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________________ नहीं, बढ़न नहीं, उसका नाम अक्षर हुआ। इतना ही | रहें और इससे काम लेते रहें।" (पृ. १२२)। क्योंकि आत्मतत्त्व का सार है। (पृ. १३०) जानना और सीखना ही पर्याप्त नहीं है, सीखे हुए पर श्रोताओं से अपेक्षा अमल करना भी जरूरी है। गम्भीर तत्त्वचर्चा का रसास्वादन कर 'अहो भाव' "यह हमें भी अच्छा लग रहा है कि इतने सारे में तल्लीन बने विद्वान् श्रोताओं से आचार्यश्री ने यह संकल्प | के सारे विद्वान् सुन रहे हैं। हमारी दुकान की भी तो लेने का आग्रह किया कि “जहाँ कहीं पर भी जाऊँगा जुगाड़ होती है। ये लोग एक साथ जहाँ कहीं भी इसको वहाँ पर, जैसे में निर्धान्त हो गया हूँ, उसी प्रकार दूसरे | सुनायेंगे और घर में जाकर चिन्तन करेंगे, तो उस स्वाध्याय को भ्रम से दूर कराऊँगा।" (पृ. १३६) का हमें भी कुछ तो फल मिलेगा।" (पृ. ११५) | अन्त में, सभी श्रुतज्ञ आचार्यों का स्मरण करते रखोगे, उतना ही वह कम कीमतवाला होगा और ज्ञान | हुए पूज्य आचार्यश्री ने यह कहते हुए अपना वक्तव्य को जितना फैलाओगे, उसका मूल्य उत्तरोत्तर बढ़ता चला | समाप्त किया- 'जितना आप देओगे, जितना मनन करोगे जाएगा। इसी प्रकार दस बीस व्यक्ति मिलकर फैलाना | उतना कम है। मनन करते चले जायें और जीवन को प्रारम्भ कर दो, तो विस्तृत बड़ा रूप हो जाएगा। भारत | सार्थक बनायें।' भी छोटा पड़ सकता है, ऐसा मान कर चलता हूँ।"| पूज्य आचार्यश्री स्वयं भी आज निर्बाध रूप से (पृ. १३६-१३७) 'अतिदुर्लभ यथार्थ ज्ञान' का अनवरत, सतत समर्पण, "ऐसा आप भीतर संकल्प ले लें कि हमें यदि | वितरण कर रहे हैं। सम्यग्ज्ञान मिला है, तो मैं दूसरे को भी सम्यग्ज्ञान दिलाने | हम परम पूज्य आचार्यश्री के चरण कमलों में में अपना योगदान करूँ। बड़ों के माध्यम से यदि हमें | सविनय सश्रद्ध अपनी प्रणति निवेदन करते हैं और भावना नेत्रज्योति मिली है, तो दूसरों को भी हम ज्योति का | भाते हैं कि आप इसी तरह दीर्घकाल तक जिनवाणी दान करें। हमें जिनवाणी यही सिखाती है।" (प. १३६) संयम की प्रेरणा देते हुए आचार्यश्री बोले- "तीन दिनों में जो आप लोगों ने सुना है उसका असर मैं समीक्षक तब मानूँगा, जब आप इस (शरीर) को मात्र भाड़ा देते । मूलचन्द लुहाड़िया एवं चेतनप्रकाश पाटनी डॉ० उदयचन्द्र जैन श्रुत पुरस्कार से सम्मानित डॉ० उदयचन्द्र जैन, उदयपुर, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष, सह-आचार्य, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय को परम पूज्य आचार्य श्री १०८ विमलसागर जी महाराज श्रुत पुरस्कार २००९ आचार्य श्री १०८ पुष्पदंतसागर एवं परम पूज्य गणाचार्य श्री १०८ विरागसागर जी महाराज ससंघ के सान्निध्य में प्रदान किया गया। यह सम्मान प्राकृत का गौरव बढ़ानेवाला है, जो डॉ० जैन द्वारा प्राकृत में लिखित विराग-सेतु भाग एक महाकाव्य पर श्री शान्ति फाउण्डेशन, अहमदाबाद, गुजरात की समिति द्वारा प्रदान किया गया। इस महाकाव्य में विराग से वीतरागभाव की प्रस्तुति है। जो पच्चीस सर्ग में है। इसमें १०५० पद्य हैं। लगभग सौ तरह के छंद हैं। काव्य में सरसता है, भावाभिव्यक्ति एवं सुललित कला के दर्शन हैं। मूलतः यह पर्यावरण को समर्पित काव्य है, जिसमें कवि ने विन्ध्यश्री और वनश्री नायिकाओं के आधार पर वनसंपदा के संरक्षण के भाव दिए हैं। विराग नायक अध्यात्म पर स्थित है, जो अपनी गतिशीलता से पर्यावरण संरक्षण, जीव, संरक्षण, प्राणी संरक्षण, जल संरक्षण आदि को दर्शाता है। मानवीय मूल्यों के सम्पूर्ण जीवन का रहस्य भी इसमें समाहित है। कवि की सुन्दर कल्पना में भाव गाम्भीर्य है, शब्द सौष्ठव एवं अलंकरण पूर्ण सरस अभिव्यंजना भी है जो २१ वीं शताब्दी के लिए एक नया संदेश देता है कि काव्य किसी भी भाषा में हो, यदि वह युक्ति, सूक्ति और वाग्वैभव से पूर्ण हो तो श्रोता, पाठक एवं काव्य मनीषियों के लिए आनंद उत्पन्न करेगा ही। यदि उसमें भी किसी संत का विरागदर्शन, वीतरागमार्ग के दर्शन करानेवाला होगा तो निश्चित ही विरागभाव उत्पन्न होगा। प्राकृत की प्रबन्ध विद्या में यह अलंकृत शैली और वसंत तिलका छंद की बहुलतावाला काव्य पुरा शौरसेनी प्राकृत के मंगल गीत गाता है और सृजन के लिए सम्यग्पथ भी दर्शाता है। डॉ० माया जैन, पिऊँ कुंज, अरविन्द नगर, उदयपुर 30 जुलाई 2009 जिनभाषित -
SR No.524341
Book TitleJinabhashita 2009 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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