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है कि जो कर्मसापेक्ष नहीं है। अतः पारिणामिकभाव और । है। (पृ. ५६) केवलज्ञान में अन्तर है। (पृ. १५-१६)
१४. कुन्दकुन्दाचार्य के द्वारा 'मार्ग की प्रभावना ६. कर्मनिरपेक्ष और त्रैकालिकता में अन्तर होता | के लिए' जो लिखा गया है, सो प्रशस्तराग की भूमिका है। केवलज्ञान त्रैकालिक नहीं होता है क्योंकि वह पर्याय | में ही लिखा गया है। शुद्धोपयोग की भूमिका में लिखा है। क्षायिक भले ही हो, स्वभावपर्याय भले ही हो, किन्तु ही नहीं जा सकता, क्योंकि शुद्धोपयोग में तो 'लखा' हम उसको त्रैकालिक नहीं कह सकते हैं। (पृ. २०) | | जाता है। (पृ. ५७)
७. अनुभव के लिए कभी दूसरे के आलम्बन १५. “औदयिक भाव के द्वारा ही बन्ध होता है" की आवश्यकता है ही नहीं। (पृ. २२)
यह जो आग्रह है, वह आगम का नहीं है। (पृ. ६५) ८. अखण्ड ज्ञानप्रवाह ही है परम-पारिणामिक- १६. कुन्दकुन्द ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्भाव। ज्ञानस्वभाव अनादि-अनन्त है, केवलज्ञान नहीं। (पृ. | चारित्र को बंध का कारण कहा है। जब तक रत्नत्रय २३) केवलज्ञान क्षायिक भले ही हो, पर वह स्वभाव | जघन्यभाव के साथ परिणमन करता है, तब तक वह नहीं है। (पृ. २५)
बन्ध का कारण है। (पृ. ७६) ९. प्रवचनभक्ति का अर्थ क्या होता है? शास्त्र १७. यदि तुम निश्चय रत्नत्रय की प्राप्ति करना की भक्ति के लिए यह होना अनिवार्य है। आज शास्त्र | चाहते हो, तो व्यवहाररत्नत्रय पहले चाहिए। उसके बिना के आदि में और अन्त में भी मंगलाचरण में प्रायः करके | आत्मा की ही बात की जाती है। यह कुन्दकुन्द परम्परा १८. वीतराग सम्यग्दर्शन की भूमिका सप्तम से विपरीत है। आत्मा की बात बाद में की जाती है, | गुणस्थान अप्रमत्त गुणस्थान से होती है। (पृ. ८३)
रमात्मा की बात करो, जो चल रहे हैं, मार्ग जिन्होंने | १९. पंचमहाव्रत की भूमिका शुद्धात्मानुभूति के लिए प्रशस्त किया है, उनकी बात आप नहीं करते हैं, यह | अनिवार्य है। (पृ. ९१) एक प्रकार से कृतघ्नता है। (पृ. ४५)
२०. (श्रुत को) हम स्वयं समझें, अध्ययन करें, १०. चार घातिया कर्मों में कोई भी प्रशस्त प्रकृति | फिर दूसरों के सामने समर्पण करें। श्रुत का समर्पण नहीं है। प्रशस्त प्रकृति यदि होगी तो वह घातिया नहीं | अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। (पृ. ९८)। होगी। (पृ. ४८)
जिस किसी के लिए श्रुताराधना नहीं करानी चाहिए, उसकी ११. पाप का संवर किये बिना पुण्य का संवर | पात्रता का भी अवश्य ध्यान रखें। (पृ. ९९) होता नहीं। यह कर्मसिद्धान्त है। यदि यह बात प्रवचन २१. सूत्र अथवा मंत्र की आराधना करते समय में नहीं लायी जाती है, तो वक्ता प्रवचन का अधिकारी | असंख्यात-गुणी कर्म की निर्जरा होती है, यह कुन्दकुन्द नहीं। (पृ. ४९)
| देव ने भी स्वीकार किया है। (पृ. १०६) १२. 'प्रशस्त राग छोड़ना चाहिए' यह बिल्कुल | २२. सप्तम गुणस्थान से पूर्व ही क्षायिक सम्यग्दर्शन विपरीत अध्यात्म का प्रवचन है। आगमसम्मत नहीं है। | प्राप्त होता है, इसके लिए निर्विकल्पसमाधि की राग प्रशस्त हुआ क्यों? वह केवल वीतरागता को ही | आवश्यकता नहीं है, यह स्पष्ट फलितार्थ आगम से चाहता है, इसलिए उसको प्रशस्त कहा है। ऐसा राग | निकलता है। (पृ. ११३) हमारे लिए अभिशाप नहीं हो सकता है। किन्तु वह ऐसा २३. आपको ऐसी कमर कसनी है कि पुण्य का राग है जिसके द्वारा पुण्य का बंध होता है, मोक्षमार्ग | बन्ध हो, तो हमें कोई एतराज नहीं, क्योंकि हमारे लिए में वह अभिशाप है ही नहीं। पुण्य का बंध मोक्षमार्ग | वह अहितकारी है ही नहीं। पुण्य का अनुभाग जितना में बाधक नहीं। (पृ. ४९) सम्यग्दृष्टि ही इस प्रकार | बढ़ेगा उतनी ही हमारी पाप की निर्जरा हो रही है। (पृ. का राग कर सकता है, मिथ्यादृष्टि नहीं। (पृ. ५३) | ११५)
१३. मुझे कोई ऐसा सम्यग्दृष्टि बताओ, जो पुण्य | २४. अद्भुत शक्तियों से सम्पन्न हमारी आत्मा का संवर करता हो? मुझे बताओ और 'अपने घर से' | है, लेकिन उसको भूल करके विषयों में अज्ञानी और मत बताओ, आगम से बताना चाहिए। पुण्य का बंध | अविवेकी व्यक्ति ही रह सकता है। (पृ. १२९) सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में और बाद में भी अभिशाप नहीं । २५. जिसका कोई क्षय नहीं, नाश नहीं, घटन
जुलाई 2009 जिनभाषित 29