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जिनभाषित
वीर निर्वाण सं. 2535
श्री दिगम्बर जैन मंदिर कैथूली (म.प्र.)
में विराजमान १०८ जिनप्रतिमा-फलक
आषाढ़, वि.सं. 2066
जुलाई, 2009
• मूल्य 15/
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"उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त सत्'
का भावानुवाद
आचार्य श्री विद्यासागर जी
'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत्' सन्तों से यह सूत्र मिला है इसमें अनन्त की अस्तिमा सिमट-सी गई है। यह वह दर्पण है, जिसमें भूत, भावित और सम्भावित सब कुछ झिलमिला रहा है, तैर रहा है दिखता है आस्था की आँखों से देखने से! व्यावहारिक भाषा में सूत्र का भावानुवाद प्रस्तुत है: आना, जाना लगा हुआ है आना यानी जनन-उत्पाद है जाना यानी मरण-व्यय है लगा हुआ यानी स्थिर-ध्रौव्य है और है यानी चिर-सत् यही सत्य है यही तथ्य...!
इससे यह और फलित हुआ, कि देते हुए श्रय परस्पर मिले हैं ये सर्व-द्रव्य पय-शर्करा से घुले हैं शोभे तथापि अपने-अपने गुणों से
छोड़े नहीं निज स्वभाव युगों-युगों से। फिर कौन किसको कब ग्रहण कर सकता है? फिर कौन किसका कब
हरण कर सकता है? अपना स्वामी आप है अपना कामी आप है फिर कौन किसका कब भरण कर सकता है?...
फिर भी, खेद है ग्रहण-संग्रहण का भाव होता है सो.... भवानुगामी पाप है। अधिक कथन से विराम, आज तक यह रहस्य खला कहाँ? जो 'है' वह सब सत् स्वभाव से ही सुधारता है स्व-पन...स्वपन....स्व-पन.... अब तो चेतें-विचारें अपनी ओर निहारें अपन....अपन....अपन।
यहाँ चल रही है केवल तपन..... तपन..... तपन....!
मूकमाटी (पृष्ठ १८४-१८६) से साभार
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रजि. नं. UPHIN/2006/16750
जुलाई 2009
सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन
कार्यालय
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शिरोमणि संरक्षक परम संरक्षक
संरक्षक
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वार्षिक
एक प्रति
मासिक
जिनभाषित
अन्तस्तत्त्व
काव्य : ‘उत्पाद-व्यय- ध्रौव्ययुक्तं सत्' का भावानुवाद
: आचार्य श्री विद्यासागर जी
● मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ
मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ
• सम्पादकीय : कालसर्पयोग निवारणपूजा आगम
की कसौटी पर
प्रवचन कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र का स्वरूप
वर्ष 8,
: आचार्य श्री विद्यासागर जी
समाचार
• लेख
• स्वात्मोपलब्धि के इच्छुक भव्यात्माओं के लिए
: मुनि श्री विनीतसागर जी
: स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया
• जिज्ञासा समाधान
• ग्रन्थ समीक्षा: श्रुताराधना (२००८)
• रात्रिभोजन त्याग
● तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक
विवेचन (षष्ठ अंश) पं० महेशकुमार जैन, व्याख्याता
• हमारी सांस्कृतिक धरोहर हमारी मातृभाषा
: डॉ० ज्योति जैन
:
पं. रतनलाल बैनाड़ा
अङ्क 7
आ. पृ. 2
आ. पृ. 3
आ. पृ. 4
लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है।
'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा ।
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13, 17, 21, 28, 31, 32
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सम्पादकीय
कालसर्पयोग-निवारणपूजा आगम की कसौटी पर
कुछ समय पूर्व मेरी दृष्टि 'कालसर्पयोग निवारणपूजा' नामक एक लघुपुस्तिका पर पड़ी। इसके लेखक विधानाचार्य ब्र० विनोदसागर जी शास्त्री हैं और प्रकाशन ज्ञानामृतसाहित्यकेन्द्र, ज्ञानकुटी, सिद्धनगर जबलपुर ( म०प्र०) से हुआ है। प्रथम संस्करण ही प्रतीत होता है, किन्तु प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं है । पुस्तिका की पृष्ठसंख्या मात्र ७८ है । उसकी कीमत ८० रुपये छपी है, किन्तु बाद में सील लगाकर कीमत तीस रूपये कर दी गई है।
'कालसर्पयोग' शब्द मैंने प्रथम बार पढ़ा- सुना था। जिनागम में इसका उल्लेख कहीं देखने में नहीं आया । इसलिए मैं सोचता रहा कि 'कालसर्प' शब्द का क्या अर्थ है ? किन्तु पुस्तिका के मुखपृष्ठ पर पूर्णकालसर्पयुक्त ग्रहचक्र के साथ भगवान् पार्श्वनाथ के चित्र के दोनों ओर दो बड़े-बड़े सुन्दर और भयंकर नागों की तस्वीर देखकर अनुमान लगाया कि कालसर्प से तात्पर्य डसते ही मौत के घाट उतार देनेवाले अत्यन्त जहरीले नाग से है। फिर मैंने आप्टेकृत संस्कृत-हिन्दी कोश उठाकर देखा तो पाया कि उसमें बिलकुल यही अर्थ लिखा है- 'काले और अत्यन्त विषैले साँप की जाति ।'
अब मुझे पूरा विश्वास हो गया कि जन्मकुण्डली में उल्लिखित ग्रहयोग के माध्यम से यदि यह फलित होता है कि जातक (किसी मनुष्य) के जीवन में कभी कालसर्प द्वारा इसे जाने का योग है, तो उसे भगवान् नेमिनाथ ( राहुग्रह - अरिष्टनिवारक) और पार्श्वनाथ (केतुग्रह - अरिष्टनिवारक) की पूजा के द्वारा टाला जा सकता है। इसी पूजा को 'कालसर्पयोगनिवारणपूजा' नाम दिया गया है।
मेरे मन में प्रश्न उठा कि यदि कालसर्पयोगवाला श्रावक नित्य जिनपूजा करता है, तो इससे ही उसका कालसर्पयोग टल जाना चाहिए, अलग से कालसर्पयोग निवारण की प्रार्थना करते हुए भगवान् नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की पूजा करने की क्या आवश्यकता ? नित्यपूजा के आरम्भ में कविवर नाथूरामकृत जो विनयपाठ पढ़ा जाता है, उसमें नेमिनाथ और पार्श्वनाथ का नाम न लेकर तीर्थंकर - सामान्यवाची जिनेश्वर ( धन्य जिनेश्वरदेव ) शब्द से भगवान् को सम्बोधित करते हुए कहा गया है
तुम पदपंकज पूजतैं विघनरोग टर जाय । शत्रु मित्रता को धरै विष निर्विषता थाय ॥
तात्पर्य यह कि किसी
भी तीर्थंकर की पूजा की जाय, उससे सभी विघ्न, सभी रोग टल जाते हैं, शत्रु मित्र बन जाता है और सर्पादि के द्वारा इसे जाने पर चढ़ा हुआ विष भी उतर जाता है।
पंडित टोडरमल जी प्रत्येक तीर्थंकर के स्तवन-पूजन से लौकिक लाभ बतलाते हुए मोक्षमार्गप्रकाशक में लिखते हैं- " जो अरहंतादि विषै स्तवनादिरूप विशुद्धपरिणाम हो है ताकरि अघातिया कर्मनि की साता आदि पुण्यप्रकृतिनि का बंध हो है । बहुरि जो वह परिणाम तीव्र होय तो पूर्वै असाता आदि पाप प्रकृति बँधी थी, तिनको भी मंद करै है अथवा नष्टकरि पुण्यप्रकृतिरूप परिणमावै है । बहुरि तिस पुण्य का उदय होतैं स्वयमेव इन्द्रियसुख की कारणभूत सामग्री मिलै है अर पाप का उदय दूर होते स्वयमेव दुःख की कारणभूत सामग्री दूर हो है ।" (मो. मा. प्र. / अधिकार १ / पृ.७) ।
नित्यपूजा-पीठिका जिनस्तवन का महत्त्व बतलाते हुए कहा गया है
विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति शाकिनी - भूत - पन्नगाः ।
विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥
अर्थात् जिनेन्द्रदेव का स्तवन करने से विघ्नों का समूह नष्ट हो जाता है, शाकिनी, भूत और नाग शान्त हो जाते हैं तथा विष निर्विष हो जाता है।
भक्तामर स्तोत्र में आचार्य मानतुंग भगवान् आदिनाथ की स्तुति का महत्त्व बतलाते हुए कहते हैं
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रक्तेक्षणं समद कोकिलकण्ठनीलं क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम्। आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशङ्कस्
त्वन्नाम-नागदमनी हृदि यस्य पुंसः॥ ४॥ अनुवाद- "हे भगवन् आदिनाथ! जिसके हृदय में आपके नाम की नागदमनी (नाग का दमन करनेवाली ओषधि) विद्यमान है, वह मदमत्त कोयल के कण्ठ के समान काले, लाल-लाल आँखोंवाले, क्रोध से उद्धत और फन उठाकर सामने आते हुए नाग को भी निर्भय होकर लाँघ जाता है।"
इस प्रकार जिनागम में किसी भी तीर्थंकर के स्तवन, पूजन आदि से कालसर्पयोग का निवारण होना बतलाया गया है। पूजन तो दूर की बात है, स्तवन, स्मरण मात्र से बड़े-बड़े संकटों के टल जाने की बात कही गई है। विधानाचार्यों को जिनागम में विश्वास नहीं
किन्तु लगता है कालसर्पयोगनिवारणपूजा के समर्थक विधानाचार्यों को उपर्युक्त जिनवचनों में विश्वास नहीं है, इसीलिए उन्होंने एक आगमविरुद्ध, स्वकल्पित मान्यता प्रचलित की है कि कालसर्पयोग का निवारण विशेषतः भगवान् नेमिनाथ और पार्श्वनाथ की पूजा से होता है, क्योंकि कालसर्पयोग राहु और केतु नामक ग्रहों के योग से होता है और राहुजन्य अरिष्ट के निवारक भगवान् नेमिनाथ मान लिये गये हैं और केतु जन्य अरिष्ट के निवारक भगवान् पार्श्वनाथ, जैसा कि निम्नलिखित नवरचित मन्त्रों से ज्ञात होता है
१. "ओं ह्रीं राहग्रह-अरिष्ट-निवारक-श्रीनेमिनाथ-जिनेन्द्राय नमः, मम कालसर्पदोषनिवारणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।" (उक्त पूजापुस्तिका / पृ.३०)।
२. “ओं ह्रीं केतुग्रह-अरिष्ट-निवारक-श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नमः मम कालसर्पदोषनिवारणाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।" (वही / पृ. ३४)।
इसी कारण जातक के द्वारा प्रतिदिन पार्श्वनाथ के कलिकुण्ड-यंत्र के समक्ष ही पूजा किये जाने एवं उसी पर कालसर्पनिवारक शान्तिधारा कराये जाने का नियम बनाया गया है। जिनभक्ति के साथ अभिचार-प्रयोग की आवश्यकता
कालसर्पयोगनिवारण के उपाय के रूप में अष्टद्रव्यार्पण के माध्यम से अभिव्यक्त होनेवाली जिनभक्ति को अपर्याप्त मान लिया गया और अजैन शास्त्रों का अनुकरण कर अभिचार (जादू-टोना) की क्रियाओं का समावेश किया गया। इसीलिए अष्टद्रव्यरूप पूजनसामग्री के अतिरिक्त काले उड़द, पीले सरसों, काले सरसों, गूगल, लालचन्दन, लालमिर्च, पिसी हल्दी, खड़ी मूंग (हरी), खड़ी धनियाँ, रक्षासूत्र, काँसे का कलश चाँदी का साँतिया (स्वास्तिक), नागमोहिनी लकड़ी, साँप का जोड़ा (कृत्रिम), मयूरपिच्छी आदि अभिचार सामग्री (जादू-टोना-टोटका की साधनभूत सामग्री) भी पूजा में शामिल कर ली गयी। (उपर्युक्त पुस्तिका/ पृष्ठ ४)। उपर्युक्त पूजापुस्तिका के पृष्ठ ४ पर 'कालसर्पनिवारण के कुछ सहज उपाय' शीर्षक के नीचे इस अभिचार-सामग्री का प्रयोग इस प्रकार बतलाया गया है
१. २५ ग्राम काले उड़द अपने ऊपर से नीचे की ओर उतारकर बाहर फेंक दें। २. काले सरसों को अपने ऊपर लेकर नौ बार णमोकार मंत्र पढ़कर किसी गड्ढ़े या नदी में डाल दें। ३. अपने पास हमेशा छोटा सा मोरपंख रखें। ४. अपने हाथ में हमेशा पंचरंगा रक्षासत्र बाँधकर रखें।
५. हो सके तो प्रतिदिन सोने के स्थान पर छोटे दीपक में मीठा दूध भरकर रखें और दीपक का दूध गमले में डालें और उसकी मिट्टी छह महीने में गाँव या शहर के बाहर फेंककर गमले में नवीन मिट्टी डालें।
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६. हर महीने अपने सिर के पाँच बाल हाथ से उखाड़ कर अग्नि में डालें ।
७. हर महीने नारियल को अपने ऊपर नौ बार घुमाकर नदी या तालाब के किनारे छोड़ दें। ८. नागमोहनी लकड़ी को ११ बार णमोकारमंत्र पढ़कर अपने ऊपर घुमाकर वस्ती के बाहर छोड़ दें या गड्ढे में डाल दें।
९. गूगल को २१ बार णमोकारमंत्र पढ़कर अपने ऊपर घुमाकर अग्नि में छोड़ दें ।
१०. कालसर्पयोगनिवारण का मंत्र सर्पविष उतारनेवाले मंत्र के समान होता है। उसके द्वारा झड़वाना आवश्यक है। उस मंत्र को दो साल में सिद्ध किया जाता है।
इस प्रकार कालसर्पयोगनिवारण का अनुष्ठान करानेवाले जैन विधानाचार्यों ने कालसर्पयोगनिवारण में जिनभक्ति को पर्याप्त नहीं माना, उसके साथ उपर्युक्त अभिचारद्रव्यों से अभिचार ( टोना टोटका करना भी आवश्यक माना है । अर्थात् उन्होंने भक्तामरस्तोत्र आदि के उपर्युक्त वचनों को अविश्वसनीय ठहराने का प्रयत्न किया है, जिनमें कहा गया है कि जिनेन्द्र के स्तवन एवं नामस्मरण मात्र से बड़े से बड़े अशुभयोग टल जाते हैं।
जिनेन्द्र के अतिरिक्त व्यन्तरादि से कृपा की प्रार्थना
विधानाचार्यों को यह विश्वास नहीं है कि मात्र जिनेन्द्र की भक्ति से जातक के कालसर्पयोग का निवारण हो जायेगा, इसलिए उन्होंने वैमानिक भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों के सामने भी कालसर्पयोगनिवारण हेतु गिड़गिड़ाना जरूरी बतलाया है । 'कालसर्पनिवारण - शान्तिधारा' के ये मन्त्र इसके उदाहरण हैं
“ॐ यमवरुणकुवेरवासवश्च वः प्रीयन्ताम् । ॐ असुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमारादिदशविध - भवन - वासिकाश्च वः प्रीयन्ताम् । ओं अनन्त - वासुकी तक्षक-कर्कोटक -पद्म- महापद्म- शंखपालकुलिक - जय-विजय नागाश्च ते कालसर्पनिवारणार्थं शान्तिधारां करोमि । ॐ इन्द्राग्नि यम नैऋति दशविधदिग्देवताश्च वः प्रीयन्ताम् । ॐ सुरासुरोरगेन्द्र --- गन्धर्वयक्ष - राक्षस- भूतपिशाचाश्च वः प्रीयन्ताम् । ॐ बुधशुक्र --- महाग्रहा ज्योतिष्कदेवताश्च वः प्रीयन्ताम् । --- विंशतिभवनेन्द्राश्च वः प्रीयन्ताम् । षोडशव्यन्तरेन्द्राश्च मम कालसर्प- निवारयन्तु । चतुर्विंशतियक्षेन्द्राश्च मम कालसर्पं निवारयन्तु । --- चतुर्विंशति यक्षीदेवताश्च मम कालसर्पं निवारयन्तु । --- ॐ सौधर्मेशान - सानत्कुमार- माहेन्द्र --- षोडशकल्पवासिकाश्च वः प्रीयन्ताम् ।--- नवग्रैवेयकवैमानिकाश्च वः प्रीयन्ताम् ।"
इन मंत्रों में चारों निकायों के देव-देवियों से जातक पर प्रसन्न होने (प्रीयन्ताम्, प्री- प्रसन्न होना ) और उसके कालसर्पयोगनिवारण की प्रार्थना की गई है। यह इस बात का प्रमाण है कि जैन विधानाचार्यों को यह विश्वास नहीं है कि एकमात्र जिनभक्ति से कालसर्पयोगनिवारण हो सकता है। इस कार्य में उन्होंने जिनेन्द्रदेव एवं चतुर्णिकाय के देवों को एक ही आसन पर लाकर बैठा दिया है। यह जिनेन्द्रदेव के परमेष्ठिपद के अवमूल्यन और देवमूढ़ता का हृदयदाहक उदाहरण है।
अभिचारशास्त्र ( तन्त्रशास्त्र ) परसमय ( अजैनशास्त्र, बाह्यशास्त्र ) है
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कालसर्पयोग या अन्य अशुभयोगनिवारण के लिए काले उड़द, काले या पील सरसों, लाल मिर्च, रक्षासूत्र आदि पूर्वोक्त अभिचारद्रव्य ( टोना-टोटका करने की सामग्री ) के द्वारा किया जानेवाला अभिचार ( टोना-टोटका ) या तान्त्रिक अनुष्ठान परसमय (अजैन शास्त्र) की क्रिया है, स्वसमय (जैनशास्त्र) की नहीं । इसका स्पष्टीकरण आचार्य वीरसेन ने धवलाटीका ( षट्खण्डागम / पुस्तक १ / १, १, १ / पृ. ८३) एवं जयधवला टीका (कसा पाहुड / भाग १ / गाथा १ / पृ. ८८-८९) में किया है। कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा की शुभचन्द्रटीका (गाथा ४६४), भगवती - आराधना की विजयोदयाटीका ( गाथा ६१३ / पृ. ४२१), बृहद्रव्यसंग्रह की ब्रह्मदेवटीका (गा. ४१ / अमूढदृष्टि अंग / पृ. १५६), प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति / अधिकार ३ / गा. ६९ तथा जयोदय महाकाव्य (सर्ग २ / श्लोक ६३) में भी उपर्युक्त क्रियाओं का वर्णन करनेवाले शास्त्र को मिथ्यादृष्टिप्रणीत मिथ्याशास्त्र,
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लौकिकशास्त्र, बाह्यशास्त्र या दुःश्रुति कहा गया है। (देखिये, मेरा सम्पादकीय लेख/जिनभाषित / जून २००९)।
इसके अतिरिक्त जातक के सिर या शरीर पर आज घुमाकर बाहर फेंके गये काले उड़द या पीले सरसों आदि में ऐसे किसी इलेक्ट्रानिक पावर का होना सिद्ध नहीं है, जो साल दो साल बाद सम्पर्क में आनेवाले कालसर्प को रिमोट कण्ट्रोल से रोक दे। ऐसी दूसरी शक्ति ईश्वरीय शक्ति ही मानी जा सकती है, किन्तु उसे मानना जीवों के भाग्यविधायक, सर्वनियन्ता, अन्तर्यामी ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करना होगा, जिसे जिनशासन अस्वीकार करता है।
इन दो प्रमाणों से सिद्ध है कि अभिचार या तान्त्रिक अनुष्ठान के द्वारा कालसर्पयोगनिवारण की मान्यता जिनागम के विरुद्ध एवं अवैज्ञानिक है। व्यन्तरादि देव भी कालसर्पयोगनिवारण में समर्थ नहीं कीर्त्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा गया है
एवं पेच्छंतो वि हु गह-भूय-पियास-जोइणी-जक्ख।
सरणं मण्णइ मूढो सुगाढ-मिच्छत्त-भावादो॥ २७॥ अनवाद- संसार में कोई भी व्यक्ति जीव का शरण (दःख और मत्य से बचानेवाला) नहीं है. ऐसा देखते हुए भी मूढ (मिथ्यादृष्टि जीव) प्रगाढ़ मिथ्यात्व के प्रभाव से ग्रह, भूत, पिशाच, योगिनी (चण्डिका आदि देवियों) और यक्ष को शरण (शरणं श्रियते अर्तिपीडितेनेति शरणम्- का.अ./ टीका / गा. २७) अर्थात् रक्षक मानता है।
इसका भावार्थ प्रकट करते हुए सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं- "मनुष्य देखता है कि संसार में कोई शरण नहीं है, एक दिन सभी को मृत्यु के मुख में जाना पड़ता है--- । फिर भी उसकी आत्मा में मिथ्यात्व का ऐसा प्रबल उदय है कि उसके प्रभाव से वह अरिष्ट-निवारण के लिए ज्योतिषियों के चक्कर में फंस जाता है और सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु नाम के ग्रहों को तथा भूत, पिशाच, चण्डिका वगैरह व्यन्तरों को शरण मानकर उनकी आराधना करता है।"
व्यन्तरादि देवों और ग्रहों का नाम लेकर उनसे यह निवेदन करना कि आप प्रसन्न हों (वः प्रीयन्ताम्) और मेरे कालसर्पयोग का निवारण करें (मम कालपर्सयोगं निवारयन्तु), यह उनकी आराधना ही है। 'आराधना' शब्द प्रसन्न करने का ही वाचक है। यह शब्द राध् धातु से व्युत्पन्न है, और उसका अर्थ प्रसन्न करना ही
इस तरह व्यन्तरादि देवों की आराधना को जिनागम में मिथ्यात्व कहा गया है- "क्षेत्रपाल-चण्डिकादिमिथ्यादेवानां यदाराधनं करोति जीवस्तद्देवतामढत्वं भण्यते।" (द्र.सं./टीका/गाथा ४१ / पृ.१०५)। 'कालसर्पयोगनिवारणपूजा' में इस मिथ्यात्व को उच्च सिंहासन पर (शान्तिधारा में) प्रतिष्ठित किया गया है। केवलमन्त्र द्वारा कालसर्पयोग-निवारण
