, ये तु अतिलकाः ते न वध्याः। ततः सर्वेऽपि मरणमयेन तिलकमपनीयापनीय हस्तिपृष्टौ लग्नाः। सर्वेऽपि खरतराः सिन्धुमण्डले। तदा गुरुभिहस्तीकस्य अजितशान्तिस्तवो दत्तः । अन्यदा गुरूणां प्रोक्तं मिलित्वा सिन्धुदेशस्थैः श्रावकैः ‘अमास्कं गृहे यथा बहुधनं भवति तथा कर्तव्यं । गुरुभिरुक्तं-नागपुरात् परतो गत्वा मकाणा ग्रामे द्वात्रिंशद गुलप्रमाणं प्रतिमां कारयित्वाऽमुकनक्षत्रेऽमुकलायांच, ततस्तांरुतमध्ये प्रक्षिप्यात्रानरत यूयं परं मार्गेन कस्यापि गृहे भोक्तव्यम् । ततस्तां शुभवेलायां स्थापयिष्यामि । यत्रतत्र लक्ष्मीः स्थास्यति स्वयमिति । ततस्ते तत्र गताः, प्रतिमा कारिता, तेऽन्तरा नागपुरे समेताः । तत्र पुरे शान्तिभूरिनामाचार्यस्तिष्ठति । तेन रात्री लक्ष्मी ऊयभाना कैश्चित् दृया । उत्थित ध्यानेन कञ्चन देवं समायति स्म। सोऽप्यागतः, प्रोचे प्रतिमया साध लक्ष्मीर्याति, जिनदत्तसरिराकर्षति । प्रतिमा अप्रतिष्ठिता स्तीति । प्रभाते तेन श्रावकाणामग्रे प्रोक्तं-एते सिन्धुदेशीया वणिज आयाताः सन्ति तान् सर्वानपि मन्त्र्य भोजयत, यथा लक्ष्मीनागपुरान याति । श्रावकैर्गत्वा ते सर्वेऽपि निमन्त्रिताः भोजिताश्चेति । ततस्तेनाचार्येण रुतमध्यस्थिता प्रतिमा प्रतिष्ठिता अञ्जनशिलाकया तत्रैव रक्षिता, तैः श्रावकैन ज्ञाता तामेव प्रतिमा लात्वा गुरुसमीपे समेताः। गुरुभिरुक्तं-रछोहरीया यथा याताः, किं कृतं, प्रतिमा प्रतिष्ठिता सूरिणा लक्ष्मीस्तत्रैव स्थितेति । तैरुक्तंपुनरन्यमुपायं कथयत, सावधानतया तं करिष्याम इति । गुरुभिः कृपापरैर्भूय उक्त-भटनेर नगरे श्रीमहावीरप्रासादे श्रीमाणिभद्रयक्षप्रतिमास्ति तामानयत । ततश्चत्वारः श्रावकाः व्यापारमिषेण तत्र गताः, नित्यं जिनार्चा कुर्वन्ति । अन्यदा लब्धावसराः प्रतिमां गृहीत्वा निर्गताः। पृष्टतो बाहरिका अपि चलिता ज्ञातव्यतिकराः। क्रमेण सिन्धुदेशे उच्चनगरे रिपडीनद्याः पार्श्वे पञ्चनद्यो वहन्ति, पञ्चनद्योण जलं । तत्र ते समेताः, बाहरका अपि समाजग्मुः । ते प्रतिमां गृहीत्वा नद्यां प्रविष्टाः। ते अपि प्रविष्टाः। तद्भयेन प्रतिमा तैनद्यां मुक्ता । बाहरकाः संशोध्यालभमानाः प्रतिमां गताः परभूमिभिया । तैः समाचारा जिनदत्तसूरीणां निवेदिताः। गुरवोऽपि नद्यां समेताः । आराधितो माणिभद्रः। प्रत्यक्षी भुत्वोवाच-अहमत्रैव स्थास्यामि बहिर्नागच्छामि । अत्रैव स्थितः, सान्निध्यं करिष्यामि । ततः श्रीजिनदत्तसूरि पाचँ माणिभद्रयक्षेण सप्त वरा मार्गिताः। तद्यथा-भट्टारको यः पञ्चनदीः साधयति स सिन्धुमण्डले समेति १। सूरिः सदा सूरिमन्त्रसहस्रप्रमाणं जयेत् २ । सामान्यसाधुः शतत्रयप्रमाणं जपेत् ३ । खरतर श्रावक उभयोः सन्ध्ययोः सप्त स्मरणानि पठति ४ । श्राद्धः प्रतिगृहं द्विशतप्रमाणां क्षिप्रचटीं पठति ५। श्राद्धः प्रतिगृहं आचाम्लद्वयं मासमध्ये करोति ६। पदस्थो यो भवति स एकाशनेन भुञ्जते ॥ तथा श्रीजिनदत्तसूरीणां सप्त वराः प्रदत्ताः माणिक्यभद्रेण । तद्यथा-प्रतिग्रामं श्राद्ध एको मुख्यः सधनश्व भविष्यति १। श्राद्धः Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली-३ ॥ ४९ सर्वथा निर्धनो न भविष्यति २। खरतरः श्राद्धः कुमरणेन न मरिष्यति ३। साध्वीनां रतिर्न समेष्यति ४ । भवन्नाम गृहीते विद्युन्न पतिष्यति ५ । निर्धनः श्राद्धो यः सिन्धुदेशे समेष्यति स सधनो भविष्यति ६ । भवन्नाम्ना शाकिन्यो न लगिष्यन्ति ७। श्रीगुरूणां पार्थे सर्वदा समेति । परस्परं प्रीतिर्जाता । एकदा पीरैः पार्थात् रूप्यमुद्राशतं दर्शितं, गुरुभिः सुवर्णमुद्रासहस्रकं दर्शितं आसनाधः । एकदा पीरे स्थिते साधवः आहारार्थं गताः म्लेच्छैरुक्तं-अस्माकं भोजनं देयं । तैरुक्तमयुक्तमेतत् । गुरुभिस्ते म्लेच्छाः समाहूताः, उक्तं चात्र तिष्ठत, भोजनं दापयिष्यामः। श्रावकानाहूय तेषां मिष्टभोजनं कारितं । एवं वारद्विकं, तेन ते सन्तुष्टाः । एकदावसरे संग्रामे मृताः । संजाता देवाः । रात्रौ श्रीगुरूगां स्वमान्तरे प्रत्यक्षी बभूव । कुत्रास्माकं स्थान ? श्रीपूज्यैरुक्तं-पश्चनद्यां, यत्र माणिभद्रो यक्षोऽस्ति तत्र यूयमपि वसत । भोजनं याचितं तथैव गुरुभिर्दापितं, सन्तुष्टाऽतीव । एकदा देराउरस्वामीहिंदुको राजपुत्रः स क्रमेणातीव निर्धनो बभूव । गुरूणां पार्श्वे समेतः साधूनां भारवाहको जातः, सुखेनाजीविकां करोति । गुरवस्तुष्टाः। तेन देराउरदुर्गः कारितः । सोमाख्यस्तस्य सेवकोऽभूत् । सोऽन्यदा संग्रामे प्रहारैर्जर्जरीकृतः गुरुभिरनशनं दत्तं । मृत्वा व्यन्तरो जातः सोमाः। सेोऽपि समेतो गुरुः पार्श्वे स्थानं देहीति वदन् । गुरुभिः पञ्चनद्यां स्थापितः। अथ तत्र देशे सिलेमा पर्वते तत्र पोडीयो क्षेत्रपालः, स देशाधिष्ठायकः। माणिभद्रप्रमुखा देवास्तमूचुः-प्रथमतः ये तव पूजां करिष्यति पश्चाद्वयं पूजां तस्य ग्रहिष्यामः नान्यथा। तेन प्रथमतः स पूज्यते, ततो माणिभद्रः सपीरः। एकदा श्रीगुरुभिरुक्तं'प्रतिवर्ष न कोऽपि भवतां पूजां करिष्यति, येऽस्माकं पट्टस्थायी भविष्यति स एकशो विस्तारेणागत्यात्र पूजां करिष्यति' इति पद्धतिः विहिता । खरतरगच्छाधिष्ठायकाः पश्चनदीवास्तव्यदेवाः सुप्रसन्ना भविष्यन्ति । इति पश्चनदीपूजास्थापना विचारः॥ एकदा श्रीजिनदत्तसूरयो ढिल्यां गताः। तत्र चतुःषष्टियोगिनी-पीठानि सन्ति । न वन्दन्ते स्म । कुपिता योगिन्याश्चिन्तितं 'छलयाम एनं' । अथैकेन व्यन्तरेणागत्य गुरूणां प्रोक्तंअत्र योगिन्यः सन्ति, भवतः छलिष्यन्ति, सावधानतया स्थेयं । श्रीपूज्यैः रात्रौ महणसी नामा श्रावकस्तं समाहूय प्रोक्तं चतुःषष्टिः नवा पट्टलिकाः कारयित्वा समानय। महत्कार्यमस्ति । तेन रात्रावेव आनीताः। श्रीपूज्यैः मन्त्रिताः। प्राताख्यानावसरे एकस्य श्रावकस्योक्तं चतुःषष्टिः श्राविकाः एकेन टोलकेनाद्य समेष्यति । दक्षिणदिशि स्थास्यन्ति श्वेतवस्त्राः । तासां पट्टलिका एताः प्रदेयाः । व्याख्यानावसरे समेताः, श्राद्धेन दत्ताः, सर्वस्थिताः । श्रीगुरुभिर्मन्त्रप्रभावेण स्थंभिताः । व्याख्यानानन्तरं गुरुभिरुक्तं यात, प्रभाते पुनरागन्तव्यं । ता लजिताः। अयं महाविद्यापात्रं स्वापराधं क्षामयंतिस्म । वयं यामः। गुरुभिरुक्त-किञ्चिदस्माकं प्रयच्छत । ताभिः सप्त वरा दत्तास्तद्यथा-खरतरसाधुः प्रायो मूर्यो न भविष्यति १। साध्वी स्त्रीधर्म न यास्यति २ । खरतरसाधुसाध्वीनां न सर्पान्मृत्युः ३। खरतराणां वचनसिद्धिः ४। विद्युतो न भयं ५। शाकिन्यो न च्छलिष्यन्ति ६ । श्रीखरतर श्रावकाः ढिल्याः परतः सर्वेऽपि धनवन्तः Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली - ३ ॥ पण्डिताच भविष्यन्ति ७ । इति सप्त वराः प्रदत्ताः । योगिनीभिरुक्तं - एकमस्माकमपि वचनं कुरु । यथा भवदीयः पट्टे यः कोऽपि गच्छनायको भविष्यति ढिल्यां अजयमेरौ भरुकच्छे उज्जयिन्यां यद्यायाति तदा भोजनं कृत्वा याति रात्रौ न तिष्ठति । यदि रात्रौ तिष्ठति तदा भोजनं करोति इति वाक्यं दत्वा गता निजस्थानं । अन्यदा श्रीजिनदत्तसूरयो वडनगरे गताः । तत्र द्विजा बहवोऽतीव द्विषः साधूनाम् । एकदा एका गौः म्रियमाणा जिनचैत्ये प्रवेशिता, सारात्रौ मृता, द्विजा हास्यं कुर्वन्ति - एषां देवा गौघातकाः । तत्र नगरे रीतिः - चाण्डालाः पुरमध्ये नागच्छन्ति, प्रतोलीं यावत् स्वामिनो निकासयन्ति । ततस्ते गृह्णन्ति । मिलिताः सर्वे श्रावकाः परं चैत्यद्वारं लघु, तां निर्वासितुं न कुर्वन्ति । श्रीपूज्यानामुक्तं श्रावकैः - ' एतत् विप्रैः कृतं भवदीर्ष्यया । श्री पूज्याः सुप्ताः, शिष्यानां प्रोक्तं- 'मम वस्त्रं नोद्घाटनीयं चतुर्दिक्षु सप्तस्मरणानि पठनीयानि । परकायप्रवेशिनीविद्याबलेन मृता गौरुत्थिता, जिनगृहात् ईश्वरप्रासादे पिण्डिकाया उपरि पतिता, जन समक्षं महाच्चित्रं जातम् । सर्वे द्विजाश्चरणे पतिताः । स्वामिन् देव गृहाद् गामपनयत । श्री पूज्या न मन्यन्ते ततः सर्वैर्विप्रैर्मिलित्वा इति वचनं कृतं यदा खरतरगच्छाधिपतिर्वडनगरे समेष्यति तदा प्रवेशोत्सवं विप्रा एवं विधास्यन्तीति । रात्रौ धेनुरुत्थाय पुराद्बहिः पतिता । इति परकायप्रवेशिनीविद्या । 1 ५० अन्यदा गूर्जरधरित्र्यां नागदेवः श्रावकः चित्ते चिन्तयति ' श्रीवीतरागैरुक्तमस्ति सर्वदा एक युगप्रधान भवति । तं वन्देऽहं परं न ज्ञायते । तत्रार्थे सोऽम्बका के श्री गिरनारगिरौ गतः । उपवासत्रयं कृतं प्रत्यक्षा जाताऽम्बिका । तेनोक्तं - कथयास्मिन् काले को युगप्रधान ? | अम्बिकयोक्तं - हस्ते तवाक्षराणि लिखित्वा ददामि । य एतानि प्रकटयिष्यति सत्वया युगप्रधान ज्ञेय इति । तेनोक्तं-हस्तेन कथं भोक्ष्ये ? आशातना भविष्यति देव्योक्तं - न काप्याशातना, याहि त्वं । ततः स पत्तने समेतः । प्रतिशालमाचार्याणां दर्शितो हस्तो । न कोऽपि वाचयति । प्राप्तखेदोऽतीवागतो जिनदत्तसूरिसमीपे नागदेवः । पूज्यानां हस्तो दर्शितः । वासक्षेपः कृतः प्रकटितान्यक्षराणि । यतः दासानुदासा इव सर्वदेवा यदीयपादाब्जतले लुठन्ति । मरुस्थली कल्पतरुः स जीयात् युगप्रधानो जिनदत्तसूरिः ॥ इत्यक्षराणि प्रकटितानि । हर्षितोऽभून्नागदेवः । प्रणति स्म गुरून् । सर्वत्रापि प्रसिद्धिर्युगप्रधानोऽयं । नागदेव वरसावएणं उज्जंतिवडेविण, पुच्छिय जुगगुरु कहउ तिणि उववास करेविण । अंत्रिक हु परतक्खि हत्थि तिण अक्खर लिक्खिय, सोवणमय करि प्रकट सोय आचारिज लक्खिय करि वासखेव अणहिल्लपुरि जुगपहाण संजमतिलउ, जिनदत्तसूरि सुविहितगुरु श्रीखरतरगच्छ गुणनिलउ ॥ अन्यदा श्रीउच्च नगरे जिनदत्तसूरीणां प्रवेशमहोत्सवो जातः, मिलिताः स्वदेश-परदेशीया जनाः । तत्र एको मुलाणापुत्रः सप्तवार्षिकः पतितः चरणप्रहारैर्मृतो । मिलिता म्लेच्छजनाः साधूनामुपाश्रये घोरं विधास्यामः । नगरे महानुपद्रवो जातः । साधवो गंतुं समेतुं च न Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली-३॥ शक्नुवन्ति । श्रीपूज्यैरुक्तं-जीवनसौ कथं भूमौ प्रक्षिप्यते । ततो रात्रौ परकायप्रवेशिनीविद्या प्रारब्धा । एको व्यंतरश्वाकर्पितः । बालकशरीरे प्रक्षिप्तः। व्यंतरेणोक्तं-कदाहं छुटिष्यामि ? गुरुभिरुक्तं-म्लेच्छानामग्रे 'एष बालो यदा महिषीमांसं अत्स्यति तदा मरिष्यति' इति कथयित्वा जीवितो बालः । मासत्रिके मांस भुक्त्वा पतितः। एकदावसरे अजमेरौ प्रतिक्रमणावसरे विद्युद् अतीव प्रकाशते उजेहीभवति । ततः श्रीगुरुभिः प्रासुकजलेनाभिमंत्र्य स्तंभिता। कृते प्रतिक्रमणे मुक्तेति । श्रीअणहिलपत्तने भांडशालिक आभू सुश्रावकोऽभूत् । तस्मिन्नवसरे श्रीपूज्या मूलत्राणे नगरे गताः। श्रावकैर्महान् प्रवेशोत्सवो विहितः । तत्र पत्तने वास्तव्यान्यपक्षीय अंबडनामा श्रावकोऽभूत् । तेनोक्तमत्रैवंविधः महाप्रवेशोत्सवः क्रियते । अस्मत्पत्तने एवंविधः क्रियते तदा ज्ञायते भवतां शक्तिः। ततः श्रीगुरुभिरुक्तं-अस्माकं तत्राप्येवंविधः प्रवेशोत्सवो भविष्यति परं त्वं तत्र प्रवेशोत्सवे जायमाने निर्धनो मस्तके पोट्टालिकां कूटिका हस्ते च बिभ्रत् मिलिष्यसि । तत्तथैव जातं । गुरवः पत्तने समेताः। स गुरूणामुपरि द्वेषं वहति । कपटश्रावको जातः । ततः पारणकदिने अतिथिसंविभागं कृत्वा शर्करापानीयमध्ये विषप्रयोगं चकार । तथा गुरुर्विषादितो जातः । ततः आभूसुश्रावकेण योजनगामिनीमुष्ट्रिकां प्रेषयित्वा देवतादत्तो रसकूपकः प्रल्हादनपुरादानीतः । तेनामृतरसेन निर्विषा बभुवु गुरवः । ततः सोऽम्बडः कर्मवशान्मृत्वा दुष्टव्यंतरो जातः । गुरूणां पार्वतो भ्रमति छलनाय । अन्यदा रात्रौ पट्टिकोपरि सुप्तानां रजोहरणं पपात । तत्पातेन गुरवः ससंभ्रमा जाताः। छलिता व्यंतरेण । ततः प्रभातसमये आभूश्रावकप्रमुखः श्रीसंघो मिलितः। नानाप्रकारो उपचारो विहितः परं तथापि स दुष्टव्यंतरो न मुंचति गुरुं । ततः श्रावकआभूपुत्री व्यंतरं प्रोचे अस्मत्कुटुंबे अष्टादश मनुष्याः संति मदीयाः, तान् सर्वान् गृहाण, परमेनं गुरुं मुंच । व्यतरेणाचिंति किमेष सत्यं ददाति नवेति व्याकुलोऽभूत् । गुरवः सावधाना जाताः । शिखातो गृहितो व्यंतरः। मोचितोऽत्याग्रहेणाभूसुश्रावकेणेति । ततः श्रीजिनदत्तसूरयो वर्ष ८४ आयुः प्रतिपाल्य अजयमेरौ स्वर्ग गताः। तत्र स्तूपं संघेन