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अर्थ- रात्रि में भोजन करते समय अगर मक्षिका खाने में आ जाय, तो वमन होती है, केश खाने में आ जाय तो स्वर-भंग, जुँवा खाने में आ जाय, तो जलोदर और छिपकली खाने में आ जाय, तो कोढ़ उत्पन्न होता है। इसके अलावा सूर्यास्त के पहिले किया हुआ भोजन जठराग्नि की ज्वाला पर चढ़ जाता है- पच जाता है इसलिए निद्रा पर उसका असर नहीं होता है। मगर इससे विपरीत करने से रात को खाकर थोड़ी ही देर में सो जाने से चलना फिरना नहीं होता अतः पेट में तत्काल का भरा हुआ अन्न कई बार गम्भीर रोग उत्पन्न कर देता है। डाक्टरी नियम है कि भोजन करने के बाद थोड़ा-थोड़ा जल पीना चाहिए, यह नियम रात्रि में भोजन करने से नहीं पाला जा सकता है क्योंकि इसके लिए अवकाश ही नहीं मिलता है। इसका परिणाम अजीर्ण होता है। हर एक जानता है कि अजीर्ण सब रोगों का घर होता है। 'अजीर्ण प्रसवा रोगाः ' इस प्रकार हिंसा की बात को छोड़कर आरोग्य का विचार करने पर भी सिद्ध होता है कि रात्रि में भोजन करना अनुचित है। इस तरह क्या धर्मशास्त्र और क्या आरोग्य शास्त्र तरह से रात्रिभोजन करना अत्यन्त बुरा है । यही कारण है, जो इसका जगह-जगह निषेध जैनधर्म शास्त्रों में किया गया है, जिनका कुछ दिग्दर्शन ऊपर कराया गया है। अब हिंदू ग्रन्थों के भी कुछ उद्धरण रात्रिभोजन के निषेध में नीचे लिखकर लेख समाप्त किया जाता है क्योंकि लेख कुछ अधिक बढ़ गया है। अस्तंगते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते । अन्नं मांससमं प्रोक्तं मार्कंडेयमहषिणा । मार्कंडेयपुराण अर्थ- सूर्य के अस्त होने के पीछे जल रुधिर के समान और अन्न मांस के समान कहा है यह वचन मार्कडेय ऋषिका है।
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महाभारत में कहा है कि
मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कंदभक्षणम् । ये कुर्वन्ति वृथा तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः ॥ १ ॥ चत्वारिनरकद्वारं प्रथमं रात्रि भोजनम् । परस्त्रीगमनं चैव संधानानंतकायकम् ॥ २॥ ये रात्रौ सर्वदाहारं वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते ॥ ३ ॥ नोदकमपि पातव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिर । तपस्विनां विशेषण गृहिणां ज्ञानसंपदाम् ॥ ४ ॥ 16 जुलाई 2009 जिनभाषित
अर्थ- चार कार्य नरक के द्वार रूप हैं। प्रथम रात्रि में भोजन करना दूसरा परस्त्री गमन, तीसरा संधाना (अचार) खाना और चौथा अनन्तकाय कन्द मूल का भक्षण करना ॥ २ ॥ जो बुद्धिवान एक महीने तक निरन्तर रात्रि भोजन का त्याग करते हैं, उनको एक पक्ष के उपसास का फल होता है ॥ ३ ॥ इसलिए हे युधिष्ठिर ! ज्ञानी गृहस्थ को और विशेषकर तपस्वी को रात्रि में पानी भी नहीं पीना चाहिए ॥ ४ ॥ जो पुरुष मद्य पीते हैं, मांस खाते हैं, रात्रि में भोजन करते हैं और कन्दमूल खाते हैं, उनकी तीर्थयात्रा, जप, तप सब वृथा है ॥ १ ॥ और भी कहा है किदिवसस्याष्टमे भागे मंदीभूते दिवाकरे । एतन्नक्तं विजानीयान्न नक्तं निशिभोजनम् ॥ मुहूर्तोनं दिनं नक्तं प्रवदंति मनीषिणः । नक्षत्रदर्शनान्नक्तं नाहं मन्ये गणाधिप ॥ भावार्थ- दिन के आठवें भाग को, जब कि दिवाकर मन्द हो जाता है ( रात होने के दो घड़ी पहले के समय को) 'नक्त' कहते हैं। नक्त व्रत का अर्थ रात्रि भोजन नहीं है । हे गणाधिप ! बुद्धिमान लोग उस समय को 'नक्त' बताते हैं, जिस समय एक मुहूर्त (दो घड़ी) दिन अवशेष रह जाता है। मैं नक्षत्र दर्शन के समय को 'नक्त' नहीं मानता हूँ। और भी कहा है किअंभोदपटलच्छन्ने नाश्रन्ति अस्तंगते तु भुँजाना अहो भानोः सुसेवकाः ॥ मृते स्वजनमात्रेऽपि सूतकं जायते किल । अस्तंगते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ॥ अर्थ- यह कैसा आश्चर्य है कि सूर्य भक्त, जब सूर्य मेघों से ढक जाता है, तब तो वे भोजन का त्याग कर देते हैं । परन्तु वही सूर्य जब अस्त दशा को प्राप्त होता है, तब वे भोजन करते हैं। स्वजन मात्र के मर जाने पर भी जब लोग सूतक पालते हैं, यानी उस दशा में अनाहारी रहते हैं, तब दिवानाथ सूर्य के अस्त होने के बाद तो भोजन किया ही कैसे जा सकता है? तथा कहा है कि
रविमण्डले ।
नैवाहुति र्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं वा विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ॥ अर्थ- आहुति, स्नान, श्राद्ध, देवपूजन, दान और खास करके भोजन रात्रि में नहीं करना चाहिए । कूर्मपुराण में भी लिखा है कि