उक्त पूजा से अत्यन्त सरल तो कालसर्पयोगनिवारण मंत्र है। द्वादशांगश्रुत के १२ वें अंग दृष्टिवाद में विद्यानुवाद नाम का एक पूर्व है। उसमें सात सौ अल्पविद्याओं (मन्त्रों) और पाँच सौ महाविद्याओं का विधिसहित वर्णन था। वह वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। फिर भी कहीं से मंत्रों का संग्रह करके एक लघुविद्यानुवाद नाम का ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है और उसे विद्यानुवादपूर्व पर आधारित बतलाया गया है। किन्तु, उसमें संकलित मंत्रों की भाषा और शब्दों के प्रयोग से यह सिद्ध नहीं होता कि वह द्वादशांगश्रुत जितना प्राचीन है। उसमें एक सर्पयोगनिवारक मन्त्र दिया है, जो इस प्रकार है
"ऊँ इलवित्ते तिलवित्ते डुवे डुवालिए दुस्से दुस्सालिए जक्के जक्करणे मम्मे मम्मरणे संजक्करणे अघे अनघे अपायंतीए श्वेतं श्वेते तंडे अनानुरक्ते ठः ठः ऊँ डल्ला विल्ला चक्का वक्का कोरडा कोरडर घोरड़ति मोरडा मोरड़ति अट्टे अट्टरुहे अट्टट्टोंडु रुहे सप्पे सप्प रुहे सप्प होंडु रुहे नागे नागरुहे नाग थोडु रुहे अछे अछले विषत्तंडि विषत्तंडि त्रिंडि त्रिंडि स्फुट-स्फुट स्फोटय स्फोटय इदा विषम विषं गछतु दातारं गछतु
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भोक्तारं गछतु भूम्यां गछतु स्वाहा।"
इस मंत्र के नीचे लिखा है- "इस मंत्रविद्या को जो पढ़ता है, सुनता है, उसको सात वर्ष तक साँप नहीं दिखेगा और काटेगा भी नहीं और काटेगा भी तो शरीर में जहर नहीं चढ़ेगा।" (लघुविद्यानुवाद / द्वितीय संस्करण / पृष्ठ १२१)।
इस मंत्र को केवल पढ़ना या सुनना है। इसमें न अष्ट द्रव्य की आवश्यकता है, न काले उड़द पीले सरसों, नागमोहनी लकड़ी आदि अभिचारसामग्री की, न किसी मान्त्रिक या विधानाचार्य की। शब्द भी इसके बड़े मनोरंजक हैं, जैसे- 'इलवित्ते, तिलवित्ते, इल्ला, विल्ला, चक्का, वक्का---।' पता नहीं ये किस भाषा के शब्द हैं और इनका क्या अर्थ है? शायद इन अर्थहीन शब्दों को साँप समझता हो। केवल यन्त्र द्वारा सर्पभय का निवारण
सर्पभय के निवारण हेतु यन्त्रप्रयोग मन्त्र से भी सरल उपाय है। उपर्युक्त लघुविद्यानुवाद ग्रन्थ में निम्नलिखित सर्पभयहर अस्सीया (योग करने पर ८० की संख्यावाला) यन्त्र का उल्लेख है
३६
9 Mr
३४
ग्रन्थ में लिखा है कि इस यन्त्र को घर की दीवार पर ऐसी जगह सिन्दूर से लिखा जाय, जहाँ सर्प की दृष्टि पड़ जाय। अथवा यह यंत्र काँसे की थाली में लिखा हुआ तैयार रखें और जब सर्प निकले, तब उसे थाली दिखला दी जाय। इससे सर्प घर को छोड़कर चला जायेगा। (पृष्ठ २७९-२८०)।
इससे यह भी ध्वनित होता है कि जैसे अन्य विघ्नविनाशक यंत्र भूर्जपत्र या कागज पर लिखकर गले में पहन लिये जाते हैं या भुजा पर बाँध लिये जाते हैं, वैसे ही इस यंत्र को भी गले या बाँह में धारण कर लिया जाय, तो कहीं भी जाने पर सर्पभय नहीं रहेगा। पुण्यकर्मोदय ही सर्वानिष्टयोग-निवारण का एकमात्र उपाय
उपर्युक्त मन्त्र और यन्त्र भी परसमयोक्त (अजैनशास्त्रोक्त) हैं, यह धवला, जयधवला आदि के पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध है। तथा ये पुण्यकर्म के उदय के अभाव में अकार्यकारी हैं और पुण्यकर्मोदय होने पर इनके विना भी समस्त अनिष्ट योग टल जाते हैं, यह जिनवचन है। यथा
कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार श्री शुभचन्द्र ने गाथा ३२० की टीका में निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया
तावच्चन्द्रबलं ततो ग्रहबलं ताराबलं भूबलं, तावत्सिध्यति वाञ्छितार्थमखिलं तावज्जनः सज्जनः। मुद्रामण्डलमन्त्रतन्त्रमहिमा तावत्कृतं पौरुषं
यावत्पुण्यमिदं सदा विजयते पुण्यक्षये क्षीयते॥ अनुवाद- चन्द्रमा का बल तभी तक चलता है, ग्रहों का बल तभी तक कार्यकारी होता है, और भूमि का बल तभी तक काम करता है, वांछित पदार्थ भी तभी तक प्राप्त होते हैं, मनुष्य भी तभी तक सज्जन रहता है, मुद्रा, मण्डल, तंत्र, मंत्र की महिमा भी तभी तक रहती है तथा पौरुष भी तभी तक सफल होता है, जब तक पुण्य का उदय रहता है। पुण्य का क्षय होने पर ये सब बल क्षीण हो जाते हैं।
यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि पुण्योदय के अभाव में ग्रह, नक्षत्र, व्यन्तरादि देव-देवियाँ, तथा मुद्रा, मण्डल, तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र आदि उपाय मनुष्य के किसी भी अनिष्ट योग का निवारण नहीं कर सकते। इसलिए जिनभक्ति आदि शुभोपयोग के द्वारा पुण्यार्जन करनेवाला जीव ही कालसर्पादि समस्त अनिष्ट योगों
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को टाल सकता है।
बृहद्र्व्यसंग्रह की टीका में ब्रह्मदेवसूरि लिखते हैं कि राम और लक्ष्मण को मारने के लिए रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की थी। इसी प्रकार कौरवों ने पाण्डवों का नाश करने के लिए कात्यायनी विद्या साधी थी और कंस ने कृष्ण के विनाश हेतु बहुत सी विद्याओं को प्रसन्न किया था, किन्तु वे राम, लक्ष्मण, पाण्डवों तथा कृष्ण का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकीं। इसके विपरीत राम आदि ने किसी भी मिथ्यादेवता को प्रसन्न नहीं किया, फिर भी निर्मल सम्यक्त्व के द्वारा उपार्जित पूर्वपुण्य के प्रभाव से सब विघ्न टल गये- 'तैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मलसम्यक्त्वोपार्जितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्वं निर्विघ्नं जातमिति।' (बृ.द्र.सं./ टीका/गा.४१ / पृ.१५०)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षाकार ने कहा है कि उत्तम धर्म के प्रभाव से अग्नि शीतल हो जाती है, भुजंग (कालसर्प) रत्नों की माला बन जाता है और देवता दास हो जाते हैं। तीक्ष्ण तलवार हार बन जाती है, दुर्जेय शत्रु सुखद सज्जन बन जाते हैं, हालाहल (कालकूटविष) अमृत में परिवार्तित हो जाता है और बड़ी-बड़ी आपदाएँ सम्पदा का रूप धारण कर लेती हैं
अग्गी वि य होदि हिमं होदि भुजंगो वि उत्तमं रयणं। जीवस्स सुधम्मादो देवा वि य किंकरा होंति॥ ४३२॥ तिक्खं खग्गं माला दुज्जयरिउणो सुहंकरा सुयणा।
हालाहलं पि अमियं महवया संपया होदि॥ ४३३॥ इस कथन ने तो टोना-टोटकाप्रधान एवं व्यन्तरादि-आराधनामयी कालसर्पयोगनिवारणपूजा तथा कालसर्पयोगनिवारण मंत्र-तन्त्र-यन्त्र के प्रयोग की उपयोगिता पर पानी फेर दिया है, सर्वथा निष्फल घोषित कर दिया है और एकमात्र जिनभक्त्यादि उत्तम धर्म द्वारा अर्जित पुण्य के उदय को समस्त अनिष्ट योगों का अचूक निवारक बतलाया है। अत: विधानाचार्यों को इन जिनवचनों में आस्था धारण करते हुए अज्ञानी श्रावकों को कालसर्पादिअनिष्टयोगों का भय दिखाकर उपर्युक्त प्रकार की पूजा एवं मन्त्र-तन्त्र-यन्त्रादि-प्रयोग के मिथ्यात्व में नहीं फँसाना चाहिए। इसके विपरीत जिनभक्त्यादिरूप उत्तमधर्म के आचरण की शिक्षा देनी चाहिए। सैकडों अनिष्टयोगनिवारणपजाओं के उदभव की आशंका
एकमात्र जिनभक्त्यादिरूप उत्तमधर्म के द्वारा अर्जित पुण्यकर्म के उदय से सभी प्रकार के अनिष्ट योगों का निवारण हो जाता है, किन्तु साहित्यविक्रयजन्य आय एवं दक्षिणालाभ के प्रलोभन से कालसर्पयोग-निवारणपूजा का प्रचलन ऐसी असंख्य पूजाओं की रचनाप्रवृत्ति को जन्म देगा, इसकी बहुत अधिक संभावना है। अब कालविच्छूयोग, कालश्वानयोग, कालशृगालयोग, कालछिपकलीयोग, कालसिंहयोग, कालगजयोग, काल अश्वयोग, कालवृषभयोग, कालगेंडायोग, कालशूकरयोग, कालबाइकयोग, कालट्रेनयोग, कालबसयोग, कालविमानयोग, कालनदीयोग, कालसमुद्रयोग, कालबम-विस्फोटयोग, काल-आतंकीयोग, कालगैस-सिलेण्डर-विस्फोटयोग इत्यादि असंख्य अनिष्ट योगों के निवारणार्थ असंख्य पूजाओं की रचना से विधानाचार्यगण हिचकिचायेंगे नहीं और अज्ञानी गृहस्थों को भट्टारकों के समान अनुष्ठानों के जटिल मायाजाल में फँसाकर धनार्जन के बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य को अंजाम देंगे।
जिनशासन-भक्तों को जिनशासन को शुद्ध बनाये रखने के लिए उक्त प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। जैनगृहस्थों को अनिष्ट योगों के निवारणार्थ मिथ्यादृष्टियों की शरण में जाने से रोकने के नाम पर जिनशासन में ही जब-जब मिथ्यात्व का प्रवेश कराया गया है, तब-तब वह उसका स्थायी अंग बन कर रह गया है, आगे चलकर जिनशासन से उसका निष्कासन कोई नहीं कर पाया, समाज ही विभाजित हो गया। अतः अब आगे ऐसा न हो, इसके लिए जिनशासन के भक्तों को अत्यधिक सावधान रहने की आवश्यकता
है।
रतनचन्द्र जैन
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प्रथम अंश
कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र का स्वरूप
आचार्य श्री विद्यासागर जी श्री सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) में मई २००७ में आयोजित श्रुताराधना शिविर में १४ मई २००७ के द्वितीयसत्र में विद्वानों की शंकाओं के समाधानार्थ आचार्यश्री द्वारा किये गये प्रवचन का प्रथम अंश प्रस्तुत है।
शंका- आचार्यश्री! अभी तक की संगोष्ठियों में | यह एक विशेष बात है। विद्वानों को यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि आयतन, पहले वह बिना निर्देशन के पढ़नेवाला छात्र था। अनायतन, कुगुरु, कुदेव, कुशास्त्र का क्या स्वरूप | वह अध्यापक या अध्यापन की शैली को अ
था, तभी वह आलोड़न करता-करता, तत्संबंधी ग्रन्थों १. शिथिलाचारी दिगम्बर जैनमुनि कुगुरु में आते | का आलोड़न करता चला जाता था। वह अपने पाठ्यक्रम हैं या नहीं?
से सम्बंधित पुस्तकों को देखने के लिए पुस्तकालय चला २. चतुर्णिकाय देवों में कौन कुदेव और कौन |
जाता था। अब उसके लिए पाठ्यक्रम नहीं, किन्तु देव में आते हैं?
पुस्तकालय है। पुस्तकों का निषेध नहीं हुआ है, किन्तु इस विषय पर मार्गदर्शन देने की कृपा करें, जिससे
पाठ्यक्रम का निषेध हो चुका है। अब उसे कोई अध्यापक हम लोग सही रास्ते पर चल सकें। नमोऽस्तु।
नहीं कहता कि तुम अपने पाठ्यक्रम को छोड़कर यह समाधान- आगम और अध्यात्म पद्धति के कथन क्या पढ़ रहे हो? नहीं, अब उसको जो कुछ पढ़ना किया जाता है। आगमपद्धति में देव, शास्त्र, गुरु, छह होता है, वह पढ़ लेता है। द्रव्य, नव पदार्थ, संयम, तप आदि का उल्लेख है और
अब वह किसी भी पुस्तकालय में किसी भी अध्यात्मपद्धति में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का | भाषागत कोई भी विषय देखता रहता है। इसी प्रकार उल्लेख है। इनकी उत्पत्ति के कारण अपने को उपलब्ध
आप धारणा बनाकर सुन लीजिये, विषय आपको समझ हो जाते हैं। आगमपद्धति और अध्यात्मपद्धति क्या वस्तु में आ जायेगा कि आगमपद्धति देव-गुरु-शास्त्र, छह द्रव्य, हैं, यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है। कोई भी पद्धति हो, |
नव पदार्थ आदि को लेकर चलती है। अध्यात्म में अपने को तो सम्यग्दर्शन प्राप्त करना है, ऐसा नहीं। एक | सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान के विषय प्रस्तुत किये हैं। पाठ्यक्रम होता है, एम. ए. की कक्षा तक क्रमिक चलता |
धवला जी आदि के माध्यम से कह रहा हूँ, है। स्कूलों में पहली क्लास का पाठ्यक्रम अलग, दूसरी सम्यग्दर्शन का विषय क्या है? जो सम्यग्दर्शन के विषय क्लास का पाठ्यक्रम अलग, इस प्रकार एम. ए. तक
छह द्रव्य, नव पदार्थ आदि का श्रद्धान नहीं होने देता पाठ्यक्रम चलता जाता है। तत्संबंधी प्रश्नों के उत्तर आपको
है, उसका नाम दर्शनमोहनीय है। दर्शनमोहनीय के उदय दिये जाते हैं। पाठ्यक्रम इस प्रकार चलता है। आगे
के कारण छह द्रव्यों का समीचीन श्रद्धान नहीं हो पाता, शोधछात्र होता है, वह भी पढ़ता है, लेकिन उसका कोई उसका नाम मिथ्यादर्शन है। पाठ्यक्रम नहीं होता है।
जब दर्शनमोह हट जाता है, तो सम्यग्दर्शन प्रकट वह छात्र तो है, लेकिन शोधकर्ता है। अब वह | हो जाता है। षट्खण्डागम और कषायपाहुड़ ये सिद्धांतशोध क्या करेगा? शोध-पूर्ण कक्षा में पास होकर के | ग्रन्थ हैं। इनमें कहीं भी शद्धात्मा की बात नहीं कही बोध प्राप्त करता है। किसी एक विषय में शोध करके | है। 'अन्ते सिद्ध इति सिद्धान्तः' सिद्ध की बात हम अन्त वह गहराई के साथ कुछ प्रस्तुत करना चाहता है, तो | में करेंगे। अभी हम मार्ग से चलेंगे। इस प्रकार वहाँ उसके लिए कोई पाठ्यक्रम निर्धारित नहीं है। जहाँ एक | पर आपको एक शब्द मिलेगा 'वीतरागता'. लेकिन कब भाग निर्धारित हो जाता है, उसके लिए तो कुछ कर | मिलेगा- 'रागाभावात' वीतरागता. राग के अभाव में सकते हैं, करा सकते हैं। अब पढ़ने के लिए दिया | वीतरागता प्रकट होती है। जाता है निर्देश, पहले पढ़ने के लिए निर्देश की 'छद्मस्थ वीतराग परिहार विशुद्धि संयत' यह संज्ञा आवश्यकता नहीं होती थी। आज अनिवार्य हो गया है, | ग्यारहवें बारहवें गुणस्थान की है। वीतराग सम्यग्दर्शन,
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वीतराग सम्यग्ज्ञान आदि का वर्णन वहाँ पर मिलेगा, उससे । संयम, सराग सम्यग्दर्शन, भेद रत्नत्रय, व्यवहार मोक्षमार्ग पहले वीतरागता नहीं आती। किन्तु सम्यग्दर्शन क्रियात्मक | ये सब भी एकार्थवाची हैं। ये आगम की व रहेगा? उपशम, क्षय, क्षयोपशम के रूप में रहेगा। उपयोग | जाते हैं। व्यवहार सम्यग्दर्शन को तो मिथ्यादर्शन के बराबर का कथन षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में आप नहीं देख | समझा जा रहा है, बिल्कुल ठीक है। अध्यात्म ग्रन्थ पढ़ोगे, पाओगे। कहीं टीका ग्रन्थों में आया हो, अलग बात है। तो यही पल्ले में आयेगा। अब उसमें एडजस्टमेण्ट सम्यग्दर्शन के विषय की भरमार मिलेगी, लेकिन यह | (समन्वय) करना चाहो तो तीन काल में नहीं कर सकोगे। नहीं मिलेगा।
अब इसकी भूमिका कैसे बना दी जाय? जयसेन आगमपद्धति से सम्यग्ज्ञान का वर्णन देखते हैं। स्वामी ने इसका बहुत अच्छा उत्तर दिया। निश्चय सम्यग्दर्शन के न होने में कारण मिथ्यादर्शन का उदय | सम्यग्दर्शन के साथ 'पानकवत् नियमो वर्तते' इसे रहता है। जिसके कारण हम छह द्रव्यों के समीचीन | पानकवत् कहा है। पानक का अर्थ क्या है? पानक का स्वरूप पर विश्वास नहीं कर पाते। अब थोड़ी सी हम | अर्थ है पीने की ठंडाई, या पेय पदार्थ जिसको पिया अध्यात्मप्रणाली को देखते हैं, जहाँ पर छह द्रव्यों की | जा सके। पेय कहते ही आप लोगों की दृष्टि तीन की बात नहीं कही जा रही है। किन्तु निश्चय सम्यग्दर्शन | ओर चली जाती है- मीठा, जल, बादाम आदि। पानक का वर्णन प्रारंभ हो जायेगा। यह व्यवहारसम्यग्दर्शन | कहते ही इन तीनों की समष्टि का बोध हो जाता है सरागसम्यग्दर्शन आगम में कहा है और अध्यात्म में | पचासों स्थानों पर आप पढ़ेंगे, निश्चय सम्यग्दर्शन कहते निश्चयसम्यग्दर्शन कहा है। देखो, निश्चयसम्यग्दर्शन का | ही वहाँ पर वीतरागचारित्र आ जाता है। 'तत्र निश्चयविषय शुद्धात्मतत्त्व है। आत्मतत्त्व की बात नहीं करेंगे | सम्यग्दर्शनं वीतरागसम्यग्दर्शनेन आगच्छति,"अविनाभावः' वे, शुद्धात्मतत्त्व की करेंगे, जीवतत्त्व की बात नहीं करेंगे| वीतराग चारित्र के साथ अविनाभाव व्याप्ति को धारण वे, शुद्ध जीव द्रव्य की बात करेंगे। शुद्ध पदार्थ की करनेवाले उस निश्चय सम्यदर्शन की बात कर रहे हैं। बात करेंगे। केवलज्ञान की भी बात नहीं करेंगे। जो अभी | वह अकेला ही पर्याप्त है। लेकिन एक होता नहीं। क्योंकि हमने कहा कि क्षायिक भाववाले को भी यदि निश्चय | वह पानक वाला पेय है। ये तीनों आयेंगे, लेकिन तीनों सम्यग्दर्शन प्राप्त करना है, तो क्षायिक सम्यक्त्व के | एक कोने में, मीठा एक कोने में, पानी एक कोने में आलम्बन से भी निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होगा। और एक कोने में मेवा रख दो, पानक बन जायेगा, आज कई लोग इस भ्रम में हैं। हमें बार-बार विचार | ऐसा नहीं। उसको अच्छे ढंग से बाँट करके, सम्मिश्रण आता है। देखो, इतना पुरुषार्थ किया जा रहा है, लेकिन | करके, उल्टा-पुलटा करके, फिर बाद में दिया जाता वह पुरुषार्थ फेल है। फेल है ऐसा कहने से उनको है। एक-एक बूंद में उसका शोध घुला हुआ रहता है। दुःख भी हो सकता है।
ऐसा नहीं ऊपर-ऊपर रह गया या नीचे-नीचे रह गया। चूँकि आपने ऐसा विषय रखा है, इसलिए मैं कह | ऐसा नहीं होता। इसका नाम पानक है। जिस समय रहा हूँ। अब हम यह बताना चाहते हैं कि निश्चय | राप्यग्दर्शन होता है, वहाँ पर निश्चय सम्यग्ज्ञान आ जाता सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया जाता है, ध्यान किया जाता | है और निश्चय चारित्र भी आ जाता है। इसलिए उन है, उसके द्वारा निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है। तीनों को एक शब्द के द्वारा कह देते हैं, तीनों का नाम अध्यात्म में निश्चय सम्यग्दर्शन की उम्र अन्तर्मुहूर्त ही | लेने की कोई आवश्यकता नहीं, पानकवत् कह दिया। बताई गयी है। यह भी पकड़िये आप, काल नहीं पकड़िये, | अब वहाँ निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो रही है। इसमें उसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। चाहे क्षायिक सम्यग्दृष्टि कोई बाधा नहीं। जिसको इसकी प्राप्ति नहीं होती, उसको भी क्यों न हो। निश्चय सम्यग्दर्शन अन्तर्मुहूर्त तक ही | अज्ञानी कहा। अज्ञानी सो मिथ्यादृष्टि। मिथ्यादृष्टि सो टिकेगा। या तो वह केवलज्ञानी हो जायेगा, या नीचे आ बहिरात्मा। ऐसे व्यवहार सम्यग्दृष्टि को अध्यात्मग्रन्थों में जायेगा।
बहिरात्मा कह दिया। लेकिन यह निर्विकल्प समाधि का निश्चय सम्यग्दर्शन शुद्धोपयोग के साथ होता है। काल निश्चय चारित्र का काल है। निर्विकल्प समाधि निश्चय सम्यग्दर्शन, शुद्धोपयोग, वीतराग सम्यग्दर्शन, अभेद | कहाँ पर होती है? समाधि तो कहीं पर भी हो जाती रत्नत्रय, निश्चय मोक्षमार्ग और उपेक्षा संयम, ये सब | है, किन्तु यह निर्विकल्प समाधि नहीं है, यह बताया एकार्थवाची हैं। व्यवहार सम्यग्दर्शन, शुभोपयोग, अपहृत | गया है। कहाँ कहाँ से ढूँढ़ करके समष्टि करने का,
