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________________ किंचित् वक्तव्य -:: लगभग ६७ वर्षसे खरतरगच्छीय पट्टावलियोंका यह छोटा सा संग्रह छपकर तैयार हुआ था लेकिन विधिके किसी अज्ञेय संकेतानुसार आजतक यह योंही पड़ा रहा और यदि विद्वद्वर बाबू पूरणचंदजी नाहर की उपालंभ भरी हुई मीठी चुटकियोंकी लगातार भरमार न होती तो शायद कुछ समय बाद यह संग्रह साराका सारा ही दीमकके पेटमें जाकर विलीन हो जाता। . ___ पूनामें रहकर जब हम 'जैनसाहित्य-संशोधक' का प्रकाशन करते थे उस समय अहमदाबाद-निवासी साहित्य-रसिक विद्वान् श्रावक श्री केशवलाल प्रे० मोदी B. A. LL. B. ने खरतरगच्छ को एक पुरानी पट्टावलीको प्रति हमें लाकर दो-जिसमें इस संग्रहकी प्रथम ही में छपी 'खरतरगच्छ-सूरिपरंपरा-प्रशस्ति' थी। उस समय तक खरतरगच्छ की जितनी पट्टावलियां हमारे देखने अथवा संग्रह करनेमें आई उन सबमें यह प्रशस्ति हमें प्राचीन दिखाई पड़ी इसलिये हमने इसको तुरंत नकल कर, 'जैन सा० सं०' के परिशिष्ट रूपमें छपवा देनेके विचारसे प्रेसमें दे दिया। कुछ समय बाद मोदोजीने एक और पट्टावलो मेजी जो गद्यमें थी और साथमें उन्होंने यह भी इच्छा प्रदर्शित की कि इसे भी यदि उसी प्रशस्तिके साथ छपवा दिया जाय तो अच्छा होगा। हमने उसकी भी नकल कर प्रेसमें दे दिया। जब ये प्रेससे कंपोज होकर आई तो इसके पूरा फार्म होनेमें कुछ पृष्ठ खाली रहते दिखाई दिये तब हमने सोचा कि यदि इसके साथ ही साथ छपा उपाध्याय श्री क्षमाकल्याणजी की बनाई हुई वृहत्पट्टावलि भी दे दी जाय तो खरतरगच्छके आचार्योकी परंपराका १६ वीं शताब्दि पयंतका वृत्तान्त प्रकट हो जायगा और इतिहास प्रेमियोंको उससे अधिक लाभ होगा। इस पट्टावलीकी प्रेस कापी की हुई हमारे संग्रहमें बहुत पहले ही से पड़ी हुई थी अतः हमने उसे भी प्रेसमें दे दिया। इसी तरह की, लेकिन इससे प्राचीन एक और पट्टावलो मेरे पास थी उसे भी, प्रत्यंतर होनेसे विशेष उपयोगी समझ कर इसी संग्रहमें प्रकट करनेका हमें लोभ हो आया और उसे भी छपने दे दिया। इस प्रकार चार पट्टावलियोंका यह छोटा सा संग्रह जब तैयार हो गया तब हमने इसे 'जैन सा० सं०' के परिशिष्टरूपमें न देकर स्वतंत्र पुस्तकाकार प्रकट करनेका विचार किया और यह स्वतंत्र पुस्तकका विचार मनमें घुसते ही हमारे दिलमें एक नया भूत आ घुसा। हम सोचने लगे कि जब पुस्तक ही बनाना है तब फिर क्यों नहीं विशेष रूपसे एक संकलित ऐतिहासिक ग्रंथके आकारमें इसे तैयार कर दिया जाय और खरतरगच्छके इतिहासका जितना मुख्य मुख्य और महत्वके साधन हों उन्हें एकत्र रूपमें संगृहीत कर दिया जाय क्योंकि हमारे संग्रहमें इस विषयकी कितनी ही सामग्रो-- इन पट्टावलियोंके अतिरिक्त कई और भाषाकी पट्टावलियां, ग्रंथप्रशस्तियां तथा ख्यात आदि विविध प्रकारकी ऐतिहासिक सामग्री इकट्ठी हुई पड़ी थी। उन सब सामग्रियोंको संकलित कर ऐतिहासिक ऊहापोह करनेवाली विस्तृत भूमिका और टीका टिप्पणी आदि साथमें लगाकर इस संग्रहको परिपूर्ण बना दिया जाय तो श्वेताम्बर जैन संघका एक बड़ा भारी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003435
Book TitleKhartargaccha Pattavali Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherBabu Puranchand Nahar
Publication Year
Total Pages76
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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