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को टाल सकता है।
बृहद्र्व्यसंग्रह की टीका में ब्रह्मदेवसूरि लिखते हैं कि राम और लक्ष्मण को मारने के लिए रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की थी। इसी प्रकार कौरवों ने पाण्डवों का नाश करने के लिए कात्यायनी विद्या साधी थी और कंस ने कृष्ण के विनाश हेतु बहुत सी विद्याओं को प्रसन्न किया था, किन्तु वे राम, लक्ष्मण, पाण्डवों तथा कृष्ण का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकीं। इसके विपरीत राम आदि ने किसी भी मिथ्यादेवता को प्रसन्न नहीं किया, फिर भी निर्मल सम्यक्त्व के द्वारा उपार्जित पूर्वपुण्य के प्रभाव से सब विघ्न टल गये- 'तैस्तु यद्यपि मिथ्यादेवता नानुकूलितास्तथापि निर्मलसम्यक्त्वोपार्जितेन पूर्वकृतपुण्येन सर्वं निर्विघ्नं जातमिति।' (बृ.द्र.सं./ टीका/गा.४१ / पृ.१५०)।
कार्तिकेयानुप्रेक्षाकार ने कहा है कि उत्तम धर्म के प्रभाव से अग्नि शीतल हो जाती है, भुजंग (कालसर्प) रत्नों की माला बन जाता है और देवता दास हो जाते हैं। तीक्ष्ण तलवार हार बन जाती है, दुर्जेय शत्रु सुखद सज्जन बन जाते हैं, हालाहल (कालकूटविष) अमृत में परिवार्तित हो जाता है और बड़ी-बड़ी आपदाएँ सम्पदा का रूप धारण कर लेती हैं
अग्गी वि य होदि हिमं होदि भुजंगो वि उत्तमं रयणं। जीवस्स सुधम्मादो देवा वि य किंकरा होंति॥ ४३२॥ तिक्खं खग्गं माला दुज्जयरिउणो सुहंकरा सुयणा।
हालाहलं पि अमियं महवया संपया होदि॥ ४३३॥ इस कथन ने तो टोना-टोटकाप्रधान एवं व्यन्तरादि-आराधनामयी कालसर्पयोगनिवारणपूजा तथा कालसर्पयोगनिवारण मंत्र-तन्त्र-यन्त्र के प्रयोग की उपयोगिता पर पानी फेर दिया है, सर्वथा निष्फल घोषित कर दिया है और एकमात्र जिनभक्त्यादि उत्तम धर्म द्वारा अर्जित पुण्य के उदय को समस्त अनिष्ट योगों का अचूक निवारक बतलाया है। अत: विधानाचार्यों को इन जिनवचनों में आस्था धारण करते हुए अज्ञानी श्रावकों को कालसर्पादिअनिष्टयोगों का भय दिखाकर उपर्युक्त प्रकार की पूजा एवं मन्त्र-तन्त्र-यन्त्रादि-प्रयोग के मिथ्यात्व में नहीं फँसाना चाहिए। इसके विपरीत जिनभक्त्यादिरूप उत्तमधर्म के आचरण की शिक्षा देनी चाहिए। सैकडों अनिष्टयोगनिवारणपजाओं के उदभव की आशंका
एकमात्र जिनभक्त्यादिरूप उत्तमधर्म के द्वारा अर्जित पुण्यकर्म के उदय से सभी प्रकार के अनिष्ट योगों का निवारण हो जाता है, किन्तु साहित्यविक्रयजन्य आय एवं दक्षिणालाभ के प्रलोभन से कालसर्पयोग-निवारणपूजा का प्रचलन ऐसी असंख्य पूजाओं की रचनाप्रवृत्ति को जन्म देगा, इसकी बहुत अधिक संभावना है। अब कालविच्छूयोग, कालश्वानयोग, कालशृगालयोग, कालछिपकलीयोग, कालसिंहयोग, कालगजयोग, काल अश्वयोग, कालवृषभयोग, कालगेंडायोग, कालशूकरयोग, कालबाइकयोग, कालट्रेनयोग, कालबसयोग, कालविमानयोग, कालनदीयोग, कालसमुद्रयोग, कालबम-विस्फोटयोग, काल-आतंकीयोग, कालगैस-सिलेण्डर-विस्फोटयोग इत्यादि असंख्य अनिष्ट योगों के निवारणार्थ असंख्य पूजाओं की रचना से विधानाचार्यगण हिचकिचायेंगे नहीं और अज्ञानी गृहस्थों को भट्टारकों के समान अनुष्ठानों के जटिल मायाजाल में फँसाकर धनार्जन के बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य को अंजाम देंगे।
जिनशासन-भक्तों को जिनशासन को शुद्ध बनाये रखने के लिए उक्त प्रवृत्ति को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है। जैनगृहस्थों को अनिष्ट योगों के निवारणार्थ मिथ्यादृष्टियों की शरण में जाने से रोकने के नाम पर जिनशासन में ही जब-जब मिथ्यात्व का प्रवेश कराया गया है, तब-तब वह उसका स्थायी अंग बन कर रह गया है, आगे चलकर जिनशासन से उसका निष्कासन कोई नहीं कर पाया, समाज ही विभाजित हो गया। अतः अब आगे ऐसा न हो, इसके लिए जिनशासन के भक्तों को अत्यधिक सावधान रहने की आवश्यकता
है।
रतनचन्द्र जैन
जुलाई 2009 जिनभाषित 7