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संयोजन करने का पुरुषार्थ चल रहा है। लेकिन सही। क्या है और अध्यात्मपद्धति क्या है, इसका ज्ञान किया दिशा में पुरुषार्थ नहीं हो रहा है। एक व्यक्ति ने कहा- | जाना चाहिए। हम आगम के आधार से कह रहे हैं, महाराज! सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के काल में निर्विकल्प | अपनी ओर से कुछ भी नहीं कह रहे हैं। दशा होती है, वहाँ पर निर्विकल्प दशा तो बताई नहीं, जो केवलज्ञान का कारण है ऐसे शुद्धोपयोग की वहाँ पर तो साकार उपयोग बताया है। साकार उपयोग बात कही जा रही है। अब वह शुद्धोपयोग केवली के के साथ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। जितने भी सिद्धान्त | लगाना है। क्योंकि शुभोपयोग और अशुभोपयोग समान ग्रन्थ हैं, उनमें यही उल्लेख है, किन्तु निर्विकल्पता होती हैं, कह दिया होगा किसी ने। किसने कहा यह नहीं है, तो निराकार दर्शनोपयोग भी उसमें आ सकता है। बतायेंगे, लेकिन चर्चा अवश्य करेंगे। दोनों समान हैं, यदि साकार उपयोग-ज्ञानोपयोग का काल समाप्त हो गया, | आगम में ऐसा कहीं नहीं कहा। आगम प्रणाली में तो तो निर्विकल्प रूप जो दर्शनोपयोग है, उसके निष्ठापन | अशुभ, शुभ और शुद्धोपयोग की बात ही नहीं कही की स्थिति आ सकती है। इतना मात्र उल्लेख किया | गई। दो भाव हैं शुभभाव और अशुभभाव। तीसरा भाव है। ऐसा नहीं कि मिथ्यादष्टि बना बैठा रहे और निर्विकल्प हो तो हमें बताओ, वह सिद्ध अवस्था में है। शुभभाव दशा आ जाये। सम्यग्दर्शन साकार उपयोग के साथ ही | के द्वारा निर्जरा होती है, यह बात भी वहाँ कहीं गई होगा, यह आगम का उल्लेख है। चाहे षट्खण्डागम देख | है। लेकिन यह बात अध्यात्मप्रेमियों को अच्छी नहीं लगेगी। लो, चाहे धवला, जयधवला या कषयपाहुड देख लो, | इसलिए वे विशेषार्थ लिख करके उसकी भी लीपापोती सब में एक ही नियम है। साकार उपयोग के ही साथ | कर देते हैं। वे कहते हैं 'शुभ भाव से निर्जरा मानना होगा। संज्ञी, साकार उपयोग, यदि मनुष्य गति में है, ही आगमविरुद्ध है', यह कहाँ से आगमविरुद्ध हो गया। तो शुभ लेश्या भी होना आवश्यक है।
इसका तो स्थान-स्थान पर आगम में उल्लेख मिलता व्यवहारसम्यग्दृष्टि के शुद्धोपयोग होने का कथन | कभी किसी ने नहीं किया है। शुद्धोपयोग तो आज भी "सुभसुद्धभावेण विणा ण तक्खयं (कम्मक्खयं) प्राप्त हो सकता है। तीन के साथ होगा तो रत्नत्रय पहले | अणुपपत्तिदो" ये वचन जयधवला (प्रथम पुस्तक) में भेदवाला होगा, फिर बाद में अभेद रत्नत्रय होगा।| वीरसेन महाराज जी कह रहे हैं। यह एक गाथा की सम्यग्दर्शन पहले सराग या व्यवहार सम्यग्दर्शन होगा।| व्याख्या है। इसलिए क्या अध्यात्म है और क्या आगम महाराज! व्यवहार सम्यग्दर्शन तो मिथ्यादृष्टि के पास भी है, इनका तुलनात्मक अध्ययन करो। नयज्ञान के साथ होता है, ऐसा कहते हैं लोग। अब यह ध्यान रखिये। शब्दज्ञान भी करो, शब्द ज्ञान से शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, सात प्रकृतियों का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम होने | आगमार्थ और भावार्थ ये पाँच अर्थ हैं। शब्द का अर्थ, के उपरांत जो सम्यग्दर्शन है उसकी चर्चा कर रहे हैं। व्याकरण का ज्ञान होना चाहिए। भाषा का मर्म यदि समझ
मिथ्यादृष्टि अवस्था में भी ग्यारह अंग और दसवें | में नहीं आता तो प्रवचन करने का आपको अधिकार पूर्व तक का पाठी हो सकता है। लेकिन वह मिथ्यादृष्टि | नहीं है। कुछ-का-कुछ अर्थ निकाल दें। अर्थ निकालते रहता है। ये सब कुछ ऐसी बातें हैं, जो सर्वाङ्गीण स्वाध्याय | समय पसीना आ जायेगा। फिर भी आचार्य कहते हैं। न करने के परिणाम हैं। यद्यपि आगम में यह भरा हुआ "गुरूपदेसादो" गुरु का उपदेश है। व्याकरणाचार्य बन है। एक बात और कहना चाहता हूँ कि सम्यग्दर्शन का |
यूँ निकाल दो, ऐसा विषय तो षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में छहों द्रव्यों का | नहीं चलेगा। नहीं तो महाराज, मनोरंजन के रूप में ऐसे बना सकते हैं। लेकिन चारित्र को उन्होंने 'अप्पविसयी' ही कह देते थे। उसके द्वारा किसी को बोध हो जाये। कहा है। क्योंकि वह आत्मा को लेकर चलता है। | 'द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः' द्रव्य का आश्रय ले ले और यह बहुत अच्छी बात कही जा रही है। हम अपनी | उनके पास गुण नहीं भी हों, तो भी उनको गुणी मान तरफ से नहीं कह रहे हैं। कई लोगों की धारणा हो | कर उनका स्वागत होने लगेगा। सकती है कि महाराज जी यों ही कहते होंगे। यों ही । हाँ, धनी व्यक्ति हैं, तो स्वागत हो जायेगा। अब युक्ति नहीं होती, ध्यान रखना। युक्ति के लिए भी बहुत | किसी भी जैनेतर के सामने यह सूत्र रखा जाये, तो वह परिश्रम करना पड़ता है, तब युक्ति फिट हो पाती है। यही अर्थ निकालेगा "सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति" इसलिए हम बार-बार कहना चाहते हैं कि आगमपद्धति । बस, इसी का ही रूप है। 'द्रव्याश्रयाः निर्गुणाः गुणाः'
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ऐसा अर्थ निकाल सकते हैं । अब बोलो, शब्द का अर्थ | अन्यथा कल्याण होनेवाला नहीं है ।
क्या निकालना है? इसके उपरांत नयार्थ- नय क्या होते हैं? अरे, निश्चयनय निश्चयनय क्या है? सब गड़बड है । कहा तो यही है । हाँ, कहा तो यही है । इतना आसान नहीं है कि कोई निकाल दे नयार्थ। इसलिए बहुत गंभीरता के साथ सोचिये, बिल्कुल विपरीत अर्थ निकलते चले जा रहे हैं, जिनसे कभी सामञ्जस्य बन ही नहीं सकता । यह स्वाध्याय के माध्यम से ही बन सकता है लेकिन इस रहस्य को जब तक नहीं समझा जायेगा, तब तक सब अन्धकारमय ही समझना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको निश्चय सम्यग्दृष्टि मान रहा है, इसलिए वे सब शुद्धोपयोग की ही श्रेणी में हो गये।
आगमपद्धति में उपशमसम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ये तीन निर्धारित किये गये हैं । यहाँ पर निश्चय सम्यग्दर्शन का काल अन्तर्मुहूर्त और कर्मसिद्धान्त आदिक में उसकी सागरोपम तक की आयु होती है, यह भी निर्धारित है। वहाँ पर वीतरागसम्यग्दर्शन का उदाहरण देने में अकलंकदेव ने क्षायिक सम्यग्दर्शन को वीतराग सम्यग्दर्शन कहा, लेकिन विवक्षा अलग है। वहाँ पर शुद्धोपयोग की विवक्षा में बात नहीं कहीं गई है, ध्यान रखना। वहाँ पर अनन्तानुबंधी कषाय एवं दर्शन मोहनीय के क्षय से अब कभी मिथ्यात्व की उत्पत्ति नहीं होगी, यह विवक्षा है ।
इसके उपरांत भी आप मानोगे तो क्षायिक सम्यग्दर्शन नरकों में भी घटित होता है। वहाँ पर उसकी उम्र सागरोपम तक होती है। यहाँ पर निश्चयसम्यग्दर्शन अन्तर्मुहूर्त की उम्रवाला ही होगा। आगम में तो यहाँ तक कहा है कि 'भरतादीनां यत्सम्यग्दर्शनं तत्तु वस्तुतो व्यवहारसम्यग्दर्शनं, यत्तु व्यवहारसम्यग्दर्शनं तत्तु वस्तुतः सरागसम्यग्दर्शनमेव' यह पंक्ति अध्यात्म ग्रन्थों की टीका में आती है। बना करके नहीं बोल रहा हूँ, ज्यों-की-त्यों बोल रहा हूँ। तो वहाँ पर भरतादि का नाम लिखा और स्पष्टतः क्षायिक सम्यग्दर्शन को सराग सम्यग्दर्शन बताया क्योंकि 'सरागदशायां वर्तते इति सराग- सम्यग्दर्शन' 'निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा यदा वर्तते तदा निश्चयसम्यग्दर्शनं भवति' जिस समय निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर रत्नत्रय में स्थित होते हैं, तब निश्चयसम्यग्दर्शन होता है। वह केवलज्ञान के लिए कारण है। इस प्रकार उन्होंने कथन किया है। इस प्रकार आगम को खोल कर देखेंगे नहीं, और धुआँधार प्रवचन करेंगे, तो उससे किसी का कल्याण होनेवाला नहीं है। आगमकथित पद्धति से चलोगे तो कल्याण होगा,
।
आगम की विधि से ही कल्याण होगा। सराग दशा के साथ है इसलिए सरागसम्यग्दर्शन है। जहाँ पर राग का अभाव हो जाता है, इसलिए वहाँ उसको वीतराग सम्यग्दर्शन कहते हैं । इसलिए जयसेन महाराज जी ने एक स्थान पर खोल दिया कि अबुद्धिपूर्वक और बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा से क्या-क्या बनता है । इतना विश्लेषण किया है। यह कथन तो बहुत चिन्तनीय है। इस प्रकार से कोई पढ़ायेगा भी नहीं और किसी को पढ़ना भी नहीं, ऐसी स्थिति में कोई भी समझ नहीं पायेगा । जो व्यक्ति, मान लो, समझाने की दृष्टि से कहता है, तो उसके लिए बुद्धि कहीं मिलनेवाली नहीं है। क्योंकि यह तो 'कुन्दकुन्द भारती' में मिलेगी। लेकिन यह आधार देना चाहते हैं। निश्चय सम्यग्दर्शन कहो, अभेद रत्नत्रय कहो, उपेक्षा संयम कहो, ये सारे के सारे एकार्थवाची हैं। भैया ! उनके यहाँ ऐसा कहा गया हो, लेकिन आगम इस प्रकार नहीं कहता है वे आपको रेफरेन्स दे देंगे कि आगम में ऐसा नहीं लिखा है। हिन्दी से लिख करके दे रहे हैं । आगम की पंक्ति बताने को कहोगे, तो नहीं बता पायेंगे, वह हम बता देंगे। पंक्ति बताने के उपरांत भी ऊपर पंक्ति पढ़ो और नीचे लीपापोती कर लो, तो नहीं चलेगा। मैं तो एक-एक शब्द का अर्थ चाहूँगा। चोटी के विद्वानों को लेकर के आयें। आज तो सब कटी चोटीवाले हैं। हम तो व्याकरण से चलेंगे। शब्दनय इसी का नाम है । ऊपर कुछ लिखा है, नीचे कुछ अनुवाद किया जा रहा है, तो हम कैसे स्वीकार करेंगे। आज भी ऐसा हो रहा है। ध्यान रखना, कुन्दकुन्द की बात कहेंगे, लेकिन, कुन्दकुन्द की बात व्याख्या में नहीं आयेगी । कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रन्थों का उद्धरण तो दिया जायेगा । गाथा तो पढ़ी जायेगी, लेकिन हिन्दी किसने की है? इसका कोई पता नहीं चलेगा। वे अंडर-लाइन करके बता देंगे, यह महत्त्वपूर्ण है । हमारे लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, कुन्दकुन्द देव क्या कह रहे हैं यह महत्त्वपूर्ण है । ऐसी स्थिति है । इसलिए इतनी जल्दी सम्यग्दर्शन होनेवाला नहीं है। बन्धुओ ! ध्यान रखो नहीं होनेवाला है, ऐसा नहीं है। सप्तम पृथ्वी का नारकी भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। यहाँ के बारे में हम नहीं कह सकते । यहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अलग हैं। यहाँ की बुद्धि काल, भी अलग है।
श्रुताराधना (२००७) से साभार
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स्वात्मोपलब्धि के इच्छुक भव्यात्माओं के लिए
मुनि श्री विनीतसागर जी आगमग्रन्थों में आचार्यों ने सम्यग्दर्शन को किसी । सम्यग्दर्शनरूप पर्याय के उत्पाद का और प्रथमोपशम विवक्षा या नयों की दृष्टि से भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित | सम्यग्दर्शनरूप पर्याय के व्यय का कारण है। अब यहाँ किया है। आत्महितैषी विवेकी स्याद्वादियों को कथंचित् | कोई पाठक शंका कर सकता है कि आपने, जो ऊपर उसको स्वीकारने में कोई बाधा नहीं। सम्यग्दर्शन का हेतु के क्षय होने का नाम ही कार्य का उत्पाद है, यह वास्तविक स्वरूप समझने के लिए आचार्य कुन्दकुन्द जो कहा था, वह यहाँ पर घटित नहीं होता, क्योंकि महाराज जी की प्रवचनसार की गाथा नं० १०० की आचार्य यहाँ हेतु तो विद्यमान है, उसका नाश कहाँ हुआ? अमृतचन्द्रजी एवं आचार्य जयसेनजी महाराज की टीका समाधान- आपने, जो यह शंका उठाई है, वह को आप स्वयं देखिए। यहाँ केवल गाथा एवं अर्थ दिया उचित नहीं, क्योंकि हेतु का लक्षण और उसके भेदों
को आप यदि ध्यान में रखते. तो यह शंका ही नहीं ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभवविहीणो। होती। आचार्य माणिक्यनन्दि जी ने परीक्षामुख न्यायग्रन्थ उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण॥ में तृतीय परिच्छेद में सूत्र नं० ११ में हेतु का लक्षण
अर्थ- उत्पाद व्ययरहित नहीं होता, और व्यय | कहा है जो इस प्रकार है । उत्पादरहित नहीं होता है। तथा उत्पाद और व्यय, ध्रौव्य साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः॥ ११॥ रूप पदार्थ के बिना नहीं होते हैं।
अर्थ- जिसका साध्य के साथ अविनाभाव निश्चित १. चारों गतियों का मिथ्यादृष्टि भव्यजीव, जब | होता है अर्थात् जो साध्य के बिना नहीं हो सकता, उसे प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है, तो पाँच | हेतु कहते हैं। सूत्र नं० १२ में अविनाभाव का लक्षण लब्धियों में अन्तिम करणलब्धि के अन्तर्गत तीन करण | कहा हैकरता है। उसमें अनिवृत्तिकरण सम्यग्दर्शन पर्याय के | सहक्रमभवनियमोऽविनाभावः ॥१२॥ उत्पाद का कारण है और मिथ्यात्वपर्याय के व्यय का अर्थ- साध्य और साधन का एक साथ एक समय भी कारण है। आचार्य समन्तभद्र जी कृत आप्तमिमांसा | होने का नियम सहभाव नियम अविनाभाव है और काल ग्रन्थ श्लोक नं. ५८ को देखिए
के भेद से साध्य और साधन का क्रम से होने का नियम कार्योत्पादः क्षयोः हेतोर्नियमाल्लक्षणात्पृथक् । | क्रमभावनियम अविनाभाव कहलाता है। न तौ जात्याद्यवस्थानादनपेक्षाः खपुष्पवत्॥
यहाँ पर सहभावनियम अविनाभाववाला हेतु है। __ अर्थ- एक हेतु का नियम होने से हेतु के क्षय | इसलिए यह कथन निर्दोष और न्यायसंगत है। अनेकान्त होने का नाम ही कार्य का उत्पाद है। उत्पाद और विनाश और स्याद्वाद को यदि हम भूलेंगे नहीं, तो सब आगम लक्षण की अपेक्षा पृथक-पृथक् हैं और जाति आदि के | को हम सहज समझ सकते हैं। आगे भी जहाँ जैसा अवस्थान के कारण उनमें कोई भेद नहीं है। परस्पर- हेत का कथन होगा, उसको न्यायग्रन्थ के अनुसार, विवक्षा निरपेक्ष उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आकाशपुष्प के समान | के अनुसार समझना। बस, अब आगे बढ़ते हैं। अवस्तु हैं।
१. सम्यमिथ्यात्व प्रकृति का उदय आता है तो, उत्पाद का कारण मानते हो, तो व्यय का कारण | तृतीय गुणस्थानवर्ती सम्यमिथ्यात्वी होगा। यदि मिथ्यात्व भी मानना पड़ेगा। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन का जघन्य और प्रकृति का उदय आता है तो, उसके उदय से प्रथम उकृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। काल पूर्ण होने के बाद यदि | गणस्थानवर्ति-मिथ्यादष्टि होगा। यदि प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होता है, तो क्षायोपशमिक का काल जघन्य से एक समय और उकृष्टता से छह सम्यग्दृष्टि बनेगा। यहाँ पर ही इस प्रवचनसार की गाथा | आवली शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क में से नं० १०० के रहस्य का उद्घाटन होता है। सो कैसा | किसी एक का उदय होने पर द्वितीय गुणस्थानवर्ती देखिए। सम्यक्त्वप्रकृति का उदय ही · क्षायोपशमिक | सासादन-सम्यग्दृष्टि बनेगा। अनन्तानुबन्धी कषाय का
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उदय ही सासादन - सम्यग्दृष्टिरूप पर्याय के उत्पाद का और प्रथमोपशम सम्यग्दर्शनरूप पर्याय के व्यय का कारण है । इस प्रकार प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि भव्यजीव की ये चार अवस्थायें हो सकती हैं, लेकिन होगी तो चार में से एक ही । इस प्रकार यह सारी व्यवस्था आगम से प्रमाणित और निर्दोषहेतु पूर्वक सिद्ध होती है।
२. क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि श्रमण उपशम श्रेणी पर आरोहण के लिए जब द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए तीन कारण करते हैं और सात प्रकृतियों का उपशम करते हैं, तो यहाँ भी अनिवृत्तिकरण औपशमिक भावरूप द्वितीयोपशम-सम्यग्दर्शन-पर्याय के उत्पाद का और क्षायोपशमिकभावरूप क्षायोपशमिक-सम्यग्दर्शन पर्याय के व्यय का हेतु है ।
३. क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि कर्मभूमि का मनुष्य जब केवली अथवा श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनमोहनीय की क्षपणा करता है, अर्थात् क्षायिकसम्यग्दृष्टि बनने के लिए तीन करण करता है, तो यहाँ पर भी अनिवृत्तिकरण परिणाम ही क्षायिक सम्यग्दर्शनरूप पर्याय के उत्पाद का (जो की क्षायिक भाव है) और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनरूप पर्याय के व्यय का (जो क्षायोपशमिक भाव है ) कारण है । परस्परनिरपेक्ष उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आकाशपुष्प के समान अवस्तु हैं ।
टीप- यहाँ पर केवल सम्यग्दर्शन की विवक्षा से कथन है। सम्यग्दर्शन कथंचित्पर्याय भी है । कथंचित्गुण भी है। और कथंचित-भाव भी है । अनेकान्त और आगम से कोई बाधा नहीं। लौकिक उदाहरणों को भी देखिए - १. जो आटे के उत्पाद का कारण है, वही गेहूँ के व्यय का कारण है। रोटी, बाटी, पराठा की उत्पत्ति का कारण ही आटे के नाश का कारण है।
व्यय का कारण है ।
३. रोग की उत्पत्ति का अन्तरंग हेतु असातावेदनीय कर्म है । बहिरंग हेतु सर्दी, गर्मी, भोजन - पान यथायोग्य जो भी हो । असातावेदनीय कर्म ही निरोगतारूप पर्याय के विनाश का कारण है ।
विशेष- मोक्ष की प्राप्ति भी कर्मबन्धन से छूटने की अपेक्षा से है, तो सम्यग्दर्शन भी मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय की सापेक्षता से ही बनता है । अन्यथा नहीं बन सकता। इसलिए परमार्थतः सम्यग्दर्शन तो तीन ही प्रकार का है। बाकी आगम में वर्णित सम्यग्दर्शन को कर्मसापेक्ष सिद्ध करने के लिए निर्दोष हेतु उपलब्ध नहीं है। देखिए, स्वामी समन्तभद्रजी कृत आप्तमिमांसा ग्रन्थ श्लोक नं० ७८
वक्तर्यनाप्ते यद्धेतोः साध्यं तद्धेतुसाधितम् । आते वक्तरि तद्वाक्यात् साध्यमागमसाधितम् ॥
अर्थ- वक्ता के आप्त न होने पर, हेतु के द्वारा जो साध्य होता है, वह हेतु साधित कहलाता है। वक्ता के आप्त होने पर, उसके वाक्य से जो साध्य होता है, वह आगमसाधित कहलाता है।
स्वात्मोपलब्धि को चाहनेवाले भी आज एकान्त का आश्रय पाकर भ्रमित हो रहे हैं । दिगम्बर जैनाचार्यों के द्वारा रचित प्रामाणिक ग्रन्थों में कोई विरोध नहीं है । हम समझने का प्रयास करें। आप्तमिमांसा के इस श्लोक नं० ७५ का भी स्मरण रखें
सिद्धं चेद्हेतुतः सर्वं न प्रत्यक्षादितो गतिः । सिद्धं चेदागमात्सर्वं विरुद्धार्थमतान्यपि ॥