कारितं । ___संवत १२०५ वैशाखसुदि ६ दिने श्रीविक्रमपुरे श्रीजिनदत्तसूरीणां स्वहस्तेन पदे स्थापितः नवम वर्षे गृहीतदीक्षः श्रीजिनचंद्रसूरिः। तस्य शिरसि मणिरभूत् । स तु एकदा वीरनाथयोगोंद्रेण दृष्टः । तेन ज्ञातं एतस्य पंचवर्षायुरस्ति । ततो गुरवो ढिल्यां गताः । तत्र योगिनीभिरुक्तं-अनेनास्मदाज्ञालोपिता अथैन छलयामः । ततो योगिन्यो रात्रौ समागताः धर्मध्वजमाहात्म्येन छलं तासां न लगति । तदा मूषकरूपेणापहतो धर्मध्वजः। श्रीगुरवो जजागरुः । मार्जारीरूपेण धाविताः । छलिता गुरवस्ताभिः । प्रभातेऽनशनं कृत्वा कोचरश्रावकस्याग्रे चोक्तं गुरुभिः-मम मस्तके मणिरस्ति स दागसमये श्मशाने पार्थे दुग्धपात्रं स्थापनीयं तस्य मध्ये पतिष्यति । स गृहे पूजनीयोऽक्षयं धनं भविष्यति । ततः श्रीपूज्ये परलोके प्राप्ते कोचरस्य सा वार्ता विस्मृता । परं योगिना दुग्धपात्रं मंडितं दाघकाले । मणि लात्वा गतो योगी। दृष्टो वणिजा कोचरेण कलहः कृतः। परं न ददाति । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । खरतरगच्छ पट्टावली-३॥ ततः श्रीजिनचंद्रपट्टे संवत् १२२३ वर्षे कार्तिक सुदि १३ बव्वेरक ग्रामे श्रीजयदेवाचार्येण १४ वर्ष प्रमाणानां पदं दत्तं । श्रीमालतांबी गोत्राभ्यां सा. रामदेव सा. मानदेवाभ्यां महोत्सवश्वकाते । श्रीजिनपत्तिसूरिलिभावे चारित्रं गृहीत्वा प्राप्तपदः पंचशतसाधुपरिवारेण हिंसारसमीपे हांसी नगरे समेतः। श्रीपार्श्वनाथप्रतिमा श्रावकैः कारिता । श्रीजिनप्रासादो नवीनः कारितः। प्रतिष्ठावसरे नरमणिग्राही योग्यपि तत्रागतः। योगिना ज्ञातं अस्य गुरोः पार्थे विद्याऽभूत् , अस्य पार्श्वस्ति न वेति परीक्षार्थं चैत्ये प्रतिमा स्तंभिता । स्थानान्न चलति । जनानामग्रे योगी वक्ति मयैषा स्थभितास्ति युष्माकं गुरुरुत्थापयतु । तत आचार्या उपाध्यायाश्च सविषादा जाताः। विद्या कस्यापि पार्श्व नास्ति । ततः प्रतिष्ठांतरायो जातः। तदा साध्या शिक्षिता नार्यों गायति 'बालचंद्रः चंद्रिकां न करोति, अयं बालो गुरुः किं जानाति । गुरुभिश्चिताकृता 'धिग् मे जीवितं'। एकदा श्रीपूज्येन सूरिमंत्रगोलको वीक्षितो मध्ये सार्धतृतीयाक्षरो मंत्राधिपो स्थितः । निर्वास्य गुरवो जपंति स्म। पद्मावती समेता । प्रभाते आचार्याः पाठका व्याख्यानं कुर्वति, तावत् बालकैः परिवृतो गुरुः क्रीडां कुर्वन् चैत्ये गतः। प्रतिमा स्तंभिताऽस्ति योगी वक्ति । शिरसि वासक्षेपं कृतं, स्तंभितश्च सः । श्रीसंघः सर्वोपि मिलितः । जाता प्रतिष्ठा अहो गुरूणां लघूनामपि माहात्म्यं । योगी वक्ति मां मोचय, कृपां विधाय । गुरुभिरुक्तं ढिल्यां मम गुरुशिरोमणिस्त्वया गृहीतोऽस्ति तमर्पय । योगिना दत्तो मणिः । उक्तं चाहो महाभाग्य ! इमां विद्यां गृहाण परमस्य विधिरेवंरूपो वर्तते तांबुलप्रयोगे सिद्धयति । गुरुभिरुक्तं अस्माकं तांबूलभक्षणं न युक्तं, विद्या सिद्धयतु मा वा । ततो योगिना मुखात्तांबूलं निर्वास्योक्तं हे विद्ये ! याहि पातालं, तवास्मिन् लोके ग्राहकोऽन्यो नास्ति । ततः पातालं गता। ततः श्रीगुरुभिः पत्रिंशत् भट्टमिश्राणां वादे जेता गच्छसूत्रानां सूत्रधारः गच्छसमाचारी प्रवर्तकः परमसंवेगी। तस्य वारके नेमचंद्रो भंडारीगोत्रीयस्तस्य पुत्रो देवदत्तः, तेनोक्तमहं चारित्रं गृहीष्यामि । नेमचंद्रेणोचे प्रथमतोहं परीक्षां करोमि । यदि कोपि शुद्धचारित्रप्रतिपालको मिलति तदा तत्समीपे गृण्हीयाश्चारित्रं । चतुरशीति गच्छवासिनो गवेषितास्तेन परं 'जे जे दीसंति गुरू समय परिकवायति न पुजंति' इत्यादि भग्नपरिणाम आगतः सरस्वतीपत्तने जिनपत्तिसूरीणामुपाश्रये । रात्रौ समुत्थितः अलसेलकूपिका दृष्टा, ज्ञातं घृतमस्ति । कूणके वर्षाकालार्थ रक्षापि दृष्टा ज्ञातं चूर्णमस्ति । प्रातदृष्टं, ज्ञातं एते संवेगिनः । ततः स्वकीयगृहे गत्वाऽष्टवार्षिको निजपुत्रो दत्तस्तेन, दीक्षितश्च गुरुभिः । स्वर्ग गते गुरौ संवत् १२७८ माघ सुदि ६ दिने । श्रीसर्वदेवसूरिणां दत्तपदो जावालपुरे पट्टाभिषेकः श्रीजिनेश्वरसूरिः स्थापितः । परं अभिणितो मूर्खः । पूज्यैमरणकाले श्रीलब्धिचंद्रोपाध्यायानां भलामणिदत्तः। स तु न पाठयति भट्टारकं, किंतु स्वयमेव व्याख्यानादिकं करोति, गर्वं वहति, यथा मूर्खः श्रीपूज्यः अहं विद्वान् । अन्यदा वाग्भटमेरुमध्ये आगताः। तत्र महावीरवसतिं दृष्ट्वा द्वारं संकीर्ण चैत्यं बृहत् । प्रधान चावादीत् गुरुः 'चूहा नंटा वसही वड्डी अंदर कित उत्त मइ माणी' इति वचनात् प्रकटितो Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । खरतरगच्छ पट्टावली-३ ॥ मूर्खभावः । ततो गता अणहिल्लपुरपत्तनं, । सरस्वती नदीतीरे । उत्तीर्णा नदी । पूज्यैश्चितितंप्रातः संघो मिलिष्यति, नाहं व्याख्यानं कर्तुं समर्थः, तस्मानमरणमेव मम सुंदर; इति विमृश्य स्वयमुत्थितः सूरिः। सूरिमंत्रं परित्यज्य प्रविष्टो नद्यां मरणाय । ततो भाग्योदयात् सरस्वतीतुष्टा, वरमिति ददौ-त्वं महान् विद्यावान् भवेः। पश्चादागत्य सुप्तः। प्रभाते मिलिताः सर्वे लोकाः पूज्याः स्थिताः। लब्धिचंद्रश्चितयति-ममादेशः कथं न दीयते भट्टारकाः ! । तावदेव गुरुभिर्नवीनकाव्येनोपदेशोदत्तः। तद् यथा अहंतो भगवंत इंद्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः आचार्या जिनशासनोन्नतिकराः पूज्या उपाध्यायकाः । श्रीसिद्धान्तसुपाठका मुनिवराः रत्नत्रयाराधकाः पंचते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वतु वो मंगलम् ॥ १॥ इत्यादिना चमत्कृत उपाध्यायः अनेक श्रावकाः प्रतियोधिताः। श्रीजिनपत्तिसूरिपट्टे जिनेश्वर सूरिः [ तद् ] वारके श्रीपत्तने कुमारपालराजा प्रतियोधकः, श्रीहेमाचार्यः, त्रिकोटीग्रंथकर्ता, अष्टादशदेशेऽपारिघोषणाकारकः, अष्टौ सहस्राः तुरगा गलितजलपानं कुर्वति। तेन राज्ञा हेमाचार्याग्रे प्रोक्तं यदि सुवर्णविद्या भवति तदाहं विक्रमादित्यसंवत्सरं दूरीकृत्य कुमारसंवत्सरं करोमि । हेमाचार्येणोक्तं-खरतरगच्छे श्री हरिभद्रसूरिशिष्यैरानीतं बौद्धपुस्तकमस्ति, तस्य मध्ये सुवर्णसिद्धिविद्यास्ति । ततः सर्वे खरतर श्रावकाः गौर्जरातीयाः सौराष्ट्रीयाः कच्छपांचालाः समुद्रोपकंठीयाः कारागारे क्षिप्ताः । तेषां भूपः शरीरेऽतिव्यथां करोति स्म । तैः श्रावकैमिलित्वा गुरूणां पत्रं मुक्त-वयं युष्माकं श्रावकाः, एष कुमारपालः कदर्थयति । नो येषां रुचि पुस्तकं मोच्यमेव । ततः श्री जिनेश्वरसूरिभिश्चिअकूटे चिंतामणिपार्श्वनाथप्रासादे भांडागारे पुस्तकं निर्वास्य प्रदत्तं । क्रमेणागतं पत्तने । महोत्सवेनानीतं । श्री कुमारपालाद्याः सप्तशतमनुष्याः सश्रीकाः अन्ये पि बहवो जनाः शालायां स्थिताः संति । दृष्टं पुस्तकं हेमाचार्येण । उपरि लिखितमस्ति 'इदं पुस्तकं न छोटनीयं, न वाचनीयं-किंतु भांडागारे पूजनीयं ।' ततः शंकितो मनसि हेमाचार्यों न छोटयति । तदा हेमाचार्यभगिनी हेमश्री महत्तराऽस्ति, तगोक्तं-छोटयंतु । तैरुक्तं-इदं लिखितमस्ति'यः छोटयिष्यति तस्य श्री जिनदत्तसूरीणामाज्ञास्ति' तेन बेभेमि । महत्तरयोक्तं को जिनदत्तः, न कोपि भवदीयसमो गच्छाधिपः । अहं छोटयामि । · कुमारपालेन दत्तं । तया छोटितमात्रे दवरके तत्कालं नेत्रद्वयं पतितं । अन्धा जाता । पुस्तकं भांडागारे मुक्तं । रात्रौ वह्निर्लग्नः सर्वे पुस्तकं प्रज्वलितं । तत्पुस्तकमाकाशमार्गेण बौद्धानां समीपे गतं । श्री जिनेश्वरसूरिपट्टे संवत् १३३१ आसौजवदि ५ दिने जावालपुरे पट्टाभिषेकः श्री जिनप्रतिबोधसूरिः। तद्वारके लघुतर खर गच्छो निर्गतः।। __ श्री जिनसिंहसूरिः। श्रीमालज्ञातीयः। साधिता तेन पद्मावती । तयोक्तं षण्मासावधिरायुरस्ति, नाहं ददामि किंचित् । तेनोक्तं मम मोघं देवदर्शनं । तयोक्तं झूझणूं नगरे तांबी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ । खरतरगच्छ पट्टावली-३ ॥ श्रीमालगोत्रे वणिगस्ति । तस्य पंच पुत्राः । तेषां मध्यात् तृतीय पुत्रः तं शिष्यं कुरु । तस्याहं वरं दास्यामि । तेन तथा कृतं । तस्य नाम श्री जिनप्रभसूरिः । तस्यावदाता बहवः । यथागयणथकी जिनि कुलह नांषि ओघइ उत्तारी, किद्ध महिष मुषवाद नयर पिक्खइ नव वारी। ढिलीपति सुरताण पूठि तसु वृक्ष चलाविय, रयणि सेत्तुंजि सिहरि दुद्ध जलहर वरसाविय । दोरडइ मुद्र कीधी प्रकट जिन प्रतिमा बुल्ली वयणि, जिनप्रभसूरि सम कवण भरतखंड मंडिण रयणि ॥१॥ इत्यादि प्रभावकः तपागच्छस्य धर्मध्वजदंडीदानं सप्तशतमंत्रप्रदान काचलीयामंत्रप्रदानं कृतं। तपगच्छविस्तारो यतो जातः । श्रीअल्लावदीन पातिसाहि प्रतिबोधकः अमावस्याः पूर्णिमासी कृता; येन द्वादशयोजनं यावत् चंद्रोद्योतो जातः। पद्मावत्या कर्णकुंडलोऽर्पितो यस्य । इत्यादि बहवोऽवदाता इति ।। ___ततः श्रीजिनप्रबोधसूरिपट्टे संवत् १३४१ वैशाखसुदि ३ दिने जावालपुरे पट्टाभिषेकः श्रीजिनचंद्रसूरिः। छाजहडगोत्रीयः। १३७७ ज्येष्ठवदि ११ दिने अणहिल्लपत्तने पट्टाभिषेकः । श्रीश@जये खरतरवसतिप्रतिष्ठाकारकः । श्रीजेसलमेरौ श्रीपार्श्वनाथबिंब प्रतिष्ठितं । येन श्रीजावालपुरे श्रीपार्श्वनाथप्रतिमा प्रतिष्ठिता। यस्य परिकरे द्वादश शतानि साधुसाध्वीनां जातानि। श्रीमंगलवरनगरे समुद्रवासिनो देवा बहवो मंत्रबलेन वशीकृताः। देराउरे स्तूपनिवेसो जातो तस्य। तथाद्यापि प्रत्यक्षं स्मरणेन मेघं समानयति, जलपानं कारयति तृषातुराणां। अचिंत्यमहिमा श्रीखरतरगच्छवासिनां साधुसाध्वीश्रावकश्राविकाणां, तथाऽन्येषामपि नामग्राहिणां सांनिध्यं करोति, वांछितं पूरयति यो गुरुः । ततः श्रीजिनकुशलसूरिपट्टे संवत् १३९०, ज्येष्ठसुदि ३ दिने सिंधुपुरे देराउरपुरे पट्टाभिषेकः। श्रीजिनपद्मसूरिः। तस्य वारके वेगडनिर्गतः। पट्टत्रिक छाजहडगोत्राणांजातं परमस्माकमेवगोत्रीयाणां दास्यामः प, नान्येषां तेन सीगडेन भ्राता वेगडः स्थापितः। श्रीसत्यपुरे बाराही साधिता। उधरणकेटके खरतरश्रावका जाताः। तत्पट्टे श्रीजिनलब्धिसूरिः । संवत् १४०० आसाढ सुदि १ पट्टाभिषेकः । कूर्चालसरस्वती । तस्य वारके अजयमेरौ 'हिन्दुक राजा' बीसलदेराजा । खरतराणां चतुरसीति शिष्याः व्याकरणपाठकाः । सप्तशत पौषधाः। घंटाशब्देन आलोचनं क्षामणं कुर्वति ते । तदानवदीन पातिसाहभयेन पद्मावती प्रहिता। गुरुभिरुक्तं च शुद्धिं कृत्वा एहि । म्लेच्छर्बद्धा देवी । अकस्मादागतो बहुसैन्यः। सर्वे प्रणष्टाः। देव्योक्तं अहं बद्धा म्लेच्छदेवैः। अथाहं न स्मरतव्या नागच्छामि । म्लेच्छवाहुल्यं जातं । गुरुभिः पंचशिष्याः, महधिकाश्च पंचश्राद्धा निर्वासिताः निखातद्वारे । संवत् १४०६ महासुदि १० दिने पट्टाभिषेकः श्रीजेसलमेरुदुर्गे तत्पट्टे श्रीजिनचंद्रसूरिः । उद्यतविहारी परमसंवेगी। संवत् १४१५ आसाढसुदि १३ श्रीस्तंभतीर्थे पट्टाभिषेकः, तत्पट्टे श्रीजिनोदयसूरिः। तस्येदं माहात्म्यं जातं । येषां शिरसि बालत्वे वासक्षेपः कृतस्ते सर्वे संघपतयो जाताः। शिष्याणां Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। खरतरगच्छ पट्टावली-३ ।। शिरसि वासक्षेपे सर्वे पट्टस्था जाताः। प्रतिमाः प्रतिष्ठिताः ताः सर्वा मूलनायका जाताः। श्रीमालवदेशे मांडवनगरमध्ये भावका बहवो धनाढ्या जाताः । प्रासादाः प्रतिष्ठिताः । संवत् १४३३फाल्गुनवदि ६दिने श्रीअणहिल्लपत्तने पट्टाभिषेकः तत्पट्टे श्रीजिनराजसूरिः। तस्य वारके वाचनाचार्य श्रीक्षेमकीर्तयो जाताः । साधितधरणेंद्राः। दीक्षितानेकशिष्याः । पत्रिंशत्वाचकाः, द्वादशपाठकाः, क्षेमधारि (डि ? ) विश्रुताः।। पुनस्तस्य वारके आचार्याः श्रीजिनवर्धनसूरयः । तैः श्रीजेसलमेरौ पार्श्वनाथचैत्यमध्ये गंभारकात् क्षेत्रपालो निर्वासितः। तेन कुपितेन प्रतिज्ञा कृता अहं त्वां गच्छान्निर्वासयाभि । रात्री स्त्रीरूपेण समागच्छति। ततश्चित्रकूटे गताः । तत्रापि क्षेत्रपालो नारीरूपेण पश्चिमरात्रौ उपाश्रये प्रविशति, निर्गच्छति। तथा पूर्व सा० सहना केल्हणाऽऽचार्यस्य पदस्थापनं कारितमभूत् । तदा आचार्यैरक्षाविधानमर्दलकं दत्तमभूत् । राजवस्यकारकं । तस्मिन्नवसरे क्षेत्रपाले निर्वासितः आचार्यः तत्र सर्वसंघो मिलितः । नाल्हाख्यो विधवासुतः। स तु नाहूतः आचार्यैर्मादलको गृहीतः सहणापार्थात् नाल्हाकस्य