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________________ वीतराग सम्यग्ज्ञान आदि का वर्णन वहाँ पर मिलेगा, उससे । संयम, सराग सम्यग्दर्शन, भेद रत्नत्रय, व्यवहार मोक्षमार्ग पहले वीतरागता नहीं आती। किन्तु सम्यग्दर्शन क्रियात्मक | ये सब भी एकार्थवाची हैं। ये आगम की व रहेगा? उपशम, क्षय, क्षयोपशम के रूप में रहेगा। उपयोग | जाते हैं। व्यवहार सम्यग्दर्शन को तो मिथ्यादर्शन के बराबर का कथन षट्खण्डागम आदि ग्रन्थों में आप नहीं देख | समझा जा रहा है, बिल्कुल ठीक है। अध्यात्म ग्रन्थ पढ़ोगे, पाओगे। कहीं टीका ग्रन्थों में आया हो, अलग बात है। तो यही पल्ले में आयेगा। अब उसमें एडजस्टमेण्ट सम्यग्दर्शन के विषय की भरमार मिलेगी, लेकिन यह | (समन्वय) करना चाहो तो तीन काल में नहीं कर सकोगे। नहीं मिलेगा। अब इसकी भूमिका कैसे बना दी जाय? जयसेन आगमपद्धति से सम्यग्ज्ञान का वर्णन देखते हैं। स्वामी ने इसका बहुत अच्छा उत्तर दिया। निश्चय सम्यग्दर्शन के न होने में कारण मिथ्यादर्शन का उदय | सम्यग्दर्शन के साथ 'पानकवत् नियमो वर्तते' इसे रहता है। जिसके कारण हम छह द्रव्यों के समीचीन | पानकवत् कहा है। पानक का अर्थ क्या है? पानक का स्वरूप पर विश्वास नहीं कर पाते। अब थोड़ी सी हम | अर्थ है पीने की ठंडाई, या पेय पदार्थ जिसको पिया अध्यात्मप्रणाली को देखते हैं, जहाँ पर छह द्रव्यों की | जा सके। पेय कहते ही आप लोगों की दृष्टि तीन की बात नहीं कही जा रही है। किन्तु निश्चय सम्यग्दर्शन | ओर चली जाती है- मीठा, जल, बादाम आदि। पानक का वर्णन प्रारंभ हो जायेगा। यह व्यवहारसम्यग्दर्शन | कहते ही इन तीनों की समष्टि का बोध हो जाता है सरागसम्यग्दर्शन आगम में कहा है और अध्यात्म में | पचासों स्थानों पर आप पढ़ेंगे, निश्चय सम्यग्दर्शन कहते निश्चयसम्यग्दर्शन कहा है। देखो, निश्चयसम्यग्दर्शन का | ही वहाँ पर वीतरागचारित्र आ जाता है। 'तत्र निश्चयविषय शुद्धात्मतत्त्व है। आत्मतत्त्व की बात नहीं करेंगे | सम्यग्दर्शनं वीतरागसम्यग्दर्शनेन आगच्छति,"अविनाभावः' वे, शुद्धात्मतत्त्व की करेंगे, जीवतत्त्व की बात नहीं करेंगे| वीतराग चारित्र के साथ अविनाभाव व्याप्ति को धारण वे, शुद्ध जीव द्रव्य की बात करेंगे। शुद्ध पदार्थ की करनेवाले उस निश्चय सम्यदर्शन की बात कर रहे हैं। बात करेंगे। केवलज्ञान की भी बात नहीं करेंगे। जो अभी | वह अकेला ही पर्याप्त है। लेकिन एक होता नहीं। क्योंकि हमने कहा कि क्षायिक भाववाले को भी यदि निश्चय | वह पानक वाला पेय है। ये तीनों आयेंगे, लेकिन तीनों सम्यग्दर्शन प्राप्त करना है, तो क्षायिक सम्यक्त्व के | एक कोने में, मीठा एक कोने में, पानी एक कोने में आलम्बन से भी निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होगा। और एक कोने में मेवा रख दो, पानक बन जायेगा, आज कई लोग इस भ्रम में हैं। हमें बार-बार विचार | ऐसा नहीं। उसको अच्छे ढंग से बाँट करके, सम्मिश्रण आता है। देखो, इतना पुरुषार्थ किया जा रहा है, लेकिन | करके, उल्टा-पुलटा करके, फिर बाद में दिया जाता वह पुरुषार्थ फेल है। फेल है ऐसा कहने से उनको है। एक-एक बूंद में उसका शोध घुला हुआ रहता है। दुःख भी हो सकता है। ऐसा नहीं ऊपर-ऊपर रह गया या नीचे-नीचे रह गया। चूँकि आपने ऐसा विषय रखा है, इसलिए मैं कह | ऐसा नहीं होता। इसका नाम पानक है। जिस समय रहा हूँ। अब हम यह बताना चाहते हैं कि निश्चय | राप्यग्दर्शन होता है, वहाँ पर निश्चय सम्यग्ज्ञान आ जाता सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया जाता है, ध्यान किया जाता | है और निश्चय चारित्र भी आ जाता है। इसलिए उन है, उसके द्वारा निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है। तीनों को एक शब्द के द्वारा कह देते हैं, तीनों का नाम अध्यात्म में निश्चय सम्यग्दर्शन की उम्र अन्तर्मुहूर्त ही | लेने की कोई आवश्यकता नहीं, पानकवत् कह दिया। बताई गयी है। यह भी पकड़िये आप, काल नहीं पकड़िये, | अब वहाँ निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो रही है। इसमें उसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। चाहे क्षायिक सम्यग्दृष्टि कोई बाधा नहीं। जिसको इसकी प्राप्ति नहीं होती, उसको भी क्यों न हो। निश्चय सम्यग्दर्शन अन्तर्मुहूर्त तक ही | अज्ञानी कहा। अज्ञानी सो मिथ्यादृष्टि। मिथ्यादृष्टि सो टिकेगा। या तो वह केवलज्ञानी हो जायेगा, या नीचे आ बहिरात्मा। ऐसे व्यवहार सम्यग्दृष्टि को अध्यात्मग्रन्थों में जायेगा। बहिरात्मा कह दिया। लेकिन यह निर्विकल्प समाधि का निश्चय सम्यग्दर्शन शुद्धोपयोग के साथ होता है। काल निश्चय चारित्र का काल है। निर्विकल्प समाधि निश्चय सम्यग्दर्शन, शुद्धोपयोग, वीतराग सम्यग्दर्शन, अभेद | कहाँ पर होती है? समाधि तो कहीं पर भी हो जाती रत्नत्रय, निश्चय मोक्षमार्ग और उपेक्षा संयम, ये सब | है, किन्तु यह निर्विकल्प समाधि नहीं है, यह बताया एकार्थवाची हैं। व्यवहार सम्यग्दर्शन, शुभोपयोग, अपहृत | गया है। कहाँ कहाँ से ढूँढ़ करके समष्टि करने का, जुलाई 2009 जिनभाषित ,
SR No.524341
Book TitleJinabhashita 2009 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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