अर्थ- यदि हेतु से सब पदार्थों की सिद्धि होती है, तो प्रत्यक्ष आदि से पदार्थों का ज्ञान नहीं होना चाहिए । और यदि आगम से सब पदार्थों की सिद्धि होती है, तो
२. कोयले के उत्पाद का कारण ही लकड़ी के । परस्परविरुद्ध अर्थ के प्रतिपादक मत भी सिद्ध हो जायेंगे ।
प० पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी का चातुर्मास अमरकंटक में
इस वर्ष (सन् २००९ ई० में) परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी का ससंघ चातुर्मास श्रीसर्वोदयतीर्थ अमरकंटक (जिला- शहडोल, म.प्र.) में हो रहा है। सहायता प्राप्ति
श्री अजितकुमार जैन पैठण (महा.) की ओर से अपने पू० पिता जी की स्मृति में 'जिनभाषित'
को २०१ रु० की सहायता प्राप्त हुई। धन्यवाद सहायता प्राप्ति
गायत्री नगर - ए, जयपुर को गणित विषय में, सी.बी.एस.ई. चि० नेमीकुमार जैन सुपुत्र श्री रिखवचंद जैन, परीक्षा में १००% अंक प्राप्त हुये । कुल प्राप्तांक ९१.३३% रहे। बधाई । 'जिनभाषित' को आपकी ओर से ५०० रु० की सहायता प्राप्त हुई । धन्यवाद ।
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रात्रि भोजन त्याग
स्व० पं० मिलापचन्द्र जी कटारिया ऐसा कौन प्राणी है, जो भोजन बिना जीवित रह । त्याग हो जाता है। यदि ऐसा न माना जावे, तो रात्रि सके। जब तक शरीर है, उसकी स्थिति के लिए भोजन | भोजन त्याग को मूलगुणों में क्यों कथन किया गया बल्कि भी साथ है। और तो क्या वीतरागी निःस्पृही साधुओं | वसुनन्दि श्रावकाचार में, तो यहाँ तक कहा है कि- रात्रि को भी शरीर कायम रखने के लिए भोजन की आवश्यकता | भोजन करनेवाला ग्यारह प्रतिमाओं में से पहिली प्रतिमा पड़ती ही है, तो भी जिस प्रकार विवेकवानों के अन्य | का धारी भी नहीं हो सकता। यथाकार्य विचार के साथ सम्पादन किये जाते हैं, उस तरह | एयादसेसु पढगं विजदो णिसिभोयणं कुणं तस्स। भोजन में भी योग्यायोग्य का ख्याल रक्खा जाता है। कौन ठाणं ण ठाइ तम्हा णिसिभत्तं परिहरे णियमा।। ३१४॥ भोजन शुद्ध है, कौन अशुद्ध है, किस समय खाना, किस
बसुनन्दि श्रावकाचार समय नहीं खाना आदि विचार ज्ञानवानों के अतिरिक्त छपी हरिवंश पुराण हिन्दी टीका के पृष्ठ ५२९ अन्य मूढ जन के क्या हो सकते हैं। कहा है- "ज्ञानेन | में कहा है किहीनाः पशुभिः समानाः" वास्तव में जो मनुष्य खाने- | । 'मद्य, मांस, मधु, झुंआ, वेश्या, परस्त्री, रात्रि भोजन, पीने मौज उड़ाने में ही अपने जीवन की इतिश्री समझे | कन्दमूल इनका, तो सर्वथा ही त्याग करना चाहिए। ये हुए हैं, उन्हें तो उपदेश ही क्या दिया जा सकता है, भोगोपभोग परिमाण में नहीं है।' मतलब कि हर एक किन्तु नरभव को पाकर जो हेयोपादेय का ख्याल रखते | श्रावक को चाहे वह किसी श्रेणी का हो रात्रि भोजन
अपनी आत्मा को इस लोक से भी बढकर परजन्म | का त्याग अत्यन्त आवश्यक है। यहाँ भोजन से मतलब में सुख पहुँचाने की जिनकी पवित्र भावना है उनके लिए | लड्डू आदि खाद्य, इलायची, तांबूल आदि स्वाद्य, रबड़ी ही सब प्रकार का आदेश उपदेश दिया जाता है। तथा आदि लेह्य, पानी आदि पेय इन चारों प्रकार के आहारों ऐसों ही के लिए आगमों की रचना कार्यकारी है। से है। रात्रि के समय उक्त चार प्रकार के आहार के
आगम में श्रावकों के आठ मूलगुण कहे हैं, जिनमें | त्याग को रात्रि भोजन त्याग कहते हैं। शास्त्रकारों ने तो रात्रि भोजन त्याग भी एक मूलगुण है जैसा कि निम्न | यहाँ तक जोर दिया है कि सूर्योदय और सूर्यास्त से श्लोक से प्रगट है
दो घड़ी पूर्व भोजन करना भी रात्रि भोजन में शुमार आप्तपंचनुतिर्जीवदया सलिलगालनम्। किया गया है। यथात्रिमद्यादि निशाहारोदुंबराणां च वर्जनम्॥
वासरस्य मुखे चांते विमुच्य घटिकाद्वयम्। धर्मसंग्रह श्रावकाचार योऽशनं सम्यगाधत्ते तस्यानस्तमितव्रतम्॥ इसमें देव वन्दना, जीवदया पालन, जल छानकर प्रथमानुयोग की कथनी पद्मपुराण में कथन हैपीना, मद्य, मांस, मधु का त्याग, रात्रि भोजन त्याग और | जिस समय लक्ष्मण जी जाने लगे, तो उनकी नव विवाहिता पंचोदंबर फल त्याग, ये आठ मूलगुण बताये हैं। जब | वधू वनमाला ने कहा कि- 'हे प्राणनाथ! मुझ अकेली रात्रि भोजन त्याग श्रावकों के उन कर्तव्यों में हैं, जिन्हें को छोड़ कर जो आप जाने का विचार करते हो, तो मूल (खास) गुण कहा गया है तब यदि कोई इसका | मुझ विरहिणी का क्या हाल होगा?' तब लक्ष्मण जी पालन नहीं करता, तो उसे श्रावककोटि में गिना जाता | क्या उत्तर देते हैं सुनियेक्यों कर उचित कहा जायेगा? यदि कोई कहे कि रात्रिभुक्ति स्ववधूं लक्ष्मणः प्राह मुंच मां वनमालिके। त्याग तो छठवीं प्रतिमा में है, इसका समाधान यह है कार्ये त्वां लातुमेष्यामि देवादिशपथोऽस्तु मे ॥२८॥ कि- छठवीं प्रतिमा को कई ग्रन्थकारों ने तो दिवामैथुन पुनरूचे तयेतीशः कथमप्यप्रतीतया। त्याग नाम से कही है। हाँ कुछ ने रात्रिभुक्ति त्याग नाम ब्रूहि चेन्नैमि लिप्येऽहं रात्रिभुक्तेरघैस्तदा॥ २९॥ से भी वर्णन की है, जिसका मतलब यही हो सकता
धर्मसंग्रह श्रावकाचार है कि इसके पहिले रात्रिभोजन त्याग में कुछ अतीचार
भावार्थ- हे वनमाले! मुझे जाने दो, अभीष्ट कार्य लगते थे, सो इस छठवीं प्रतिमा में पूर्ण रूप से निरतिचार | के हो जाने पर मैं तुम्हें लेने के लिए अवश्य आऊँगा। 14 जुलाई 2009 जिनभाषित
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मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अगर मैं अपने बचनों को पूरा | तदुद्योतवशादन्ये प्रागच्छन्तीव भाजने॥ ७९॥ न करूँ, तो जो दोष हिंसादि के करने से लगता है पाकभाजनमध्ये तु पतन्त्येवांगिनो ध्रुवम्। उसी दोष का मैं भागी होऊँ।
अन्नादिपचनादात्रौ म्रियन्तेऽनंतराशयः॥ ८०॥ सुनकर वनमाला लक्ष्मण जी से बोली- मुझे आपके
इत्येवं दोषसंयुक्तं त्याज्यं संभोजनं निशि। आने में फिर भी कुछ सन्देह है इसलिए आप यह प्रतिज्ञा
विषान्नमिव निःशेषं पापभीतैनरैः सदा॥ ८१॥ करें कि- 'यदि मैं न आऊँ तो रात्रिभोजन के पाप का
भक्षणीयं भवेन्नैव पत्रपूगीफलादिकम्। भोगनेवाला होऊँ।'
कीटाढ्यं सर्वथा दक्षै रिपापप्रदं निशि॥ ८४॥ देखा पाठक! रात्रि भोजन का पाप कितना भयंकर
न ग्राह्यं प्रोदकं धीरविभावाँ कदाचन। है। प्रीतंकर के पूर्व भव के स्याल के जीव ने मुनीश्वर
तृटशांतये स्वधर्माय सूक्ष्मजन्तुसमाकुलम्॥ ८५॥
चतुर्विधं सदाहारं ये त्यजन्ति बुधा निशि। के उपदेश से रात्रि में जल पीने का त्याग किया था,
तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासस्य जायते॥ ८६॥ जिसके प्रताप से वह महा पुन्यवान् समृद्धिशाली प्रीतंकर
अर्थ- रात्रि में भोजन करनेवालों की थालियों में हुआ था। वास्तव में बात सोलह आना ठीक है कि रात्रिभोजन अनेक दोषों का घर है। जो पुरुष रात्रि को
डाँस, मच्छर, पतंगे, आदि छोटे-छोटे जीव आ पड़ते भोजन करता है वह समस्त प्रकार की धर्म क्रिया से
हैं। यदि दीपक न जलाया जाय, तो स्थूल जीव भी हीन है, उसमें और पशु में सिवाय सींग के कोई भेद
दिखाई नहीं पड़ते और यदि दीपक जला लिया जाय,
तो उसके प्रकाश से और अनेक जीव आ जाते हैं। नहीं है। जिस रात्रि में सूक्ष्म कीट आदि का संचार रहता
भोजन पकते समय भी उस अन्न की वायु गंध चारों है मुनि लोग चलते-फिरते नहीं, भक्ष्याभक्ष्य का भेद मालूम
ओर फैलती है अतः उसके कारण उन पात्रों में जीव नहीं होता, आहार पर आये हुए बारीक जीव दीखते
आ आकर पड़ते हैं। पापों से डरनेवालों को ऊपर लिखित नहीं, ऐसी रात्रि में दयालु श्रावकों को कदापि भोजन नहीं करना चाहिये। जगह-जगह जैनग्रन्थों में स्पष्ट निषेध
अनेक दोषों से भरे हुए रात्रि भोजन को विष-मिले अन्न
के समान सदा के लिए अवश्य त्याग कर देना चाहिए। होते भी आज हमारे कई जैनी भाई रात्रि में खूब माल
चतुर पुरुषों को रात्रि में सुपारी, जावित्री, तांबल आदि उड़ाते हैं। कई प्रान्तों के जैनियों ने तो ऐसा नियम बना
भी नहीं खाने चाहिये क्योंकि इनमें अनेक कीड़ों की रक्खा है कि रात्रि में अन्न की चीज न खानी-शेष पेड़ा,
| सम्भावना है अतः इनका खाना भी पापोत्पादक है। धीरवीरों बरफी आदि खाने में कोई हर्ज ही नहीं समझते। न
को दया धर्म पालनार्थ प्यास लगने पर भी अनेक सूक्ष्म मालूम ऐसा नियम इन लोगों ने किस शास्त्र के आधार पर बनाया है। खेद है जिन कलाकन्द, बरफी आदि
जीवों से भरे जल को रात्रि में कदापि न पीना चाहिये। पदार्थों में मिठाई के प्रसंग से अधिक जीवघात होना
इस प्रकार रात्रि में चारों प्रकार के आहार को छोड़ने
वालों के प्रत्येक मास में पन्दह दिन उपवास करने का सम्भव है, उन्हें ही उदरस्थ करने की इन भोले आदमियों । ने प्रवृत्ति कर अपनी अज्ञानता और जिह्वा लंपटता का
फल प्राप्त होता है।
रात्रि भोजन के दोष के वर्णन में जैनधर्म के ग्रन्थों खूब परिचय दिया है। श्री सकलकीर्ति जी ने श्रावकाचार में साफ कहा है कि
के ग्रन्थ भरे पड़े हैं। यदि उन सबको हाँ उद्धृत किया
जावे, तो एक बहुत बड़ा ग्रन्थ हो सकता है। अतः हम भक्षितं येन रात्रौ च स्वाद्यं तेनान्नमंजसा।
भी इतने से ही विश्राम लेते हैं। यतोऽन्नस्वाद्ययोर्भेदो न स्याद्वान्नादियोगतः॥८३॥ अर्थ- जो रात्रि में अन्न के पदार्थों को छोड़कर
रात्रिभोजन खाली धार्मिक विषय ही नहीं है, किन्तु
यह शरीर शास्त्र से भी बहुत अधिक सम्बन्ध रखता पेड़ा, बरफी आदि खाद्य पदार्थों को खाते हैं, वे भी पापी हैं क्योंकि अन्न और स्वाद्य पदार्थों में कोई भेद
| है। प्रायः रात्रिभोजन से आरोग्यता की हानि होने की नहीं है। तथा और भी कहा है कि
भी काफी सम्भावना हो सकती है। जैसे कहा है किदंशकीटपतंगादि सक्ष्मजीवा अनेकधाः।
मक्षिका वमनाय स्यात्स्वरभंगाय मूर्द्धजः। स्थालमध्ये पतन्त्येव रात्रिभोजनसंगिनाम्॥ ७८॥
यूका जलोदरे विष्टिः कुष्टाय गृहकोकिली॥ २३॥ दीपकेन बिना स्थूला दृश्यन्ते नांगिनः क्वचित्।।
धर्मसंग्रह श्रावकाचार (मेधावीकृत)
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अर्थ- रात्रि में भोजन करते समय अगर मक्षिका खाने में आ जाय, तो वमन होती है, केश खाने में आ जाय तो स्वर-भंग, जुँवा खाने में आ जाय, तो जलोदर और छिपकली खाने में आ जाय, तो कोढ़ उत्पन्न होता है। इसके अलावा सूर्यास्त के पहिले किया हुआ भोजन जठराग्नि की ज्वाला पर चढ़ जाता है- पच जाता है इसलिए निद्रा पर उसका असर नहीं होता है। मगर इससे विपरीत करने से रात को खाकर थोड़ी ही देर में सो जाने से चलना फिरना नहीं होता अतः पेट में तत्काल का भरा हुआ अन्न कई बार गम्भीर रोग उत्पन्न कर देता है। डाक्टरी नियम है कि भोजन करने के बाद थोड़ा-थोड़ा जल पीना चाहिए, यह नियम रात्रि में भोजन करने से नहीं पाला जा सकता है क्योंकि इसके लिए अवकाश ही नहीं मिलता है। इसका परिणाम अजीर्ण होता है। हर एक जानता है कि अजीर्ण सब रोगों का घर होता है। 'अजीर्ण प्रसवा रोगाः ' इस प्रकार हिंसा की बात को छोड़कर आरोग्य का विचार करने पर भी सिद्ध होता है कि रात्रि में भोजन करना अनुचित है। इस तरह क्या धर्मशास्त्र और क्या आरोग्य शास्त्र तरह से रात्रिभोजन करना अत्यन्त बुरा है । यही कारण है, जो इसका जगह-जगह निषेध जैनधर्म शास्त्रों में किया गया है, जिनका कुछ दिग्दर्शन ऊपर कराया गया है। अब हिंदू ग्रन्थों के भी कुछ उद्धरण रात्रिभोजन के निषेध में नीचे लिखकर लेख समाप्त किया जाता है क्योंकि लेख कुछ अधिक बढ़ गया है। अस्तंगते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते । अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कंडेयमहषिणा । मार्कंडेयपुराण अर्थ- सूर्य के अस्त होने के पीछे जल रुधिर के समान और अन्न मांस के समान कहा है यह वचन मार्कडेय ऋषिका है।
सब
महाभारत में कहा है कि
मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कंदभक्षणम् । ये कुर्वन्ति वृथा तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः ॥ १ ॥ चत्वारिनरकद्वारं प्रथमं रात्रि भोजनम् । परस्त्रीगमनं चैव संधानानंतकायकम् ॥ २॥ ये रात्रौ सर्वदाहारं वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥ ३ ॥ नोदकमपि पातव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिर । तपस्विनां विशेषण गृहिणां ज्ञानसंपदाम् ॥ ४ ॥ 16 जुलाई 2009 जिनभाषित
अर्थ- चार कार्य नरक के द्वार रूप हैं। प्रथम रात्रि में भोजन करना दूसरा परस्त्री गमन, तीसरा संधाना (अचार) खाना और चौथा अनन्तकाय कन्द मूल का भक्षण करना ॥ २ ॥ जो बुद्धिवान एक महीने तक निरन्तर रात्रि भोजन का त्याग करते हैं, उनको एक पक्ष के उपसास का फल होता है ॥ ३ ॥ इसलिए हे युधिष्ठिर ! ज्ञानी गृहस्थ को और विशेषकर तपस्वी को रात्रि में पानी भी नहीं पीना चाहिए ॥ ४ ॥ जो पुरुष मद्य पीते हैं, मांस खाते हैं, रात्रि में भोजन करते हैं और कन्दमूल खाते हैं, उनकी तीर्थयात्रा, जप, तप सब वृथा है ॥ १ ॥ और भी कहा है किदिवसस्याष्टमे भागे मंदीभूते दिवाकरे । एतन्नक्तं विजानीयान्न नक्तं निशिभोजनम् ॥ मुहूर्तोनं दिनं नक्तं प्रवदंति मनीषिणः । नक्षत्रदर्शनान्नक्तं नाहं मन्ये गणाधिप ॥ भावार्थ- दिन के आठवें भाग को, जब कि दिवाकर मन्द हो जाता है ( रात होने के दो घड़ी पहले के समय को) 'नक्त' कहते हैं। नक्त व्रत का अर्थ रात्रि भोजन नहीं है । हे गणाधिप ! बुद्धिमान लोग उस समय को 'नक्त' बताते हैं, जिस समय एक मुहूर्त (दो घड़ी) दिन अवशेष रह जाता है। मैं नक्षत्र दर्शन के समय को 'नक्त' नहीं मानता हूँ। और भी कहा है किअंभोदपटलच्छन्ने नाश्रन्ति अस्तंगते तु भुँजाना अहो भानोः सुसेवकाः ॥ मृते स्वजनमात्रेऽपि सूतकं जायते किल । अस्तंगते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ॥ अर्थ- यह कैसा आश्चर्य है कि सूर्य भक्त, जब सूर्य मेघों से ढक जाता है, तब तो वे भोजन का त्याग कर देते हैं । परन्तु वही सूर्य जब अस्त दशा को प्राप्त होता है, तब वे भोजन करते हैं। स्वजन मात्र के मर जाने पर भी जब लोग सूतक पालते हैं, यानी उस दशा में अनाहारी रहते हैं, तब दिवानाथ सूर्य के अस्त होने के बाद तो भोजन किया ही कैसे जा सकता है? तथा कहा है कि
रविमण्डले ।
नैवाहुति र्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ॥ अर्थ- आहुति, स्नान, श्राद्ध, देवपूजन, दान और खास करके भोजन रात्रि में नहीं करना चाहिए । कूर्मपुराण में भी लिखा है कि
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न द्रुह्येत् सर्वभूतानि निर्द्वन्द्वो निर्भयो भवेत्। । है किन नक्तं चैव भक्षीयाद् रात्रौ ध्यानपरो भवेत्॥ | हन्नाभिपद्मसको चश्चंडरोचिरपायतः।
२७ वां अध्याय ६४५ वां पृष्ठ अतो नक्तं न भोक्तव्यं सूक्ष्मजीवादनादपि॥ अर्थ- मनुष्य सब प्राणियों पर द्रोह रहित रहे। भावार्थ- सूर्य छिप जाने के बाद हृदय कमल निद्व और निर्भय रहे तथा रात को भोजन न करे और और नाभिकमल दोनों संकुचित हो जाते हैं और सक्ष्म ध्यान में तत्पर रहे। और भी ६५३ वें पृष्ठ पर लिखा | जीवों का भी भोजन के साथ भक्षण हो जाता है इसलिये है कि
रात में भोजन न करना चाहिये। ___ 'आदित्ये दर्शयित्वान्नं भुंजीत प्राडमुखे नरः।' । रात्रि भोजन का त्याग करना कुछ भी कठिन नहीं
भावार्थ- सूर्य हो उस समय तक दिन में गुरु | है। जो महानुभाव यह जानते हैं कि- 'जीवन के लिए या बड़े को दिखाकर पूर्व दिशा में मुख करके भोजन | भोजन है भोजन के लिए जीवन नहीं' वे रात्रि भोजन करना चाहिये।
को नहिं करते हैं। इस विषय में आयुर्वेद का मुद्रा लेखा भी यही । 'जैननिबन्ध रत्नावली' (द्वितीय भाग) से साभार
प्रो० (डॉ०) रतनचन्द्र जैन (सम्पादक-जिनभाषित) महाकवि रइधू पुरस्कार से सम्मानित
फीरोजाबाद। 'पं० श्यामसुन्दर लाल शास्त्री श्रुत प्रभावक न्यास' के तत्त्वावधान में स्थानीय नशियाजी दिगम्बर जैन मंदिर में आयोजित समारोह में देश के यशस्वी जैन विद्वान् प्रो० (डॉ०) रतनचन्द्र जैन (बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व रीडर) एवं सम्प्रति सम्पादक 'जिनभाषित' को महाकवि रइधू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। समाज के मूर्धन्य विद्वानों को दिए जानेवाले इस पुरस्कार में २१००० रु० की श्रद्धानिधि, प्रशस्तिपत्र, शाल एवं उपहारादि के साथ प्रदान की जाती है। न्यास के अध्यक्ष श्री उदयभान जैन एडवोकेट ने यह राशि प्रदान की। 'अनेकान्तविद्या वाचस्पति' की मानद उपाधि से अलंकृत करते हुए प्रशस्तिपत्र, न्यास के सदस्य अभयकुमार जैन (मामा), प्रमोद जैन (राजा), अनूपचन्द जैन एडवोकेट एक वीरेन्द्रकुमार जैन (रेमजावालों) ने संयुक्तरूप से प्रदान किया। न्यास द्वारा प्रदत्त यह बारहवाँ पुरस्कार था। मुख्य अतिथि श्री मनीष असीजा (चेयरमैन- नगरपालिका परिषद्) ने कहा कि यह पुरस्कार सम्पूर्ण नगर के लिए एक गौरवपूर्ण प्रसंग बन गया है। न्यास के मंत्री ने बताया कि आदरणीय डॉ० सा० को यह पुरस्कार पिछले दस वर्षों की लगातार श्रम-साधना से लिखित उनकी जम्बो कृति 'जैनपरम्परा और यापनीयसंघ' के लिए समर्पित किया जा रहा है। इस कालजयी कृति का प्रस्ताव 'भारतवर्षीय दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद्' का था, जिसे बाद में युग-प्रभावक सन्त पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के पुनीत आशीर्वाद एवं प्रशस्त प्रेरणा से आगे बढ़ाया गया।
९००-९०० पृष्ठों के तीन खण्डों में प्रकाश्य यह कृति मुद्रणाधीन है। इस कृति में जैन इतिहास के अब तक के अनेक अनछुए एवं विलुप्त तथ्यों को प्रकाश में लाया गया है। समारोह की अध्यक्षता प्रमुख उद्योगपति श्री मदनलाल बैनाड़ा (आगरा) ने की। इस अवसर पर समाज के सैकड़ों प्रतिष्ठित महानुभाव उपस्थित थे।
नरेन्द्रप्रकाश जैन, (मंत्री - न्यास)
श्री दिगम्बर जैन रेवातट सिद्धेदय सिद्धक्षेत्र ट्रस्ट, नेमावर आवश्यकता- १. एक जैन मैनेजर की, जो कम्प्यूटर का जानकार हो व हिसाब अकाउन्ट लिख सके | वेतन योग्यतानुसार, रहने की व्यवस्था पानी बिजली की व्यवस्था देखेंगे!