दत्तः। तत् प्रभावेन पा (ग्या ?) सदीनसुरत्राण पार्थं गतः सम्मानितः। सहणाख्यो बंदिगृहे क्षिप्तः । तदा पीपिलिया खरतरगच्छो निर्गतः। ततः सप्तभिर्भकारैर्मुहूर्त मीलयित्वा भाणसोल ग्रामे १, भणीसालीगोत्रे २, भौमवारे ३, भद्राकरणे ४, भरणीनक्षत्रे ५, भावकृतगृहनामा । संवत् १४७५ माघसुदि १५ दिने भट्टारक श्रीजिनभद्रसूरिः स्थापितः। श्रीसागरचंद्रसूरिभित्रो दत्तः। रात्रौ सूरिमंत्रं समवसरणं गृहीत्वा प्रणष्टाः। श्रीजेसलमेरौ आगताः। तत्र महोत्सवाः संजाताः। सं० पांचाकेनप्रासादः कारितः श्रीसंभवनाथस्य । तत्र पुस्तकभंडागारं स्थापितं । क्रमेण सप्त प्रासादाः प्रतिष्ठिताः । संखवालगोत्रीयः श्रीकीर्तिरत्नसूरीणामाचार्यपदं दत्तं । तस्य वारके ग्रामे २ पुरे २ श्रावका धनाढ्या जाताः। तस्य शतवर्षप्रमाणं जातमायुः । तस्याष्टादश शिष्याः जाताः श्रीसिद्धान्तररुचिमहोपाध्यायश्रीकमलसंयमोपाध्यायादयः। संवत् १५१५ वर्षे वैशाखवदि २ बुधवारे अणहिल्लपत्तने पट्टाभिषेकः श्रीजिन चंद्रसूरिः । तत् स्थापितः श्रीजिनसमुद्रसूरिः। संवत् १५३३ वर्षे महासुदि १३ दिनेश्रीपुंजपुरेपट्टाभिषेकः । तत्पट्टे चोपडागोत्रे सं० १५५५ वर्षे श्रीवीकानेरवास्तव्यमं० कर्मसीकृतनंदीमहोत्सवः श्रीजिनहंससूरिः। ढिल्यां सिकंदरपातिसाहिना कारागारे क्षिप्तः। मालवावास्तव्यसोहागदेश्राविकया 'चतुर्दससाधुसमानं कनकं ददामीति प्रोक्तं' तथापि न मुंचति। सिकंदरस्य प्रतिज्ञा येन मया बद्धो मुखेन तेन कथं वच्मि मुंचथेति पंचशतबंदिन एकस्थाने स्थिताः सति । तदा क्षेत्रपालः शय्यायाः अधः पातयति, साहि तथापि न मुंचति। तदाजेसलमेरुतः क्षेत्रपालः समेतो गुरुं प्रत्यूचे यूयं वदथ एनं मारयामि । पूज्यैरुक्तं-नायमस्माकमाचारः। क्षेत्रपालेनोक्तं-भवतो नयामि जेसलमेरुं । पूज्यैरुक्तं-अन्येषां साधूनां का गतिः १ तेनोक्तमन्यानपि क्रमेणानयिष्यामि । पूज्यैरुक्त-नाहं प्रच्छन्नवृत्त्या यामि, तस्करवत् । ततः सूरिणा सूरिमंत्रो ध्यातः। आगता शासनदेवी । तयोक्तं--पश्यतु भवंतो मम माहात्म्यं । तया साहिशरीरे महावेदना कृता । यथायथोपायान् कुर्वति Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ खरतरगच्छ पट्टावली - ३ ॥ तथातथाऽधिकतरा जाता । तदा वेदनापीडितो गुरुचरणयोः पतितः। भवंतः पूज्याः गच्छंतु निजं स्थाननं । पूज्यैरुक्तं यदि सर्वेषां बंदिमोचनं करिष्यसि तदा यामि, नान्यथा । सर्वेपि मोचिताः । अतीव माहात्म्यं जातं । श्रीजिनहंस सूरिवार के श्रीशांतिसागरसूरिभिः प्रतिष्ठा कृता । शिष्यदीक्षायां विरोधो जातः। तत्राचायियो गच्छो निर्गतः । तत्रधाडीवाहा गोत्रे टाटीयाशाखे सा० ठकुरा केन लक्षत्रयद्रव्यदानेन मंडोवरे राजा वशीकृतः । दोसीसाखे श्रीजिनदेवसूरीणां स्थापना कृता । श्रीजिनहंस सूरिपट्टे चोपडा गोत्रे अणहिलपत्तने बलाही देवराजकृतमहोत्सवः संवत् १५८२ वर्षे भाद्रवादि १३ पट्टाभिषेकः श्रीजिनमाणिक्यसूरिः । अनेकशास्त्रवेत्ता । तेन द्वादश पाठकाः स्थापिताः । एकनंद्यां चतुःषष्टि शिष्या दीक्षिताः । सिंधुदेशे सा० धनपतिकृतमहोच्छ्वेन पंचनद्यः साधिताः । तस्य वारके श्रीकन कतिल कोपाध्यायादिभिः क्रियोद्धारः कृतः । श्रीदेराउरे यात्रार्थं गच्छद्भिरेव स्वर्गप्राप्तः । ५६ संवत् १५९५ जन्म, संवत् १६०४ दीक्षा, तत्पट्टे रोहडगोत्रे संवत् १६१२वर्षे भाद्रपद ९ दिने गुरुवारे श्रीजेसलमेरुनगरे राउल श्री मालदेव कृतमहोच्छ्वो भट्टारकः श्रीजिनचंद्रसूरिः स्थापितः। संवत् १६१३वर्षे श्रीविक्रमनगरे चैत्रमासे सप्तमीदिने क्रियोद्वारः कृतः। तेषां चेतेऽवदाताः श्रीफलवर्धीताद्यचैत्यतालकोद्घाटकृत् । पुनः संवत् १३४३ वर्षे ताद्यधर्म्मसागरकृत ग्रंथछेदकृत् । श्रीअकबरसाहिप्रतिबोधकारी । तत्साहिवचसा युगप्रधानपदधारी । संवत् १६५२ वर्षे नानगाकृतमहोत्सवेन पंचनदीनां साधकः । सिंधु १, वहब २, वनाह ३, रावी ४, घाउ ५ इति - पंचनद्यः, तथा स्तंभतीर्थे वर्षं यावत् मीनरक्षाकृत् । श्रीज्येष्ठ पर्वणि सर्वत्राष्टदिनानि यावदमारी प्रवर्तकः । श्रीशत्रुंजयादि तीर्थेषु चैत्यप्रतिमा प्रतिष्ठाकृत् । श्रीविक्रमपुरे ऋषभविबादि - प्रभूतबिंबप्रतिष्ठाकृत् । श्री साहि सलेमराज्ये ताद्यकृत श्रीजिनशासनमालिन्यतः श्रीसाधु विहारो निषिद्धः साहिना । तत्रावसरे श्री उग्रसेनपुरे गत्वा साहिं प्रतिबोध्य च साधूनां विहारः स्थिरीकृतः । तदा लब्धः सवाई युगप्रधान बडागुरुरितिबिरुदो येन गुरुणा । एवमवदाता भूयांसः संति सुप्रसिद्धाः । तेषां निर्वाणं श्री बीलाडापुरे १६७० वर्षे आसूवदि २ दिने । स्थूपस्थापना । तस्य वारके श्रीसागरचंद्रसूरि संतानेऽनुक्रमेण भावहर्षसूरयो निर्गता इति । तत्पट्टे श्री जिनसिंहसूरिः चोपडागोत्री कोटिद्रव्यव्ययेन मंत्रिराज श्रीकर्मचंद्रेण कृतनंदी महोत्सवः श्रीलाभपुरे । नन्निर्वाणं तु मेदनीतटे संवत् १६७४ वर्षे पोसवदि १३ दिने । पट्टे गुरु श्रीजिनराजसूरिः । संवत् १६७४ वर्षे फागुण सुद ७ दिने संघपति श्री आसकर्णेन कृतनंदी महोत्सवः । तस्मिन्नेव दिने श्री जिनसागरसूरीणामाचार्यपदस्थापनेति । कियत् काले निर्वासिताः । श्रीमजिनराजसूरिः तस्य पट्टे विद्यमानगुरुः । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ' नाम पृष्ट नाम अकबर (-साहि) १३,३४,५६ ग्राऊग्राम अकबराबाद ३६ आकरपुर खयराज मंत्री) पागरा (-नगर) १३,३०,३३.३५ अग्निवश्यायन ( गोत्र) ६.