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________________ संयोजन करने का पुरुषार्थ चल रहा है। लेकिन सही। क्या है और अध्यात्मपद्धति क्या है, इसका ज्ञान किया दिशा में पुरुषार्थ नहीं हो रहा है। एक व्यक्ति ने कहा- | जाना चाहिए। हम आगम के आधार से कह रहे हैं, महाराज! सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के काल में निर्विकल्प | अपनी ओर से कुछ भी नहीं कह रहे हैं। दशा होती है, वहाँ पर निर्विकल्प दशा तो बताई नहीं, जो केवलज्ञान का कारण है ऐसे शुद्धोपयोग की वहाँ पर तो साकार उपयोग बताया है। साकार उपयोग बात कही जा रही है। अब वह शुद्धोपयोग केवली के के साथ सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। जितने भी सिद्धान्त | लगाना है। क्योंकि शुभोपयोग और अशुभोपयोग समान ग्रन्थ हैं, उनमें यही उल्लेख है, किन्तु निर्विकल्पता होती हैं, कह दिया होगा किसी ने। किसने कहा यह नहीं है, तो निराकार दर्शनोपयोग भी उसमें आ सकता है। बतायेंगे, लेकिन चर्चा अवश्य करेंगे। दोनों समान हैं, यदि साकार उपयोग-ज्ञानोपयोग का काल समाप्त हो गया, | आगम में ऐसा कहीं नहीं कहा। आगम प्रणाली में तो तो निर्विकल्प रूप जो दर्शनोपयोग है, उसके निष्ठापन | अशुभ, शुभ और शुद्धोपयोग की बात ही नहीं कही की स्थिति आ सकती है। इतना मात्र उल्लेख किया | गई। दो भाव हैं शुभभाव और अशुभभाव। तीसरा भाव है। ऐसा नहीं कि मिथ्यादष्टि बना बैठा रहे और निर्विकल्प हो तो हमें बताओ, वह सिद्ध अवस्था में है। शुभभाव दशा आ जाये। सम्यग्दर्शन साकार उपयोग के साथ ही | के द्वारा निर्जरा होती है, यह बात भी वहाँ कहीं गई होगा, यह आगम का उल्लेख है। चाहे षट्खण्डागम देख | है। लेकिन यह बात अध्यात्मप्रेमियों को अच्छी नहीं लगेगी। लो, चाहे धवला, जयधवला या कषयपाहुड देख लो, | इसलिए वे विशेषार्थ लिख करके उसकी भी लीपापोती सब में एक ही नियम है। साकार उपयोग के ही साथ | कर देते हैं। वे कहते हैं 'शुभ भाव से निर्जरा मानना होगा। संज्ञी, साकार उपयोग, यदि मनुष्य गति में है, ही आगमविरुद्ध है', यह कहाँ से आगमविरुद्ध हो गया। तो शुभ लेश्या भी होना आवश्यक है। इसका तो स्थान-स्थान पर आगम में उल्लेख मिलता व्यवहारसम्यग्दृष्टि के शुद्धोपयोग होने का कथन | कभी किसी ने नहीं किया है। शुद्धोपयोग तो आज भी "सुभसुद्धभावेण विणा ण तक्खयं (कम्मक्खयं) प्राप्त हो सकता है। तीन के साथ होगा तो रत्नत्रय पहले | अणुपपत्तिदो" ये वचन जयधवला (प्रथम पुस्तक) में भेदवाला होगा, फिर बाद में अभेद रत्नत्रय होगा।| वीरसेन महाराज जी कह रहे हैं। यह एक गाथा की सम्यग्दर्शन पहले सराग या व्यवहार सम्यग्दर्शन होगा।| व्याख्या है। इसलिए क्या अध्यात्म है और क्या आगम महाराज! व्यवहार सम्यग्दर्शन तो मिथ्यादृष्टि के पास भी है, इनका तुलनात्मक अध्ययन करो। नयज्ञान के साथ होता है, ऐसा कहते हैं लोग। अब यह ध्यान रखिये। शब्दज्ञान भी करो, शब्द ज्ञान से शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, सात प्रकृतियों का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम होने | आगमार्थ और भावार्थ ये पाँच अर्थ हैं। शब्द का अर्थ, के उपरांत जो सम्यग्दर्शन है उसकी चर्चा कर रहे हैं। व्याकरण का ज्ञान होना चाहिए। भाषा का मर्म यदि समझ मिथ्यादृष्टि अवस्था में भी ग्यारह अंग और दसवें | में नहीं आता तो प्रवचन करने का आपको अधिकार पूर्व तक का पाठी हो सकता है। लेकिन वह मिथ्यादृष्टि | नहीं है। कुछ-का-कुछ अर्थ निकाल दें। अर्थ निकालते रहता है। ये सब कुछ ऐसी बातें हैं, जो सर्वाङ्गीण स्वाध्याय | समय पसीना आ जायेगा। फिर भी आचार्य कहते हैं। न करने के परिणाम हैं। यद्यपि आगम में यह भरा हुआ "गुरूपदेसादो" गुरु का उपदेश है। व्याकरणाचार्य बन है। एक बात और कहना चाहता हूँ कि सम्यग्दर्शन का | यूँ निकाल दो, ऐसा विषय तो षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में छहों द्रव्यों का | नहीं चलेगा। नहीं तो महाराज, मनोरंजन के रूप में ऐसे बना सकते हैं। लेकिन चारित्र को उन्होंने 'अप्पविसयी' ही कह देते थे। उसके द्वारा किसी को बोध हो जाये। कहा है। क्योंकि वह आत्मा को लेकर चलता है। | 'द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः' द्रव्य का आश्रय ले ले और यह बहुत अच्छी बात कही जा रही है। हम अपनी | उनके पास गुण नहीं भी हों, तो भी उनको गुणी मान तरफ से नहीं कह रहे हैं। कई लोगों की धारणा हो | कर उनका स्वागत होने लगेगा। सकती है कि महाराज जी यों ही कहते होंगे। यों ही । हाँ, धनी व्यक्ति हैं, तो स्वागत हो जायेगा। अब युक्ति नहीं होती, ध्यान रखना। युक्ति के लिए भी बहुत | किसी भी जैनेतर के सामने यह सूत्र रखा जाये, तो वह परिश्रम करना पड़ता है, तब युक्ति फिट हो पाती है। यही अर्थ निकालेगा "सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति" इसलिए हम बार-बार कहना चाहते हैं कि आगमपद्धति । बस, इसी का ही रूप है। 'द्रव्याश्रयाः निर्गुणाः गुणाः' 10 जुलाई 2009 जिनभाषित
SR No.524341
Book TitleJinabhashita 2009 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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