२. भोजनशाला चलाने के लिये एक जैनदम्पति की आवश्यकता है, जो यात्री के आने पर भोजन की व्यवस्था कर सकें। रहने, पानी, बिजली, बर्तन, देवेंगे। वेतन कन्डीशन के लिये- सम्पर्क करें- श्री बी.एल. (जैन महामंत्री, मु.पो.- नेमावर, तहसील- खातेगाँव, जिला-देवास, फोन नंङ ९४२५६८८३४१, ०७५७७-२२३२०३
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षष्ठ अंश
तत्त्वार्थसूत्र में प्रयुक्त 'च' शब्द का विश्लेषणात्मक विवेचन
पं० महेशकुमार जैन व्याख्याता पंचम अध्याय जीवाश्च॥ ३॥
इस प्रकार योग करके सूत्र लिखना युक्त है। समाधानसर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्दः द्रव्यसंज्ञानकर्षणार्थः। नहीं, इससे जीव ही, द्रव्य है इसका प्रसंग आ जायेगा। जीवाश्च द्रव्याणीति। एवमेतानि वक्ष्यमाणेन कालेन सह | शंका-अधिकार होने से धर्मादिक के द्रव्यत्व का ग्रहण षड्द्रव्याणि भवन्ति।
हो जाता है। समाधान- नहीं, द्रव्यशब्द जीवशब्द के साथ अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द द्रव्यसंज्ञा के अनुकर्षण | सम्बद्ध होने से धर्मादिक के साथ सम्बन्ध करना शक्य के लिए है, जिससे जीव भी द्रव्य है यह अर्थ फलित | नहीं है। अधिकार होने पर भी यत्न के बिना अभिप्रेत हो जाता है। इस प्रकार ये पाँच व आगे कहे जानेवाले सम्बन्ध की सिद्धि नहीं होती है। शंका- 'च' शब्द से काल के साथ ६ द्रव्य होते हैं।
| यदि सिद्धि होती है, तो दोनों शब्दों को एक साथ कर राजवार्तिक- सत्यप्यधिकारे यत्नाभावाच्च। ३/८।| देना चाहिये। समाधान- भिन्न-भिन्न सूत्र लिखने से ही अनुवर्तमाना अपि विधयो न चानुवर्तनादेव भविन्त। किं | सही प्रतिपत्ति होती है, अतः द्रव्याणि और जीवाश्च २ तर्हि? यत्नाद् भवन्तीति। जीवानामेव द्रव्यसंज्ञा स्यात् | सूत्र ठीक हैं। अजीवानां न स्यात् यत्नाभावात्। ततः पृथक् योगग्रहणं । सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दो द्रव्याणीत्यन्याय्यम्। एवं च कृत्वा च शब्दोऽप्यर्थवान् भवति। स्यानुकर्षणार्थः। तेन जीवाश्च द्रव्याणि भवन्तीति
अर्थ- अधिकार के होने पर भी प्रयत्न का अभाव वेदितव्यम्।--- स्यान्मतं ते- द्रव्याणीति पृथग्योगो न होने से अजीवों में द्रव्यरूपता बन ही नहीं सकती। अर्थात् कर्त्तव्यः। किं तर्हि? द्रव्याणि जीवा इत्येक एव योगः अधिकार के अनुवर्तनमात्र से कार्य की सिद्धि नहीं होती, | कार्यः। एवं च सति चशब्दाकरणाल्लाघवं स्यादिति। उसका प्रयत्न भी होना चाहिये। 'द्रव्याणि जीवाः' यह | तन्न युक्तं -द्रव्यशब्दस्य जीवबद्धत्वाज्जीवानामेव सूत्र बनाने में द्रव्यों की सिद्धि के प्रयत्न का अभाव | द्रव्यसंज्ञाप्रसंगात् धर्मादीनां तु न स्यात्। बहुवचनात् होने से जीवों की द्रव्यसंज्ञा होगी, अजीवों की नहीं। | तेषामपि भविष्यतीति चेन्न तस्य वैविध्यख्यापनार्थअतः 'द्रव्याणि' 'जीवाश्च' ऐसे पृथक्-पृथक् सूत्र का
त्वेनोपतत्त्वात्।सदधिकारे यत्नविशेषस्याकरणाच्चाजीवानां ग्रहण करना न्याय्य (उचित) ही है और ऐसे २ सूत्र
द्रव्यसंज्ञा न स्यादिति पृथग्योगकरणं न्याय्यम्। तथा च बनाकर उसमें 'च' शब्द का प्रयोग करना अर्थवान् होता
सति चशब्दोप्यर्थ-वान्भवतीति। है यानि, सार्थक होता है।
अर्थ- 'च' शब्द 'द्रव्याणि' सूत्र के अनुकर्षण के श्लोकवार्तिक- द्रव्याणीत्यभिसंबन्धः। तत्र | लिए है। उससे जीव भी द्रव्य होते हैं, ऐसा जानना चाहिये। बहुत्ववचनं जीवानां वैविध्यख्यापनार्थम्। द्रव्याणि जीवा |
गणि जीवा | -- शंका- 'द्रव्याणि', 'जीवाश्च' ऐसे पृथक् २ सूत्र नहीं इत्येकयोगकरणं युक्तमिति चेन्न, जीवानामेव द्रव्यत्व- | करने चाहिये। किन्तु 'द्रव्याणि जीवाः' ऐसा १ सूत्र बनाना प्रसंगातीधर्मादीनामप्यधिकारात द्रव्यत्वसंप्रत्यय इति चेन्न. | चाहिये। ऐसा करने पर 'च' शब्द जोडने की आवश्यकता द्रव्यशब्दस्य जीवशब्दावबद्धत्वाद्धर्मादिभिः संबन्धयितम- | नहीं होती और सूत्र लघु हो जाता है। शक्तेः। सत्यप्यधिकारे अभिप्रेतसंबन्धस्य यत्नमंतरेणा- | समाधान- यह कथन ठीक नहीं है। यदि ऐसा प्रसिद्धेः। च शब्दकरणात्तत् सिद्धिरिति चेत्, को विशेषः | १ योग करते हैं, तो द्रव्य शब्द जीव से सम्बद्ध हो स्यादेक योगकरणे? योगविभागे तु स्पष्टा प्रतिपत्तिरितिं | जाने से जीवों की ही द्रव्य संज्ञा होगी, धर्म आदि की स एवास्तु।
नहीं। अर्थ- "द्रव्याणि" इस सूत्र का सम्बन्ध करना शंका- बहुवचन के निर्देश से धर्मादि की भी चाहिये। जीवाः इस बहवचन का निर्देश भेद-प्रभेद की | द्रव्य संज्ञा हो जायेगी? विविधता बताने के लिए है। शंका- 'द्रव्याणि जीवाः' | समाधान- ऐसा नहीं है। बहुवचन तो द्रव्यों की
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एवं जीवों की विविधता बतलाता है तथा सत् अधिकार में यत्नविशेष भी नहीं किया है, इससे अजीव पदार्थों की द्रव्य संज्ञा नहीं बन पाती, इसलिए पृथक् पृथक् सूत्रप्रयोग ही व्याप्य है । इस प्रकार करने से 'च' शब्द भी सार्थक हो जाता है ।
तत्त्वार्थवृत्ति - चकारः द्रव्यसंज्ञानुवर्तनार्थः । अर्थ- सूत्र ' में 'च' शब्द द्रव्य संज्ञा का अनुकर्षण करने के लिए है । ( अर्थात् जीव भी द्रव्य हैं ।) भावार्थ- सूत्र में 'च' शब्द से जीव भी द्रव्य है एवं अस्तिकाय रूप है इसका ग्रहण हो जाता है। निष्क्रियाणि च ॥ ७ ॥
संख्येयाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १० ॥ सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्दादनन्ताश्चेत्यनुकृष्यते । कस्यचित्पुद्गलद्रव्यस्य द्वयणुकादेः संख्येयाः प्रदेशाः कस्यचिदसंख्येया अनन्ताश्च ।
अर्थ- सूत्र में जो 'च' शब्द है, उससे अनन्त की अनुवृत्ति होती है। तात्पर्य यह है कि किसी द्वयणुक सर्वार्थसिद्धि एवं श्लोकवार्तिक में सूत्र में आये आदि पुद्गल द्रव्य के संख्यात प्रदेश होते हैं और किसी 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की है। के असंख्यात तथा अनन्त प्रदेश होते हैं ।
राजवार्तिक- 'च' शब्दोऽभिहितसंबन्धार्थः । ६ । 'च' शब्दः क्रियते अभिहितानामेकद्रव्याणां सम्बन्धार्थः । अतो धर्माऽधर्माकाशानां निष्क्रियत्वनियमाज्जीव- पुद्गलानां स्वतः परतश्च क्रियापरिणमित्वं सिद्धम् ।
अर्थ- 'च' शब्द अभिहित सम्बन्ध के लिए है । 'च' शब्द अभिहित धर्मादिक द्रव्यों के सम्बन्ध के लिए है अर्थात् 'च' शब्द से धर्म, अधर्म और आकाश निष्क्रिय हैं, ऐसा जानना चाहिये । धर्म, अधर्मादिक में निष्क्रियत्व का नियम होने से ही जीव और पुद्गलों के स्वपरप्रत्यय सक्रियता सिद्ध हो जाती है।
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति निष्कान्तानि क्रियाया निष्क्रियाणीत्यन्यपदार्थवृत्याप्रकृतैकद्रव्याणां गतिश्चशब्दस्य प्रकृताभिसम्बन्धार्थत्वात् ।
अर्थ- क्रिया से जो निष्कान्त हैं, वे निष्क्रिय हैं, इसमें अन्य पदार्थप्रधानसमास (बहुव्रीहि समास) है, जिससे यह ज्ञात हो जाता है कि प्रकृत में एक-एक कहे गये धर्मादि द्रव्य क्रियारहित हैं। 'च' शब्द इसी का सम्बन्ध करने के लिए है ।
तत्त्वार्थवृत्ति - चकारः समुच्चये वर्तते । तेनायमर्थःधर्माधर्माकाशद्रव्याणि न केवलमेकद्रव्याणि अपि निष्क्रियाणि च स्वस्थानं परित्यज्य जीवपुद्गलवत् परक्षेत्रं न गच्छन्तीत्यर्थः ।
भावार्थ - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य एवं आगे कहा जानेवाला कालद्रव्य ये सभी निष्क्रिय अर्थात् क्रियारहित हैं अर्थात् पारिशेष न्याय से जीव और पुद्गल सक्रिय हैं, यह सिद्ध हो जाता है। इसी के समुच्चयार्थ 'च' पद दिया है।
अर्थ- चकार शब्द समुच्च के लिए है, जिससे यह अर्थ होता है कि धर्म, अधर्म, एवं आकाश द्रव्य 1. केवल एक-एक ही नहीं, निष्क्रिय भी हैं, अर्थात् स्वस्थान " को छोड़कर जीव और पुद्गल की तरह अन्य क्षेत्रों में नहीं जाते हैं। इसका यह अर्थ हुआ ।
राजवार्तिक- 'च' शब्दोऽनन्तसमुच्चयार्थः । १ । अनन्ताः प्रकृतास्तेषां समुच्चयार्थश्चशब्दः क्रियते - संख्येया असंख्येया अनन्ताश्चेति, के । पुनस्ते ? प्रदेशाः इत्यनुवर्तते ।
अर्थ- 'च' शब्द अनन्त प्रदेश के समुच्चय के लिए है । अनन्त का प्रकरण है। उनका ग्रहण करने के लिए सूत्र में 'च' शब्द को ग्रहण किया गया है। पुद्गल के संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं। शंका- क्या होते हैं? समाधान- प्रदेश होते हैं, इसका अनुवर्तन होता
है।
श्लोकवार्तिक- प्रदेशा इत्यनुवर्तते । 'च' शब्दादनन्ताश्च समुच्चीयन्ते ।
अर्थ- प्रदेश का अनुवर्तन होता है। सूत्र में आये 'च' शब्द से अनन्त का समुच्चय हो जाता है।
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दः प्रकृतानन्तसामान्यसमुच्चयार्थस्तेन परीतानन्तं युक्तानन्तमनन्तानन्तमिति त्रिविधमप्यनन्तमनन्तसामान्येऽन्तर्भूतं गृह्यते।
अर्थ- 'च' शब्द प्रकृत के अनन्तसामान्य का समुच्चय करने के लिए दिया है। उससे परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त ऐसे तीन प्रकार के अनन्त को अनन्तसामान्य में अन्तर्भूत करके ग्रहण किया है।
तत्त्वार्थवृत्ति- पुद्गलानां प्रदेशाः संख्ये या असंख्येयाश्च भवन्ति । चकारात् परीतानन्ताः युक्तानन्ता अनन्तानन्ताश्च त्रिविधानन्ताश्च भविन्त ।
अर्थ- पुद्गलों के प्रदेश संख्यात और असंख्यात होते हैं। सूत्र में आये 'च' शब्द से परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त ये ३ प्रकार से अनन्त प्रदेश भी होते हैं ।
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हैं।
भावार्थ- सूत्र में 'च' शब्द अनन्त का समुच्चय । परिणाम आदि के अलावा फसल पकना, ऋतुपरिवर्तन करने के लिए है, जिससे यह फलितार्थ है कि पुद्गल | आदि भी काल द्रव्य के उपकार मानने चाहिये। द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश होते हैं। | शब्दबंधसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योत
सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २०॥ वन्तश्च॥ २४॥ राजवार्तिक एवं श्लोकवार्तिक में इस सूत्र में आये |
श्लोकवार्तिक ग्रंथ में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं 'च' शब्द की व्याख्या नहीं है।
की है। . सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्द किमर्थः? समुच्चयार्थः। सर्वार्थसिद्धि- 'च' शब्देन नोदनाभिघातादयः अन्योऽपि पुद्गलकृत उपकारोऽस्तीति समुच्चीयते। यथा | पुद्गलपरिणामा आगमे प्रसिद्धाः समुच्चीयन्ते। शरीराणि एवं चक्षुरादीनीन्द्रियाण्यपीति।
अर्थ- सूत्र में दिये हुए 'च' शब्द से नोदन (ठेलना, अर्थ- शंका- सूत्र में 'च' शब्द किसलिए दिया | हाँकना, हटाना आदि) अभिघात (मारना, चोट पहुँचाना, है? समाधान- समुच्चय के लिए। पुद्गलकृत और भी | प्रहार आदि) आदि जो पुद्गल की पर्यायें आगम में उपकार हैं, उनके समुच्चय के लिए सूत्र में 'च' शब्द | प्रसिद्ध हैं, उनका संग्रह होता है। दिया है। जिस प्रकार शरीर आदि पुद्गलकृत उपकार - राजवार्तिक- नोदनाभिघाताद्युपसंख्यानमिति चेत्, हैं, उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी पुद्गलकृत उपकार | न, 'च' शब्दस्येष्टसमुच्चयार्थत्वात्। २७। स्यान्मतम्
नोदनाभिघातादयः पुद्गलपरिणामाः सन्ति। तेषामत्रोप. सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- 'च' शब्दश्चक्षुरादिस- संख्यानं कर्तव्यमिति, तन्न, किं कारणं? 'च' शब्दस्येष्टमुच्चयार्थः। तेन यथा शरीराणि पुद्गलकार्याणि तथा
| समुच्चयार्थत्वात्।ये पुद्गलपरिणामा आगमे इष्टाः तेषामिह चक्षुरादीन्द्रियाण्यपीत्यवसेयम्।
'च' शब्देन समुच्चयः क्रियते। अर्थ- सूत्र में 'च' शब्द चक्षु आदि का समुच्चय
अर्थ- शंका- नोदन, अभिघात का भी ग्रहण करना करने के लिए है। जैसे शरीर आदि पुद्गल के कार्य
चाहिये? समाधान- नहीं, सूत्र में आये 'च' शब्द से इष्ट हैं, वैसे चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी पुद्गल के कार्य हैं, ऐसा | का समुच्चय हो जाता है। २७। जानना चाहिये।
प्रश्न- नोदन, अभिघात, आदि भी पुद्गल की तत्त्वार्थवृत्ति-चकार: समुच्चये वर्तते। तेनचक्षरादीनि | पर्यायें हैं, इसलिए इनका भी सत्र में उल्लेख होना चाहिये। इन्द्रियाण्यपि शरीरादिवत् जीवोपकारकाणि भविन्त।
| उत्तर- नहीं। प्रश्न- किस कारण से? उत्तर- सूत्र में अर्थ- चकार शब्द समुच्चय के लिए है। इससे
'च' शब्द इष्ट के समुच्चय के लिए है। अतः नोदन, चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी शरीर आदि के समान जीव का | अभिघात आदि जितने भी पुद्गल के परिणाम आगम उपकार करनेवाली होती हैं।
में इष्ट हो सकते हैं, उन सबका समुच्चय 'च' शब्द भावार्थ- सुख, दु:ख, जीवन एवं मरण ये पुद्गलकृत | से हो जाता है। जीव पर एवं जीवकृतः जीव पर उपकार हैं तथा 'च' सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति- एवमन्येऽपि नोदनाभिघाताशब्द से पुद्गलकृत और भी उपकार होते हैं। यथा- दयो ये पुद्गलपरिणामा आगमे इष्टास्तेषामिह 'च' शब्देन चक्षु आदि इन्द्रियों की रचना।
समुच्चयः क्रियते। वर्तनापरिणामक्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य॥२२॥
अर्थ- इसी प्रकार अन्य भी नोदन, अभिघात आदि सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, सुखबोध
पुद्गल के परिणाम आगम में इष्ट हैं, उनका 'च' शब्द तत्त्वार्धवृत्ति, तत्त्वार्थवृत्ति में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं
से ग्रहण किया है। की गयी है।
तत्त्वार्थवृत्ति-चकारात् अभिघातनोदनादयः पुदगलआचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज- यहाँ 'च' शब्द
परिणामाः परमागमसिद्धाः समुच्चिता ज्ञातव्याः। से फसल पकना, ऋतुपरिवर्तन, समय पर फूल आना,
अर्थ- 'च' शब्द से आगम प्रसिद्ध अभिघात, नोदन फल आना, भूख लगना आदि लेना चाहिये।
आदि पुद्गल की पर्यायों का समुच्चय होता है, ऐसा भावार्थ- सत्र में आये 'च' शब्द का अर्थ वर्तना, | जानना चा
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भावार्थ- शब्द, बन्ध आदि पुद्गल की पर्यायें । है। 'बन्धेऽधिको पारिणामिकौ' ऐसा सूत्र लिखा हुआ है। हैं। एवं 'च' शब्द से नोदन, अभिघात आदि भी पुद्गल
• कालश्च ॥ ३९॥ की पर्यायें हैं, यह जानना चाहिये।
सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक और अणवः स्कन्धाश्च॥ २५॥
सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं है। सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक और | तत्त्वार्थवृत्ति- चकारः परस्परसमुच्चये। तेनायमर्थः सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति में 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की है। | न केवलं धर्माधर्माकाशपुद्गला जीवाश्च द्रव्याणि
तत्त्वार्थवृत्ति- चकारः परस्परं समुच्चये वर्तते। | भवन्ति, किन्तु कालश्च द्रव्यं भवति। द्रव्यलक्षणोपेतत्त्वात्। तेनायमर्थ:- न केवलम् अणव एव पुद्गलाः किन्तु | द्रव्यस्य लक्षण द्विप्रकारमुक्तम्- उ
द्रव्यस्य लक्षणं द्विप्रकारमुक्तम्-'उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं स्कन्धाश्च पुद्गला भवन्ति निश्चयव्यवहारनयद्वयक्रमा- | सत्', गुणपर्ययवत् द्रव्यम् इति च। एतदुभयमपि लक्षणं दित्यर्थः। निश्चयनयादणव एव पुद्गलाः, व्यवहारनयात्
कालस्य वर्तते, तेन कालोऽपि द्रव्यव्यपदेशभाग् भवति। स्कन्धा अपि पुद्गला भवन्तीत्यर्थः।
अर्थ- सूत्र में 'च' परस्पर समुच्चय के लिए है। अर्थ- सूत्र में 'च' परस्पर समुच्चय के लिए है। इससे यह अर्थ है कि केवल धर्म, अधर्म, आकाश, इससे यह अर्थ होता है- केवल परमाणु ही पुद्गल नहीं | पुद्गल और जीव द्रव्य नहीं हैं, बल्कि काल भी द्रव्य है, किन्तु स्कन्ध भी पुद्गल होते हैं। निश्चयनय और | होता है, क्योंकि काल में भी द्रव्य के लक्षण होते हैं। व्यवहारनय के क्रम से होते हैं अर्थात् निश्चयनय से द्रव्य का लक्षण २ प्रकार से कहा है- 'उत्पाद, व्यय परमाणु ही पुद्गल है और व्यवहारनय से स्कन्ध भी और ध्रौव्य से युक्त सत् है' और 'गुण और पर्यायवाला पुद्गल होते हैं, यह इसका अर्थ हुआ।
द्रव्य है।' ये दोनों लक्षण काल के भी हैं। इससे काल भावार्थ- अणु और स्कन्ध दोनों पुदगल भेद हैं। | भी द्रव्य संज्ञावाला है। निश्चयनय से परमाणु ही पुद्गल है और व्यवहारनय भावार्थ- धर्मादि की तरह काल भी द्रव्य है, क्योंकि से स्कन्ध भी पुद्गल हैं, यह जानना चाहिये। इसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता है एवं गुण-पर्यायबन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च॥ ३७॥
वाला भी है, अर्थात् द्रव्य के सभी लक्षण काल द्रव्य सर्वार्थसिद्धि, सुखबोधतत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वार्थवत्ति में | में भी पाये जाते हैं। 'च' शब्द की व्याख्या नहीं की गयी है। राजवार्तिक
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान एवं श्लोकवार्तिक में इस सूत्र में 'च' शब्द ही नहीं दिया
सांगानेर, जयपुर (राज.) संस्थान में क्रेश कोर्स प्रारंभ परम पूज्य १०८ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज की आशीष प्रेरणा से संचालित भारतवर्षीय दिगम्बर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान में १ जून २००९ से छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश की मुख्य परीक्षा तथा संघ लोकसेवा आयोग की प्री की परीक्षा की तैयारी हेतु जून २००९ के प्रथम सप्ताह से विभिन्न विषयों का प्रशिक्षण कार्य प्रारंभ होने से प्रशिक्षार्थीगणों में अधिक उत्साह देखा जा रहा है।
संस्थान में प्रशिक्षार्थियों की तैयारी कराई जाने हेतु प्रवेश प्रारंभ है तथा प्रदेश एवं प्रदेश के बाहर से जिन प्रशिक्षार्थियों को लाभ लेना हो वे 'श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन प्रशासकीय प्रशिक्षण संस्थान पिसनहारी मढ़िया केम्पस गढ़ा, जबलपुर (म.प्र.)' से सम्पर्क करें।
मुकेश सिंघई, संस्थान अधीक्षक विचार संस्था ने किया डॉ० सिंघई का सम्मान कुण्डलपुर में विराजमान आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के मंगल सान्निध्य में डॉ० अशोक सिंघई एवं उनकी पत्नी का साल श्रीफल एवं मुमेन्टो भेंटकर सम्मान किया गया। डॉ. अशोक सिंघई ने कुछ दिन पूर्व सागर की भाग्योदय अस्पताल में जन्म से अंधी एक निर्धन कन्या का आचार्यश्री के आशीर्वाद से निःशुल्क सफल आपरेशन कर उसे जीवन की नई रोशनी प्रदान की थी।
सुनील बेजीटेरियन जुलाई 2009 जिनभाषित 21
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हमारी सांस्कृतिक धरोहर : हमारी मातृभाषा
गतवर्ष जैनागम के सर्वोच्च ग्रन्थ 'धवला' के लोकापर्ण-समारोह में जाने का अवसर मिला। पूज्य भट्टारक स्वामी चारुकीर्ति जी महाराज की प्रेरणा से 'धवला' का कन्नड़ भाषा में अनुवाद कर लगभग ३०-३५ भागों में प्रकाशन की योजना है। हमारे साथ के एक महानुभाव ने प्रश्न किया कि आज कन्नड़भाषी कितने हैं । उसमें भी प्राचीन कन्नड़ को जाननेवाले तो और भी कम हैं। फिर इसके अनुवाद और प्रकाशन का क्या औचित्य ? मैंने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा कि यह हमारी सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण है। भाषा हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक धरोहर है, जिसमें हमारी समाज और सभ्यता का दिल धड़कता है। शोलापुर से भी मराठी भाषा में 'धवला' का अनुवाद हो रहा है। जितना भी महत्त्वपूर्ण साहित्य है, उसका हिन्दी, संस्कृत, कन्नड़, मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, ढुढारी आदि में विपुल मात्रा में अनुवाद हुआ है। और उसे बड़ी श्रद्धा और आस्था से पढ़ा जाता है। जरा विचार करें प्राकृत भाषा यदि समाप्त हो गयी होती, तो क्या जैनागम आज हमें उपलब्ध हो पाता ?