१५ प्राचाय खरतर शाखा (प्राचार्यांय गच्छ) ३३,५६ अचलदास श्रादि (गोत्र) अचूका ४० प्राद्यपक्षीयगण अजमेर (अजमेरु, अजयमेरु,-दुर्ग,-नगर ) श्राबू (अर्बुदादि, अर्बुदाचल) ३,१२,२१,३२,३३,३७,४३ ४,११,२५,२७,२५,५०,५१,५४ श्राभू २६,२७,५१ अजितशांतिस्तव ४८ पायधर्म अणहिलपत्तन (-पाटण, पुरपत्तन, पाटक, पुरपाटण) थार्यनन्दि २१,२६,२७,२६,४४,५०,५१,५३-५६ अायभद्र अनार्यदेश १७ श्रायमहागिरि अनूपचंद ३८ प्रायमंगु अभयकुमार १०,२३ आयरजित सुरि अभयदेव सूरि (-प्राचार्य) ३,१०,२३,२४,३४,४५,४६ श्रार्यवयरदि अमरसर ४० प्रायश्यामा अमृतधर्म ३६ श्रार्यसमुद्रसूरि अम्बका टुक ५० आर्य संभूति विजय अम्बिका (अम्बा) १०,२१,२६,३६,४०,४३,५० श्रार्य सुहास्ति सूरि ११,२६,२७,२६,५१ श्रारासन नगर अम्भोहर देश २० पावश्यक नियुक्ति अयोध्या ३८ श्रावश्यक लघुवृत्ति अलसेल कूपिका अाषाढाचार्य अल्लावदीन (पातिसाहि) प्रासकरण -साह १४,३५,३६,४०,५६ अवन्ती ( 'उज्जैन' देखो) अाबाउलिपुर अवन्ती सुकुमाल अव्यक्त (३य निह्नव) प्रासाधीर अश्वमित्र श्रासानगर (-पुर) ११,२५ अहमदाबाद ( राजनगर ) १३,३३,३४,३६,३८,४० प्रचलिक मत Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पृष्ठ नाम इक्ष्वाकु कुल इन्द्रदिन्न सूरि इन्द्रभूति (गौतम) इंदपालसरग्राम इंदोर (पुर) ईश्वर (साह) ईश्वरी उपसेन २०,२१ ४१ उग्रसेनपुर उच्चनगर उछरंग देवी उज्जन (भवन्ती) उज्जंती (गिरनार देखो) उत्कोशिक गोत्र उत्तराखंड उदयकरण उदयपुर अद्योतन सूरि उपसग्गहर स्तोत्र उमास्वाति (वाचक) कडूमा कनकतिलक उपाध्याय कपडवंज (कप्पडवनिज) २४,४५ कमलसंयमोपाध्याय कमलादेवी ३०,३३ कर्मग्रंथ ४,१२ कर्मचंद्र, ( कर्मसिंह, करमसी-मंत्री) ७,१२-१४,३३-३५,३६,५५,५६ १८ करुणादेवी कल्पसूत्र कल्याणमंदिर १४,५६ कल्याणवती २५,२६,४८,५० कल्याण सर कस्तुरचंद्र गणि २,१०,११,१५,२५,५० कस्तूर बाई काकन्दी ( नगरी) १७,३५ काचलीया मंत्र कात्यायन गोत्र ६,१६ कालिकाचार्य (१) [-श्यामाचार्य ] ६,१६ " (२)[गह भिल्लोच्छेदक ] ३,१०,२०,४३ ६,१७,२५ काची काश्यप (-गोत्र) ६,१५ २८,२६ किसनचंद्र कोत्तिरत्न [ सुरि, प्राचार्य) १२,३२,३३,५५ कोल्हू कुमतिकुट्टालग्रंथ कुमारपाल (राजा) कुलक कुलधर कुलागसनिवेश कुममाणा ग्राम कुंभलमेरु (-नगर) १२,३०,३३ कुंवरपाल (उपाध्याय) २७,३५,५३ कुंवला ६,१६ ऊधरण (-मंत्री) अधरया केटक ऋषभदत्त-श्रेष्ठी ऋषभेश्वर १,९,१५ २६,५३ एलापत्य श्रोसवंश भोसोया नगर कचोलाक्षा कच्छदेश (पांचाल) Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोठारी ६,१५ ६,१७ घंधाणीपुर ४,२४ नाम पृष्ठ नाम कूकडचोपडा गोत्र ३३,३८ गुणरत्नसूरि (-पाचार्य) १२,३३ कूर्चपुरगच्छ २४ गुलालचंद कूर्चाल सरस्वती ५४ गूढानगर ३७,३८ ५५ गोलवच्छा ४१ केशरदेवी ३८ गोविद वाचक कोचर (गोत्र) १२,५१ गोष्ठामाहिल ( ७ वां निव) कोटिक (-गच्छ, -गण) १७,१८ गौर्जरत्रा (गौर्जरातीया) ११,५३ ३६ गौतम गोत्र ६,१५,१७,१५ कोणिक १ गौतम रास कोमल्य गच्छ गौतमस्वामी (इन्द्रभृति) कोल्लाक ग्राम गौवर ग्राम कोश्या कोमल्य (साध्वी, श्रावक ) ४७,४८ घाणेराव कोमल्यौपाध्याय धारउ (नदी) १३,५६ खरतर वसति ५,११,३०४५ घोघा बंदर ३६,३८ खरतर बिरुद ३,१०,२२ चण्डिका खरहथ (गोत्र) ४० चतुरंगदेवी खंभराय खंभायत नगर चन्द्र खिच्चडिका २५ चन्द्र (नाच्छ, -कुल) ८,६,१८ खीमसो (-साह) २६,३० चन्द्रमुनि (-सूरि) १९ खीवसरा (गोत्र) चन्द्रावती नगरी १०,२१,२८ खेड (-नगर) २८,२६ चम्म ( -गोत्र) १२,३३ खेतासर (ग्राम) खोडिया (खंज) क्षेत्रपाल ११,२७,३५,४६ चामुण्ड १०,४६ गङ्ग (५ वां निव) १७ चांपसी (-साह) ३५,३६ चितौड़ (चित्रकूट, चैत्रकूट ) ४,१०,२४,३२,४६,५३,५५ गाधर चोपड़ा गोत्र ३५,३६,३६ चित्रवाल गच्छ २६,४६ गयधर साद्धशतक प्रकरण चिरंतन प्रतिमा प्रशस्ति गर्दभिल्ल ६,१६ चुहरा गाजण चोपडा (गोत्र) १३,१४,२७,३३,३५-३७,४०,५५,५६ गिडीया चोला ४० गिरनार (-गिरि) १२,२६,३२,३८,३६,५० गुजरात ( गुर्जर देश, गुर्जरधरित्री) ११,१३,२०,२१,२४ छाजहड ( गोत्र, वंश, छाजेड ) ११,२८,३०-३२,३७, २७,३१,३३,३४,४३,४४,५० चंपा २४ ४० Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ४१ जोटा नाम पृष्ठ नाम .. जिनपति परि ५,११,२८,२६,५२,५३ जगच्चन्द्रसूरि जिनपन सूरि ६,११,१२,३१,५४ जमालि (१ ला निव) १५ जिनप्रतिबोध परि जम्बु (-कुमार, -मुनि, -स्वामी) १,६,१५,१६ जिनप्रबोध सुरि जयतिहुश्रण स्तोत्र १०,४५ जिनप्रभ सूरि जयदेव (-वाचनाचार्य, -सुरि, प्राचार्य ) १६,२८,४६,५२ जिनभक्ति सूरि जयदेवी ४२ जिनभद्गगणि क्षमाश्रमण ६,१६ जयपुर १६,३७ जिनभद्र सूरि २,६,१२,३२,५५ जयमल्ल ३६ जिनमाणिक्य सूरि ८,१३,३३,३४,५६ जयराज ४२ जिनयुक्त सूरि जयसागर पाठक १२ जिनरत्न सुरि १४,३६ जयसीरी ११ जिनराज सूरि ६,१२,१४,३२,३५,३६,४०,५५,५६ जयंतश्री ३० जिनलब्धि सूरि ६,१२,३१,५४ जयानन्द सूरि १६ जिनलाभ सूरि ३७-३६ ७ जिनवर्द्धन (सूरि, -गुरु) ६,१२,३२,५५ जालोर (जावाल, -पुर, -नगर, महादुर्ग) ५,११,२६-- जिनवल्लभ सूरि (-गुरु ) ३,४,१०,२४,४६ ३०,३६,५२-५४ जिनविजय सूरि ४१ जावड र जिनशेखर सरि(-प्राचार्य) ५,११,२४ जिनकीर्ति सूरि ४१ - जिनसमुद्र सूरि (-गुरु) ७,१३,३३,५५ जिनकुशल सूरि ५,११,१३,३०,३४,३७,३८,५४ जिनसागर सूरि १४,३५,४०,५६ जिनचंद्रसूरि (१) ३,१०,२३,४४ जिनसिहसूरि (१) ५,११,२६,४०,५३ ५,११,२७,२८,५१,५२ १४,३४,३५,५६ ५,११,३०,५४ जिनसौख्य सूरि ६,१२,३१,५४ जिनसौभाग्य सूरि ६,१२,१३,३३,५५ जिनहष सरि १३,३४,३५,३६ जिनहंस (-गुरु, -सूरि) ७,८,१३,३३,५५,५६ १४,३६ जिनहेम सूरि ४२ जिनचंद्रसूरि (क) ४१ जिनेश्वर १२,२१,४३ जिनेश्वर सूरि (१) ३,१०,२१-२३,४४ ४१,४२ ५,६,११,२६,५२,५३ जिनचंद्राचार्य ( चैत्यवाप्सी) २० , (चैत्यवासी) २४ जिनदत्त (-गुरु, मुनि, सूरि ) ४,१०,११,२४-२७,२६,- जिनोदय सूरि ६,१२,३१,३२,४२,५४ ४६-५१,५३ जीमण जिनदत्त श्रेष्ठी १८ जीरापल्ली पुरी जिनदेव सूरि ७,१३,५६ जील्हागर (-मंत्री) ११,३० जिनधर्म सरि ४०,४१ जीवराज (साह) ३३ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम जुनागढ (जीगढ़ ) जेसलमेर (-दुर्ग, -नगर ) ६, ७, ११-१३,३०- ३६,४१,४२, ५४-५६ जेसल साह जैनराजी (वृत्ति ) जोधाणी जोरावर मल शुभ नगर टाटिया शाखा ठाकुरा डागा (गोत्र) डूंगरी डेहरा तपा (गण, गच्छ ) तरुणप्रभ (-सूरि, आचार्य ) तारादेवी तांबी श्रीमाल ( गोत्र ) तिमरी नगर तिलोकचंद तिलोकली (साह) सिध्यगुप्त ( २ रा नि ) तुङ्गीयायन गोत्र तुम्बवन ग्राम तेजपाल तेजसो म्बावतीपुर त्रांबावाडाभिध पाटक त्रिशती त्रिशला त्रैराशिक थाह रूमल थाहरूबाह ( ५ ) पृष्ठ नाम ३८,३६ थिरापद्रनगर धूलिभद्र ३१ ३६ ४१ ३६ द दयासार दशपुर दशवेकालिक सूत्र दक्षिणदेश ५३ दाडिमदे दादोजी ५६ दिगम्बर ५६ दिन्न सूरि दिला (ढिलो ) १२,२७,४१,४२ ७, १३,३३,४१ दिल्लीपति ३६,४२ ३६ ३४ देका (साह) १५ १६. देवकुलपाटक १८ देवर्द्धिर्गाणि क्षमाश्रमण १२,३० देवदत्त ३६ देवभद्र सूरि ४५ देवराज (-मंत्री) २६ देवराजपुर ११ १,१५ ४१ दिलोमण्डल दुर्गप्रबोध २६ दुबलिका पुष्यमित्र सूरि (दुबलिका पक्ष ) २,६,१६ देवलदे (देवी) २६,३४,३५,५४ ११,१२,३१ ३६, ३६ दुर्लभ (नरपति, नृप, राज, -राजा ) ३,१०, २१, २२, ४४ दुष्प्रसह सूरि ५३ दृष्टिवाद १५ १८ १३,३३ देउर (-दुर्ग, नगर, पुर ) ३०, ३१, ३४,४६,५४,५६ देलवाडा (नगर) देल्हा देवी देवल वाटक ११,२२ १८ देवसूरि ४१ देवानन्द सू ३६ देविद वाचक पृष्ठ २६ है ३०,३२,५५ ३५ १६ १०,१६,२२,२४,४४ १८,३८,३६ ४१ ३० १६ १८ ७, २८, ३०,४४, _४६-५२,५५ ५४ ४४ ३२ २७ ६, १६ ५२ १०, २४,४६ ६,८,१३,३०,३३,५६ ६, ११, १३ १३,३३ १२,३२ ३,६,१६,२० १६ E Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवीकोट दोलतराव दोसी धनगिरि धनदेवी धनपति धनपाल धनश्रेष्ठी (महा-) धर्मदेव वाचक थर्मध्वज धर्मनिधान धर्मरत्न ( -सूरि, प्राचार्य) धर्मरंग (वाचनाचार्य) धर्मवल्लभ (वाचक) धर्मसागर (उपाध्याय) धर्मसी (साह) धम्मिल धरण धरणेन्द्र धवलक (-पुर) घंधुका ( -नगर) धाडीवाहा (गोत्र) धारणी धारलदे घारापुरी धुलेवा (-गढ़) पृष्ठ नाम ३६ नागपुर १२,२५,३१,४८ ३६ नागर वाडवीय ३८,५६ नागर्जुन नागेन्द्र १८ नागेन्द्र (-गच्छ, -कुल) १०,२३ नानगानी ४,५६ नारनउलपुर २३,४४,४५ नाल्ह ( साह) १२,३२,५५ १०,२३ नाहटा (गोत्र) २७,३६,३८,४१ २४ निवृत्ति ६,१८ ५१,५४ निवृत्ति (आच्छ, -कुल ) ६,१८ __३५ नेमिचन्द्र ( भांडागारिक ) ५,११,२६,५२ १२,३३ नेमिचन्द्र सूरि ६,२० १३ नेमीदास १२,३१ नैषधीय काव्य १३,५६ पञ्चनदी १०,१३,२५,३३,४८ ३५ पटना (पाटलीपुत्र नगर) १७,३८ पद्मसिंह ११,३२ पद्मादेवी ३३,३७ १०,२०,२४,४३,४५,५५ पद्मावतो ३,२३,२४,२८,४५, ५२-५४ १०,१३,२३,३३ परमहंस पर्वत पलिका ६,१५ पंचायणदास १२.३१,३५ पंजाब १०,२३ पाटण (पत्तन, -नगर, -पुर) ५,६,८,१०-१३,२६, ३७,३६ २६-३६,५०,५१,५३ २,१७ पादलिताचार्य ५२ पालिप्तपुर ( पालीताणा) ३५ १६ पारख ( परीक्ष ) गोत्र ११,१३,३३ ५४ पालनपुर (पाल्हणपर, प्रल्हादनपुर) ११,१२,२६,२६, १२,२७,३१ ३१,५१ ३. पावापुरी २ पासदीन (सुरत्राण) ५५, १०,२६,५० पांचा २४ नन्द (भूप, नवम ) नरमणि नरसिह सूरि नवदीन नवलखा (-गोत्र, -शाखा) नव्यनगर नागकरि प्रभु नागदेव ( अंबड़) १५ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम पीरोजी पपलिया गया (गच्छ ) पुनर्नव (गच्छ ) पिण्डविशुद्धिप्रकरण ४,१०,२४,४६ पिप्पलक (पीपिलिया) खरतरगच्छ शाखा (५) ३२,५५ पीर ३५,४६ ३३ १२,५५ १५ ३६ ११,१२ १३,५५ ४१ ३६ १६ पुण्यपालर ग्राम पुण्यवीर यक्ष पुंज र पुंजाणी पुंडरीक पूजापञ्चाशक प्रकरण पूर्वदेश पृथ्वी पृथ्वीराज पोमदत्त पोरवाड़ (प्राग्वाद) ज्ञाति पौष्य मुख्य गणि प्रतिष्ठानपुर प्रत्यासन्न (नगर) प्रद्योतन सूरि प्रबाध मूर्ति प्रभव (स्वामी) प्रभादेवी प्रथम रति प्रकरणा प्रज्ञापना प्राचीन गोत्र प्रीतिसागर वाचक फलोधी ( फलवन्द्र नगर, फतुदी ) फलांबाई फोगपत्तन बनारस (वाराणसी नगरी ) बब्बेरक (ग्राम, पत्तन ) लाही (बालादिक) गोत्र (७) पृष्ठ ३३,४१ ६, १५ ४२ १३,३३ २१,३४,३६,४० ४२ ह १६ १६ ३६ नाम बाग देश बापे ग्राम बालहा बाडमेर २१ बाहदर मल बाहरिका बाह्वारक नगर बिनासर बीकानेर (विक्रमपुर, नगर ) २ १६ २३ १९ भक्तादवी ३० १,६,१५,१६ बीबी बीलाडी (पुर) बुद्धिसागर बुद्धिसागर ( श्राचार्य ) बुहरा (गोत्र) बोथरा ( बोहित्रा) गोत्र बौद्ध बौद्ध राज्य ब्रह्मशांति यक्ष ब्राह्मण भक्तामर स्तोत्र भक्तिम भगू ग्राम भटनेर नगर १३,३४,४१,५६ भद्दिला ४१ भद्रगुप्त (आचार्य ) ३६ भद्रबाहु (स्वामी) भयहरण स्तोत्र भरत क्षेत्र पृष्ठ ४६ ३७ ३३ २८,३१,३३ ३५, ३६ ४८ ५ ३५ ४,५,७,१०,१३,२७, ३३-३५,३७-४२,४७,५१,५५, ५६ ४७ १४,५६ २०,२१,४३ २१,४४ ३६,४१ २७, ३५, ३७, ४०, ४२ ६, १६ १८ २१ १६ ४१ १६ ३७ भट्टारक पद भासाली (भाशालिक, भांडशालिक ) २७,३२,३६, _४०,५१,५५ ६,१५ १८ १, ६, १६ १६ २६ ४१ ४८ ३२ ११,२८,५२ भरुच ( भरु अच्छ, कच्छ, भृगुकच्छ) ११,२५,३८,५० ८,१२,५६ भंडारी (भांडारिक, भांडागारिक) गोत्र ५, ११, २६, ५२ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) नाम पृष्ठ नाम भाईदास ३७ महाविदेह भागचंद्र ४१ महिगलदे भाणलोल (-ग्राम,-नगर, भागलपल्ली) १,१२,३२,५५ महिमाराज भानुवड ३६ महेचा भावनगर ३८ मंगलवर नगर भावप्रभ (-प्राचार्य) १२,३२ मंडप भावकृत ५५ मंडोवर (-पुर,-नगर) ३६,३८,३६,५६ भावहर्ष (सूरि, उपाध्याय) १४,३५,५६ माटर गोत्र भावहषीय खरतर शाखा (७) ३५ माणिभद्र यक्ष ३५,४५,४६ भावारिवारण स्तवन ४६ माधव भीमपल्ली (-जगर) ११,१२,३० मानतुङ्ग (सूरि) ५,११,१६,३० भीमराज मानदेव सूरि भुवनपाल मानदेव साह भुवनरत्न (-प्राचार्य) १२,३२ मानसिंह भोजराज मालदेव ( राउत) ३४,५६ मउठीया मालवा १०,२०,४३,४४,५५ माल्हू (गोत्र) ११,१२,२८.३१ मकडाणा माहेश्वरी ४,२७ मकसूदावाद ३८,४१ मांडव नगर मगती मांडवी (बिदर) ३७,३८ मण्डूक मिरगादे मणिग्राहि २८ मिथिला मदनपाल ११,२७,२८ मीठडिया वुहरा (गोन्न) मधुकर खरतर शाखा (१) २४,४६ मुगल (मुद्गल ) १३,२६ मनक १,१६ मुलतान (-त्राय) १०,२५-२७,४७,५१ मनोद ग्राम मूलसिघ मनोहरदास मूलाणा (ज्ञाति) मन्दसौर (दशपुर ) १८,१६,४२ मेघराज (-साह) ८,१३,३३ मरदेश (मारवाड़, मंडल, -स्थल) ४,११,२१,२६,३३, मेडता (-नगर, -पुर, मेदनीतट ) १४,२७,१५-३७,४०,५६ ३६,४१,५० मेरु मरोट मेवाड़ (मेवात) महणली मोरवाड़ा महतीयाण (महुमुहु ) गोत्र ११,२३,३०,४५ मौजदीन (-पोतिलाह, -सुरत्राए) २३,४४ महाकाल (-प्रासाद) १०,१८,२५ महागिरि २ यशोभद्र (सूरि ) (१) १,६,१६ महाधन श्रेष्ठी २६ २० Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम यशोवर्द्धन याकिनी धर्मपुत्र बोधपुर (बोधानक) रथोहरीया रजोहरण रतन रतनसी रतनादे रतलाम खनिधान दे रविप्रभसूरि रसकूपक रंगविजय गणि रंगविजय सरतरशाखा (६) राउपुर राउल राखेचा (गोत्र) राजगच्छ राजगृह राजनगर ( ' अहमदाबाद' देखो ) राज समुद्रमणि राजसोमोपाध्याय