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________________ ऐसा अर्थ निकाल सकते हैं । अब बोलो, शब्द का अर्थ | अन्यथा कल्याण होनेवाला नहीं है । क्या निकालना है? इसके उपरांत नयार्थ- नय क्या होते हैं? अरे, निश्चयनय निश्चयनय क्या है? सब गड़बड है । कहा तो यही है । हाँ, कहा तो यही है । इतना आसान नहीं है कि कोई निकाल दे नयार्थ। इसलिए बहुत गंभीरता के साथ सोचिये, बिल्कुल विपरीत अर्थ निकलते चले जा रहे हैं, जिनसे कभी सामञ्जस्य बन ही नहीं सकता । यह स्वाध्याय के माध्यम से ही बन सकता है लेकिन इस रहस्य को जब तक नहीं समझा जायेगा, तब तक सब अन्धकारमय ही समझना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको निश्चय सम्यग्दृष्टि मान रहा है, इसलिए वे सब शुद्धोपयोग की ही श्रेणी में हो गये। आगमपद्धति में उपशमसम्यग्दर्शन, क्षायिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ये तीन निर्धारित किये गये हैं । यहाँ पर निश्चय सम्यग्दर्शन का काल अन्तर्मुहूर्त और कर्मसिद्धान्त आदिक में उसकी सागरोपम तक की आयु होती है, यह भी निर्धारित है। वहाँ पर वीतरागसम्यग्दर्शन का उदाहरण देने में अकलंकदेव ने क्षायिक सम्यग्दर्शन को वीतराग सम्यग्दर्शन कहा, लेकिन विवक्षा अलग है। वहाँ पर शुद्धोपयोग की विवक्षा में बात नहीं कहीं गई है, ध्यान रखना। वहाँ पर अनन्तानुबंधी कषाय एवं दर्शन मोहनीय के क्षय से अब कभी मिथ्यात्व की उत्पत्ति नहीं होगी, यह विवक्षा है । इसके उपरांत भी आप मानोगे तो क्षायिक सम्यग्दर्शन नरकों में भी घटित होता है। वहाँ पर उसकी उम्र सागरोपम तक होती है। यहाँ पर निश्चयसम्यग्दर्शन अन्तर्मुहूर्त की उम्रवाला ही होगा। आगम में तो यहाँ तक कहा है कि 'भरतादीनां यत्सम्यग्दर्शनं तत्तु वस्तुतो व्यवहारसम्यग्दर्शनं, यत्तु व्यवहारसम्यग्दर्शनं तत्तु वस्तुतः सरागसम्यग्दर्शनमेव' यह पंक्ति अध्यात्म ग्रन्थों की टीका में आती है। बना करके नहीं बोल रहा हूँ, ज्यों-की-त्यों बोल रहा हूँ। तो वहाँ पर भरतादि का नाम लिखा और स्पष्टतः क्षायिक सम्यग्दर्शन को सराग सम्यग्दर्शन बताया क्योंकि 'सरागदशायां वर्तते इति सराग- सम्यग्दर्शन' 'निर्विकल्पसमाधौ स्थित्वा यदा वर्तते तदा निश्चयसम्यग्दर्शनं भवति' जिस समय निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर रत्नत्रय में स्थित होते हैं, तब निश्चयसम्यग्दर्शन होता है। वह केवलज्ञान के लिए कारण है। इस प्रकार उन्होंने कथन किया है। इस प्रकार आगम को खोल कर देखेंगे नहीं, और धुआँधार प्रवचन करेंगे, तो उससे किसी का कल्याण होनेवाला नहीं है। आगमकथित पद्धति से चलोगे तो कल्याण होगा, । आगम की विधि से ही कल्याण होगा। सराग दशा के साथ है इसलिए सरागसम्यग्दर्शन है। जहाँ पर राग का अभाव हो जाता है, इसलिए वहाँ उसको वीतराग सम्यग्दर्शन कहते हैं । इसलिए जयसेन महाराज जी ने एक स्थान पर खोल दिया कि अबुद्धिपूर्वक और बुद्धिपूर्वक की अपेक्षा से क्या-क्या बनता है । इतना विश्लेषण किया है। यह कथन तो बहुत चिन्तनीय है। इस प्रकार से कोई पढ़ायेगा भी नहीं और किसी को पढ़ना भी नहीं, ऐसी स्थिति में कोई भी समझ नहीं पायेगा । जो व्यक्ति, मान लो, समझाने की दृष्टि से कहता है, तो उसके लिए बुद्धि कहीं मिलनेवाली नहीं है। क्योंकि यह तो 'कुन्दकुन्द भारती' में मिलेगी। लेकिन यह आधार देना चाहते हैं। निश्चय सम्यग्दर्शन कहो, अभेद रत्नत्रय कहो, उपेक्षा संयम कहो, ये सारे के सारे एकार्थवाची हैं। भैया ! उनके यहाँ ऐसा कहा गया हो, लेकिन आगम इस प्रकार नहीं कहता है वे आपको रेफरेन्स दे देंगे कि आगम में ऐसा नहीं लिखा है। हिन्दी से लिख करके दे रहे हैं । आगम की पंक्ति बताने को कहोगे, तो नहीं बता पायेंगे, वह हम बता देंगे। पंक्ति बताने के उपरांत भी ऊपर पंक्ति पढ़ो और नीचे लीपापोती कर लो, तो नहीं चलेगा। मैं तो एक-एक शब्द का अर्थ चाहूँगा। चोटी के विद्वानों को लेकर के आयें। आज तो सब कटी चोटीवाले हैं। हम तो व्याकरण से चलेंगे। शब्दनय इसी का नाम है । ऊपर कुछ लिखा है, नीचे कुछ अनुवाद किया जा रहा है, तो हम कैसे स्वीकार करेंगे। आज भी ऐसा हो रहा है। ध्यान रखना, कुन्दकुन्द की बात कहेंगे, लेकिन, कुन्दकुन्द की बात व्याख्या में नहीं आयेगी । कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रन्थों का उद्धरण तो दिया जायेगा । गाथा तो पढ़ी जायेगी, लेकिन हिन्दी किसने की है? इसका कोई पता नहीं चलेगा। वे अंडर-लाइन करके बता देंगे, यह महत्त्वपूर्ण है । हमारे लिए यह महत्त्वपूर्ण नहीं है, कुन्दकुन्द देव क्या कह रहे हैं यह महत्त्वपूर्ण है । ऐसी स्थिति है । इसलिए इतनी जल्दी सम्यग्दर्शन होनेवाला नहीं है। बन्धुओ ! ध्यान रखो नहीं होनेवाला है, ऐसा नहीं है। सप्तम पृथ्वी का नारकी भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है। यहाँ के बारे में हम नहीं कह सकते । यहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अलग हैं। यहाँ की बुद्धि काल, भी अलग है। श्रुताराधना (२००७) से साभार जुलाई 2009 जिनभाषित 11
SR No.524341
Book TitleJinabhashita 2009 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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