वस्तुतः देखा जाये, तो किसी भी देश या समाज की भाषा मात्र संप्रेषणीयता एवं बोलचाल का माध्यम ही नहीं, अपितु उस देश, समाज, जाति या धर्म की अस्मिता, विरासत और संस्कृति की भी संरक्षक है। किसी भी भाषा या बोली का समाप्त होना मानों उसकी संस्कृति, विरासत या परम्पराओं का मृतप्राय हो जाना है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने सदैव मातृभाषा पर बल दिया। उन्होंने सर्वोदय में लिखा- मैं यह नहीं चाहूँगा कि एक भी भारतवासी अपनी मातृभाषा भूल जाये, उसकी उपेक्षा करे, उस पर शर्मिंदा हो या यह अनुभव करे कि वह अपनी खुद की देशी भाषा में उत्तम विचार प्रकट नहीं
डॉ० ज्योति जैन आ गयी हैं। विशेषकर भारत की अनेक भाषायें लुप्त होने के कगार पर हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ से सम्बन्धित यूनेस्को ने समय-समय पर लुप्त होती भाषाओं पर चिंता प्रकट की है और कहा है कि 'विश्व की छह हजार भाषाओं में से (संयुक्त राष्ट्रसंघ में छह हजार भाषायें पंजीकृत हैं) तीन हजार भाषायें लुप्त होने के करीब हैं। इससे विश्व की अनेक संस्कृतियाँ, विविधतायें समाप्त हो जायेंगी । '
महात्मा गाँधी ने भी एक बार कहा था कि 'मैं नहीं चाहता कि मेरे घर के चारों तरफ दीवारें हों, खिडकियाँ बंद हों। मैं चाहता हूँ दुनिया भर की जितनी संस्कृतियाँ हों, मेरे आँगन में फले-फूलें, लेकिन मैं यह नहीं स्वीकार करूँगा कि कोई मेरे पाँवों को ही उखाड़ फेंके।' किसी भी देश या जाति को नष्ट करने के लिए शस्त्रों की आवश्यकता नहीं, अपितु उसकी भाषा नष्ट कर दो, वहाँ की संस्कृति स्वयमेव समाप्त हो जायेगी। यह भी एक विडम्बना है कि मातृभाषा का जो सपना भारत ने देखा था, वह सपना ही रह गया। आजादी के साथ हिन्दी एवं अन्य भाषायें सरकारी दस्तावेजों, आयोगों रिपोटों एवं कार्यक्रमों तक ही सिमट कर रह गयी हैं और हम सब लार्ड मैकाले की शिक्षापद्धति पर चलकर भारत और इंडिया दो भागों में बँटते चले जा रहे हैं। एक तरफ तो अँग्रेजीपना लिये ऊँचे लोगों, बड़े शहरों, मालदार, हाई-फाई लोगों का 'इंडिया' है, तो दूसरी तरफ स्वभाषाभाषी, ग्रामीण कस्बाई, मध्यमवर्गीय लोगों का 'भारत' है। किसी भी देश को सदैव गुलाम रखने का मूलमंत्र है कि उसके अभिजात वर्ग को अपनी भाषा रटा दो। लार्ड मैकाले ने शिक्षा के जो बीज बोये उसके फल हम सब देख रहे हैं। आज की शिक्षणपद्धति नयी पीढ़ी को दिशाहीन बना रही है, तथा परम्परा और संस्कृति से भी दूर कर रही है। अनेक शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि प्रारम्भिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिये । यदि हम ऐसा नहीं करते, तो यह बच्चों के प्रति मानसिक क्रूरता है। बच्चों को प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षण अनिवार्य न करना एक पीढ़ी को उसकी भाषा की जड़ों से काट देना है। नोबल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर का कहना था कि, जिस प्रकार
कर सकता ।
आज चिंताजनक पहलू यह है कि इंटरनेट वैश्वीकरण के परिवेश में विश्व की अनेक भाषायें समाप्ति के कगार पर हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग ढाई हजार भाषायें लुप्त हो गयी हैं। लगभग ५३८ भाषायें अंतिम साँस ले रही हैं, लगभग ५०२ भाषायें गंभीर संकट में हैं, लगभग ६३२ भाषायें संकटकालीन स्थिति से गुजर रही हैं और लगभग ६०७ भाषायें असुरक्षित श्रेणी में 22 जुलाई 2009 जिनभाषित
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माँ के दूध पर पलनेवाला बालक अधिक स्वस्थ और बलवान बनता है, उसी तरह मातृभाषा पढ़ने से मन और मस्तिष्क अधिक दृढ़ बनते हैं। आज यदि विश्व के विकासशील देशों पर दृष्टि डालें, तो हम पाते हैं कि अमेरिका, रूस, इंग्लैंड, जर्मन, चीन, जापान, फ्रांस आदि देश विज्ञान, चिकित्सा, उद्योग, गणित, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन, कला आदि क्षेत्रों में समृद्ध हैं, तो इसका महत्त्वपूर्ण कारण है कि ये सब देश अपनी मातृभाषा में चिंतन-मनन तो करते ही हैं, अध्ययन और अध्यापन का कार्य भी मातृभाषा में होता है। इनकी अभूतपूर्व प्रगति में मातृभाषा का बहुत बड़ा योगदान है।
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हमारे देश में आज शिक्षाव्यवस्था पूरी तरह से अँग्रेजी भाषा की चपेट में है । क्यों? हम अँग्रेजी भाषा को विश्वभाषा का दर्जा दे रहे हैं। क्यों? जिसकी भी थोड़ी सी आर्थिक स्थिति ठीक है, वह भी पेट काटकर बच्चों को पब्लिक स्कूल में भेज रहे हैं। क्यों? आज तरक्की नौकरी का पर्याय अंग्रेजी बन गयी है क्यों? इन सब प्रश्नों पर हमें विचार करना होगा।
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भारत ही एकमात्र देश है, जहाँ विदेशी भाषा के प्रति इतना मोह है। जितने अँग्रेजी अखबार भारत में छपते हैं, उतने किसी भी पूर्व गुलाम देश में नहीं छपते । आज अनेक विद्यार्थी अँग्रेजी विषय के दबाव में हैं। वे अंग्रेजी में कमजोर होने के कारण मानसिक तनाव से गुजरते हैं, तथा अनेक बार आत्महत्या तक कर लेते हैं। आये दिन ऐसी घटनाओं से हम सब रूबरू होते रहते हैं। अनेक विद्यार्थी अपने जीवन को, अपने अभिभावकों को कोसते रहते हैं कि काश मेरी भी अँग्रेजी अच्छी होती, मैं भी कान्वेंट / पब्लिक स्कूल में पढ़ा होता, तो जीवन सफल हो जाता' आदि। अँग्रेजी के पक्षधर सदैव तर्क देते हैं कि आज विश्व के संपर्क की भाषा अँग्रेजी है विदेशी कम्पनियों में नौकरी ज्ञान-विज्ञान में शोध- अध्ययन, विदेशी व्यापार एवं तरक्की के लिये अँग्रेजी भाषा ही माध्यम है। पर देखा जाये, तो इन सबसे कितने लोग जुड़े हैं? बस इतने के लिये हम करोडों लोगों पर अँग्रेजी थोप दें? अँग्रेजी भाषा का ज्ञान एक विषय के रूप में, तो अवश्य होना चाहिये और जहाँ आवश्यक है वहाँ भी भाषा का ज्ञान हो, पर जिस तरह से हमारी शिक्षा व्यवस्था अँग्रेजी के अधकचरे ज्ञान पर चल रही
है, उसने सभी क्षेत्रों में अक्षमता ही बढ़ाई है और हमारी एक पीढ़ी अपनी परम्परा एवं संस्कृति से दूर होती जा रही है ।
'आधुनिक युग की प्रगति में अँग्रेजी भाषा ही एक मात्र माध्यम है, ऐसी लोगों की सोच होती जा रही है। पर यदि दृष्टि डालें तो रूस, जापान, चीन, फ्रांस, जर्मनी की तरक्की में कहीं भी विदेशी भाषा का योगदान नहीं है। यहाँ तक कि इनके प्रतिनिधि बाहर किसी भी देश में जाते हैं, तो अपनी भाषा में ही बोलते हैं, तब लगता है कि भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ की अपनी कोई भाषा नहीं है। अँग्रेजी भाषा को विदेशी व्यापार के लिये आवश्यक माननेवालों को जानकर आश्चर्य होगा कि आज हमारा चीन के साथ सबसे अधिक व्यापार लगभग तीन सौ अरब डालर का है, पर हमारे पाँच सात हजार लोग भी चीनी भाषा नहीं जानते हैं किसी भी देश का राष्ट्रीय स्वाभिमान उसकी भाषा-संस्कृति है हो सकता है कि अँग्रेजी बोलकर सारा देश अपने भौतिक लक्ष्यों को प्राप्त कर ले, पर यदि हमने यह सब अपनी सांस्कृतिक विरासत खोकर पाया, तो क्या पाया ? गाँधी जी की ये पंक्तियाँ यहाँ स्मरण आ रही हैं, जो उन्होंने बी.बी.सी. को एक संदेश में कहीं थीं । 'दुनिया को बता दो, गाँधी अंग्रेजी नहीं जानता।' अँग्रेज जब भारत आये थे, तो उन्होंने सबसे पहले यहाँ की भाषा ही सीखी थी। भारत के दर्शन एवं धर्म को जानने के लिये अनेक विदेशियों ने प्राकृत एवं संस्कृत भाषा को सीखा।
यूनेस्को की चेतावनी को यदि हमने गंभीरता से नहीं लिया, तो आगे आनेवाली पीढ़ी अपनी मातृभाषा से वंचित हो जायेगी, उसे न तो अपनी मातृभाषा पढ़ना आयेगा, न बोलना। सोचने व सृजन का, तो प्रश्न ही नहीं उठता। भारत सहित अनेक देश अपनी सांस्कृतिक बहुलता और भाषाई विविधता की विरासत को खो देंगे। अनेक साहित्यसम्पन्न संस्कृतियाँ म्यूजियम या लायब्रेरियों तक सिमट जायेंगी। आवश्यकता है हम अपनी मातृभाषा पर बल दें। हमारी सांस्कृतिक धरोहर ही हमारी पहचान है। आइये इसे अगली पीढ़ी तक पहुँचायें ।
'सर्वोदय' जैन मण्डी, खतौली - २५१२०१, उ.प्र.
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जिज्ञासा-समाधान
पं० रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- पं० मनीष जैन 'भगवाँ'
। सुख का कुछ आभास होता है, जिसप्रकार कि द्ध, जिज्ञासा- किस गुणस्थान में कितना सुख होता | घी, शक्कर आदि खानेवालों को पीछे से उसकी डकार है और क्यों? कृपया बताएँ।
द्वारा मधुर रस का आभास मिलता है। उसी प्रकार इनके समाधान- आपकी जिज्ञासा का उत्तर हरिवंशपुराण सुख का आभास जानना चाहिए । ९३।। के तृतीय सर्ग, श्लोक नं० ८६ से ९४ तक बहुत अच्छी | ९. तद्नन्तर जो स्वप्न के राज्य के समान बुद्धि तरह दिया हुआ है, जो इसप्रकार है
को भ्रष्ट करनेवाले सप्तप्रकृतिक मोह से अत्यंत मूढ़ १. चौदहों गुणस्थानों में से सबसे अधिक सुख | हो रहा है, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव को सुख कहाँ प्राप्त तो क्षायिक लब्धियों को प्राप्त करनेवाले सयोगकेवली हो सकता है? और अयोगकेवली को होता है। इनका सुख अन्तरहित जिज्ञासा- क्या मुनिराज या आर्यिका गृहस्थ के होता है, तथा इन्द्रियसंबंधी विषयों से उत्पन्न नहीं होता। घरों में ठहर सकते है?
२. उनके बाद उपशमश्रेणी अथवा क्षपक श्रेणी समाधान- उपर्युक्त जिज्ञासा के संदर्भ में श्री चढ़नेवाले, आठवें गुणस्थान को आदि लेकर १२वें गुणस्थान | मूलाचार में इसप्रकार कहा हैतक के मुनिराजों के कषायों के उपशम अथवा क्षय तेरिक्खिय माणुस्सिय सविगारियदेवि गेहि संसत्ते। से उत्पन्न होने वाला परम सुख होता है।। ८७॥
वज्जेंति अप्पभत्ता णिलए सयणासणट्ठाणे॥३५७॥ ३. तदनन्तर उनसे कम निद्रा, पाँच इंद्रियाँ, चार गाथार्थ- अप्रमादी मुनि सोने, बैठने और ठहरने कषाय, चार विकथा और एक स्नेह इन पन्द्रह प्रमादों | में तिर्यचिनी, मनुष्य-स्त्री, विकार सहित देवियों और से रहित अप्रमत संयत जीवों के प्रशमरसरूप सुख होता | गृहस्थों से सहित मकानों को छोड़ देते हैं। है।। ८८॥
श्रमणाचार के उत्कृष्ट ग्रन्थ मूलाचार की उपर्युक्त ४. उनके बाद हिंसा, झूठ चोरी कुशील और परिग्रह | | गाथा के अनुसार, मुनिराज या आर्यिकाएँ उन मकानों इन पाँच पापों से विरक्त प्रमतसंयत जीवों के (छठे | | में नहीं ठहरते हैं, जो गृहस्थों से सहित होते हैं। क्योंकि गुणस्थान वर्ती मुनिराजों के) शांतिरूप सख होता है। ऐसी बसतिकाओं में रहने से निर्बाध ब्रह्मचर्य का पालन ८९॥
स्वाध्याय तथा ध्यान की सिद्धि तथा राग-द्वेष रूप परिणामों ५. तदनन्तर हिंसा आदि पाँच पापों से यथाशक्ति | से बचना संभव नहीं हो पाता। एकदेशनिवृत्त होनेवाले संयतासंयत जीवों के महातृष्णा | वर्तमान में बहुत से साधु एवं आर्यिकाएँ उपर्युक्त पर विजय प्राप्त होने के कारण सुख होता है॥९०॥ नियमों का उल्लंघन करते हुए देखे जा रहे है। वे सुविधा
६. उनके बाद अविरतसम्यग्दृष्टि जीव, यद्यपि भोगी होने के कारण श्रावकों के बैडरूप आदि में हिंसादि पापों से एक देश भी विरत नहीं हैं, तथापि | एयरकंडीशनर आदि लगे होने से, ठहरना पसंद करते तत्त्वश्रद्धान से उत्पन्न सुख का उपभोग करते ही हैं ॥९१॥ | हैं। कुछ वर्ष पूर्व आगरा में कर्नाटक प्रान्त की एक
७. उनके पश्चात् परस्पर विरुद्ध, सम्यक्त्व और | आर्यिका आई थीं। उनको ठहरने के लिए मंदि मिथ्यात्व रूप परिणामों को धारण करनेवाले सम्यमिथ्यादृष्टि | निकट में बने हुए संत निवास को दिखाया गया, जो जीवों के अन्तःकरण सुख और दुख दोनों से मिश्रित | | उन्होंने देखते ही इनकार कर दिया। वे आर्यिका मंदिर रहते हैं॥९२॥
के पड़ोस में गईं और एक गृहस्थ के ए.सी. लगे हुए ८. सम्यग्दर्शन को उगलनेवाले सासादन सम्यग्दृष्टि बैडरूप में, उनको बाहर हटाकर, रात्रि में ठहरीं। इसप्रकार जीवों का अन्तरभाव उसप्रकार का होता है, जिसप्रकार | ठहरना आगमसम्मत नहीं कहा जा सकता। मुनि या का दूध और घी से मिश्रित शक्कर खाकर उसकी डकार | आर्यिका को तो सूने घर, पहाड़ी की गुफा, वृक्ष का लेनेवालों का होता है। अर्थात् सम्यक्त्व के छूट जाने | मूल, आने-जाने वालों के लिए बनाया गया घर या से सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों को सुख तो नहीं होता, किन्तु | धर्मशाला, शिक्षाघर आदि एकान्त स्थानों में ही ठहरना
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उचित कहा गया है।
कम अवधिज्ञानावरण को, उससे कम मनःपर्ययज्ञानावरण जिज्ञासा- एक समय में ग्रहण की गई कार्मण | को और सबसे कम द्रव्य केवलज्ञानावरण को मिलेगा। वर्गणाओं का मूल एवं उत्तर प्रकृतियों में बँटवारा किस | मोहनीय तथा दर्शनावरण में कम से इसी प्रकार हीन प्रकार होता है?