राजाराम राजेंद्राचार्य राधनपुर रामदेव रामविजय उपाध्याय रायणशाली (गोत्र) रावी (नदी) रासल राहु रियमल रिबी (नगर,-पुर) (ε) पृष्ठ नाम २८ रिपडी (नदी) e रोहड (रेहड ) गोत्र ७, ३६ ४८ ५१ ४१ Xp ४० ४२ ३५ १३ २० ५१ १४,३६,४० ३६,४० रुद्रपल्ली पीय खरतरशाखा (२) सोमा रुंदपाल (साह) रुदेलिया गयण (-गणेश ) ८ ४० ३७ रूपचंद्र रूपजी रूप नगर रूपसी रेवा नगर रेवती सूरि रेवा हट रोंहगुप्त ३८ लम्बा (साह) १३ लक्ष्मी २७ ११,३० ६,१२,१६,३८ लक्ष्मीलाभ लखनऊ (लक्ष्याउ नगर ) अघुभ्राचार्याय खरतरशाखा (ब) ३५, ४० ३७ ३६ ३० ३७ लालचंद २० बाहोर लाभपुर ) लुटेक लस्कर लालदेवी २८४२ ३७ लूंगा करया सर २६ लूशिया (गोत्र) १३, ५६ लोद्रवा ( लोद्रव पसन ) २० लोहिय सौका (मठ) वं च्छराज (राजा - ) (साह) लघु खरतरगच्छ (गय शाखा) (३) ५,११,२९,५३ खघुभहारक खरतर शाखा (१२) लघुखंधपट्ट लब्धिचंद्र उपाध्याय "" पृष्ठ ४८ १३,३४,४१,५६ ५,११,२४ २४,४० १६ १२,३१ ११, १२ ३६,२०,४० ३६,४० ३७ ३६ ३५ १५ ३८ ३७ ३८ 就 ४० ४६ ५२,५३ ३६ १७,४१. ३७,३६ १४, २५,३४,३५,५६ ११ ४१ २७,३१,३६,३८,४७ ३६ २ ३३ ३८ ३३,४० Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरप्रभ [ १० ] नाम पृष्ठ नाम बच्छावत ३४,३८ विन्ध्य राजा वच्छामृत ३४ विपुलपुज्जपुर वज्र ( -सूरि-स्वामी,-मुनीन्द्र) २,६,१८,१९ विबुधप्रभ सरि वज्रसेन (-सुरि,-प्राचार्य) १५ विमल (-दंडनायक,-मंत्री) १०,२१,४३ वज्रशाखा (वयरालाहा) १५ विमलगिरि बड नगर (वृद्धनगर) २५,५० विमल चंद्रसुरि वडली ३४ विमलवसति ( वसही) १०,२१ वढा प्राचार्यांया गच्छ १३ विमलादे वनवासी १६ विवेकसमुद्र उपाध्याय पनाह नदो १३,५६ विशेषावश्यक भाष्य वयष (वहव) नदी १३,५६ वीर क्षेत्रपाल षयरी १५ वीरनाथ योगीन्द्र वराहमिहिर वर्धमान वीरसूरि वर्धमान सरि ३,१०,२०,२१,४३,४४ वीसलदे राजा वृद्धदेव सरि बल्लभी नगरी वृद्धनगर वषत साह वृद्धवादी सूरि वसभुति (ब्राह्मण) वृहत्खरतरगच्छ वागडिक (वागडी) १०,२४ वृहत्संघपट्ट वाग्भट मेरु .,११,१३,५२ वृहस्पति वाचक (वाछिग ) मंत्री १०,२४ घेगड (मंत्री) १२,५४ वात्स्य गोत्र बेगड खरतरशाखा (वेगडागच्छ, वाफमा वैकटगण) (४) वालीनाथ क्षेत्रपाल ६,१२,३१ १०,२१ वेगराज वालेवा प्राम वाल्हा देवी वावडीय ग्राम घेलाकुल पत्तन व्याघ्रपत्य गोत्र वासिष्ठ गोत्र पाहडदे १०,२४ शकडाल (पगडाल ) मंत्री २,१७ विक्रमपुर ( 'बीकानेर' देखो) सकन्दर (सिकन्दर, नरपति-पातिसाहि) ७,१३,५५ विक्रमसूरि १६ बंजय (सिद्धाचल, तीर्थ विक्रमादित्य ११-१३, १५,२०,३०, ३६-४३,५४,५६ २,६,१८,२६,५३ शय्यंभव सरि(-भट्ट) १,६,१६ विजयसिंह ___३० शान्सिसागर (-उपाध्याय, प्राचार्य) १३,३३,५६ विद्याधर (गच्छ,-कुल) ६,१८ शान्तिरि (१) विनयप्रम (-उपाध्याय, पाठक) १२,३० , (२) ३६,४० वेनातट Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम शान्ति स्तव शिवशर्मा (शिवेश्वर) श्रीलचंद्रगणि (वाचनाचार्य ) शीलाङ्गाचार्य uterreferre श्यामाचार्य ('कालिकाचार्य (१) देखो ) श्री श्रीकरण श्रीचंद श्रीपाल श्रीमाल श्रीमाल (ज्ञाति, गोत्र ) श्रीमालदेव राउल श्रीवंत श्रीसार उपाध्याय श्रीसारीयखरतर शाखा (१०) श्रीसूरि श्रेणिक श्वेतपट षडशीति प्रकरण सत्यपुर समन्तभद्रसूरि समयराज समयसुंदर उपाध्याय समरा समरसिंह साह समियाणा ग्राम समुद्रसूरि समुद्रोपकंठीया समेतशिखर (शिखर गिरिराज ) सरसापत्तन सरस्वती (देवी) नदी पत्तन भाण्डागार "> 33 "" [ ११ ] पृष्ठ १६ २०, २१ १२,३२ ६, १६ ३६ ५३ संखपाल ૪ संखेश्वर ११,२७,२९ संग्रामसिंह मंत्री २७ संघपट्ट (ग्रंथ) २३ संघवी (गोत्र) संडिल सूरि ७,११,१३, २३ २८,३१,४०,४४,४७,५२-५४ संदेह दोलावलि १३,५६ संप्रति ३४ ३६,४० ३६,४० ८, ४३, ४४ १७ १०,२४ ३७,५४ १६ ३५ नाम सलखया पुर सलेम ( - पातिसाहि ) सर्वदेव सूरि ( प्राचार्य ) सहजज्ञानगमि सहा सहसकर या ६, १२, ३१ ७ सादडी संभूतिविजय सूरि संवेगरङ्गशाला प्रकरण ३८,३६,४१ १०,२० ११,३१ सागरचंद्र (-सूरि, आचार्य ) साथियाला ग्राम ११,२०,३१,५३ १२,४३,५२ २२ सातल (नृप ) सारंगपुर ३५ सालमसिंह सामलदास सामीदास सामुच्छेदिक (४ निह्वव ) सार्द्धशतक प्रकरण साहि १२,३३ साहिब ११,३० साहलेचा (गोश्र ) १६ सिकंदर ५३ सिद्धवड सिद्धसेन (-गणि, दिवाकर ) सिद्धाचल ('शत्रुंजय' देखो ) सिद्धार्थ सिरियादे सिरवंत पृष्ठ १२ १४,३५,५६ ११,२६,५२ १२ ५५ ३६ ५५ ३७ ३४ ४६ १३, ४२ E २७ २,१७ १,१६ ३,१०,२३ १२,२४,३२,५५,५६ ४२ 67 ३७ ४१ ३६ १७ १० २४,४६ ३६ ४५ ४१ ३६ ५५ २० ३,६,१८,२५,३५ १५ १३,२६,३४ १३ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 12 ] पृष्ठ नाम 46 सोमा व्यन्सर 34 सोहागदे 39 सौराष्ट्र देश 13,56 सोवमपाल ग्राम 4,25,33,47,48,46,56 स्तंभतीर्थ (-पुर, नगर) 43,46,53 6,10-13, 23,24,31,34,37,54,56 2,17 12,32 2,15 स्थलिभद्र स्वामी 54 स्वर्णप्रभ भाचार्य 20,22,44 स्वाइसेरडा ग्राम हरपाल 1,9,15 हरिभद्र 3,6,16,26,53 2,18 हरिश्चंद्र 36 हरिसुखदेवी 43 हर्षनंदनगणि 36-36 हर्ष लाभ 36,42 हस्तिनागपुर 10,31 हस्ती 35,40 36 47,48 नाम सिलेमा पर्वत सिवा सिधिया सिधु (नदी) सिधु (देश,-मण्डल) सिधुपुर सिंहगिरि सूरि सोगड सीमंधर (स्वामी) सुखकोति सुखमल्ल सुधर्म (-स्वामी) सुनन्दा सुपियार देवी सुप्रभात सूरत (-बिदर) सूरतराम सूरिमंत्र मुरूपा सुवर्णविद्या सुविहित खरतरगच्छ सविहित पक्षगच्छ सुस्थित सूरि सहस्ति सूहब देवी सेठ ( सेठिया) गोत्र सेढिका नदी सेनावा (नगर) सेल्या ग्राम सोनपाल सोपारक सोमचंद्र सोमजी सोमदत्त (ब्राह्मण) सोमदेव (पुरोहित) सोमप्रभ सोमाख्य सोमेश्वर महादेव सोमवक्ष सोमराज 41 11,25 27,31,47 46,54 53 हंसराज साह 44 हाजी शाह 20 हाजीखांन डेरा 17,18 हाथी साह 2 हांसी नगर 28 हितरंग 37,36 हिदुक (राजा) 10,23,45 हिसार 33 हीरचंद्र 36 हुकुमचंद 13,33 हुंबड (गोत्र, ज्ञाति) 18 हेमराज 24 हेमश्री महत्तरा 34,36,40 हेमाचार्य 10,20,21 क्षत्रियकुंड (-प्राम, नगर) 12 झमाकल्याणक मुनि 46 क्षेमकीर्ति वाचनाचार्य 20 शेमधारी 24,46 36 26,53 26,53 15,30 27,36 4 ज्ञानविमल