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जिज्ञासा-समाधान
पं० रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- पं० मनीष जैन 'भगवाँ'
। सुख का कुछ आभास होता है, जिसप्रकार कि द्ध, जिज्ञासा- किस गुणस्थान में कितना सुख होता | घी, शक्कर आदि खानेवालों को पीछे से उसकी डकार है और क्यों? कृपया बताएँ।
द्वारा मधुर रस का आभास मिलता है। उसी प्रकार इनके समाधान- आपकी जिज्ञासा का उत्तर हरिवंशपुराण सुख का आभास जानना चाहिए । ९३।। के तृतीय सर्ग, श्लोक नं० ८६ से ९४ तक बहुत अच्छी | ९. तद्नन्तर जो स्वप्न के राज्य के समान बुद्धि तरह दिया हुआ है, जो इसप्रकार है
को भ्रष्ट करनेवाले सप्तप्रकृतिक मोह से अत्यंत मूढ़ १. चौदहों गुणस्थानों में से सबसे अधिक सुख | हो रहा है, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव को सुख कहाँ प्राप्त तो क्षायिक लब्धियों को प्राप्त करनेवाले सयोगकेवली हो सकता है? और अयोगकेवली को होता है। इनका सुख अन्तरहित जिज्ञासा- क्या मुनिराज या आर्यिका गृहस्थ के होता है, तथा इन्द्रियसंबंधी विषयों से उत्पन्न नहीं होता। घरों में ठहर सकते है?
२. उनके बाद उपशमश्रेणी अथवा क्षपक श्रेणी समाधान- उपर्युक्त जिज्ञासा के संदर्भ में श्री चढ़नेवाले, आठवें गुणस्थान को आदि लेकर १२वें गुणस्थान | मूलाचार में इसप्रकार कहा हैतक के मुनिराजों के कषायों के उपशम अथवा क्षय तेरिक्खिय माणुस्सिय सविगारियदेवि गेहि संसत्ते। से उत्पन्न होने वाला परम सुख होता है।। ८७॥
वज्जेंति अप्पभत्ता णिलए सयणासणट्ठाणे॥३५७॥ ३. तदनन्तर उनसे कम निद्रा, पाँच इंद्रियाँ, चार गाथार्थ- अप्रमादी मुनि सोने, बैठने और ठहरने कषाय, चार विकथा और एक स्नेह इन पन्द्रह प्रमादों | में तिर्यचिनी, मनुष्य-स्त्री, विकार सहित देवियों और से रहित अप्रमत संयत जीवों के प्रशमरसरूप सुख होता | गृहस्थों से सहित मकानों को छोड़ देते हैं। है।। ८८॥
श्रमणाचार के उत्कृष्ट ग्रन्थ मूलाचार की उपर्युक्त ४. उनके बाद हिंसा, झूठ चोरी कुशील और परिग्रह | | गाथा के अनुसार, मुनिराज या आर्यिकाएँ उन मकानों इन पाँच पापों से विरक्त प्रमतसंयत जीवों के (छठे | | में नहीं ठहरते हैं, जो गृहस्थों से सहित होते हैं। क्योंकि गुणस्थान वर्ती मुनिराजों के) शांतिरूप सख होता है। ऐसी बसतिकाओं में रहने से निर्बाध ब्रह्मचर्य का पालन ८९॥
स्वाध्याय तथा ध्यान की सिद्धि तथा राग-द्वेष रूप परिणामों ५. तदनन्तर हिंसा आदि पाँच पापों से यथाशक्ति | से बचना संभव नहीं हो पाता। एकदेशनिवृत्त होनेवाले संयतासंयत जीवों के महातृष्णा | वर्तमान में बहुत से साधु एवं आर्यिकाएँ उपर्युक्त पर विजय प्राप्त होने के कारण सुख होता है॥९०॥ नियमों का उल्लंघन करते हुए देखे जा रहे है। वे सुविधा
६. उनके बाद अविरतसम्यग्दृष्टि जीव, यद्यपि भोगी होने के कारण श्रावकों के बैडरूप आदि में हिंसादि पापों से एक देश भी विरत नहीं हैं, तथापि | एयरकंडीशनर आदि लगे होने से, ठहरना पसंद करते तत्त्वश्रद्धान से उत्पन्न सुख का उपभोग करते ही हैं ॥९१॥ | हैं। कुछ वर्ष पूर्व आगरा में कर्नाटक प्रान्त की एक
७. उनके पश्चात् परस्पर विरुद्ध, सम्यक्त्व और | आर्यिका आई थीं। उनको ठहरने के लिए मंदि मिथ्यात्व रूप परिणामों को धारण करनेवाले सम्यमिथ्यादृष्टि | निकट में बने हुए संत निवास को दिखाया गया, जो जीवों के अन्तःकरण सुख और दुख दोनों से मिश्रित | | उन्होंने देखते ही इनकार कर दिया। वे आर्यिका मंदिर रहते हैं॥९२॥
के पड़ोस में गईं और एक गृहस्थ के ए.सी. लगे हुए ८. सम्यग्दर्शन को उगलनेवाले सासादन सम्यग्दृष्टि बैडरूप में, उनको बाहर हटाकर, रात्रि में ठहरीं। इसप्रकार जीवों का अन्तरभाव उसप्रकार का होता है, जिसप्रकार | ठहरना आगमसम्मत नहीं कहा जा सकता। मुनि या का दूध और घी से मिश्रित शक्कर खाकर उसकी डकार | आर्यिका को तो सूने घर, पहाड़ी की गुफा, वृक्ष का लेनेवालों का होता है। अर्थात् सम्यक्त्व के छूट जाने | मूल, आने-जाने वालों के लिए बनाया गया घर या से सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों को सुख तो नहीं होता, किन्तु | धर्मशाला, शिक्षाघर आदि एकान्त स्थानों में ही ठहरना
24 जुलाई 2009 जिनभाषित