द्रव्य मिलता है। किन्तु नाम और अन्तराय कर्म के भेदों समाधान- प्रत्येक जीव प्रतिसमय समयप्रबद्ध | में क्रम से अधिक-अधिक द्रव्य मिलता है अर्थात् सबसे प्रमाण (सिद्धराशि के अनन्तवें भाग अथवा अभव्यराशि कम द्रव्य दानान्तराय को, उससे अधिक लाभान्तराय को से अनन्तगुणा) कार्मण वर्गणाओं को ग्रहण करके कर्म | उससे अधिक भोगान्तराय को, उससे अधिक उपभोगान्तराय रूप करता है। उसका बँटवारा गोम्मटसार कर्मकाण्ड ग्रन्थ | को और सबसे अधिक वीर्यान्तराय को मिलता है। के अनुसार इसप्रकार होता है
वेदनीय, गोत्र और आयु कर्म की एक समय में एकआउगभागो थोवो णामागोदे समो तदो अहियो। | एक ही प्रकृति का बन्ध होता है अर्थात् जब उच्च गोत्र घादितिये वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिये ॥१९२॥ बँधता है, तब नीच गोत्र नहीं बँधता। जब सातावेदनीय
गाथार्थ- सभी मूलप्रकृतियों में आयु कर्म को सबसे | प्रकृति बँधती है, तब असातावेदनीय नहीं बँधती तथा कम भाग मिलता है। उससे अधिक भाग नाम व गोत्र | चारों आयुकर्मों में से एक समय में एक ही आयु का कर्म को मिलता है, जो आपस में समान हैं, उससे अधिक | बंध होता है। तब उस समय उस प्रकृति को उस कर्म भाग ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय को मिलता है, | का पूरा द्रव्य प्राप्त होता है। जो आपस में समान है। उससे अधिक भाग मोहनीय | इतना अवश्य और जानना चाहिए कि लोक में कर्म को मिलता हैं। और सबसे अधिक भाग वेदनीय | भरी हुई कार्मण वर्गणा में से जो द्रव्य ज्ञानावरणीय के कर्म को मिलता है।
योग्य होता है, वही ज्ञानावरणरूप परिणमन करता है, वेदनीय कर्म संसारी जीवों को सुख-दुख का कारण अन्य कर्म रूप परिणमन नहीं करता। ये सभी कार्मण है अतः इसकी निर्जरा अधिक होने से इसको सबसे | वर्णणाएँ भिन्न-भिन्न कर्म रूप परिणमन करने की योग्यता अधिक द्रव्य मिलता है। वेदनीय कर्म के अलावा अन्य | रखनेवाली होते हए भी पथक-पथक नहीं रहतीं. मिश्रित सर्व मूलप्रकृतियों में द्रव्य का बँटवारा उनकी स्थिति | होकर रहती हैं। (देखें धवल पुस्तक-१४, पृष्ठ ५५३के अनुसार होता है अर्थात् सबसे अधिक स्थिति मोहनीय कर्म की, उससे कम ज्ञानावरण-दर्शनावरण एवं अन्तराय प्रश्नकर्ता- राजेन्द्र कुमार जैन, जबलपुर । की, उससे कम गोत्र व नाम कर्म की और सबसे कम जिज्ञासा- अरिहन्त भगवान् आहार नहीं करते हैं, स्थिति आयुकर्म की होने के कारण, इन कर्मों को तदनुसार | तो उनका शरीर कैसे हजारों वर्ष तक टिकता होगा? ही द्रव्य मिलता है। उत्तर प्रकृतियों में बँटवारा इस प्रकार समाधान- उपर्युक्त विषय पर कषाय पाहुड़ १/१, होता है
प्रमेयकमलमार्तण्ड, प्रवचनसार, बहत जिनोपदेश, प्रश्नोत्तर उत्तरपयडीसु पुणो मोहावरणा हवंति हीणकमा। | श्रावकाचार, जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष आदि ग्रन्थों में विस्तृत अहियकमा पुण णामाविग्घा य ण भंजणं सेसे॥१९६॥ चर्चा उपलब्ध है। उसी के आधार से आपको उत्तर ___अर्थ- उत्तर प्रकृतियों में मोहनीय, ज्ञानावरण और | दिया जा रहा हैदर्शनावरण के भेदों में क्रम से हीन-हीन द्रव्य है तथा
१. श्री धवला पुस्तक-२, पृष्ठ-४३७ पर कहा नाम व अन्तराय कर्म के भेदों में क्रम से अधिक- | है कि जब अप्रमत्तसंयत, सप्तमगुणस्थानवर्ती मुनिराज के अधिक द्रव्य है। वेदनीय, गोत्र और आयु कर्म के भेदों | भी असातावेदनीय की उदीरणा न होने के कारण आहारसंज्ञा में बँटवारा नहीं होता, क्योंकि इनकी एक काल में एक | नहीं है, तब केवली के आहारसंज्ञा कैसे हो सकती है? ही प्रकृति बँधती है।
२. जिस काल में असाता का उदय होता है, उस विशेषार्थ- जितना द्रव्य ज्ञानावरण को मिलेगा, | काल में अनन्तगणी शक्तिवाले साता का भी उदय रहता उसका बँटवारा पाँच प्रकृतियों में होगा। सबसे अधिक है। अतएव वहाँ असातावेदनीय का उदय क्षुधादि वेदना मतिज्ञानावरण को, उससे कम श्रुतज्ञानावरण को, उससे | का कारण नहीं हो पाता। केवली के शरीर में प्रतिसमय
खनवाला होते हुए भी पृथक-पृथक नहीं रहतीं
तियों में द्रव्य का बँटवारा उनकी
५५४)
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अनन्तानन्त, परम प्रशस्त, सूक्ष्म तथा दूसरे मनुष्यों को कभी नहीं प्राप्त होने वाली नोकर्मवर्गणाएँ आती रहती हैं, जो शरीर को बल प्रदान करने में कारण बनी रहती हैं और आहार के बिना भी उनका परमौदारिक शरीर, कुछ कम एक करोड़ पूर्व तक बना रह सकता है, जैसे देवों का शरीर भी कवलाहार के बिना सागरों तक रहता है।
४. भूख की वेदना होना असातावेदनीय का कार्य है । परन्तु मोहनीय कर्म का उदय न होने से असातावेदनीय कर्म अपना फल देने में समर्थ नहीं होता है।
५. आहार तो इच्छापूर्वक ही होता है । केवली के लोभकषाय जन्य इच्छा नहीं होती अतः इच्छा के अभाव में आहार भी नहीं बन सकता ।
६. यदि केवली के क्षुधादोष माना जायेगा, तो प्यास भी लगेगी, भोजन से राग भी होगा, भोजन न मिलने पर मरण भी होगा तथा द्वेष भी होगा, विषाद भी होगा और निद्रा भी आएगी। तब फिर १८ दोषों से रहित वीतरागी कैसे कहलायेंगे। फिर तो वे हमारे समान ही हो गए।
७. सामान्य मुनि भी मद्य-मांस आदि पदार्थ देख लेने पर भोजन नहीं करते हैं, अन्तराय कर देते हैं। तब फिर संसार भर के समस्त निषिद्ध पदार्थों को एक साथ देखनेवाले केवली प्रभु आहार कैसे ग्रहण करे सकेंगे?
८. केवली भगवान् के रत्नत्रय तथा ध्यान की पूर्णता है, केवलज्ञान भी प्राप्त हो चुका है। अतः अब वे किसलिए भोजन करेंगे ?
९. केवली के क्षुधादि ११ परीषह कहे गये हैं, परन्तु असातावेदनीय की उदीरणा न होने से वे उपचार मात्र हैं। मोहनीय कर्म का अभाव होने से वे अपना फल देने में असमर्थ हैं । असाता का मात्र अप्रकट सूक्ष्म उदय है, उदीरणा नहीं।
१०. वैज्ञानिक दृष्टि यह भी जानने योग्य है कि छद्मस्थ जीवों के शरीर में अनन्त जीवराशि पाई जाती है, जो त्रस व स्थावर दोनों रूप है। वह जीवराशि प्रतिसमय शरीर का कुछ भी तत्व भक्षण करती रहती है, जिसके कारण शरीर में गिरावट आना अवश्यंभावी है उस क्षति की पूर्ति करने के लिए औदारिकशरीरी छद्मस्थ जीव कवलाहार ग्रहण करता है। अन्यथा उसके शरीर में गिरावट और मरण निश्चित है । केवली प्रभु के शरीर में कोई
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भी अन्य जीव नहीं होता, अतः उनके औदारिक शरीर में किसी प्रकार की क्षति नहीं होती, अतः कवलाहार भी आवश्यक नहीं है ।
उपर्युक्त बिन्दुओं के अनुसार केवली प्रभु का शरीर बिना कवलाहार के भी संख्यात वर्षों तक बना रहता है, इस सिद्धान्त में कोई बाधा नहीं आती है।
प्रश्नकर्त्ता- सौ० शचिरानी, देहली
जिज्ञासा- क्या राई और नमक मिलाकर खाना अभक्ष्य है?
समाधान वर्तमान में राई और नमक मिलाकर खाने का प्रचार बहुत देखा जा रहा है। दक्षिण भारत में जो भी डोसा, इडली आदि खाये जाते हैं या दाल बगैरह में छोंक लगाया जाता है, उन सब में राई और नमक का मिश्रण पाया जाता है। इसके संबंध में किशनसिंह श्रावकचार में इसप्रकार कहा है
राई लूण भेल जिहि मांहिं, करे राता मूरख खांहिं । राई लूण परै निरधार, उपजै जीव सिताव अपार ॥ ११२ ॥ राई लूण मिलो जो द्रव्य, ताहि सर्वथा तजिहै भव्य ।
अर्थ - राई और नमक जिसके अन्दर मिले हों उसका रायता बनाकर उसका रायता बनाकर मूर्ख लोग भक्षण करते हैं। जहाँ राई और नमक मिलाया जाता है, उसमें अपार जीवों की उत्पत्ति होती है। इसलिए जो भव्य जीव हैं वे राई और नमक मिलो हुईं जो भी वस्तुएँ हैं, उनका सर्वथा त्याग करते हैं।
जिज्ञासा- क्या ध्यान के लिए आसन और देशकाल आदि का नियम नियत है, या किसी भी आसन से और कभी भी ध्यान किया जा सकता है?
समाधान- महापुराण सर्ग - २१ के श्लोक नं० ६९ से ८३ तक उपर्यक्त विषय पर अच्छा विवेचन प्राप्त होता है, जो निम्न प्रकार है
मुनियों को ध्यान के समय मुख्य रूप से सुखासन लगाना चाहिए। पर्यंकासन (पालथी लगाकर ) तथा कायोत्सर्ग (खड़े होकर) ये दो सुखासन हैं। जो मुनि ध्यान के समय ऊँचे-नीचे आसन से बैठता है उसके शरीर में अवश्य पीड़ा होने लगती है, शरीर में पीड़ा होने पर मन में पीड़ा होने लगती है और मन में पीड़ा होने से आकुलता उत्पन्न हो जाती है। आकुलता उत्पन्न होने पर कुछ भी ध्यान नहीं किया जा सकता। इसलिए ध्यान । के समय सुखासन लगाना चाहिए। चाहे तो वे बैठकर
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ध्यान कर सकते हैं, खड़े होकर कर सकते हैं और | दिन-रात और संध्याकाल आदि काल भी निश्चित नहीं लेटकर भी ध्यान कर सकते हैं।
है, अर्थात् ध्यान इच्छानुसार सभी समयों में किया जा आगम में ऐसा भी सुना जाता है कि जिनका शरीर | सकता है। जो मुनि जिस समय, जिस देश में, जिस वज्रमयी है और जो महाशक्तिशाली हैं, ऐसे पुरुष सभी आसन से ध्यान को प्राप्त हो सकता है, उस मुनि के आसनों से विराजमान होकर ध्यान के बल से अविनाशी | ध्यान के लिए वहीं समय, वही देश और वही आसन पद को प्राप्त हुए है। अतः जो उपसर्ग आदि को सहन | उपर्युक्त माना गया है। करने में अतिशय समर्थ है, ऐसे मुनियों के लिए अनेक उपर्युक्त विवेचन गृहस्थों के लिये भी यथायोग्य प्रकार के आसनों को लगाने में दोष नहीं है। लगा लेना चाहिए। ध्यान करने के इच्छक धीर-वीर मुनियों के लिए |
१/२०५, प्रोफेसर्स कॉलोनी आगरा-२८२ ००२, उ० प्र०
जयपुर (राज.) जिले में शोकलहर
बधाई जैन सोश्यल ग्रुप मेट्रो, जयपुर
चि० रौनक जैन, सुपुत्र श्री प्रकाशचंद जैन के संस्थापक अध्यक्ष, अखिल भारतवर्षीय | परलापुर (बांसबाड़ा, राज.) को कक्षा १२ वीं विज्ञान दिगम्बर जैन परिषद के प्रदेशमंत्री. | वर्ग (अंग्रेजी माध्यम) में ८८ प्रतिशत अंक प्राप्त हये प्रसिद्ध युवा समाजसेवी एवं जैनसमाज | तथा प्रथम प्रयास में ही आई.आई.टी.-जे.ई.ई. में ६५१वीं
की विभिन्न संस्थाओं सहित कई सामाजिक | रेंक प्राप्त हुई। बधाई। एवं धार्मिक संगठनों से सक्रियता से जुड़े हुये विनोद
शिवपुरी (म०प्र०) में राष्ट्रीय युवा विद्वत् जैन 'कोटखावदा' के सुपुत्र एवं प्रतिभावान छात्र ऋषभ
संगोष्ठी सम्पन्न जैन का सड़क हादसे में मंगलवार २८ अप्रैल २००९
परम पूज्य आध्यात्मिक संत आचार्य श्री १०८ को असामयिक निधन हो गया। निधन की खबर से विशुद्धसागर जी महाराज ससंघ के सान्निध्य में धर्म प्रभावना परिवारजनों सहित जयपुर जैन समाज व राजस्थान के जनकल्याण परिषद् के तत्वाधान में श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर कई सामाजिक संगठनों में शोक की लहर छा गई। जैन छत्री मंदिर, शिवपुरी में १ मई २००९ को प्रातः
छात्र ऋषभ जैन की दोनों आँखें राजस्थान आई | ८ बजे से 'विश्वशांति में युवाओं की भूमिका' विषय बैंक सोसायटी, जयपुर को दान करने का माता-पिता | पर राष्ट्रीय युवा विद्वत् संगोष्ठी का आयोजन किया गया। श्रीमती दीपिका-श्री विनोद जैन 'कोटखावदा' ने इस
संगोष्ठी में भारत के विभिन्न प्रांतों के विभिन्न अंचलों कठिन घड़ी में निर्णय लेकर अपने लाड़ले को सदा
से ४० (चालीस) विद्वानों ने भाग लिया। के लिए अमर कर दिया।
खड़ेरी आवासीय शिविर में बही ज्ञानगंगा जैन सोश्यल ग्रुप सेन्ट्रल संस्था, जयपुर के खड़ेरी (दमोह) परम पूज्य सराकोद्धारक उपाध्याय सहयोग से हुये इस नेत्रदान के निर्णय का सभी ने | श्री १०८ ज्ञानसागर जी महाराज की प्रेरणा एवं आशीर्वाद उपकार माना।
से श्रुत-संवर्द्धन-संस्थान मेरठ एवं सकल दिगम्बर जैन ___ऋषभ जैन की पुण्य स्मृति में इन्टरनेशनल जैन | समाज खड़ेरी (दमोह) म.प्र. के तत्त्वाधान में श्री एण्ड वैश्य ऑर्गनाईजेशन, जयपुर की ओर से हर | पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर खड़ेरी में १२ से १९ वर्ष उसकी पुण्य तिथि पर सी.ए. की पढ़ाई में टॉप | मई २००९ तक प्रथम आवासीय श्रुत-संवर्द्धन-ज्ञानकरनेवाले जैन समाज के एक छात्र को ५१००/- रूपये संस्कार-शिक्षण- शिविर भारी उत्साह पूर्वक सम्पन्न की छात्रवृत्ति व शील्ड प्रदान की जावेगी। हुआ। इस आवासीय शिविर में बटियागढ़, शाहगढ़,
मनीष बैद | बिनेका, अमरमऊ, धनुआ, गूंगरा, दमोह, नागपुर आदि एस-२१, सरदार भवन, | स्थानों के शिविरार्थियों ने उत्साह पूर्वक भाग लिया। मंगल मार्ग, बापू नगर, जयपुर
सुनील जैन "संचय', शिविर संयोजक
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ग्रन्थ- समीक्षा
श्रुताराधना ( २००८ )
पुस्तक का नाम - श्रुताराधना २००८ ( प्रवचन संकलन ) । प्रवचनकार- प० पू० आचार्य श्री विद्यासागर जी । प्रकाशक - श्री कुण्डलपुर दि० जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी, कुण्डलपुर ( दमोह, म० प्र० ) । प्रकाशनवर्ष - २००९ ई० । प्रस्तुति- पं० ऋषभ शास्त्री, ईसरी बाजार । सम्पादक- पं० मूलचन्द लुहाड़िया एवं डॉ० चेतनप्रकाश पाटनी । मूल्य- ३० रुपये । प्राप्तिस्थान- पं० मूलचन्द लुहाड़िया, जयपुर रोड, मदनगंज- किशनगढ़ (राज० )
३०५८०१ ।
केवलज्ञान, धारावाहिक ज्ञान, नित्योद्घाटित ज्ञान और परमपारिणामिक-भाव के सम्बन्ध में आगमोक्त सूक्ष्म, गहन, गम्भीर चर्चा की गई है। दूसरे दिन के सत्रों में प्रवचनभक्ति, प्रशस्तराग, क्या सम्यक्त्व बंध का कारण है? क्या रत्नत्रय भी बंध का कारण है? सराग सम्यग्दर्शन, वीतराग सम्यग्दर्शन, शुद्धात्मानुभूति आदि से सम्बंधित धारणाएँ उद्बोधन का विषय रही हैं और शिविर के अन्तिम दिवस के सत्र में पूर्वाचार्यों के अवदानस्वरूप प्राप्त निर्दोष श्रुत को सही समझकर अध्ययन कर, फिर दूसरों के सामने समर्पित करने की प्रेरणा रूप उद्बोधन द्वारा श्रोताओं से अपने जीवन को सार्थक बनाने की अपेक्षा आचार्यश्री ने की है। सत्रों में श्रोताओं की शंकाओं के समाधान भी आचार्यश्री ने किये हैं।
।
सन् २००७ में कुण्डलपुर तीर्थक्षेत्र पर आयोजित प्रथम श्रुताराधना शिविर में भाग लेनेवाले तथा शिविर में दिए गए प० पू० आचार्यश्री के प्रवचनों की पुस्तक का स्वाध्याय करने वाले विद्वज्जन एवं स्वाध्यायशील भाई-बहिनों की यह तीब्र हार्दिक भावना थी कि सन् २००८ में भी ऐसा ही शिविर आयोजित हो । आचार्यश्री की कृपापूर्ण स्वीकृति से म० प्र०के सिलवानी नामक कस्बे में जून २००८ में शिविर का आयोजन किया गया। उसमें तीन दिन तक पाँच सत्रों में आचार्यश्री ने जो प्रवचन किये थे, उनका संकलन 'श्रुताराधना २००८' नाम से प्रकाशित किया गया है।
आचार्यश्री के कतिपय वक्तव्यों का उल्लेख यहाँ प्रस्तुत है । 'अनुक्रम' के अवलोकन से भी पाठकों को इनकी विविधता की जानकारी हो जाएगी।
१. हमारे नित्य स्वभाववाला यदि कोई ज्ञान है, तो उसे प्राप्त करने के लिए श्रुत की आराधना अनिवार्य है। दुनिया के पदार्थों को जानने के लिए हम श्रुत की आराधना नहीं कर रहे हैं। (पृ. २)
आज जैनदर्शन की नयव्यवस्था की सर्वथा उपेक्षा कर व्रतसंयमाचरणशून्य शुष्क अध्यात्मचर्चाओं के माध्यम से 'श्रुत' की जो पक्षपातपूर्ण व्याख्या की जा रही है, निश्चित ही वह जिनवाणी- उपासकों के लिए अतीव चिन्ता का विषय है । 'देव, शास्त्र और गुरु' त्रयी में आज साक्षात् देव की अविद्यमानता में भव्य जीवों के समीचीन मार्गदर्शक श्रुतदेवता (शास्त्र) ही हैं, जिनके निर्देशन में अनगार और सागार सभी को मोक्षमार्ग पर चलने की सम्यक् प्रेरणा मिलती । यह हमारा परम सौभाग्य है कि आज हमारे बीच पूर्ववर्ती दिगम्बर जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत समीचीन सिद्धान्त एवं तत्त्वप्ररूपक ग्रन्थ श्रुत के रूप में विद्यमान हैं और अनेक दिगम्बर गुरुओं सहित सन्तशिरोमणि पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज जैसे श्रुतसंरक्षक हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं। पूज्य आचार्यश्री आधुनिक प्रकाशनों और उनमें उपलब्ध सतही और असमीचीन व्याख्याओं व गलत अनुवादों से बहुत खिन्न हैं और शिविर के तीन दिनों में दिये गए उनके उद्बोधनों में यह पीड़ा स्पष्ट झलकती है। श्रुताराधना (२००८) का विवेच्य विषय
२. श्रुतमनिन्द्रियस्य । अनिन्द्रिय मन होता है और उसका विषय श्रुत होता है। श्रुतज्ञान जब उत्पन्न होता है तो वह मतिपूर्वक ही होता है, लेकिन इन्द्रियविषयों से उत्पन्न नहीं होता है। इसे आप लोगों को पकड़कर चलना है । वह इन्द्रियों का विषय नहीं । (पृ. ७-८ )
३. मति, श्रुत सम्यग्ज्ञान हैं, पर केवलज्ञान की किरण नहीं । (पृ. ८)
४. क्षायिक और क्षायोपशमिक को एक मान करके किरण होने की बात करना ठीक नहीं । (पृ. १० ) ५. क्षायिक ज्ञान परमपारिणामिकभाव नहीं होता
प्रथम दो सत्रों में श्रुत, श्रुतज्ञान क्षायिकज्ञान, है, कुन्दकुन्द महाराज ने परम पारिणामिक का अर्थ लिखा 28 जुलाई 2009 जिनभाषित
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है कि जो कर्मसापेक्ष नहीं है। अतः पारिणामिकभाव और । है। (पृ. ५६) केवलज्ञान में अन्तर है। (पृ. १५-१६)
१४. कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा 'मार्ग की प्रभावना ६. कर्मनिरपेक्ष और त्रैकालिकता में अन्तर होता | के लिए' जो लिखा गया है, सो प्रशस्तराग की भूमिका है। केवलज्ञान त्रैकालिक नहीं होता है क्योंकि वह पर्याय | में ही लिखा गया है। शुद्धोपयोग की भूमिका में लिखा है। क्षायिक भले ही हो, स्वभावपर्याय भले ही हो, किन्तु ही नहीं जा सकता, क्योंकि शुद्धोपयोग में तो 'लखा' हम उसको त्रैकालिक नहीं कह सकते हैं। (पृ. २०) | | जाता है। (पृ. ५७)
७. अनुभव के लिए कभी दूसरे के आलम्बन १५. “औदयिक भाव के द्वारा ही बन्ध होता है" की आवश्यकता है ही नहीं। (पृ. २२)
यह जो आग्रह है, वह आगम का नहीं है। (पृ. ६५) ८. अखण्ड ज्ञानप्रवाह ही है परम-पारिणामिक- १६. कुन्दकुन्द ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्भाव। ज्ञानस्वभाव अनादि-अनन्त है, केवलज्ञान नहीं। (पृ. | चारित्र को बंध का कारण कहा है। जब तक रत्नत्रय २३) केवलज्ञान क्षायिक भले ही हो, पर वह स्वभाव | जघन्यभाव के साथ परिणमन करता है, तब तक वह नहीं है। (पृ. २५)
बन्ध का कारण है। (पृ. ७६) ९. प्रवचनभक्ति का अर्थ क्या होता है? शास्त्र १७. यदि तुम निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति करना की भक्ति के लिए यह होना अनिवार्य है। आज शास्त्र | चाहते हो, तो व्यवहाररत्नत्रय पहले चाहिए। उसके बिना के आदि में और अन्त में भी मंगलाचरण में प्रायः करके | आत्मा की ही बात की जाती है। यह कुन्दकुन्द परम्परा १८. वीतराग सम्यग्दर्शन की भूमिका सप्तम से विपरीत है। आत्मा की बात बाद में की जाती है, | गुणस्थान अप्रमत्त गुणस्थान से होती है। (पृ. ८३)
रमात्मा की बात करो, जो चल रहे हैं, मार्ग जिन्होंने | १९. पंचमहाव्रत की भूमिका शुद्धात्मानुभूति के लिए प्रशस्त किया है, उनकी बात आप नहीं करते हैं, यह | अनिवार्य है। (पृ. ९१) एक प्रकार से कृतघ्नता है। (पृ. ४५)
२०. (श्रुत को) हम स्वयं समझें, अध्ययन करें, १०. चार घातिया कर्मों में कोई भी प्रशस्त प्रकृति | फिर दूसरों के सामने समर्पण करें। श्रुत का समर्पण नहीं है। प्रशस्त प्रकृति यदि होगी तो वह घातिया नहीं | अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। (पृ. ९८)। होगी। (पृ. ४८)
जिस किसी के लिए श्रुताराधना नहीं करानी चाहिए, उसकी ११. पाप का संवर किये बिना पुण्य का संवर | पात्रता का भी अवश्य ध्यान रखें। (पृ. ९९) होता नहीं। यह कर्मसिद्धान्त है। यदि यह बात प्रवचन २१. सूत्र अथवा मंत्र की आराधना करते समय में नहीं लायी जाती है, तो वक्ता प्रवचन का अधिकारी | असंख्यात-गुणी कर्म की निर्जरा होती है, यह कुन्दकुन्द नहीं। (पृ. ४९)
| देव ने भी स्वीकार किया है। (पृ. १०६) १२. 'प्रशस्त राग छोड़ना चाहिए' यह बिल्कुल | २२. सप्तम गुणस्थान से पूर्व ही क्षायिक सम्यग्दर्शन विपरीत अध्यात्म का प्रवचन है। आगमसम्मत नहीं है। | प्राप्त होता है, इसके लिए निर्विकल्पसमाधि की राग प्रशस्त हुआ क्यों? वह केवल वीतरागता को ही | आवश्यकता नहीं है, यह स्पष्ट फलितार्थ आगम से चाहता है, इसलिए उसको प्रशस्त कहा है। ऐसा राग | निकलता है। (पृ. ११३) हमारे लिए अभिशाप नहीं हो सकता है। किन्तु वह ऐसा २३. आपको ऐसी कमर कसनी है कि पुण्य का राग है जिसके द्वारा पुण्य का बंध होता है, मोक्षमार्ग | बन्ध हो, तो हमें कोई एतराज नहीं, क्योंकि हमारे लिए में वह अभिशाप है ही नहीं। पुण्य का बंध मोक्षमार्ग | वह अहितकारी है ही नहीं। पुण्य का अनुभाग जितना में बाधक नहीं। (पृ. ४९) सम्यग्दृष्टि ही इस प्रकार | बढ़ेगा उतनी ही हमारी पाप की निर्जरा हो रही है। (पृ. का राग कर सकता है, मिथ्यादृष्टि नहीं। (पृ. ५३) | ११५)
१३. मुझे कोई ऐसा सम्यग्दृष्टि बताओ, जो पुण्य | २४. अद्भुत शक्तियों से सम्पन्न हमारी आत्मा का संवर करता हो? मुझे बताओ और 'अपने घर से' | है, लेकिन उसको भूल करके विषयों में अज्ञानी और मत बताओ, आगम से बताना चाहिए। पुण्य का बंध | अविवेकी व्यक्ति ही रह सकता है। (पृ. १२९) सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में और बाद में भी अभिशाप नहीं । २५. जिसका कोई क्षय नहीं, नाश नहीं, घटन
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नहीं, बढ़न नहीं, उसका नाम अक्षर हुआ। इतना ही | रहें और इससे काम लेते रहें।" (पृ. १२२)। क्योंकि आत्मतत्त्व का सार है। (पृ. १३०)
जानना और सीखना ही पर्याप्त नहीं है, सीखे हुए पर श्रोताओं से अपेक्षा
अमल करना भी जरूरी है। गम्भीर तत्त्वचर्चा का रसास्वादन कर 'अहो भाव' "यह हमें भी अच्छा लग रहा है कि इतने सारे में तल्लीन बने विद्वान् श्रोताओं से आचार्यश्री ने यह संकल्प | के सारे विद्वान् सुन रहे हैं। हमारी दुकान की भी तो लेने का आग्रह किया कि “जहाँ कहीं पर भी जाऊँगा जुगाड़ होती है। ये लोग एक साथ जहाँ कहीं भी इसको वहाँ पर, जैसे में निर्धान्त हो गया हूँ, उसी प्रकार दूसरे | सुनायेंगे और घर में जाकर चिन्तन करेंगे, तो उस स्वाध्याय को भ्रम से दूर कराऊँगा।" (पृ. १३६)
का हमें भी कुछ तो फल मिलेगा।" (पृ. ११५)
| अन्त में, सभी श्रुतज्ञ आचार्यों का स्मरण करते रखोगे, उतना ही वह कम कीमतवाला होगा और ज्ञान | हुए पूज्य आचार्यश्री ने यह कहते हुए अपना वक्तव्य को जितना फैलाओगे, उसका मूल्य उत्तरोत्तर बढ़ता चला | समाप्त किया- 'जितना आप देओगे, जितना मनन करोगे जाएगा। इसी प्रकार दस बीस व्यक्ति मिलकर फैलाना | उतना कम है। मनन करते चले जायें और जीवन को प्रारम्भ कर दो, तो विस्तृत बड़ा रूप हो जाएगा। भारत | सार्थक बनायें।' भी छोटा पड़ सकता है, ऐसा मान कर चलता हूँ।"| पूज्य आचार्यश्री स्वयं भी आज निर्बाध रूप से (पृ. १३६-१३७)
'अतिदुर्लभ यथार्थ ज्ञान' का अनवरत, सतत समर्पण, "ऐसा आप भीतर संकल्प ले लें कि हमें यदि | वितरण कर रहे हैं। सम्यग्ज्ञान मिला है, तो मैं दूसरे को भी सम्यग्ज्ञान दिलाने | हम परम पूज्य आचार्यश्री के चरण कमलों में में अपना योगदान करूँ। बड़ों के माध्यम से यदि हमें | सविनय सश्रद्ध अपनी प्रणति निवेदन करते हैं और भावना नेत्रज्योति मिली है, तो दूसरों को भी हम ज्योति का | भाते हैं कि आप इसी तरह दीर्घकाल तक जिनवाणी दान करें। हमें जिनवाणी यही सिखाती है।" (प. १३६)
संयम की प्रेरणा देते हुए आचार्यश्री बोले- "तीन दिनों में जो आप लोगों ने सुना है उसका असर मैं
समीक्षक तब मानूँगा, जब आप इस (शरीर) को मात्र भाड़ा देते ।
मूलचन्द लुहाड़िया एवं चेतनप्रकाश पाटनी
डॉ० उदयचन्द्र जैन श्रुत पुरस्कार से सम्मानित डॉ० उदयचन्द्र जैन, उदयपुर, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष, सह-आचार्य, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय को परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज श्रुत पुरस्कार २००९ आचार्य श्री १०८ पुष्पदंतसागर एवं परम पूज्य गणाचार्य श्री १०८ विरागसागर जी महाराज ससंघ के सान्निध्य में प्रदान किया गया। यह सम्मान प्राकृत का गौरव बढ़ानेवाला है, जो डॉ० जैन द्वारा प्राकृत में लिखित विराग-सेतु भाग एक महाकाव्य पर श्री शान्ति फाउण्डेशन, अहमदाबाद, गुजरात की समिति द्वारा प्रदान किया गया।
इस महाकाव्य में विराग से वीतरागभाव की प्रस्तुति है। जो पच्चीस सर्ग में है। इसमें १०५० पद्य हैं। लगभग सौ तरह के छंद हैं। काव्य में सरसता है, भावाभिव्यक्ति एवं सुललित कला के दर्शन हैं। मूलतः यह पर्यावरण को समर्पित काव्य है, जिसमें कवि ने विन्ध्यश्री और वनश्री नायिकाओं के आधार पर वनसंपदा के संरक्षण के भाव दिए हैं। विराग नायक अध्यात्म पर स्थित है, जो अपनी गतिशीलता से पर्यावरण संरक्षण, जीव, संरक्षण, प्राणी संरक्षण, जल संरक्षण आदि को दर्शाता है। मानवीय मूल्यों के सम्पूर्ण जीवन का रहस्य भी इसमें समाहित है।
कवि की सुन्दर कल्पना में भाव गाम्भीर्य है, शब्द सौष्ठव एवं अलंकरण पूर्ण सरस अभिव्यंजना भी है जो २१ वीं शताब्दी के लिए एक नया संदेश देता है कि काव्य किसी भी भाषा में हो, यदि वह युक्ति, सूक्ति और वाग्वैभव से पूर्ण हो तो श्रोता, पाठक एवं काव्य मनीषियों के लिए आनंद उत्पन्न करेगा ही। यदि उसमें भी किसी संत का विरागदर्शन, वीतरागमार्ग के दर्शन करानेवाला होगा तो निश्चित ही विरागभाव उत्पन्न होगा। प्राकृत की प्रबन्ध विद्या में यह अलंकृत शैली और वसंत तिलका छंद की बहुलतावाला काव्य पुरा शौरसेनी प्राकृत के मंगल गीत गाता है और सृजन के लिए सम्यग्पथ भी दर्शाता है।
डॉ० माया जैन, पिऊँ कुंज, अरविन्द नगर, उदयपुर 30 जुलाई 2009 जिनभाषित -
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कुंभोज शिविर से सद्धर्म-प्रभावना
गत वर्षों की भाँति इस वर्ष भी श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कुंभोज बाहुबलि में वृहत् स्तर पर, श्री सम्यग्दर्शन संस्कार शिविर आयोजित हुआ। पहले दिनांक २० मई, - २००९ से २९ मई २००९ तक महिलाओं का शिविर था, तथा बाद में दिनांक ३१ मई २००९ से ९ जून, २००९ तक पुरुषों का शिविर आयोजित था। महिला शिविरार्थियों की संख्या लगभग २८०० रही, जिसने एक कीर्तिमान स्थापित किया। महिलाओं में लौकिक शिक्षा प्राप्त युवतियों की संख्या अधिक रही इतनी बड़ी संख्या में आए शिविरार्थियों की भोजन आदि की प्रशसंनीय व्यवस्था के लिए शिविर प्रबंधकगण वस्तुतः धन्यवाद के पात्र हैं। पुरुष शिविरार्थियों की संख्या शिक्षण संस्थाएँ चालू हो जाने के कारण कम रही, किंतु फिर भी संख्या १५०० के लगभग पहुँच गई। शिविर में प्रातःकाल ५.०० बजे से रात्रि १०.०० बजे अल्पाहार के बाद ८.३० से १० बजे तक पू० मुनिराज की सामूहिक कक्षा के बाद १०.०० बजे से १२.०० बजे तक विभिन्न कक्षाओं में विभिन्न मुनिराज एवं विद्वान द्वारा विभिन्न ग्रंथों
,
शिक्षण होता था। मुख्यतः बालबोध, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, तत्त्वार्थ सूत्र, आलाप पद्धति आदि का शिक्षण होता । मध्याह के भोजन के बाद पुनः २.०० बजे से ३.३० बजे तक विभिन्न कक्षाओं में शिक्षण दिया जाता था। ३.३० बजे से ५.०० तक पू. मुनिराज द्वारा छहदाण का सामूहिक शिक्षण होता था । ५ बजे से ७ बजे तक भोजनावकाश रहता था । पुनः ७ बजे से रात्रि १० बजे तक आरती, भजन, शंका समाधान एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। प्रातः से रात्रि तक इस प्रकार की गहन व्यस्तता में शिविरार्थी ऐसा अनुभव करते थे, मानों वे किसी विशिष्ट शिक्षण लोक में रह रहे हैं।
सामूहिक शिक्षण एवं कुछ कक्षा का शिक्षण भी पू. वीतरागी मुनिराजों के द्वारा प्राप्त कर शिविरार्थी अपने को पुण्यशाली अनुभव कर रहे थे। कक्षाओं का शेष शिक्षण प्रख्यात विद्वान् पं० रतन लाल जी बैनाड़ा के नेतृत्व में सांगानेर श्रमण संस्कृति संस्थान के योग्य विद्वानों एवं अन्य
विद्वानों द्वारा प्रदान किया गया था। सभी शिविरार्थियों का उपयोग शिक्षण प्राप्त करने एवं स्वयं के अध्ययन चिंतन में केन्द्रीभूत होकर इस प्रकार तल्लीन रहता था कि मौसम की ग्रीष्मता एवं व्यवस्था संबंधी असुविधाओं की ओर जाता ही नहीं था। शिविर में अर्जित ज्ञान के बल से शिविरार्थियों की श्रद्धा और आचरण में गुणात्मक परिवर्तन दिखाई दे रहा था। जैनधर्म के उदात्त वैज्ञानिक सिद्धांतों के अध्ययन से सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति उनके हृदयों में, जो श्रद्धा जाग्रत हुई उसका उनके साथ हुए वार्तालाप से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
शिविरार्थियों की एवं कक्षाओं की सारी व्यवस्थाएँ ० तात्याभैया के नेतत्व में ब्रह्मचारी भाईयों का दल अत्यंत सेवाभाव से इतने सुंदर एवं व्यवस्थित ढंग से करते थे कि कभी किसी को किसी प्रकार की असंतुष्टि नहीं रही।
आचार्य समंतभद्र स्वामी ने प्रभावना का स्वरूप यह बताया है कि अज्ञान अंधकार को दूर कर जिन शासन (जैन तत्त्व ज्ञान) के महत्व को समझाना बताना ही प्रभावना है । ऐसे शिविरों के माध्यम से ही जैनधर्म की सच्ची प्रभावना हो सकती है। आज की यह महती आवश्यकता है कि जैन कहलानेवालों को जैनधर्म के मूल सिद्धांतों का परिचय प्राप्त हो। उनके हृदय उस समीचीन तत्त्व प्ररूपण के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो और वे उस युक्ति युक्त वैज्ञानिक धर्म को जानकर मानकर स्वयं को गौरावन्वित अनुभव करें। हमें विश्वास है कि उक्त शिविर में शिक्षण प्राप्त भाईबहिनों में घनीभूत हुए धार्मिक - संस्कार इस भव में अथवा अगले भव में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में अवश्य निमित्त बनेंगे ।
इस प्रकार जैनशासन की समीचीन प्रभावना के कारण इस शिविर के आयोजकगण अनेक साधुवाद के पात्र हैं। ऐसे धार्मिक शिक्षण शिविर अधिकाधिक संख्या में सभी स्थानों पर आयोजित हो ऐसी अपेक्षा है।
मूलचंद लुहाड़िया
केन्द्रीय राज्यमंत्री श्री प्रदीप जैन को बधाई
केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में प्रदीप जैन आदित्य जो झाँसी से विधायक थे और अल्प समय में ही अपने कार्य, व्यवहार लगन, कर्त्तव्यनिष्ठा के आधार पर सांसद बने और मंत्रिमण्डल में राज्यमंत्री के रूप में स्थान पाया। कांग्रेस के जिला महामंत्री एवं भारत वर्षीयतीर्थ क्षेत्र कमेटी के कार्यकारिणी सदस्य पवन घुवारा ने बधाई दी।
पवन घुवारा जुलाई 2009 जिनभाषित 31
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पं० निर्मल जैन का सम्मान एवं 'शाकाहार । पल्लवित हुये और मुझ अज्ञानी को पण्डित माना जाने साधना' विमोचित
लगा। कार्यक्रम के अध्यक्ष एम० पी० बिरला उद्योग समूह शाकाहार प्रचार-प्रसार हेत समर्पित सतना के | के सी० ई० ओ० तथा बाम्बे हास्पिटल, मुम्बई के ट्रस्टी सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० निर्मल जैन की ७७वीं वर्षगाँठ पर
श्री डी० आर० बंसल ने शाकाहार के महत्त्व पर प्रकाश २५ अप्रैल २००९ को सतना में एक भव्य कार्यक्रम
डालते हुए कहा कि इससे होनेवाले लाभों को देखते में उनका सम्मान किया गया, तथा उनके लेखों के संग्रह
हुए आज अमेरिका, जापान, यूरोप आदि में बड़ी संख्या 'शाकाहार साधना' पुस्तक का विमोचन हुआ। स्वतंत्रता
में लोग शाकाहार अपना रहे हैं। शाकाहारी होने से आदमी संग्राम सेनानी, पूर्व सांसद एवं विश्व अहिंसा संघ के
की सेहत, स्वभाव और विचार अच्छे रहते हैं। सतना अध्यक्ष श्री डालचंद्र जैन कार्यक्रम के मख्य अतिथि थे।
के श्री निर्मल जी विदेशों तक शाकाहार का प्रचार कर श्रीमती रश्मि जैन ने मंगलाचरण किया। शासकीय
| रहे हैं। उनकी यह पुस्तक इस आन्दोलन को और आगे स्नातकोत्तर महाविद्यालय सतना के प्राचार्य तथा सुप्रसिद्ध | बढ़ायगा
| बढ़ायेगी। कार्यक्रम का संचालन श्री सुधीर जैन ने किया साहित्यकार डॉ. सत्येन्द्र शर्मा ने सभी का स्वागत किया।।
तथा आभार प्रदर्शन श्री सतीश जैन ने किया। समारोह दिगम्बर जैन समाज के अध्यक्ष श्री राजेन्द्र जैन ने पं०
के तृतीय चरण में देश के विख्यात गीतकार पद्मभूषण निर्मल जैन के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं समाज सेवा के | गोपालदास नीरज एवं सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ० सरोजकुमार आयामों पर प्रकाश डाला। समग्र जैन समाज की ओर | ने काव्य पाठ किया। से समाज के अध्यक्ष श्री राजेन्द्र जैन, मंत्री श्री रमेश
सुधीर जैन
युनिवर्सल केबिल्स लिमिटेड, जैन तथा कोषाध्यक्ष श्री संदीप जैन ने शाल, माला एवं
सतना, (म.प्र.) श्रीफल से श्री निर्मल जी का सम्मान किया। आपकी
पर्युषण पर्व हेतु आमंत्रण शीघ्र भेजें धर्मपत्नी सरोज जैन का भी सम्मान किया गया। इन्दौर के सुप्रसिद्ध कवि डॉ० सरोजकुमार ने कहा कि श्री निर्मल
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, जैन नसियाँ जी के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित शाकाहार संबंधी
रोड, वीरोदय नगर, सांगानेर, जयपुर से श्रमण संस्कृति लेखों का संकलन 'शाकाहार साधना' पुस्तक में किया
के पोषक, कुशल वक्ता, आर्षमार्गीय विद्वान् विगत बारह
वर्षों से जैनधर्म की प्रभावना करने के लिए देश-विदेश गया है जो अपने आप में अनूठा है। जैनदर्शन के प्रख्यात
के विभिन्न स्थानों में आमंत्रण पर जाते हैं। इस वर्ष विद्वान् एवं अग्रज श्री नीरज जैन ने इस अवसर पर कहा कि मुनष्य बने रहने की कोशिश करते रहोगे, तो
यह पर्व दिनांक २४.०८.२००९ से ३.०९.२००९ तक भगवान् बनोगे, नर से नारायण बनोगे। यही छोटे भैया
समस्त जैन धर्मानुयायी बन्धुओं द्वारा हर्षोल्लासपूर्वक ने अपने जीवन में किया और उनका कद आज मुझसे
मनाया जायेगा। ऊँचा हो गया है।
इस अवसर पर विधि-विधान एवं प्रवचनार्थ विद्वान् कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि सुप्रसिद्ध समाज
आमंत्रण हेतु अपना आमंत्रण पत्र यथाशीघ्र संस्थान कार्यालय सेवी श्रीयुत् श्रीकृष्ण माहेश्वरी ने अपने उद्बोधन में
में अवश्य प्रेषित करें, जिससे समय रहते समुचित व्यवस्था कहा कि इस जीवन के कर्म अगले जन्म में काम आते
की जा सके। हैं। श्री निर्मल जी ने शाकाहार आन्दोलन की, जो अलख
सम्पर्क सूत्र जगाई है, वह आज पूरे देश में फैल रही है।
पं० पुलक गोयल, व्याख्याता पं० निर्मल जैन ने अपने उद्बोधन में कहा कि
श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, यह मेरा नहीं वरन् शाकाहार साधना का सम्मान है।
जैन नसियाँ रोड, वीरोदय नगर,
सांगानेर, जयपुर (राज.) पूज्य श्री गणेश प्रसाद जी, वर्णी तथा आर्यिका विशुद्धमती
फोन : ०१४१-३२४१२२२, २७३०५५२ माताजी से जो धार्मिक संस्कार मुझे मिले थे, वे पूज्य
मो० ०९४१४८७००९९, ०९३१४५९१३९७ मुनिराजों के आशीर्वाद एवं विद्वानों के मार्गदर्शन से
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சி
100
मुनि श्री योगसागर जी की कविताएँ
भो चेतन मदन का सदन
है वदन
नित्य करता
वंदन अभिनंदन
आलिंगन
चंदन सा
संवेदन तू मानता
पर जहाँ निशदिन
कर्मों का मर्दन और
गठबंधन
और अंत में
होता
रुदन और आक्रंदन ।
२
जिस हँसी के साथ खुशी है बन्ध लस्सी की अनुभूति होती है पर जहाँ हँसी के साथ खुशी नहीं वहाँ हँसी नहीं हँसिया है।
३
दिल है जिसका साफ वहाँ झलकता है इंसाफ जहाँ पर कपट की लपट से संतप्त है जिसका दिल वहाँ वो उगलता है दिन-रात अभिशाप ।
-
हे प्रभु पारसनाथ
आया हूँ आपके पास
यह दीन आत्मा दुखित स्वयं से
कह रहा
में कौन हूँ?
४
हुआ चमत्कार
गगन में गूँज उठा तू कोन है ?
यूँ ध्वनि ध्वनित हुआ
क्षण में विलीन हुआ
पर
इस पतित आत्मा के
दिल में
प्रस्तुति प्रो० रतनचन्द्र जैन
भेदज्ञान की
बिजली कौंध गई ज्ञात हुआ इसे मुझमें ऋजुता का अभाव है।
क
क
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________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ NAAMAN माटी अपने को पूरा गला कर माटी भगवान् बन गयी दुनिया उसके चरणों में झुक गयी बनाने-वाले-की आँख अभी भी खोजती है कि उसमें कहाँ क्या कमी रह गयी। अतृप्त कामनाओं-का-कलश ऊपर से सोने-सा दमकता है सुराख उसमें कहीं नीचे पैंदी में होता है कोई इसे कितना भी भरे वह सदा अतृप्त रहता है। कल वह रोज की तरह आज भी अपने कमरे का द्वार खोलेगा सीढ़ियाँ चढ़ेगा थका-हारा वह बेचारा कल के इंतजार में आज फिर सोयेगा कल कोई और द्वार खोलेगा। घर यहाँ आदमी पहले अपने मन का एक घर बनाता है जो बनते वक्त बहुत बड़ा पर रहते-रहते बहुत छोटा लगने लगता है फिर मजबूरन उसे एक घर और बनाना पड़ता है आदमी वही रहता है बदल जाता है। SON 'पगडंडी सूरज तक' से साभार स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन।